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सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

हवाई जहाज की खिड़की से फोटोग्राफी


फोटो कार्यशाला - 16  - लिपि भारद्वाज 




स्वतंत्र वार्त्ता : 31 अक्टूबर, 2011              अनुवाद : सीएमपी अंकल 
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रविवार, 30 अक्टूबर 2011

नवलेखक शिविर के बहाने








































हिंदी की सार्वदेशिक स्वीकार्यता और सामासिक संस्कृति की दृष्टि से केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा चलाई गई योजनाओं में प्रतिवर्ष आठ ''हिंदीतरभाषी  हिंदी नवलेखक शिविर'' आयोजित करना भी शामिल है. नब्बे के दशक से कभी कभार अपुन को भी इनमें विशेषज्ञ के रूप में बुलाया जाता रहा है. अभी गत दिनों डॉ. भगवती प्रसाद निदारिया जी और डॉ.मोहम्मद नसीम जी  (नसीम बेचैन) के निमंत्रण पर ऐसे ही एक शिविर में आठ दिन के लिए अहमदनगर [महाराष्ट्र] जाने का अवसर मिला. खूब मस्ती रही. लगे हाथ शिर्डी और शनिशिंगनापुर की धार्मिक यात्रा भी हो गई. एक दिन यार लोग मुझे चकमा देकर अन्ना हजारे से भी उनके गाँव रालेगनसिद्धि जाकर मिल आए ( वैसे मेरी उतनी श्रद्धा भी नहीं थी कि शिर्डी की थकन के बावजूद वहां जाना चाहता ).

अहमदनगर खूबसूरत जगह है. लोग वहां के बहुत अच्छे हैं. बेहद खूबसूरत मन वाले - चाहे अध्यापक हों या छात्र. प्रो. ऋचा शर्मा अहमदनगर महाविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष हैं. अत्यंत सुरुचिसंपन्न विदुषी - पता चला कि उनका संबंध अपने सहारनपुर वाले कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर जी के परिवार से है. पतिदेव उनके राजीव शर्मा जी एयरफोर्स में रह चुके हैं और अब अपना व्यवसाय चलाते हैं.उन्होंने खूब नगर दर्शन कराया . एक रात तो ख़ास तौर से कढाई वाला दूध पिलाने ले गए. खैर नगर (मेरठ) के कई प्रसंग याद आ गए. इसी तरह दूसरी शाम किला [वह जेल जहाँ कभी पंडित जवाहर लाल नेहरु और मौलाना अबुल कलाम  आज़ाद सरीखे स्वतंत्रता सेनानी रखे गए थे और उन्होंने अपनी कालजयी कृतियाँ रची थीं] और सलावत खान का मकबरा दिखा लाए.

और हाँ,  एक बहुत प्यारा दोस्त मिल गया इस प्रवास में - आनंद मणि त्रिपाठी - वे वहां प्राध्यापक हैं; हर पल मुस्तैद; हर ज़िम्मेदारी के लिए तैयार. चांदनी चौक [जी हाँ, अहमदनगर में रास्तों और मुहल्लों के नाम दिल्ली वाले ही हैं] पर उतरने से लेकर तारकपुर अड्डे पर विदा लेने तक वे छाया की तरह साथ रहे. मज़े की बात यह कि अन्य विशेषज्ञों का भी यही अनुभव रहा कि वे उनके साथ भी छाया की तरह रहे. पता नहीं उनके पास कोई प्रेतसिद्धि है क्या!

दिल्ली से आईं डॉ. शाहीना तबस्सुम जी से पहली बार भेंट हुई. हिंदी और उर्दू दोनों की ही साहित्यिक परंपराओं की  उन्हें गहरी जानकारी है. सारा व्यवहार उनका एकदम अनौपचारिक - लेकिन अत्यंत भद्र और शालीन. बोलीं, भाभी के लिए कुछ नहीं ले जाएंगे अहमदनगर से? मैंने बता दिया कि मैं कभी कहीं से कुछ नहीं ले जाता. यह तो अच्छी बात नहीं, ज़रूर कुछ तो पत्नी और बच्चों के लिए आपको ले जाना चाहिए- बहुत अच्छा लगता है- यह मैं जानती हूँ; उन्होंने कहा तो मैंने और डॉ नसीम ने अपने अपने परिवार के लिए वस्त्र खरीद ही डाले! और तो और अपने अहंकार के खोल में क़ैद भीषण महाकवि उद्भ्रांत जी पर भी उनकी बातों  का इतना असर हुआ कि पहली बार उन्होंने भी पत्नी और बेटी के लिए साड़ियाँ खरीद डालीं और वह भी अकेले बाज़ार जाकर.

