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शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

ओडियाभाषी सौरा नायक की हिंदी कविताएँ


बात संभवतः 1995 या '96 की है. केंद्रीय हिंदी निदेशालय  के हिंदीतरभाषी नवलेखक शिविर  के सिलसिले में गोवा जाना हुआ. हम मार्गदर्शकों को पूरे आठ दिन जिन लेखकों की सतत जिज्ञासा ने प्रभावित किया उनमें एक तो थे गुजरात के कहानीकार जो पेशे से डॉक्टर हैं [सियामी ट्विन्स पर उनकी कहानी मुझे आज भी याद है], और दूसरे थे ओडिशा के सौरा नायक जिन्होंने  पात्र और डायरी लेखन में अधिक रुचि दर्शाई थी. बाद में इन दोनों की ही पुस्तकें प्रकाशित हुईं और मुझे जानकर अच्छा लगा कि वे मुझे भूले नहीं.


अभी कुछ माह पूर्व एक किशोर ने मेरे कार्यालय में आकर नमस्कार करने के बाद इतना ही कहा था कि 'मैं ओडिशा......' ; कि मैं उछल पड़ा - आप सौरा नायक के बेटे हैं?' वह बालक हैदराबाद की किसी कंपनी में कार्यरत है और अपने पिता की और से मुझे प्रणाम करने आया था. उसने फोन पर सौरा नायक से बात भी कराई. बातों-बातों में पता चला कि इन दिनों वे अपना कविता-संग्रह तैयार कर रहे हैं. कुछ ही दिन बाद उनकी कविताएँ भूमिका के लिए मेरे पास आ गईं. भूमिका लिख कर दे दी है; पर एक खास बात उसमें लिखने से छूट गई  है; कि सामान्य सुविधाओं तक की दृष्टि से भी अत्यंत विपन्न पृष्ठभूमि से आए सौरा नायक की विनम्रता मुझे आज के समय में दुर्लभ लगती है.  

भूमिका

हमारा समय अत्यंत क्रूर और असाध्य समय है. आज के रचनाकार की रचनाधर्मिता की पहली कसौटी यही होनी चाहिए कि उसने अपने समय की इस क्रूरता और असाध्यता को किस प्रकार संबोधित किया है. ओडियाभाषी सौरा नायक इस रचानाधर्म को पहचानते हैं, इसीलिए उन्होंने चतुर्दिक व्याप्‍त मूल्य विघटन, अपसंस्कृति और अमानुषिकता के प्रति असंतोष, आक्रोश और क्रोध को सीधे-सीधे बयान कर दिया है - सपाटबयानी के आक्षेप की परवाह किए बिना. 

कवि सौरा नायक इस स्थिति से अत्यंत विचलित हैं कि हम सैद्धांतिक स्तर पर तो सत्य का जय घोष करते हैं लेकिन व्यावहारिक स्तर पर सत्‍य का गला घोंटने में नहीं हिचकते. अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता से रहित लोकतंत्र उन्हें असह्‍य प्रतीत होता है - सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन ऐसे में दो लेखकों ने नाम भर नहीं रह जाते, अभिव्यक्‍ति का ख़तरा उठानेवाले तमाम योद्धाओं के प्रतीक बन जाते हैं.

संपन्नता और विपन्नता के बीच जितना बड़ा अंतर हम आज देख रहें हैं, मनुष्यता के इतिहास में यह पहले शायद इतना न रहा हो. यह खाई दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है. कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि इतने भीषण अंतराल के चलते शायद ऐसा वर्ग संघर्ष कभी संभव न हो जो समत्व के स्वप्‍न को साकार कर सके. ऐसे में भूख का बढ़ते जाना अत्यंत क्रूर सच्चाई है. सौरा नायक तो यह तक कहने में संकोच नहीं करते कि बुद्ध तक भूख के चंगुल से नहीं बच पाए और उन्हें बुद्धत्व का प्रकाश आहार से ही मिला. प्रकारांतर से वे यह कहते हैं कि भारत जैसे दरिद्रता से जूझ रहे देश की प्राथमिकता रोटी होनी चाहिए, संबोधि नहीं क्योंकि अब यहाँ सत्य की नहीं दौलत की प्रतिष्‍ठा है. 

