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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

तेलुगु कवि के.एस. रमणा के काव्यानुवाद की 'भूमिका'

गहन जीवनानुभवों की कलापूर्ण अभिव्यक्ति में माहिर विलक्षण प्रतिभावान कवि के. एस. रमणा (1956) यद्यपि मध्यायु में ही यह जगत छोड़ गए तथापि तेलुगु जगत को उन्होंने अपनी लेखनी से मेधा का जो प्रसाद दिया है वह उनकी कीर्ति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए पर्याप्त है. वक्तव्य और नारेबाजी से आक्रांत सपाट कविता के युग में सघन बिंबों वाली कविता रचने वाले के. एस. रमणा ‘निशि’ कविता के पुरोधा माने जाते हैं. घोर नैशांधकार से संत्रस्त वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिवेश के त्रास को झेलने, देखने, भोगने वाले आज के मनुष्य की चिंताओं, मनोदशाओं और छटपटाहटों को व्यंजित करने वाली इन कविताओं में विशेष रूप से आकृष्ट करने वाली बात यह है कि कवि अंधकार के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करता तथा प्रकाश की छोटी से छोटी किरण को पूरा सम्मान देता है. इसका रहस्य उसकी अटूट जिजीविषा और अथाह जीवनासक्ति में निहित है. 

इसमें संदेह नहीं कि आज का मनुष्य अपने अंतरंग से लेकर जागतिक जीवन तक सर्वत्र युद्धरत है. ये युद्ध तरह तरह के हैं. बाहर के युद्ध देह के मर्मस्थलों पर वार करते हैं तो भीतर के युद्ध गोपनगुह्य अंतरलोकों को क्षत-विक्षत करते हैं. ऐसे में कवि युद्ध और प्रेम को आमने-सामने रखकर यह सूक्ति गढ़ता है – युद्ध में/ घाव होते हैं/ अनिवार्य है/ प्रेम के समान ही. प्रेम के अनुभवों को सर्वथा नई भंगिमा में व्यंजित करते हुए के.एस. रमणा ‘एक काला प्रेम गीत’ रचते हैं. कवि को एक सपने से प्रेम है, सपने को सच करते आंदोलन से प्रेम है, आंदोलन को जीवन मान चुके ‘तुम’ से प्रेम है, ‘तुम’ के साथ इस राह पर चलना अत्यंत कष्टकर है लेकिन कवि को संतोष है कि यह उसका अपना चयन है - भले ही इसके बदले में कचहरी का कटघरा, जेल की दीवार, लाठियों का चुंबन और संगीन के कटाक्ष मात्र मिलें. संतोष यह है कि - “तुम तो रोबेन द्वीप के बंदी हो/ मैं मैं हूँ न, सहज ही/ मेरे हृदय में उमड़ते प्रेम का बंदी बना.” प्रेम के इस पंथ में जब अकेलेपन से सामना होता है तब इसकी करालता समझ में आती है – “ हाँ ! अकेलापन एक सूली-सा है/ यह बिलकुल सच है/ सूली पर छितरे जीसस के/ खून की कसम खाकर कहता हूँ.” पर प्रेमपथिकों को इसकी परवाह कब रही है? वे तो आग के दरिया में डूबकर जाने के लिए अभिशप्त हैं; और इसी में उनका आनंद निहित है – “अग्निकुंड में चलने का निर्णय/ जब मैंने लिया/ तभी मैंने ताप की चिंता छोड़ दी./ तेरे ओठों की लालिमा का मूल/ मेरे रुधिर का उफान जब बना/ मेरे अस्तित्व का दुःख/ तुझे शहनाई के गीत-सा भासित हुआ.”

मृत्यु और अंधकार ने आज के मनुष्य को सब ओर से अपनी अजगरी गुंजलक में लपेट रखा है - कुछ इस तरह कि लपेट का कसाव दिनानुदिन बढ़ता जाता है. ऐसे में ‘निशि’ कविता में यदि मृत्यु बारंबार आती है तो इसे कवि की आतंकित मनोदशा न मानकर मृत्युबोध का प्रतीक मनाना उचित होगा. थेनेटॉस और पैथॉस की विषम सच्चाइयों का बयान करती कविताओं में मृत्यु के अनेक चित्र हैं – मनुष्य और मुर्दे को कौन अलग करता है/ कपाल मोक्ष के लिए इंतजार करती आँखों में नमी नहीं/ जीवन यात्रा को रोकना/ मृत्यु में जीवन की इच्छा को तलाशना/ अचानक मर जाना/ मरणोपरांत ही बतियाना/ सूली पर चढ़ने के बाद ही जीवन को समझना/ समाधि से ही जागरण के लिए प्रार्थना करना/ मृत व्यक्तियों को भी जीवित रखने के प्रयत्न शुरू करना/ आँखों पर वसंत की चिता सुलगना/ मृत्यु को वश में करना/ पल पल मृत्यु बाधा की प्रतीक्षा में तार का टूटना. लेकिन कवि का यह विश्वास इन सारी मृत्युओं से बड़ा है कि “अस्तित्व सागर के उस ओर है एक आकाश/ काली शीतल रात के जागरण में मुकुलित/ तिनकों के माथे पर/ दमकती पसीने की बूँदें.” यह विश्वास कवि को उस भारतीय चेतना से विरासत में मिला है जो मृत्यु को सत्य मानते हुए भी उसे अंतिम सत्य नहीं मानती. 