अब जब बात उद्भ्रांत जी की छिड़ ही गई है तो कहना ही होगा कि वे भी हमेशा याद रहेंगे लेकिन कडवी याद की तरह. अरे साहब, पहली ही शाम उन्होंने शराब पीकर यश पैलेस के रूफ गार्डन में वह हंगामा बरपा किया कि बिना अपराध के मुझे उनके अपवित्र पाँव छूकर माफी माँगनी पडी कि आयोजकों के कहने से मैं उस सुबह उनके कमरे [डबल बेड रूम] में उतनी देर भर को टिकने चला गया था जितनी देर में दूसरा कमरा मेरे लिए व्यवस्थित किया गया. उनकी इस बदतमीजी का यह भी अपमानजनक प्रभाव हुआ कि अगली शाम जब मैं, नसीम जी और आनंद त्रिपाठी रूफ गार्डन में भोजन करने गए तो हमें वहां बैठने नहीं दिया गया. शिविर की बैठकों में भी उद्भ्रांत जी प्रायः अपनी आत्मकथा और आत्मश्लाघा में ही व्यस्त रहे. मेरे ख़याल से वे ऐसे शिविर के लिए एक सौ परसेंट अनफिट मार्गदर्शक हैं.

नवलेखक कई प्रांतों से आए थे - आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, ओडिशा और असम आदि से. सभी पर्याप्त संभावनाओं से लबरेज़ दिखाई दिए.  खास बात यह कि सभी में अपनी ज़मीन की सुगंध को हिंदी में भरने की ललक दिखाई दी.इस सृजनेच्छा को मैं विनम्रतापूर्वक प्रणाम करता हूँ!


'वैश्वीकरण के परिदृश्य में अनुवाद की भूमिका' पर राष्ट्रीय संगोष्ठी

हैदराबाद, 24  अक्टूबर,2011 .

वनिता महाविद्यालय में एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई अनुवाद पर. 

अपुन को भी परचा पढने का मौका मिला - ''विश्व साहित्य और अनुवाद'' पर.

द्रष्टव्य-
विश्व साहित्य एवं अनुवाद : हिंदी का संदर्भ- डॉ.ऋषभ देव शर्मा"विश्वम्भरा" : अंतरराष्ट्रीय प्रवासी-भाषा-लेखक-संघ

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

दीप ज्योति नमोस्तुते



दीप ज्योति नमोस्तुते 

प्रकाश सृष्टि का प्रतीक है; और दीपक उसका हमारे सबसे निकट स्थित वाहक. चेतना और प्राणशक्ति का ही एक नाम है दीप. उसने उस एक नूर की किरण को, चिंगारी को, स्फुलिंग को, अपने में समेट कर रखा है, जिससे यह सारा जग उपजा है. दीपक बीजमंत्र है - ऊर्जा के सारे स्फोट को अपनी बाती में संभाले हुए. दीप जलता है तो चाहे जितना ही मद्धिम जले, पर जहां तक उसकी किरण जाती है, अँधेरा कट जाता है. दीप जलता है, जलता ही है, अँधेरे को काटकर लोक का कल्याण करने के निमित्त. अँधेरे में पनपता है अज्ञान - अँधेरे में पनपते हैं रोग - अँधेरे में पनपता है शोक - अँधेरे में पनपती है दरिद्रता - अँधेरे में पनपते हैं अपराध. दीपक एक एक कर काटता है अज्ञान को - रोग को - शोक को - दरिद्रता को - अपराध को. इसीलिए तो दीपक को, दीपक की ज्योति को, प्रणाम किया जाता है. 

