समकालीन हिंदी आलोचना में भारतीयता के प्रतिमान का विकास करने वालों में डॉ. रामविलास शर्मा का नाम सबसे पहले लिया जाना चाहिए. उन्होंने हिंदी जाति की जो व्यापक अवधारणा प्रस्तावित की वह आलोचना की भारतीय दृष्टि का एक प्रस्थान बिंदु मानी जा सकती है. हिंदी अपनी विभिन्न अधीनस्थ बोलियों के रूप में जिस व्यापक जनसमूह की भाषा है उसे उन्होंने हिंदी जाति कहा और हिंदी अस्मिता को भारतीय अस्मिता के एक पहलू के रूप में व्याख्यायित किया. उनकी आलोचना दृष्टि तमाम पश्चिमी चिंतकों और विशेष रूप से मार्क्स की स्थापनाओं से संचालित होने के बावजूद भारतीय वाङ्मय के चिंतन-मनन से उत्पन्न इतिहास बोध द्वारा निर्देशित होती है. 1980 के बाद के अपने लेखन में इसी कारण वे यूरोपियन-अमेरिकन-शिकागो स्कूलों को चुनौती देते दिखाई देते हैं. उन्होंने ‘इतिहास दर्शन’ में भारत में आर्यों के कहीं और से आगमन के सिद्धांत को चुनौती दी और ऋग्वेद के आधार पर तत्कालीन भारत को जन (लघु जाति, नेशनलिटी) सिद्ध किया जिसमें श्रम विभाजन के कारण रक्त संबंध टूट रहे थे और व्यक्तिगत संपत्ति का विकास हो रहा था. ऋग्वेद के कवियों के इतिहास बोध की चर्चा करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं कि ऋग्वेद की रचना से पहले उसके रचनाकारों के पूर्वजों की कई पीढ़ियाँ बीत चुकी हैं तथा जो लोग भारत पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत प्रचारित करते हैं वे इन आर्यों के कई पीढ़ियों तक भारत में बसे रहने की बात नहीं कहते. डॉ. शर्मा ने दिखाया है कि भारतीय आर्यों को जिस हिंदी-ईरानी शाखा से जोड़ा जाता है वह भारत पर ईरान के आक्रमण से बनी है. वे देवकथाओं की व्याख्या करते समय दानवों को भारत के आदिवासी मान लेने की कल्पना का भी खंडन करते हैं और उनकी व्याख्या प्राकृतिक परिघटनाओं के रूप में करने पर जोर देते हैं. हिंदी जाति के इतिहास को अगर पीछे तक ले जाया जाए तो उसे ऋग्वेद में प्राप्त सरस्वती नदी के साथ जोड़ा जा सकता है. डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार “’’वह (सरस्वती) आर्यों के प्रिय नदी है, उसी के किनारे उन्होंने बहुत सा वैदिक काव्य रचा था. वह उनके प्राकृतिक परिवेश का सबसे महत्वपूर्ण अंश है. इसी के तटवर्ती क्षेत्र में आर्य अपने कृषितंत्र का विकास करते हैं, यहीं वे उन पाँच तत्वों की कल्पना करते हैं जिनसे मनुष्य समेत सारा ब्रह्मांड रचा गया. वैदिक आर्यों का प्राकृतिक परिवेश इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह आर्यों को इतिहास के धुँधलके से बाहर निकालकर उन्हें एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित कर देता है. जिस विशाल प्रदेश में अब जातीय भाषा के रूप में हिंदी का व्यवहार होता है, उसी का उत्तर-पश्चिमी भाग वह क्षेत्र है.’’”
