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रविवार, 30 अक्टूबर 2011

नवलेखक शिविर के बहाने








































हिंदी की सार्वदेशिक स्वीकार्यता और सामासिक संस्कृति की दृष्टि से केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा चलाई गई योजनाओं में प्रतिवर्ष आठ ''हिंदीतरभाषी  हिंदी नवलेखक शिविर'' आयोजित करना भी शामिल है. नब्बे के दशक से कभी कभार अपुन को भी इनमें विशेषज्ञ के रूप में बुलाया जाता रहा है. अभी गत दिनों डॉ. भगवती प्रसाद निदारिया जी और डॉ.मोहम्मद नसीम जी  (नसीम बेचैन) के निमंत्रण पर ऐसे ही एक शिविर में आठ दिन के लिए अहमदनगर [महाराष्ट्र] जाने का अवसर मिला. खूब मस्ती रही. लगे हाथ शिर्डी और शनिशिंगनापुर की धार्मिक यात्रा भी हो गई. एक दिन यार लोग मुझे चकमा देकर अन्ना हजारे से भी उनके गाँव रालेगनसिद्धि जाकर मिल आए ( वैसे मेरी उतनी श्रद्धा भी नहीं थी कि शिर्डी की थकन के बावजूद वहां जाना चाहता ).

अहमदनगर खूबसूरत जगह है. लोग वहां के बहुत अच्छे हैं. बेहद खूबसूरत मन वाले - चाहे अध्यापक हों या छात्र. प्रो. ऋचा शर्मा अहमदनगर महाविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष हैं. अत्यंत सुरुचिसंपन्न विदुषी - पता चला कि उनका संबंध अपने सहारनपुर वाले कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर जी के परिवार से है. पतिदेव उनके राजीव शर्मा जी एयरफोर्स में रह चुके हैं और अब अपना व्यवसाय चलाते हैं.उन्होंने खूब नगर दर्शन कराया . एक रात तो ख़ास तौर से कढाई वाला दूध पिलाने ले गए. खैर नगर (मेरठ) के कई प्रसंग याद आ गए. इसी तरह दूसरी शाम किला [वह जेल जहाँ कभी पंडित जवाहर लाल नेहरु और मौलाना अबुल कलाम  आज़ाद सरीखे स्वतंत्रता सेनानी रखे गए थे और उन्होंने अपनी कालजयी कृतियाँ रची थीं] और सलावत खान का मकबरा दिखा लाए.

और हाँ,  एक बहुत प्यारा दोस्त मिल गया इस प्रवास में - आनंद मणि त्रिपाठी - वे वहां प्राध्यापक हैं; हर पल मुस्तैद; हर ज़िम्मेदारी के लिए तैयार. चांदनी चौक [जी हाँ, अहमदनगर में रास्तों और मुहल्लों के नाम दिल्ली वाले ही हैं] पर उतरने से लेकर तारकपुर अड्डे पर विदा लेने तक वे छाया की तरह साथ रहे. मज़े की बात यह कि अन्य विशेषज्ञों का भी यही अनुभव रहा कि वे उनके साथ भी छाया की तरह रहे. पता नहीं उनके पास कोई प्रेतसिद्धि है क्या!

दिल्ली से आईं डॉ. शाहीना तबस्सुम जी से पहली बार भेंट हुई. हिंदी और उर्दू दोनों की ही साहित्यिक परंपराओं की  उन्हें गहरी जानकारी है. सारा व्यवहार उनका एकदम अनौपचारिक - लेकिन अत्यंत भद्र और शालीन. बोलीं, भाभी के लिए कुछ नहीं ले जाएंगे अहमदनगर से? मैंने बता दिया कि मैं कभी कहीं से कुछ नहीं ले जाता. यह तो अच्छी बात नहीं, ज़रूर कुछ तो पत्नी और बच्चों के लिए आपको ले जाना चाहिए- बहुत अच्छा लगता है- यह मैं जानती हूँ; उन्होंने कहा तो मैंने और डॉ नसीम ने अपने अपने परिवार के लिए वस्त्र खरीद ही डाले! और तो और अपने अहंकार के खोल में क़ैद भीषण महाकवि उद्भ्रांत जी पर भी उनकी बातों  का इतना असर हुआ कि पहली बार उन्होंने भी पत्नी और बेटी के लिए साड़ियाँ खरीद डालीं और वह भी अकेले बाज़ार जाकर.