दीपक के अभाव में ज़िंदगी अंधेरी सुरंग थी. मैं तो बस चला जा रहा था. एक हाथ में लोक की लाठी थी, दूसरे में शास्त्र की बेंत. पर दीखता कुछ न था! तभी, तुम आए, और आगे-आगे दीपस्तम्भ बने चलने लगे! धीरे धीरे तुम्हारी ज्योति मेरे भीतर समाती रही, और मेरे अंतस्तल का जाने कब से अंधियारा पड़ा लोक आलोक से भर उठा. भीतर का दीया जल गया था! कैसा अंधा था मैं, आज से पहले ध्यान ही नहीं दिया था. जिस प्रकाश को, जन्म जन्म जाने कहाँ कहाँ खोजता फिरा, वह तो मेरे भीतर था. बड़ी कृपा की तुमने. भरपूर तेल से भरा दीया दिया. कभी न ख़त्म होने वाली बाती दी. अखंड ज्योति जल उठी. यह अखंड ज्योति अब दिन रात तेरी आरती बन गई  है. आकाश के थाल में, सूर्य, चंद्र और अग्नि ही नहीं, असंख्य तारे भी तेरी आरती उतार रहे हैं. यह महोत्सव है तेरे प्रकाश के मुझपर उतरने का. चौदह-चौदह चन्दा खिल उठे हैं, चौंसठ चौंसठ दीवों की मालाएं झिलमिला उठी हैं. स्वयंप्रकाशमय तुम जबसे मेरे घर आए हो, सब ओर अखंड प्रकाश है. अब चाहे जितनी अमावस घिरे, चाहे जितना तमस बरसे, चाहे जितनी कालिख उड़े, मेरे अस्थिचूड का दीपक लगातार जलता रहेगा - मेरी पुकार सुनकर कोई न भी आए, तो भी. 

जब जब तुम आए हो, तब-तब मेरे रोम रोम ने मंगलगीत गाए हैं, दीपमालिका सजाई है. सभी ने महसूस किया होगा कभी न  कभी, चाहे जितनी दूर रहो, एक कोई छोटी सी ज्योति, हमें निरंतर अपनी ओर खींचती रहती है. ज्योति - जो सरयू के जल में सिराये दोने में, जाने कबसे जल रही है. हर सांझ माँ कौसल्या आती है आंचल में दीपक छिपाए हुए, और जाने कितनी शुभकामनाएँ मन ही मन उच्चारती हुई, उस दिए को सरयू में प्रवाहित कर देती है. उधर राजभवन के शिखर पर, नंगे पैरों सात सात मंजिलों की सीढियां चढ़कर, उर्मिला आकाशदीप जला आती है. जहां भी हों, हमारे प्रिय, उनका मार्ग प्रकाशमय रहे! यह सरयू का दीया, यह राजभवन के शिखर का आकाशदीप, उनके लौटने के मार्ग में प्रकाश के पांवड़े बन जाए. लंका की चकाचौंध एक तरफ और साकेत की दीपशिखाओं की रुपहली सी झलमल एक तरफ. दीपशिखा के इस मधुर प्रकाश में ममत्व है, वात्सल्य है, स्नेह है, और है प्रतीक्षा. इसलिए, स्वर्णमयी लंका भी राम को लुभा नहीं पाती. और वे पुष्पक विमान से सीधे साकेत आ पहुँचते हैं. 

राम के लिए विलंब करना संभव नहीं है. आज अगर देर कर दी, तो वह पगला भरत, चिता में जल मरेगा. वैसे भी, भरत चौदह साल से एक सुलगती हुई चिता ही तो है. प्रतिक्षण जलती इस चिता से जाने कितना धुंआ उठ-उठ कर ब्रह्मांड में व्याप गया है. राम की आँखें अकेले में जाने कितनी बार, इस धुएं से कडुआ कर, झर झर बरसती आई हैं. इसलिए अब राम के लिए, और विलंब करना संभव नहीं. 