डॉ. रामविलास शर्मा जब प्रेमचंद, भारतेंदु, निराला, रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी पर आलोचना ग्रंथ लिखते हैं तो आलोचना की अपनी भारतीय दृष्टि को व्यावहारिक रूप देते हैं. नंदकिशोर नवल ने उनकी पुस्तक ‘प्रेमचंद’ के बारे में सही लिखा है कि “इस पुस्तक में डॉ. शर्मा ने भारतीय समाज की बनावट का परिचय देते हुए यह दिखलाया कि प्रेमचंद ने विभिन्न वर्गों और उनके बीच के संबंधों का किस रूप में चित्रण किया है और उन वर्गों में से कौन सा वर्ग मिट रहा है और कौन सा वर्ग उठ रहा है.” ‘प्रेमचंद और उनका युग’ में भी डॉ. शर्मा ने 20वीं सदी के भारतीय समाज में आ रहे परिवर्तन के संदर्भ में प्रेमचंद के साहित्य की व्याख्या करते हुए दर्शाया कि एक ओर तो भारतीय जनता साम्राज्यवादी सामंती जुए के नीचे कसमसा रही थी तथा दूसरी ओर राष्ट्रीय पराधीनता और घरेलू दासता दोनों से पिसती हुई नारी स्वाधीनता के लिए हाथ फैलाने लगी थी. इसके साथ ही उन्होंने प्रेमचंद द्वारा चित्रित हिंदुस्तान के बदलते हुए किसान के चित्र की भी विवेचना की. दरअसल भारतीय जमीन की समझ के कारण ही यह संभव हुआ कि डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी आलोचना को मध्यवर्ग के जंजाल से मुक्त करके किसान की ओर उन्मुख कर सके. कबीर और तुलसी तक भी उन्हें इसी भारतीय कृषि संस्कृति की उपज प्रतीत होते हैं. भारतेंदु को तो वे आधुनिक युग के गुणसूत्रों में विद्यमान मानते ही हैं. भारतेंदु के ‘अंधेर नगरी’ को उन्होंने जन साहित्य का आदर्श और उस युग के निबंधों को हिंदी की अपनी चीज़ कहा. वे आधुनिक साहित्य को मध्यकाल से काटकर या उसके विरोधी के रूप में नहीं देखते बल्कि यह रेखांकित करते हैं कि भारतेंदु की विचारधारा पर भक्त कवियों की रचनाओं में प्राप्त जनवादी विचारों का गहरा असर था. उन्होंने भारतेंदु के समाज सुधार संबंधी विचारों को भक्त कवियों के साथ जोड़ा. वे मानते हैं कि भारतेंदु की वाणी का मूल स्वर प्रेम है जिसकी दीक्षा उन्हें भक्त कवियों से प्राप्त हुई तथा इस प्रेम के आधार पर उन्होंने जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छुआछूत, सामाजिक विषमता आदि का विरोध करना सीखा. इसी प्रकार वे जब यह कहते हैं कि मनुष्य और उसका दुःख ही निराला को महान कवि बनाता है और कि निराला मानव दुःख के ही नहीं उससे मुक्ति की प्रबल कामना के भी कवि हैं तो वे निराला के भावबोध को उनकी स्वाधीनता की भावना के साथ जोड़कर देख रहे होते हैं. वे बताते हैं कि निराला की विचारधारा का महत्व यह है उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक क्रांति के रूप में देखा, उस क्रांति के प्रत्येक स्तर को तीक्ष्ण विश्लेषक की दृष्टि से देखा और इन स्तरों के परस्पर संबंध को पहचाना. उनकी दृष्टि में निराला का स्वाधीनता प्रेम नेताओं के स्वाधीनता प्रेम से भिन्न था, वे देश के नाम पर देश की जनता को भूलते नहीं – देश को स्वाधीन होना है इसी जनता के सुखी समृद्ध जीवन के लिए. यह देशप्रेम ही गंभीर मानवीय करुणा के रूप में निराला की क्रांतिकारी भावधारा के प्रेरक बनते हैं. यहाँ तक कि निराला की काव्यकला को भी डॉ. रामविलास शर्मा राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन और उस आंदोलन में सुने हुए भाषणों से जोड़कर देखते हैं. प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखना भी डॉ. शर्मा की आलोचना का एक भारतीय सूत्र है. यह भारतीयता का तत्व ही था जिसके कारण छायावाद के पतन और विरोध के