आज के कवि को यह प्रश्‍न बहुत व्यथित करता है कि वह क्या लिखे, क्यों लिखे, किसके लिए लिखे? सौरा नायक भी काव्य रचना से अधिक प्रासंगिक आज के समय में प्रलय के आह्‍वान को मानते हैं. वास्तव में भारत के अधिकांश संवेदनशील और ईमानदार नागरिक आज ऐसा ही महसूस करते हैं. इसका कारण है मनुष्यों को अनुशासित करने की सर्वश्रेष्‍ठ व्यवस्था अर्थात लोकतंत्र की भयावह असफलता. कवि का विश्‍वास कल्याणकारी लोकतंत्र में है, परंतु उस समय इस विश्‍वास की चूलें हिलने लगती हैं जब गणतंत्र के सारे स्तंभ धन देवता, वोट देवता और डंडा देवता की देहरी पर दम तोड़ते दिखाई देते हैं. इतना ही नहीं लोकतंत्र में जनसंघर्ष का हथियार समझे जानवाले सत्याग्रह तक को स्वार्थ की राजनीति करनेवालों ने जनविरोधी और लोकविरोधी बना डाला है. ऐसे में कवि का क्रोध जायज है - "नामर्दो, बंद करो/ यह आग जनी लूट पाट/ रेल रोको, रास्ता रोको हड़ताल से/ भला क्या हासिल होगा/ सिवाय इसके कि.../ मजदूरों की रोटी मारी जाएगी/ कोई बेबस बेइलाज/ मारा जाएगा..../ कुछ बेघरवार हो जाएँगे/ उनकी झोपड़ियों को/ आग लील जाएगी,/ कुछ भोले भाले/ इन्सानों की... लहू/ मिट्टी में सन जाएगी/ बेकसूरों से जेल भर जाएगी." यहीं से वे प्रतिक्रियाएँ जन्म लेती हैं जिन्हें विद्रोह कहकर सदा सत्ता कुचलती रहती है - "जला सको तो/ नामर्दो..../ उस नेता को जलाओ,/ तोड़ सको तो तोड़ो.../ उनके शीश महल-हवा महल को"

सौरा नायक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक चिंताओं के कवि हैं. उनके सरोकार अत्यंत व्यापक है जिनमें एक विफल होते हुए लोकतंत्र की पीड़ा अभिव्यंजित है. उनके ये सरोकार उन्‍हें कहीं भी चैन लेने नहीं देते, न भोलेनाथ की नगरी भुवनेश्‍वर में न जगन्नाथ की नगरी पुरी में. वे उस देहात में लौट जाना चाहते हैं जहाँ संबंधों का स्वर्ग आज भी महमहाता है. उनके कवि हृदय को प्रकृति की अपरूप लीला मुग्ध करती है, पानी के तरल कोमल वर्म पर रजत किरणों की फिसलन उन्हें मोह लेती है. प्रेमोन्मत्त नायक की निगाह सी किरण और विवश लज्जाशील बाल तरुणी सी झील उनकी सहज सौंदर्य चेतना को उद्‍बुद्ध करती है. 

कुल मिलाकर प्रस्तुत कविता संग्रह सौरा नायक के सहज संवेदनशील हृदय का दर्पण है; और इस हृदय में सारी कायनात समाई है. साहित्य जगत में उनकी इस कृति को यथेष्‍ट सम्मान मिलेगा, इसी कामना के साथ-

-ऋषभ देव शर्मा

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आपने लेखन के लिये उन्हे प्रेरित किया, आभार आपका भी।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

विपन्नता और सम्पन्नता की खाई इतनी बढ गई है कि आज का रचनाकार शैली और सौंदर्य को भूल अपना आक्रोश सपाटबयानी से भी करे तो उसमें समाज पर चोट करने की शक्ति होती है। सौरा नायक ने अपने इर्दगिर्द हो रहे राजनीति के नंगे नाच को देख कर अपना आक्रोश इन कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी संवेदनाओं से परिचित कराने के लिए आभार॥