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गुरुवार, 24 जनवरी 2013

तेलंगाना के किसानों की व्यथा की कथाएँ [भूमिका]


भूमिका

पेद्दिन्टि अशोक कुमार 21 वीं शताब्दी के अत्यंत प्रखर और संभावनाशील तेलुगु कहानीकार हैं. उन्हें ज़मीन से जुड़े ऐसे लेखक के रूप में पहचाना जाता है जिसे आंध्रप्रदेश, विशेष रूप से तेलंगाना अंचल की समस्याओं और सरोकारों की गहरी पहचान है. विभिन्न भाषाओं में अनूदित और विविध पुरस्कारों से सम्मानित अशोक कुमार एक उपन्यास और पाँच कहानी संग्रह तेलुगु साहित्य जगत को दे चुके हैं. यहाँ उनके तीन विशिष्ट कहानी संग्रहों से चुनी हुई 11 प्रतिनिधि कहानियों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है. इस प्रतिनिधि कहानी संकलन से हिंदी के पाठक तेलुगु के इस जनपक्षीय कथाकार की संवेदना और रचनाशैली से परिचित हो सकेंगे. 

पेद्दिन्टि अशोक कुमार मूलतः किसान जीवन के रचनाकार हैं. उन्होंने भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण के तेलंगाना के गाँवों पर पड़ रहे दुष्प्रभाव को निकट से देखा-जाना है और विपरीत परिस्थितियों में पड़े हुए किसानों की आत्महत्या के दारुण सत्य को भी अपनी कलम से उकेरा है. आर्थिक विकास का जो मॉडल पिछले दशकों में भारत सरकार ने अपनाया है वह किस प्रकार किसानों और गरीबों की हत्या कर रहा है और किस प्रकार अमेरिका तथा फ्रांस जैसे देशों की दादागिरी झेलने को अभिशप्त आज का भारत नई गुलामी की ओर बढ़ रहा है – इस सबको किसी प्रकार की राजनैतिक नारेबाजी में फँसे बिना आम आदमी की त्रासदी के रूप में बयान करने वाली ये कहानियाँ पेद्दिन्टि अशोक कुमार को हमारे समय का जागरूक पहरुआ साबित करती हैं. 

अशोक की कहानियों का किसान और गरीब आदमी आज भी भोला, सीधा, सच्चा, ईमानदार और धर्मभीरु है. वह न तो बाजार के हथकंडे जानता है न राजनीति की चालें. यही कारण है कि उसे छलना बेहद आसान है और इसीलिए चालाक लोग लगातार उसे लूट रहे हैं, उसका शोषण कर रहे हैं, उसे मरने पर मजबूर कर रहे हैं. लेखक को यह बात बहुत सालती है कि किसानों और खेत मजदूरों के संगठन समाप्त हो गए हैं और विश्व बैंक के हाथों की कठपुतली बने नेता इस विभीषिका से अनजान हैं कि गुलाब के बगीचों से गुजरने के लिए लोगों को मास्क लगाने पड रहे हैं अन्यथा कीटनाशक दवाओं के नाम पर छिड़का जाने वाला ज़हर किसी को भी बेहोश कर सकता है. एडी-चोटी का जोर लगाकर भी कोई भूमंडलीकरण के कारण कुचले जाते हुए किसान मजदूरों को बचा नहीं सकता. बाजार की तमाम उपभोक्तावादी ताकतें राजनीति और प्रशासन के साथ मिलकर मानो देश के साधारण आदमी के खिलाफ गोलबंद हो गई हैं. अशोक कुमार इन ताकतों के आक्रमणों के प्रति सजग हैं लेकिन यह भी जानते हैं कि इनके सामने आम आदमी निरस्त्र और निरीह है क्योंकि क़ानून और मीडिया भी अंततः इन्हीं के हाथ में हैं. लेखक इस बात से बेहद विचलित हैं कि आक्रमण का विरोध करने के एक मात्र बचेखुचे नागरिक अधिकार को भी ध्वस्त कर दिया गया है जो जनतंत्र को विफल और समाप्त करने वाला कृत्य है. 