वातावरण में भी डॉ. शर्मा उसे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के आगे बढ़े हुए दौर की अभिव्यक्ति कह सके. उन्होंने कहा कि स्वाधीनता आंदोलन संकीर्ण रूढ़ियों को छोड़कर स्वराज की जिस व्यापक कल्पना की ओर बढ़ रहा था उसका विजयघोष सबसे पहले छायावादी कविता में सुन पड़ा. ‘प्रगति और परंपरा’ में उन्होंने यह दर्शाया है कि छायावादी आंदोलन और स्वतंत्रता आंदोलन दोनों ही का आधार आरंभ में मध्यवर्ग तक सीमित होने के कारण संकीर्ण था जिसे आगे चलकर जन-साधारण का व्यापक आधार ग्रहण करना पड़ा – “’’जब तक राष्ट्रीय आंदोलन में जन-साधारण अपने पूर्ण महत्व के साथ प्रतिष्ठित नहीं हुए यानी किसानों और मजदूरों का संघर्ष स्वाधीनता के आंदोलन का अंग नहीं बन गया, तब तक इस आंदोलन की सीमाएँ छायावादी साहित्य में भी प्रतिबिंबित हुईं. असंतोष और विद्रोह के साथ पलायन और रहस्यवादी अस्पष्ट चिंतन की प्रवृत्ति भी जागी. कुछ दिन बाद ज्यों-ज्यों देश का जन आंदोलन समर्थ होता गया, त्यों-त्यों यह बात साफ़ होती गई कि छायावादी साहित्य में या तो रहस्यवादी चिंतन ही रहेगा या जनसाधारण को लेकर उसका विद्रोही पक्ष आगे बढ़ेगा. सन 30 के आंदोलन के बाद छायावादी कवियों में जो एक परिवर्तन दिखाई देता है उसका कारण देश का यह सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन है.”’’ वस्तुतः रामविलास शर्मा प्रगतिशीलता को भारतीय संदर्भ में आत्मसात करके उसे अपनी तरह व्याख्यायित करते हैं. उनकी इस व्याख्या में भारतीय किसान, भारतीय मिट्टी, भारतीय पुराण, भारतीय साहित्य और भारत की साधना पद्धतियों का महत्वपूर्ण स्थान है और इसी में उनकी आलोचना की भारतीयता निहित है. इसी तरह जब वे भारतीय भाषाओं पर विचार करते हैं तो वहाँ भी भारतीय भाषिक दृष्टि और व्याकरण की परंपरा को नहीं छोड़ते.
समकालीन हिंदी आलोचना के एक और शिखर हस्ताक्षर नामवर सिंह भी प्रगतिशील परंपरा से ही संबद्ध है परंतु उनकी आलोचना में भी जो कुछ आकर्षक है वह किसी-न-किसी रूप में भारतीय जमीन से जुड़ा हुआ है. उत्तरार्द्ध में तो उनके विचारों में काफी परिवर्तन भी परिलक्षित किया जा सकता है जिसका सार है कि उनकी आलोचना में क्रमशः भारतीय दृष्टि प्रमुख होती गई है. नामवर सिंह ने भारतीयता को भाग्यवादी और निष्क्रिय मानने वाली पश्चिमी धारणा को खंडित करने वाले साहित्यकारों की ओर विशेष ध्यान दिया है. रामविलास शर्मा की तरह ही उनका ध्यान भी इस तथ्य पर लगातार बना रहता है कि भारत किसानों का देश है और भारतीय संस्कृति कृषि संस्कृति है. यही कारण है कि वे भारतीय उपन्यास को अंग्रेज़ी उपन्यास की परंपरा में रखना पसंद नहीं करते. उनके विचार से “औपनिवेशिक प्रश्न तत्वतः किसान प्रश्न है और औपनिवेशिक दासता के सभी रूपों से किसान की मुक्ति में ही भारत की मुक्ति है, यह बोध राष्ट्रीय चेतना में एक गुणात्मक छलाँग का संकेत है. प्रेमचंद का संपूर्ण प्रौढ़ लेखन इसी बोध का सर्जनात्मक विकास है जिसकी मुख्य उपलब्धियाँ ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ हैं. प्रेमचंद की इसी चेतना और सर्जना में उनकी भारतीयता की परिकल्पना विकसित हुई है.” यही कारण है कि डॉ.