जीवन संघर्ष और भीषण अमानुषिक यथार्थ का बोध रमणा की कविताओं को एक झील-सा गहरा ठहराव प्रदान करता है. यह ठहराव रचना-प्रौढ़ि के क्षणों में सूक्तिवत झलकता छलकता है – सौ पुरस्कारों से बढ़कर एक तिरस्कार महान है/ नग्नता से बढ़कर कोई सौंदर्य नहीं/ मरण की पहचान के लिए जीवित होना जरूरी है न !/ किसी भी विश्वास में डूब जाना ही अच्छा है – किनारे पर पड़ी मछली-सा पल-पल तड़पते मरने की अपेक्षा/ युद्ध और युद्ध के बीच का विराम ही शांति है/ अज्ञात एवं आदिम भय के देव चिरंजीव हैं.”

दरअसल के.एस. रमणा बिंबों के कवि हैं. वे प्रत्यक्ष अनुभवों को अप्रस्तुत छवियों के साथ जोड़कर ऐसे शाब्दिक दृश्यबंध रचते हैं कि बोध के विविध धरातल सहज ही अग्रप्रस्तुत हो उठते हैं. शाम होती है तो कवि को लगता है कि सूरज अपनी तलवार तेज कर रहा है और चाँद जख्मों को कुरेदता निकल पड़ा है. इसी प्रकार जब भोर फूटती है तो कवि को लगता है कि सारे पंछी निशांत गायन के लिए पर खोल रहे हैं और निद्रा में मग्न नयन पलकों की अंजुली से प्रकाश का पान कर रहे हैं. कवि का यह लगना उसे औरों से अलग करता है क्योंकि इस लगने में ही सौंदर्यबोध का वह मर्म निहित है जिसे काव्यशास्त्री कभी व्यंजना, कभी ध्वनि तो कभी प्रतीयमानता कहते हैं. कवि की सफलता इसमें है कि उसकी यह प्रतीति सबकी प्रतीति बन जाए. कहना न होगा कि कवि के.एस. रमणा इस दृष्टि से सफल कवि हैं. कुछ और बिंबों का सौंदर्य विधान उल्लेखनीय है – पूरब की दिशा में दीप को देख/ प्रकाश नदी में डुबकी लगाकर/ सारी बातें अपने मौन से मुक्त हुईं *** निश्चल दीप के अतराफ हिलती काली लहरें/ कल की यादें हैं और भविष्य की आशाएँ हैं *** नमी विहीन धारा की छाती पर/ कोलाहल-सा बरसता आदिम भय *** बचपन के कोमल गाल पर नटखट हवा की पुलकावालियाँ. रमणा की काव्यभाषा की यह बिंबात्मकता तब और भी प्रभविष्णु हो उठती है जब वे सृजनात्मक विशेषण-विशेष्य संबंधों की सृष्टि करते हैं. जैसे –विकृत चर्म, कोको बालिका, पेप्सी बाबू, ऊष्मल सूर्योदय, शीतल सूर्यास्त, प्रथम प्राणी, अंतिम सांस, शैशव धूप, चौंकती मछलियों के बच्चे, फिसलते शौक़ीन पत्थर, पसीजते दिल, डरावनी निशानियाँ, घोर निशा, मृदुल गहन मधुरता.

अंततः यह रेखांकित करना आवश्यक है कि जीवनासक्ति और मृत्युबोध के बीच के.एस. रमणा की कविताओं में सपनों के टूटने की आहटें हैं, अपनों के छूटने की पीड़ा है, गिरते मानवीय मूल्यों की चिंता है, अत्याचार के आगे अवश होते जनसामान्य की करुणा है, मानवाधिकारों के प्रति सजग नागरिक चेतना है, सामाजिक न्याय को निरंतर स्थगित करती हुई आर्थिक विषमता से उपजी हताशा है – और इन सबसे ऊपर संवेदना से उपजे जीवन सौंदर्य के प्रति आस्था है : “वेदना और वेदना के बीच का विराम भले ही एक पल का हो/ जीवन सौंदर्य का रहस्य हमारी समझ में आ ही जाता है.”

विषम अनुभवों की जटिल अभिव्यक्ति के कवि के रूप में के.एस. रमणा एक चुनौतीपूर्ण कवि हैं. वे अपने पाठक से विशिष्ट काव्य दीक्षा की अपेक्षा रखते हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि उनकी कविताओं का अनुवाद और भी चुनौतीपूर्ण कार्य है. अनुवादश्री डॉ. एम. रंगैया ने इस चुनौती को स्वीकार किया है और रमणा के काव्य का यह हिंदी अनुवाद कार्य अत्यंत मनोयोगपूर्वक संपन्न किया है. इसमें संदेह नहीं कि उनकी यह अनुवाद साधना पूर्णतः सार्थक और सफल है. आशा ही नहीं बल्कि मुझे पूरा विश्वास है कि हिंदी जगत उनके इस सारस्वत अभियान का स्वागत और सम्मान करेगा. 

शुभकामनाओं सहित 
ऋषभ देव शर्मा 

वसंत पंचमी :  4 फरवरी 2014

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