राम अयोध्या पहुँच रहे हैं. आज दीवाली है. दीवाली - ज्ञान और समृद्धि का त्यौहार. दीवाली - साधना की सिद्धि का पर्व. मिलन को उपलब्ध होने का महोत्सव है दीवाली. यही तो प्रिय की अगवानी का शुभ मुहूर्त है. भरत माताओं को राम के आगमन की सूचना देते हैं, तो वे विह्वल हो उठती हैं. पगला कर दौड़ पड़ती हैं - जैसे बछड़े की आहट पाकर गाय दौड़ पड़ी हो. नगर भर में समाचार फैल जाता है, और शोक की चौदह वर्ष की अमावस्या एक पल में अतीत हो जाती है. दीप जलाकर, लोकाभिराम राम की अगवानी की जाती है, और नगर जगर-मगर हो उठता है. राम आ पहुंचे हैं अयोध्या में. भरत-मिलाप जैसा मार्मिक अवसर कहीं दूसरा नहीं मिलता. पर राम तो सबके हैं. वे भरत से मिलते हैं, और एक एक पुरवासी से भी मिलते हैं. राम ने जैसे उतने ही रूप धर लिए, जितने नागरिक हैं. सबसे ‘यथायोग्य’ मिले वे, क्षण भर में. दीपक प्रज्वलित हो तो एक साथ सबको यथायोग्य उसका प्रकाश मिल जाता है. वह कोई भी तिथि हो, कोई भी वार हो, अगर प्रिय मिलन की तिथि हो, अगर यथायोग्य कृपा की वर्षा का वार हो, तो वह वेला अंधकार के समूल कटने की वेला बन जाती है. राम का पृथ्वी को निशिचरहीन करके लौटना, ज्योति बीज बोने का काल है. जब जब वह पल अनंत काल के प्रवाह में कहीं भी घटित होता है तब तब सजती है दीपावली और मनाया जाता है आलोक का पर्व – 

कंचन कलस विचित्र संवारे। सबहि धरे सजि निज निज द्वारे।। 

बंदनिवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।। 

बीथीं सकल सुगंध सिंचाईं। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।। 

नाना भांति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।। 

जहं तहं नारि निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं।। 

कंचन थार आरती नाना। जुवती सजें करहिं सुभ गाना।। 

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल विपिन दिनकर कें।। 

नारि कुमुदिनी अवध सर, रघुपति बिरह दिनेस। 

अस्त भए बिगसत भईं, निरखि राम राकेस।। 


कहाँ है अंधेरा? कहाँ है अमावस?? जिस रात के चंद्रमा राम हैं, उसमें कैसा अंधेरा??? जब तक राम नहीं थे - तभी तक अंधेरा था - तभी तक अमावस थी. राम आ गए. उजियारा छा गया. उजियारा - भीतर और बाहर सर्वत्र उजियारा!!!

मेरे दीपक, तू निष्कंप जलता चल. इस तरह जल कि कोई कहीं अँधेरे रास्ते पर न भटके. किसी चिड़िया चुरंग का भी घर न खोये. किसी को भी भयभीति न हो, और किसी का भी सपना न टूटे. ओ मेरे दीपक जल. इस तरह जल कि तुझसे अनेक दीप जल उठें. अँधेरा सब ओर से घिर रहा है, निशाचरों ने पृथ्वी पर तांडव मचा रखा है. मुझे दीपक राग गाने दो. हर मनुष्य के हृदय  का दीपक जल उठे. आखिर इसी दीपक के सहारे तो प्रलय निशा के पार जाना है हमें. जलो, मेरे दीपक, जलो, अनथक जलो. अकेले जलो, और फिर पंक्ति में जलो. जलो क्योंकि तुम्हारे भीतर वही हठीली आग सुलगती है, जो सृष्टि के आरंभ से हर अँधेरे को चुनौती देती चली आई है. जलो मेरे दीपक जलो. हर ओर से अँधेरे की सेनाएं टूट पड़ रही हैं. इसीलिए जलो, दीपमाला बनकर जलो!!!