नामवर सिंह प्रेमचंद का संबंध अंग्रेज़ी उपन्यासकारों से न जोड़कर उड़िया उपन्यासकार फ़कीर मोहन सेनापति से जोड़ते हैं. वे यह सिद्ध करते हैं कि पश्चिम में उपन्यास का उदय भले ही एक बुर्जुआ रूप में हुआ है किंतु भारतीय उपन्यास का विकास मुख्यतः औपनिवेशिक दासता में छटपटाते हुए किसान की जीवन गाथा से हुआ है तथा फ़कीर मोहन सेनापति का उड़िया उपन्यास ‘छमाण आठ गुँठ’ (छह बीघा जमीन) और प्रेमचंद के तमाम किसान जीवन पर आधारित उपन्यास भारतीय उपन्यास की लोकधर्मी परंपरा का निर्माण करते हैं. वे यह भी रेखांकित करते हैं कि इस लोकधर्मी परंपरा के स्थापित होने में अंग्रेज़ी उपन्यास से कोई सहयोग नहीं मिला बल्कि व्यवधान अवश्य पड़ा – ““उन्नीसवीं शताब्दी के अंत से पहले ही भारतीय उपन्यास अपनी अस्मिता प्राप्त कर चुका था. उसने इस अस्मिता का निर्माण किया था. इस अस्मिता का निर्माण अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद के विरोध की प्रक्रिया में हुआ था, अंग्रेज़ी ढंग के ‘नावेल’ की नक़ल से नहीं. अंग्रेज़ी ‘नावेल’ ने तो भारतीय उपन्यास के विकासक्रम में उल्टे बाधा डाली.”’’ वे मानते हैं कि इस लोकधर्मी परंपरा के सूत्र और भी पहले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के रोमांसधर्मी उपन्यासों में मिलते हैं क्योंकि इस प्रथम भारतीय उपन्यासकार के लेखन में भारतीय लोक अपनी पूरी विशिष्टता के साथ विद्यमान है. डॉ.नामवर सिंह जब इस लोक अथवा ग्रामीण जीवन को अपनी आलोचना का प्रतिमान बनाते हैं तो वे हिंदी आलोचना का भारतीय प्रतिदर्श गढ़ रहे होते हैं. भारतीयता की अच्छी चर्चा नामवर जी ने प्रेमचंद के संदर्भ में की है और यह समझाने का प्रयास किया है कि भारतीयता किसानवाद का पर्याय नहीं है. वे बताते हैं कि स्वयं प्रेमचंद को किसानवाद का तरफदार समझना भूल होगी क्योंकि किसान प्रेमचंद के कथा साहित्य के समान ही भारतीय उपन्यास का केंद्र भर है जहाँ खड़े होकर उपन्यासकार समूचे भारतीय समाज को पूरे परिप्रेक्ष्य में उन्मीलित करता है. वे यह भी बताते हैं कि भारतीयता का अर्थ हठपूर्वक पश्चिम का तिरस्कार करना नहीं है.
डॉ.नामवर सिंह ने मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को भारतीय परिस्थिति के संदर्भ में विवेचित करने का प्रामाणिक प्रयास किया है. उन्हें यह देखकर विस्मय होता है कि आजादी की लड़ाई के दिनों में जब भारत की सारी जनता एक साथ मिलकर लड़ रही थी तो मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों में वर्गभेद की चेतना जरूरत से ज्यादा प्रबल थी और जब आजादी मिलने के बाद समाज में वर्गभेद स्पष्ट होकर उभरने लगा तो बुद्धिजीवियों की वह वर्ग चेतना धीरे-धीरे कुंठित होने लगी. वर्गभेद बढ़ने के साथ वर्गबोध के इस ह्रास को उन्होंने मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की जड़ता से जोड़ा है और पर्याप्त उल्लसित भाव से इस जड़ता को तोड़ने वाले दलित स्वर का स्वागत किया है – “”मराठी के दलित लेखकों ने एक अलग वैकल्पिक सौंदर्यशास्त्र बनाने का नारा दिया है. अभी तक वह शास्त्र बना भले ही न हो, लेकिन सौंदर्यबोध का एक विकल्प तो सामने आया ही, इसमें कोई संदेह नहीं. मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र अभी तक उसकी उपेक्षा ही करता आया है. दुविधा शायद वर्ग-वर्ण के द्वैत अथवा द्वंद्व को लेकर है. किंतु इसमें कोई शक नहीं कि अंततः इस चुनौती को स्वीकार करना ही पड़ेगा. प्रश्न प्रभुत्व का है, सत्ता का है और यह ऐसा प्रश्न है जिसकी उपेक्षा सौंदर्यशास्त्र भी नहीं कर सकता – मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र तो और भी नहीं.” ” कहना न होगा कि यह दलित सौंदर्यशास्त्र वर्ण, जाति, धर्म और संप्रदाय जैसे खानों में बँटे हुए बहुवचनीय भारतीय समाज की अपनी मिट्टी से पैदा होने वाला सौंदर्यशास्त्र है.
