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सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

तेलंगाना के प्रजाकवि कालोजी की 'मेरी आवाज़' के 'दो शब्द'

दो शब्द


जनकवि कालोजी नारायणराव (1914 - 2002) को उनकी जन्मशताब्दी के अवसर पर इस अनूदित कविता संग्रह ('मेरी आवाज़' - 2014) के माध्यम से अपनी श्रद्धा समर्पित करने का आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी का निर्णय स्तुत्य और श्लाघनीय है. कालोजी का नाम बीसवीं शताब्दी में हुए उन महान भारतीय साहित्यकारों में सम्मिलित है जिन्होंने अपने समय और समाज की नब्ज को पहचाना तथा उसकी चिंता और चेतना को ऐसी ओजपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान की जिसकी गूँज शताब्दियों पार तक काल के कर्ण-कुहरों में ध्वनित-प्रतिध्वनित होती रहेगी. 

यह कविता संग्रह कवि कालोजी की अपनी आवाज का प्रतिनिधि है. कवि की यह आवाज उनके मानस की अंतरंग गहराइयों से फूट पड़ी स्वतःस्फूर्त आवाज है. अन्याय करने को ही अन्याय न मानकर अन्याय सहने, और उससे आगे बढ़कर अन्याय देख कर चुप रह जाने तक को अन्याय की कोटि में रखने वाले कालोजी की संवेदना अत्यंत गहन है, सूक्ष्म है और व्यापक है. उनका हृदय वाल्मीकि-परंपरा की उस करुणा से आप्लावित है जो किसी पर भी किसी भी प्रकार का अन्याय और अत्याचार होते देखकर चीत्कार कर उठती है. ये कविताएँ कवि हृदय के उसी चीत्कार की निष्पत्तियाँ हैं. चीत्कार में तराश नहीं होती, आवेग होता है. इन कविताओं में भी सहज आवेग है – पर एक सधे हुए कवि की तराश भी. कालोजी की यह आवाज एक राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता सेनानी की आवाज है. कालोजी की यह आवाज हर तरह के अन्याय और शोषण के प्रतिकार की लोकतांत्रिक आवाज है. कालोजी की यह आवाज अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने वाली ताकतों के खिलाफ एक जागरूक नागरिक की आवाज है. कालोजी की यह आवाज उपेक्षा के शिकार तेलंगाना की आवाज है. कालोजी की यह आवाज धोखा खाए हुए जनगण की आवाज है. इस आवाज में दर्द है तो गुस्सा भी. खीझ है तो आवेश भी. जिद है तो संघर्ष भी. आकांक्षा है तो विद्रोह भी, चिंता है तो चेतना भी. कहना न होगा कि कवि कालोजी की यह आवाज कवि कालोजी की अपनी आवाज है जिसमें भारत के आम आदमी की तमाम आवाजें शामिल हैं. यह आवाज व्यक्ति की भी आवाज है और समष्टि की भी. इस आवाज में अभिधेयार्थ के साथ इतने संपृक्तार्थ सम्मिलित हैं कि उन्हें अलग अलग वर्गीकृत करके देखना आसान नहीं है. यही कारण है कि कालोजी कभी हमें वेमना और कबीर के समानधर्मा लगते हैं तो कभी जनकवि नागार्जुन और महाश्वेता देवी के. 

