भूमिका
स्वर्गीय दुर्गा
दत्त पांडेय की कविताओं के इस समग्र संकलन की भूमिका लिखते समय मन-मस्तिष्क द्रवित और विचलित है. विश्वास ही
नहीं होता कि सदा हँसने-हँसाने वाला वह अंतरंग
दोस्त इस तरह रोने के लिए छोड़कर चला गया है. सच, दुर्गा दत्त पांडेय जितने सौम्य
थे उतने ही नटखट भी. दोस्तों के साथ निरापद शैतानियाँ करने में उन्हें मजा आता था.
वे प्यार करने वाले और रिश्तों को निभाना जानने वाले दुनियादार जीव थे. भावनाओं
में बड़े मृदु, लेकिन विचारों में उतने ही दृढ़. समाज की रूढ़ियाँ और राजनीति की
विसंगतियाँ उन्हें बर्दाश्त नहीं थीं. वे जड़ताओं के दुश्मन थे; और गतिशीलता के सच्चे
समर्थक. ज्यादातर लोगों ने उन्हें हँसते-मुस्कुराते खिलखिलाते देखा होगा लेकिन इस सदा
ठहाके लगाते व्यक्ति के भीतर कहीं कोई गहरी ठीस थी, कोई अभाव था, कोई घाव था जिससे
पीठ फेरने के लिए ही शायद ठहाके की तकनीक खोजी
गई थी. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि एक से अधिक अवसरों पर ऐसा हुआ जब एकांत में
मेरे घर पर दुर्गा दत्त पांडेय आपबीती सुनाते समय रो पड़े थे – सिसक, फफक और फूट
फूटकर. लेकिन अपने इस निजी दर्द को उन्होंने कविता का विषय नहीं बनाया बल्कि जगबीती
को, दुनिया के दर्द को, कुछ इस तरह बयान करने का व्रत लिया कि दर्द हास्य में बदल
गया और वेदना व्यंग्य में.
मुझे लगता है कि दुर्गा
दत्त पांडेय ने हास्य-व्यंग्य को जीवन शैली के रूप में विकसित किया था ताकि आत्मगोपन
के साथ साथ जनरंजन और जनमंगल को भी बखूबी साधा जा सके. प्रायः देखा जाता है कि मंचों
पर सफलता प्राप्त करने के लिए बहुत सारे कवियशःप्रार्थी महानुभाव जबरदस्ती चुटकुलों
को कविता बनाने का उद्योग करते रहते हैं. इसके विपरीत सच्चे हास्य-व्यंग्य कवि की
पहचान है कि अपने आसपास चल रहे घटनाचक्र, वार्तालाप, गतिविधि आदि पर उसकी चौकन्नी
नजर रहे और इन्हीं में से वह झट से अपने काव्य के आलंबन और उद्दीपन उठा ले. किसी
हास्य-व्यंग्यकार को जब ऐसी सामग्री मिलती है तो उसकी आँखों में एक खास तरह की चमक
आ जाती है और विसंगति पर हंसाने की तैयारी करते हुए उसके मस्तिष्क में शातिर सोच सक्रिय
हो उठता है. मैंने दुर्गा दत्त पांडेय की आँखों में इसी शातिर सोच की चमक हर बार
देखी है. मेरी मान्यता रही है कि दुर्गा दत्त पांडेय ‘स्वभावतः’ हास्य-व्यंग्यकार
थे और प्रतिक्षण ऐसे लक्ष्यों का पीछा करते रहते थे जिन्हें या तो वाणी से
गुदगुदाया जा सके या शब्दों से गुपचुप पीटा जा सके. उनकी कविता ये दोनों काम बखूबी
करती है. गुदगुदाती भी खूब है और मर्म पर ऐसी चोट भी करती है कि कहते न बने. यही
कारण है कि हम यार लोग उन्हें प्यार से ‘दुष्ट’ कहकर पुकारते थे. 3D अर्थात दुर्गा दत्त दुष्ट!!!
