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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

‘काशी मरणान्मुक्‍ति’ का रहस्य

मनोज ठक्कर और रश्मि छाजेड ने ‘काशी मरणान्मुक्‍ति’(प्रथम संस्करण 2010, द्वितीय संस्करण 2011) नाम से 500 पृष्ठ का 69 अध्याय वाला महाकाय ग्रंथ हिंदी को दिया है. इसे पौराणिक उपन्यास भी कहा जा सकता है और औपन्यासिक पूरण भी.. परंतु कथानायक का पूरा जीवन इसमें होते हुए भी उसकी कथा बहुत सूक्ष्म सी है - एकार्थ काव्यों की तरह. इस कथा को लेखकद्वय ने मुख्यतः शिव पुराण और गौणतः अन्य पुराणों के प्रसंगों के सहारे बुना है. अपनी बुनावट में यह कृति इस कारण भी विरल है कि इसमें यथार्थ, कल्पना, मिथ, फैंटेसी , इतिहास, योग, तंत्र,मंत्र, रूढ़ विश्वास आदि को इस तरह मथा गया है कि उन्हें अलगाकर देखना सरल नहीं है.

‘महामृणंगम’ या महा की कहानी कुछ कुछ कबीर की कहानी की तरह शुरु होती है. फाफामऊ के श्मशान के निकट एक अबला माँ इस नवजात शिशु को छोड़ जाती है और दूसरी पुत्रविहीना माँ इस मरणासन्न बालक को अपना लेती है. महा को पाकर यशोदा  और राघव को जीने का सहारा मिल जाता है लेकिन यह बालक तो चौरासी लाख योनियों की यात्रा करता हुआ इस जन्म में काशी मरण द्वारा मुक्‍ति प्राप्‍त करने के लिए ही पैदा हुआ है. ऐसे बालक की किसी प्रकार की अनुरक्‍ति प्रत्यक्ष जगत में नहीं है. वह तो आध्यात्मिक जगत का जीव है. इसलिए उसकी आसक्‍ति मणिकर्णिका के महा श्मशान की ओर है. माँ लाख बचाना चाहा करे पर वह तो चिता भस्म में स्नान करके ही आह्‍लाद का अनुभव करता है. चांडाल कर्म में रत भूतनाथ चाचा उसके सबसे अपने हैं. गुरु हैं. ऐसे बालक का श्मशान में चिताओं को आग देने वाला चांडाल बनना विस्मय की बात नहीं होनी चाहिए. फिर यह जीव तो काशी विश्‍वनाथ की कृपा के लिए ही इस देह में आया था. 