बहुमुखी प्रतिभावान कालोजी का अनुभव संसार जितना व्यापक है अध्ययन भी उतना ही विराट है. उनकी कविताओं को पढ़ते समय उनके अनुभव और अध्ययन की यह विशालता पाठक को चमत्कृत करती है. लेकिन वे इसे ऐसी भाषा-शैली में बाँधकर प्रस्तुत करते हैं कि ये रचनाएँ संप्रेषणीयता और साधारणीकरण का जनपदसुखबोध्य उदाहरण बन जाती हैं. इसमें संदेह नहीं कि कालोजी की कविताएँ प्रसंगगर्भी कविताएँ हैं – राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रसंग, रजाकार आंदोलन के प्रसंग, हैदराबाद मुक्ति संग्राम के प्रसंग, देश-विदेश की राजनीति के प्रसंग, कांग्रेस के इतिहास के प्रसंग, आपातकाल के प्रसंग और तेलंगाना आंदोलन के प्रसंग तो है ही, अनेक पौराणिक और सांस्कृतिक प्रसंग भी इनके साथ गुँथे हुए हैं. इन प्रसंगों को सहज-ग्राह्य बनाने के लिए तथा जनता की वेदना और विद्रोह चेतना को अधिक मारक बनाने के लिए बहुभाषाविद कवि ने तद्भव और देशज पदावली को ग्रहण करते हुए अपनी विशिष्ट और निजी काव्यभाषा का निर्माण किया है. उन्होंने तेलंगाना अंचल की, साहित्य की दृष्टि से प्रायः उपेक्षित और तिरस्कृत, आंचलिक तेलुगु को काव्यभाषा का दर्जा दिया – सम्मान दिलाया. स्थानीय मुद्दे और स्थानीय भाषा ही नहीं, स्थानीय संस्कृति भी कालोजी की कविता की प्राणरेखा है. उल्लेखनीय है कि ये ही वे तमाम इलाके हैं जिनमें संचरण करना और जिनका भाषांतरण करना अनुवादकों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है. 

सरलता और सहजता का अनुवाद करना सरल और सहज नहीं होता. कालोजी का अनुवाद करना भी सरल और सहज नहीं है क्योंकि उनकी कविताएँ ऊपर से एकार्थी लगती हैं लेकिन भीतर से वे अनेक अर्थस्तरों वाली हैं. प्रसन्नता का विषय है कि इन कविताओं के सभी हिंदी अनुवादक स्रोत और लक्ष्य भाषाओं के मर्मज्ञ विद्वान ही नहीं, दोनों भाषा-समाजों की भाषिक संस्कृति और सामाजिक संस्कृति के भी मर्म को समझने वाले हैं. उन्होंने अत्यंत सावधानी के साथ स्रोत के संदेश को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप अनूदित पाठ का गठन किया है. 

यहाँ यह कहना आवश्यक है और प्रासंगिक भी, कि आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के वर्तमान निदेशक डॉ. के. दिवाकराचारी जी अपनी नियुक्ति के तुरंत बाद से ही अपने ढंग से हिंदी को बढ़ावा देने में और आंध्र के प्रमुख साहित्यकारों की देन के बारे में सारे देश को जानकारी देने के लिए कृतसंकल्प और कार्यरत हैं. अपने इसी शुभ-संकल्प को साकार करने के लिए उन्होंने ‘तेलंगाना की आत्मा’ कालोजी नारायण राव की “ना गोडवा” की तेलुगु कविताओं को “मेरी आवाज़” के नाम से हिंदी में अनुवाद कराकर इस संग्रह के रूप में प्रकाशित करने का श्लाघनीय कार्य किया है. डॉ. के. दिवाकराचारी जी के इस अथक प्रयास में अकादमी के अनुसंधान अधिकारी डॉ. बी. सत्यनारायण, श्रीमती पी. उज्ज्वला वाणी, अनुवादक श्री एन. अप्पल नायुडु, श्रीमती सीएच. इंद्राणी तथा अन्य कर्मचारी भी अपने-अपने योगदान में संलग्न रहे. ये सभी तथा अनुवादक और पाठ-संपादक गण इस सारस्वत अनुष्ठान की संपन्नता के लिए बधाई के पात्र हैं. 

इसमें संदेह नहीं कि हिंदी के पाठक इस काव्य और इसकी काव्यभाषा को अपने हृदय के निकट पाएँगे. आशा की जानी चाहिए कि हिंदी के माध्यम से यह काव्य और भी अनेक भाषाओं तक पहुँचेगा और कालजयी कवि कालोजी की कीर्ति का दिगंतव्यापी प्रसार करेगा. 

शुभकामनाओं सहित 
- ऋषभदेव शर्मा

9 सितंबर 2013, कालोजी जयंती 

द्रष्टव्य- 
 http://hyderabadse.blogspot.in/2014/01/100-25-2014.html

http://hyderabadse.blogspot.in/2014/01/blog-post_26.html

http://www.youtube.com/watch?v=mzh5MKczRvU

http://saagarika.blogspot.in/2013/09/blog-post_24.html

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