दुर्गा दत्त पांडेय
के पास विषयों की कमी नहीं थी. वे एक जागरूक नागरिक थे और मूलतः एक संवेदनशील
मनुष्य. उनकी संवेदनशीलता और जागरूकता ने उनकी कविता को विषय वैविध्य प्रदान किया;
जीवन के अनुभवों ने गहराई और अनुभूतियों ने मार्मिकता प्रदान की. उनकी कविताओं में
वे सारी परिस्थितियाँ देखी जा सकती हैं जिन्होंने आज के मनुष्य के जीवन को विकृत
बनाकर रख दिया है. दरअसल हास्य-व्यंग्य लिखना इसलिए भी कठिन होता है कि इसकी जड़
में विकृतियाँ और विडंबनाएं रहती हैं लेकिन इस पर फूल और फल मनोरंजन तथा सक्रियता के
खिलाने होते हैं. इस काम में दुर्गा दत्त
पांडेय सिद्धहस्त थे. अपनी कविताओं में वे चाहे किसी भी वैयक्तिक, पारिवारिक,
सामाजिक, प्रशासनिक, राजनैतिक राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय विसंगति, विकृति या
विडम्बना को ग्रहण कर सकते थे और उसके साथ अपनी प्रतिभा से इस तरह का काव्यात्मक
उपचार कर सकते थे कि एक साथ कई कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ श्रोता/ पाठक के मन
मस्तिष्क पर होती रहें. वास्तव में, कवि दुर्गा दत्त पांडेय का मुख्य उद्देश्य
अपने श्रोता/ पाठक को हँसाना भर नहीं है. हँसी तो एक बहाना है जिसके सहारे वे अपने
पाठक/ श्रोता को चारों ओर की वह दुनिया
दिखाना चाहते हैं जिसमें निरंतर अघटनीय घटनाएँ घट रही हैं. उनकी कविताएँ इसके लिए यथार्थ चित्रण, करुणा, त्रास के
संदर्भ और यथास्थान संदेश व उपदेश की तकनीक तो अपनाती ही है, कभी कभी आवेश और
आक्रोश की मुद्रा भी अख्तियार कर लेती है. यह सारा कुछ वह इसलिए करती है कि उसे जनता
को सचेत और जागरूक बनाना है क्योंकि इसी में पृथ्वीग्रह की भलाई है.
कवि दुर्गा दत्त
पांडेय जानते हैं कि आज आदमी का दिमाग विकृत हो गया है, डैंड्रफ उसके बालों में ही
नहीं, शैतान की तरह दिमाग में भी घुस गया है; इसलिए व्यंग्य का रसायन इस्तेमाल करके
उसकी जड़ों तक सफाई करना जरूरी है. यह विकृति इतनी व्यापक है कि जिधर देखिए उधर ही हास्य-व्यंग्य
की सामग्री उपलब्ध मिल जाती है. घर-परिवार में पति-पत्नी के संबंध हों, समाज में लोगों
के आपसी रिश्ते हों, कवियों और अध्यापकों से लेकर अधिकारियों और नेताओं तक की कारगुजारियां
हों, देश और विदेश का कूटनैतिक और व्यापारिक वातावरण हो – सर्वत्र ऐसी गडबडियां
उपस्थित हैं जो किसी भी संवेदनशील नागरिक को विचलित और द्रवित कर सकती हैं. पांडेय
जी पर्यावरण के हरण से लेकर सर्वव्यापी भ्रष्टाचार, जनता के प्रति नेताओं की उपेक्षा,
राष्ट्रीय सुरक्षा की अनदेखी, जन समस्याओं को अनसुनी करने की प्रवृत्ति, सर्वत्र
मूल्यों के क्षरण, स्त्रियों के अपमान और पुरुषों के अभिमान, श्रमजीवियों की दुर्गति,
बच्चों के शोषण, लैंगिक भेदभाव, मानवाधिकारों की हत्या आदि अनेकानेक मुद्दों को कविता
में इस तरह ढालते हैं कि पाठक भीतर ही भीतर तिलमिलाने के बावजूद कभी मुस्कुराने और
कभी अट्टहास करने के लिए विवश हो जाता है. जब वे ‘करुण हास्य’ की सृष्टि करते हैं
तो संवेदनशील पाठक/ श्रोता सिर पीटने और ताली पीटने जैसे दो काम एक साथ करता है.