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

कैसे खींचें वृक्षों के सुंदर चित्र


फोटो कार्यशाला - 15  - लिपि भारद्वाज 

स्वतंत्र वार्त्ता : 24  अक्टूबर, 2011              अनुवाद : सीएमपी अंकल 
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रविवार, 23 अक्टूबर 2011

अच्छे पोर्टफोलियो के लिए पांच सूत्र

फोटो कार्यशाला - 14  - लिपि भारद्वाज 



स्वतंत्र वार्त्ता : 17अक्टूबर, 2011                                              अनुवाद : सीएमपी अंकल 
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स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं की उपादेयता -3

स्वतंत्र वार्त्ता - 23 /10 /2011  

स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं की उपादेयता -2

स्वतंत्र वार्त्ता - 16/10/2011

स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं की उपादेयता -1

स्वतंत्र वार्त्ता -9 .10 .2011  

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

‘काशी मरणान्मुक्‍ति’ का रहस्य

मनोज ठक्कर और रश्मि छाजेड ने ‘काशी मरणान्मुक्‍ति’(प्रथम संस्करण 2010, द्वितीय संस्करण 2011) नाम से 500 पृष्ठ का 69 अध्याय वाला महाकाय ग्रंथ हिंदी को दिया है. इसे पौराणिक उपन्यास भी कहा जा सकता है और औपन्यासिक पूरण भी.. परंतु कथानायक का पूरा जीवन इसमें होते हुए भी उसकी कथा बहुत सूक्ष्म सी है - एकार्थ काव्यों की तरह. इस कथा को लेखकद्वय ने मुख्यतः शिव पुराण और गौणतः अन्य पुराणों के प्रसंगों के सहारे बुना है. अपनी बुनावट में यह कृति इस कारण भी विरल है कि इसमें यथार्थ, कल्पना, मिथ, फैंटेसी , इतिहास, योग, तंत्र,मंत्र, रूढ़ विश्वास आदि को इस तरह मथा गया है कि उन्हें अलगाकर देखना सरल नहीं है.

‘महामृणंगम’ या महा की कहानी कुछ कुछ कबीर की कहानी की तरह शुरु होती है. फाफामऊ के श्मशान के निकट एक अबला माँ इस नवजात शिशु को छोड़ जाती है और दूसरी पुत्रविहीना माँ इस मरणासन्न बालक को अपना लेती है. महा को पाकर यशोदा  और राघव को जीने का सहारा मिल जाता है लेकिन यह बालक तो चौरासी लाख योनियों की यात्रा करता हुआ इस जन्म में काशी मरण द्वारा मुक्‍ति प्राप्‍त करने के लिए ही पैदा हुआ है. ऐसे बालक की किसी प्रकार की अनुरक्‍ति प्रत्यक्ष जगत में नहीं है. वह तो आध्यात्मिक जगत का जीव है. इसलिए उसकी आसक्‍ति मणिकर्णिका के महा श्मशान की ओर है. माँ लाख बचाना चाहा करे पर वह तो चिता भस्म में स्नान करके ही आह्‍लाद का अनुभव करता है. चांडाल कर्म में रत भूतनाथ चाचा उसके सबसे अपने हैं. गुरु हैं. ऐसे बालक का श्मशान में चिताओं को आग देने वाला चांडाल बनना विस्मय की बात नहीं होनी चाहिए. फिर यह जीव तो काशी विश्‍वनाथ की कृपा के लिए ही इस देह में आया था. 