डॉ. नामवर सिंह की आलोचना में निहित भारतीयता उनके छायावाद संबंधी विवेचन में खुलकर सामने आती है. यहाँ तक कि छायावादी कवि की ‘मैं’ शैली को व्यक्तिवाद के नाम पर गरियाने से बचते हुए वे इसे हिंदी की संपूर्ण काव्य परंपरा के साथ जोड़कर देखते हैं. वे याद दिलाते हैं कि मध्य युग में भक्त कवियों ने केवल आत्मनिवेदन में इस आत्मीय पद्धति का सहारा लिया है लेकिन छायावाद युग की व्यैक्तिक अभिव्यक्ति भक्तों के आत्मनिवेदन से कहीं अधिक आगे की चीज है. पुराने कवि की तुलना में अपने निजत्व को सीधे ढंग से व्यक्त करने की यह छूट कवि ने समाज से पहली बार ली और इसका यह परिणाम हुआ कि कविता में जहाँ देवताओं के प्रेम का वर्णन होता था वह स्थान साधारण मनुष्य ने ले लिया. इसे डॉ.नामवर सिंह ने ‘जनतांत्रिक भाव की विजय’ कहा है. छायावादी काव्य की आत्मकथात्मकता को डॉ.नामवर सिंह ने आत्माभिव्यक्ति की स्वाधीनता के रूप में देखा है और इसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में व्यक्ति की स्वाधीनता का बीजमंत्र माना है. दरअसल डॉ.नामवर सिंह जब हिंदी के किसी साहित्यकार या साहित्यिक प्रवृत्ति की चर्चा करते हैं तो भले ही सामाजिक आलोचना के सिद्धांत विदेशी विचारकों से ग्रहण करते हों, उन साहित्यकारों और प्रवृत्तियों का स्थान निर्धारण अथवा मूल्यांकन वे समग्र भारतीय साहित्य की परंपरा के परिप्रेक्ष्य में करते हैं जिसमें एक ओर संस्कृत से अपभ्रंश तक की विरासत शामिल है तो दूसरी ओर हिंदी और उर्दू के साथ तमाम आधुनिक भारतीय भाषाएँ. यही कारण है कि वे त्रिलोचन और नागार्जुन जैसे कवियों को ठेठ हिंदुस्तानी कवि के रूप में विश्लेषित कर पाते हैं.
डॉ.रामविलास शर्मा और डॉ.नामवर सिंह के अतिरिक्त सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ से लेकर विजय बहादुर सिंह, रमेशचंद्र शाह, प्रभाकर श्रोत्रिय और भगवान सिंह तक ऐसे आलोचकों की एक विस्तृत श्रेणी है जिन्होंने अपने आलोचना कर्म में भारतीय चिंतन की कसौटियों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है. वस्तुतः भारतीय साहित्य चिंतन की परंपरा अत्यंत प्रौढ़ है और आलोचना के निकष के रूप में उसका इस्तेमाल अपेक्षाकृत अधिक अध्यवसाय की मांग करता है.इसके बावजूद हिंदी के समकालीन आलोचकों में यह सराहनीय प्रवृत्ति दिखाई देती है कि वे इन सिद्धांतों का पाश्चात्य विचार सरणि के साथ सामंजस्य खोजते हैं तथा पश्चिमी विचारों को भारतीय संदर्भ में ढालकर ही ग्रहण करते हैं.