अब जब बात उद्भ्रांत जी की छिड़ ही गई है तो कहना ही होगा कि वे भी हमेशा याद रहेंगे लेकिन कडवी याद की तरह. अरे साहब, पहली ही शाम उन्होंने शराब पीकर यश पैलेस के रूफ गार्डन में वह हंगामा बरपा किया कि बिना अपराध के मुझे उनके अपवित्र पाँव छूकर माफी माँगनी पडी कि आयोजकों के कहने से मैं उस सुबह उनके कमरे [डबल बेड रूम] में उतनी देर भर को टिकने चला गया था जितनी देर में दूसरा कमरा मेरे लिए व्यवस्थित किया गया. उनकी इस बदतमीजी का यह भी अपमानजनक प्रभाव हुआ कि अगली शाम जब मैं, नसीम जी और आनंद त्रिपाठी रूफ गार्डन में भोजन करने गए तो हमें वहां बैठने नहीं दिया गया. शिविर की बैठकों में भी उद्भ्रांत जी प्रायः अपनी आत्मकथा और आत्मश्लाघा में ही व्यस्त रहे. मेरे ख़याल से वे ऐसे शिविर के लिए एक सौ परसेंट अनफिट मार्गदर्शक हैं.

नवलेखक कई प्रांतों से आए थे - आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, ओडिशा और असम आदि से. सभी पर्याप्त संभावनाओं से लबरेज़ दिखाई दिए.  खास बात यह कि सभी में अपनी ज़मीन की सुगंध को हिंदी में भरने की ललक दिखाई दी.इस सृजनेच्छा को मैं विनम्रतापूर्वक प्रणाम करता हूँ!


7 टिप्‍पणियां:

Anuvad ने कहा…

सर
तस्वीरों को देखकर यह समज मैं आ गया की आपने खूब एन्जॉय किया.
रिपोर्ट पढकर अच्छा लगा.

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@Anuvad

खूब कहा आपने. पर एक बात बताऊँ, आपके शहर के शिविर और आपकी श्रीमती जी के हाथ के भोजन की यादें अब भी ताज़ा हैं मन में. मुझे तो ऐसी यात्राओं से यही एक लाभ होता है कि कहीं संतोष तो कहीं आनंद से मुलाक़ात हो जाती है!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बढिया चित्र एवं रिपोर्ट। हां, हम इन सारे लोगों को कुल जमा तीन हस्तियों को पहचान सके- शिरदी के साईं बाबा, आन्ना साहेब और आप को :)

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

रंग यूँ ही जमा रहे।

विवेक रस्तोगी ने कहा…

बहुत आनंदमयी यात्रा रही आपकी, हमें भी आनंद आया।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

Photoz dekhkar aur report padhkar maza aa gaya. bhraman har bar ek alag anubhav deta hai. aap ko bhi is bar 'Udbrant' anubhav se gujarane ka avsar mila. achchha hai. Ap Ralegan nahi ja paye yeh afsos ki bat rahi, aap ki shrddha aur thakan yhan gaur ho jani chahiye thi.

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@बलराम अग्रवाल
जी, चूक तो हुई मुझसे - रालेगन सिद्धि के इतने पास से यों ही नहीं लौटना चाहिए था.

@ Vivek Rastogi
मित्रों को अच्छा लगता है तो मान लिया करता हूँ कि अच्छा लिखा होगा वरना है तो कुछ ख़ास नहीं मेरे पास.

@ प्रवीण पाण्डेय
रंग तो मित्रों से ही जमता है, इसलिए आभार.

@चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
आपकी टीप हमेशा लाज़वाब होती है.
कंही मिलने पर चित्रों की सब हस्तियों और नॉन-हस्तियों से परिचय करा दूँगा.