कबीर और तुलसी की वाणियाँ इस तरह महा के हृदय को वेधती है कि वह कभी तो उनका शिष्य जैसा लगता है और कभी स्वयं कबीर या तुलसी. इस्माइल चाचा शहनाई बजाते हैं तो वह उनके साथ नाद ब्रह्म का साक्षात्कार करता है. कालांतर में गुरु पाने  की तीव्र इच्छा महा को बहुत भटकाती है लेकिन अपनी इस यात्रा के प्रत्येक सोपान पर उसे बार बार तरह तरह के गुरु मिलते हैं और एक ही सीख देते हैं - पर याद रख मैं तेरा गुरु नहीं हूँ. ठीक भी है, गुरु तो एक ही है. जगत गुरु. और जब वह जगत गुरु अपना तारक मंत्र जीव के कान में फूँक देता है तो मैं और वह का द्वैत मिट जाता है. तब कौन गुरु और कौन चेला. सारी परिस्थितियाँ महा को इसी बोध की ओर प्रेरित करती हैं. कई तरह के उतार-चढ़ाव आते हैं. यहाँ तक कि गुरु की तलाश में भटकता महा अपने अंतर में विद्यमान भागवत सत्ता से भी विमुख हो जाता है. वह समझ नहीं पाता कि क्यों कबीर उसे विरह की आग में झुलसा रहे हैं. माँ की चिताग्नि में तो मानो वह भावना तक को भस्म कर आता है. ठगी प्रथा और बाल हत्या जैसी चीजें उसकी समझ में नहीं आती तो वह स्वयं काशी विश्‍वनाथ के प्रति क्रोधावेश से भर जाता है. समय दीक्षा से आगे सबीज दीक्षा के द्वार पर खड़ा महा अपनी सिद्धियों का प्रयोग करके एक मरणासन्न बालक के रोग को अपने ऊपर ले लेता है. बालक तो बच जाता है लेकिन महा तेजी से मृत्यु की ओर अग्रसर होने लगता है. पहले काशी और बाद में द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन के बहाने लेखकद्वय ने भारत भर का भ्रमण अपने कथानायक को कराया है ताकि वह अहं या माया से मुक्‍त होकर शिव के साथ अद्वैत का अनुभव कर सके. यहाँ कामायनी के अंतिम सर्ग के अंतिम छंदों की तरह ही दिव्य अनाहत नाद निनादित होता है. तन्मयता  के इस परम क्षण में काशी मरणान्मुक्ति का यह रहस्य उद्‍घाटित होता है कि "यति, ब्राह्मण, योगी  तो क्या! जो मेरा भक्‍त है वह चांडाल भी तो है वह मेरा प्रिय है. उससे तो आज मैं स्वयं शिव भी प्रसाद ग्रहण करने के लिए स्थित हूँ. यह चाडाल भी मेरे ही सदृश पूजनीय है. ..."  कुलमिलाकर मरण से मुक्‍त होने की गाथा है ‘काशी मरणान्मुक्‍ति’. यह आत्मदर्शन की यात्रा है और है संबोधि की उपलब्धता की साधना. 


इस छोटी सी कथा को महा गाथा बनाने के लिए पौराणिक संदर्भों और भक्‍ति साहित्य की बानियों का कुशल प्रयोग लेखकद्वय ने किया है. इसके लिए इतिहास और भूगोल को पुराण के साथ गूँथा  गया है. यथार्थ को महास्वप्न के साथ लपेटा गया है तथा भक्‍ति और अध्यात्म को प्रश्नाकुलता और शंका के साथ पिरोया गया है. इतने पर भी ‘काशी मरणान्मुक्‍ति’ का पारायण करने के लिए आस्तिक मन की जरूरत  है. आस्तिक मन वालों के लिए यहाँ वेद से लेकर विवेकानंद तक सब कुछ उपलब्ध है. कथा की चाशनी  में लिपटा हुआ. इसमे संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य में इस प्रकार की कृतियाँ विरल हैं जो कि भौतिक  दृष्टिकोण के कारण स्वाभाविक भी हैं क्योंकि यह कृति आध्यात्मिक उद्देश्य से प्रेरित है - "सत्य की सनातन रस धार की एक बूँद भी यदि इस पुस्तक के माध्यम से बाहर आ पाठक  को आंदोलित करती है तो यह हमारे जीवन को भी किसी अंश तक सार्थकता प्रदान करेगी."  आशा की जानी चाहिए कि मनोज रश्मि युगल को यह सार्थकता अवश्य प्राप्‍त होगी.


काशी मरणान्मुक्‍ति , 
मनोज ठक्कर, रश्मि छाजेड़,
शिव ॐ साईं प्रकाशन, 95/3, वल्लभ नगर, इन्दौर - 452 003/ 
मूल्य - रु.501
पृष्ठ - 500  
2010  (प्रथम संस्करण), 2011(द्वितीय संस्करण)

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

इतिहास का काशी पर सुन्दर आख्यान।

Arvind Mishra ने कहा…

अद्भुत कृति लगती है

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

कबीर और तुलसी के मिश्रण से बुनी सुंदर और संदेश देती कहानी की समीक्षा के लिए आभार।