इसमें संदेह नहीं कि परिस्थितियाँ बेहद बयावह और यथार्थ बेहद अमानुषिक हो चुका है. धन केंद्रीय जीवन मूल्य बन गया है. धोखाधड़ी, चालाकी, मिलावट, भ्रष्टाचार और झूठ मानो जीने की शर्त बन गए हैं. न डॉक्टर विश्वसनीय रह गए हैं न व्यापारी. लगता है कि हर आदमी किसी-न-किसी तरह चोरी में लिप्त है और पुलिस चोरों के साथ है. न्याय खरीदा-बेचा जा रहा है. शहर तो शहर गाँवों तक का पानी और वायुमंडल विषाक्त हो चुका है. धार्मिक कृत्यों के लिए बैल के गोबर को गाय का गोबर कहकर बेचा जा रहा है. किसान की फसल दलाल के पेट में जाती देखकर धरती गुस्से में है. गाँव के गाँव मरघट बनते जा रहे हैं. जनता रूपी बैल मरणासन्न है और गिद्ध महाभोज की तैयारी कर रहे हैं. मनुष्य और मनुष्य के संबंध संदेह की दरार के शिकार होते जा रहे हैं. सरकारी आंकड़ों के खेल के बावजूद बाल मजदूरी एक क्रूर सच्चाई की तरह सामने है तथा साम्प्रदायिकता के नाम पर पाखंडपूर्ण राजनीति देश की सामासिक संस्कृति को निगल रही है. यह सब कुछ अशोक कुमार की कहानियों में इस तरह सजीव पात्रों और घटनाओं के माध्यम से प्रस्तुत हुआ है कि पाठक की चेतना को बार बार तेज झटके लगते हैं. कहानीकार अपने पाठक को इस समस्त समसामयिक अवांछित गतिविधि के प्रति सचेत करने में सफल हैं. लेकिन यह जरूर मनाना होगा कि इन तमाम परिस्थितियों के बीच अशोक कुमार द्वारा रचित साधारण आदमी एक अदम्य निष्ठा से भरा हुआ है. वह तमाम सुविधा भोगी वर्गों की तरह इस उपभोक्तावादी तंत्र के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करता. उसे टूटना और हारना मंजूर है लेकिन अपनी ईमानदारी को छोड़कर खून सने पैसे कमाना गवारा नहीं. यही वह ज्योत्स्ना है जो सारे अँधेरे को चीरकर पाठक तक जिजीविषा के रूप में पहुँचती है और भारत की नींव का निर्माण करने वाले किसान के बुनयादी चरित्र को सामने लाती है.  

तेलुगु की इन समकालीन कहानियों का चयन और अनुवाद वरिष्ठ अनुवादक आर.शांता सुंदरी ने अत्यंत मनोयोगपूर्वक किया है. शांता सुंदरी जी लंबे समय से अनुवाद की साधना से जुड़ी हुई हैं. तेलुगु, हिंदी, अंग्रेज़ी की लगभग 50 से अधिक किताबों का अनुवाद करते करते उन्होंने सिद्धावस्था प्राप्त कर ली है. हिंदी और तेलुगु दोनों भाषाओं के मुहावरे पर उनकी कमाल की पकड़ है. अशोक के पाठ में जो विवरण की बारीकियाँ हैं, काव्यात्मकता है, मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग है, किस्सागोई है, और है परिस्थिति तथा पात्र के अनुरूप भाषा का बदलता स्वरूप; अनुवादक आर. शांता सुंदरी ने उस सबके प्रति न्याय किया है. यही कारण है  कि इस अनूदित पाठ में अद्भुत पठनीयता मिलती है जो पाठक को आरंभ से अंत तक बाँधे रखती है. निस्संदेह इस अनुवाद कार्य द्वारा हिंदी और तेलुगु भाषा समुदायों के बीच का साहित्य सेतु और सुदृढ़ होगा.

लेखक और अनुवादक दोनों को साधुवाद देते हुए मैं यह विश्वास करता हूँ कि हिंदी जगत में इस कृति का व्यापक स्वागत और भरपूर सम्मान होगा. 

शुभकामनाओं सहित 

-ऋषभ देव शर्मा

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गाँव शहर की चालों के सामने हतप्रभ है..