संप्रेषणीयता की
ऐसी द्वंद्वात्मक सिद्धि शब्दों के साथ खिलवाड में सिद्धहस्त कवि दुर्गा दत्त
पांडेय को कथन की विविध शैलीय युक्तियों का प्रयोग करने से प्राप्त हुई है. इन
युक्तियों में विचित्र सहसंबंधों और सहप्रयोगों का सृजन, बोलचाल की भाषा के बीच
भारी भरकम प्रतीत होने वाले तत्सम शब्दों का सजीव सजाव, समानांतर स्थितियों की एक
जैसी शृंखला का निर्माण, विरोध को प्रकट करने वाले द्वंद्व और तनाव की सृष्टि, मुहावरों
और लोकोक्तियों का सन्निवेश, अधिकतर कविताओं में ‘मैं’ शैली के साथ किस्सागोई अथवा
कथात्मकता का सुंदर निर्वाह, कविता को विस्तार देने के लिए रोचक विवरणों और बिंबों
का सृजन, मारक उत्कर्ष की रचना, मार्मिक प्रसंगों की पहचान, प्रायः अंत में नैतिकता
की ओर संकेत करते हुए विडंबनापूर्ण यथार्थ को बदलने की प्रेरणा देने वाला सांकेतिक
संदेश, सूक्ति गठन, पुराण-इतिहास-राजनीति और फिल्मों के लोकप्रिय संदर्भों का
समावेश, शब्दों के खेल में विचित्र अर्थ की खोज, उचित अवसर देखकर कोंचने वाली भाषा
में धिक्कार, विचित्र उपमाओं का चयन और पैरोडी का प्रयोग शामिल हैं. मानना पड़ेगा
कि भाषा और शिल्प की दृष्टि से दुर्गा दत्त पांडेय एक प्रयोगशील रचनाकार हैं.
उन्होंने जनपद सुख बोध्य, गूढ़पद रहित, सहज भाषा का मुहावरा अपनाया और दक्खिनी
हिंदी पर भी सफलता पूर्वक हाथ आजमाया. हाइकू लिखने में भी वे पूरे उस्ताद थे.
एक और खास बात, जो
मुझे सदा आकर्षित करती रही है, यह है कि दुर्गा दत्त पांडेय ने यद्यपि हास्य-व्यंग्य
के लिए सरलता से उपलब्ध परंपरागत टारगेट के रूप में स्त्री को अपनाया है लेकिन वे निरंतर
स्त्री के प्रति होने वाले अन्याय और अत्याचार से क्षुब्ध दिखाई देते हैं और
स्त्री के प्रति विशेष सम्मान का भाव रखते हैं. सम्मान का भाव उनकी कविताओं में
राष्ट्र की रक्षा करने वाले सैनिकों के प्रति भी बार बार व्यक्त हुआ है.
कवि वस्तुतः स्वप्नद्रष्टा
होता है. वह यथार्थ जगत की बिगड़ी तस्वीर को तो देखता और दिखाता ही है लेकिन कामना सदा
ऐसे एक समानांतर विश्व की करता है जिसमें ये सारी विकृतियाँ, विसंगतियाँ और
विडंबनाएं न हों. दुर्गा दत्त पांडेय भी यही कामना करते हैं कि यह पृथ्वी सब प्रकार
से मंगलमय जीवन से परिपूर्ण हो. अपनी कविता में वे चाहते हैं कि चारों ओर भाईचारा,
सुख समृद्धि, शांति और अहिंसा हो; जात-पांत, मंदिर मस्जिद, कुर्सी के झगड़े, सुनामी
प्रलाप, रेल, विमान एवं बस दुर्घटनाएं समाप्त हों, समाज और देश कल्याण की योजनाएँ
आधी-अधूरी न रहें, बाल मजदूरी, गरीबी और मजबूरी न रहें, दहेज मिट जाए, बहुओं पर
ससुराल में अत्याचार न हो, शिक्षा-दीक्षा का स्थान बुलंद हो, भिक्षा पूरी तरह से
बंद हो, चारा कांड से लेकर तंदूर कांड तक सारे कांडों का कर्मकांड हो जाए और हमारे
प्यारे भारत में पुनः सुंदर सुंदर कांड हो जाएँ! कवि की इन सारी शुभकामनाओं पर तो यही
कहने का मन होता है – एवमस्तु! एवमस्तु!!
इन्हीं शब्दों के
साथ कविवर स्वर्गीय दुर्गा दत्त पांडेय को श्रद्धा-सुमन समर्पित करते हुए मैं उनकी
‘मुस्कान’ को सहेजने के लिए संग्रहकर्ता और प्रकाशक को हार्दिक साधुवाद देता हूँ.
प्रथम नवरात्र/ 25 सितंबर, 2014 -
ऋषभदेव शर्मा
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