कबीर और तुलसी की वाणियाँ इस तरह महा के हृदय को वेधती है कि वह कभी तो उनका शिष्य जैसा लगता है और कभी स्वयं कबीर या तुलसी. इस्माइल चाचा शहनाई बजाते हैं तो वह उनके साथ नाद ब्रह्म का साक्षात्कार करता है. कालांतर में गुरु पाने  की तीव्र इच्छा महा को बहुत भटकाती है लेकिन अपनी इस यात्रा के प्रत्येक सोपान पर उसे बार बार तरह तरह के गुरु मिलते हैं और एक ही सीख देते हैं - पर याद रख मैं तेरा गुरु नहीं हूँ. ठीक भी है, गुरु तो एक ही है. जगत गुरु. और जब वह जगत गुरु अपना तारक मंत्र जीव के कान में फूँक देता है तो मैं और वह का द्वैत मिट जाता है. तब कौन गुरु और कौन चेला. सारी परिस्थितियाँ महा को इसी बोध की ओर प्रेरित करती हैं. कई तरह के उतार-चढ़ाव आते हैं. यहाँ तक कि गुरु की तलाश में भटकता महा अपने अंतर में विद्यमान भागवत सत्ता से भी विमुख हो जाता है. वह समझ नहीं पाता कि क्यों कबीर उसे विरह की आग में झुलसा रहे हैं. माँ की चिताग्नि में तो मानो वह भावना तक को भस्म कर आता है. ठगी प्रथा और बाल हत्या जैसी चीजें उसकी समझ में नहीं आती तो वह स्वयं काशी विश्‍वनाथ के प्रति क्रोधावेश से भर जाता है. समय दीक्षा से आगे सबीज दीक्षा के द्वार पर खड़ा महा अपनी सिद्धियों का प्रयोग करके एक मरणासन्न बालक के रोग को अपने ऊपर ले लेता है. बालक तो बच जाता है लेकिन महा तेजी से मृत्यु की ओर अग्रसर होने लगता है. पहले काशी और बाद में द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन के बहाने लेखकद्वय ने भारत भर का भ्रमण अपने कथानायक को कराया है ताकि वह अहं या माया से मुक्‍त होकर शिव के साथ अद्वैत का अनुभव कर सके. यहाँ कामायनी के अंतिम सर्ग के अंतिम छंदों की तरह ही दिव्य अनाहत नाद निनादित होता है. तन्मयता  के इस परम क्षण में काशी मरणान्मुक्ति का यह रहस्य उद्‍घाटित होता है कि "यति, ब्राह्मण, योगी  तो क्या! जो मेरा भक्‍त है वह चांडाल भी तो है वह मेरा प्रिय है. उससे तो आज मैं स्वयं शिव भी प्रसाद ग्रहण करने के लिए स्थित हूँ. यह चाडाल भी मेरे ही सदृश पूजनीय है. ..."  कुलमिलाकर मरण से मुक्‍त होने की गाथा है ‘काशी मरणान्मुक्‍ति’. यह आत्मदर्शन की यात्रा है और है संबोधि की उपलब्धता की साधना. 


इस छोटी सी कथा को महा गाथा बनाने के लिए पौराणिक संदर्भों और भक्‍ति साहित्य की बानियों का कुशल प्रयोग लेखकद्वय ने किया है. इसके लिए इतिहास और भूगोल को पुराण के साथ गूँथा  गया है. यथार्थ को महास्वप्न के साथ लपेटा गया है तथा भक्‍ति और अध्यात्म को प्रश्नाकुलता और शंका के साथ पिरोया गया है. इतने पर भी ‘काशी मरणान्मुक्‍ति’ का पारायण करने के लिए आस्तिक मन की जरूरत  है. आस्तिक मन वालों के लिए यहाँ वेद से लेकर विवेकानंद तक सब कुछ उपलब्ध है. कथा की चाशनी  में लिपटा हुआ. इसमे संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य में इस प्रकार की कृतियाँ विरल हैं जो कि भौतिक  दृष्टिकोण के कारण स्वाभाविक भी हैं क्योंकि यह कृति आध्यात्मिक उद्देश्य से प्रेरित है - "सत्य की सनातन रस धार की एक बूँद भी यदि इस पुस्तक के माध्यम से बाहर आ पाठक  को आंदोलित करती है तो यह हमारे जीवन को भी किसी अंश तक सार्थकता प्रदान करेगी."  आशा की जानी चाहिए कि मनोज रश्मि युगल को यह सार्थकता अवश्य प्राप्‍त होगी.


काशी मरणान्मुक्‍ति , 
मनोज ठक्कर, रश्मि छाजेड़,
शिव ॐ साईं प्रकाशन, 95/3, वल्लभ नगर, इन्दौर - 452 003/ 
मूल्य - रु.501
पृष्ठ - 500  
2010  (प्रथम संस्करण), 2011(द्वितीय संस्करण)

वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक पुरस्कार 2011 समारोह संपन्न

हैदराबाद, 5 अक्तूबर, 2011.


                श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट द्वारा प्रतिष्ठित हिंदी सेवी स्वर्गीय वेमूरि आंजनेय शर्मा के 95 वें जयंती समारोह के संदर्भ में वर्ष 2011 के स्मारक पुरस्कार प्रदान किए गए। यह समारोह स्थानीय रवींद्र भारती सभागार में संपन्न हुआ। समारोह की अध्यक्षता आंध्र प्रदेश भूदान यज्ञ बोर्ड के अध्यक्ष श्री सी.वी.चारी ने की तथा आंध्र प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री डॉ. पी.वी. रंगाराव मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। वर्ष २०११ का वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक पुरस्कार हिंदी साहित्य के लिए वरिष्ठ व्यंग्यकार मटमरि उपेंद्र को प्रदान किया गया जबकि  तेलुगु साहित्य के लिए यह पुरस्कार विख्यात तेलुगु कथाकार डी. कामेश्वरी ने  एवं तेलुगु रंगमंच के लिए सुप्रसिद्ध कलाकार रेकेंदर  नागेश्वर राव ‘बाब्जी’ ने प्राप्त किया. तीनों सम्मानित विभूतियों को शालस्मृतिचिह्न तथा 10 हज़ार की नक़द राशि भेंट कर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर ट्रस्ट की ओर से छात्र-छात्राओं को प्रतिभा पुरस्कार’ तथा सरस्वती पुरस्कार’ भी प्रदान किए गए। मुख्य अतिथि डॉ. पी.वी. रंगाराव ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि स्व. वेमूरि आंजनेय शर्मा बहुमुखी प्रज्ञाशाली थे जो हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की उन्नति के लिए अपना सारा जीवन उत्कृष्ट सेवाएँ प्रदान करते रहे। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि भारतीय भाषाओं को सर्वप्रथम कंप्यूटर पर लाने का श्रेय वे. आंजनेय शर्मा को ही जाता है।

                

अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री सी.वी. चारी ने आंजनेय शर्मा के साथ अपने 60 साल के निकट संबंधों  को स्मृतिपटल पर लाते हुए बताया कि आंजनेय शर्मा का जीवन भावी पीढ़ी के लिए अनुकरणीय तथा आदर्श है। उन्होंने  आगे यह भी कहा कि श्री पी.वी. नरसिंहा राव तथा आंजनेय शर्मा के अथक प्रयास से ही दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च षिक्षा विभाग में विभिन्न चुनौतीपूर्ण पाठ्यक्रम आरंभ किए गए जो आज़ भी अबाध  चल रहे हैं।
                
समारोह का संचालन सी.सी.एम.बी. के हिंदी अधिकारी चंद्रशेखर ने किया तथा श्रीमती शारदा और बालाजी ने कार्यक्रम के आरंभ में सुगम संगीत प्रस्तुत किया। समारोह में ट्रस्ट के प्रबंधक न्यासी प्रो. वेमूरि हरिनारायण शर्मा तथा अन्य न्यासियों ने भी भाग लिया। इस कार्यक्रम में नगरद्वय के अनेक  विशिष्ट हिंदी सेवी और गणमान्य विद्वान उपस्थित थे।

चित्र परिचय ;
रवींद्र भारती, हैदराबाद में आयोजित वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक पुरस्कार समारोह के अवसर पर पुरस्कृत हिंदी साहित्यकार मटमरि, तेलुगु कथाकार डी. कामेश्वरी एवं रंगमंच कलाकार रेकेंदर  नागेश्वर राव ‘बाब्जी’. साथ में डॉ. पी.वी. रंगाराव, सी. वी. चारी तथा स्मारक ट्रस्ट के पदाधिकरीगण. 
                                                                प्रस्तुति – वेमूरि ज्योत्स्ना कुमारी.

नवजात की फोटोग्राफी

फोटो कार्यशाला - 13  - लिपि भारद्वाज 



स्वतंत्र वार्त्ता : 10 अक्टूबर, 2011                                              अनुवाद : सीएमपी अंकल 
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मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

जल प्रपात की फोटोग्राफी में कैसे लाएँ धुंधलका

फोटो कार्यशाला - 12  - लिपि भारद्वाज 


स्वतंत्र वार्त्ता : 03 अक्टूबर,2011                                              अनुवाद : सीएमपी अंकल 
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