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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
रविवार, 17 जुलाई 2011
गुरुवार, 14 जुलाई 2011
गुरु-पूर्णिमा
||गुरु-पूर्णिमा||
यों तो माता-पिता-गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए किसी तिथि-वार-पर्व की ज़रूरत नहीं, पर 'गुरु पूर्णिमा' मेरे लिए बचपन से ही रोमांचकारी उत्सव रहा है. माता-पिता-गुरु ने कभी मुझे उपदेशा नहीं, पर माता-पिता ही अपने दैनंदिन जीवन के माध्यम से मेरे गुरु बन गए. जाने किस गुरु-पूर्णिमा पर पित्ताजी का 'गौरव' देखकर तय कर लिया कि किसी और को 'गुरु' नहीं कहना है. पिताजी को तुलसी का गुरु-वंदना प्रसंग अतिप्रिय था; मुझे भी है. पर विचित्र बात यह है कि जब-जब कबीर को पढता-पढाता हूँ तो हर दोहे में पितु-वचन की साखी का बोध होता है.
सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग |
बरस्या बादल प्रेम का ,भीजि गया सब अंग ||
शनिवार, 2 जुलाई 2011
अधबुनी रस्सी : एक परिकथा
सच्चिदानंद चतुर्वेदी (1958) का उपन्यास `अधबुनी रस्सी : एक परिकथा' (2009) आंचलिक उपन्यासों और ग्राम कथाओं की परंपरा का विकास करने वाला अद्यतन प्रयास है. वस्तु और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से इसके नयेपन को निरखा परखा जा सकता है. सौ साल पहले `हिंद स्वराज' के रूप में महात्मा गांधी ने भारतीय लोकतंत्र की जिस रस्सी को बुनना शुरू किया था वह आज भी अधबुनी ही है! उपन्यास की कथाभूमि डमरुआ गाँव है लेकिन उसका ध्वन्यर्थ है भारतवर्ष. इसी कारण भारतीय लोकतंत्र के स्वप्न और उनके टूटने की त्रासदी इसके पृष्ठ पृष्ठ पर अंकित जान पड़ती है. डॉ. वेणुगोपाल ने 'अधबुनी रस्सी' को `मैला आँचल' और `अलग अलग वैतरणी' की परंपरा में रखा है, मैं इस सूची में `राग दरबारी' को भी जोड़ना चाहूँगा क्योंकि अत्यंत महीन व्यंग्य भी रस्सी की बुनावट में आद्यंत शामिल है जो गाहे बगाहे पाठक की संवेदना को चीरता चलता है. एक सामान्य से विवरण को संस्कृत शब्दावली के प्रयोग द्वारा व्यंग्य की ध्वनि प्रदान करना तो कोई सच्चिदानंद चतुर्वेदी से सीखे – "जिह्वा के घंटे की वृत्ताकार भित्ति से टकराते ही तन-मन को पुलकित कर देने वाला तीव्र नाद उत्पन्न होता था. नाद उत्पन्न कर, घंटे की वह जिह्वा, तृषित श्वान की जिह्वा की भांति कांपती हुई, किसी अन्य दर्शनार्थी के हस्त-स्पर्श की प्रतीक्षा में, पुनः घंटे के मध्य झूलने लगती थी." (पृ.10). राजनैतिक दलों की एक जैसी भीतरी रंगत को उजागर करने के लिए वे एक साधारण सी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न करते हैं और पार्टी लोकतंत्र के चरित्र को पाठक सहज ही भांप जाता है – "गाँव के पुरुष कर्मा से टोपी भी मांग लाते. टोपी ला रात भर के लिए पानी में डुबो देते. टोपी का पीला रंग उतर जाता, सफेद निकल आती. रात भर में जनसंघी टोपी कांग्रेसी टोपी बन जाती. टोपी के अनुभव के आधार पर डमरुआ के लोगों को यह रहस्य पता चल गया था कि भीतर से दोनों पार्टियां एक हैं, ऊपर से रंग अलग-अलग हैं. कर्मा यह रहस्य कभी नहीं जान पाया कि गाँव के चाचा उसकी पीली टोपी धोकर अपनी सफेद टोपी बना लेते हैं." (पृ. 158). उपन्यास का त्रासद व्यंग्य अपने चरम को पहुंचता है तब जब ग्राम प्रधान के मुहर और पैड को बरगद की शाखाओं से बांधकर लटकाया जाता है और बरगदिया ठलुआ उसके नीचे लेटकर कहता रहता है – "भारतीय प्रजातंत्र की डमरुआ शाखा का इंचार्ज हूँ मैं. जिसे मुहर मरवानी हो मेरे पास चला आये. प्रजातंत्र उस वेश्या के समान है जिसे चाहते तो सब हैं, पर उसके बच्चों को कोई अपना नाम नहीं देना चाहता." (पृ. 272). भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के असफल होने की इस व्यंग्यात्मक परिकथा में लेखक ने बड़े करीने से कई सारे आधुनिक विमर्श भी बुन दिए हैं. आद्योपांत उपन्यासकार हाशियाकृत समुदायों के प्रति चिंतित दिखाई देता है. स्त्रियाँ हो या दलित, उपेक्षित गाँव हो या पर्यावरण सब के प्रति लेखक की गहरी संवेदना इस उपन्यास में अभिव्यंजित हुई है. जितना गुस्सा उन्हें लोकतंत्र की हत्या करनेवाले राजनैतिक और प्रशासनिक तंत्र पर आता है, उतने ही नाराज वे उस सामाजिक तंत्र के प्रति भी दिखाई देते हैं जिसने न तो कभी औरतों को मनुष्य होने का अधिकार दिया और न ही निम्न वर्ण के लोगों को अपने जैसा जीवित प्राणी तक माना. किसुना की सारी कहानी इसी सामाजिक भेदभाव की करुण गाथा है. ऐसे अवसरों पर लेखक ने अपनी ओर से भी टिप्पणी की है और पात्रों के माध्यम से भी व्यापक सामाजिक परिवर्तन की जरूरत को दर्शाया है – "खुशी कहाँ है? कितने छूँछे हैं ये शब्द. चलते-चलते एक सुनसान गली में रुक गया, जमीन पर अपनी उंगली से तीन-चार आडी-तिरछी लकीरें खींचीं, मान लिया लिखा है `खुश रहो'. पेशाब में बहा दिया उन लकीरों को, कहा – ''लो चौबे जी! बह गए तुम और तुम्हारा 'खुश रहो'.'' गाँव में आगे जाने की जरूरत नहीं समझी उसने, घर लौटने लगा." (पृ. 192). इसी प्रकार 'पेटीकोट राज' के बहाने देशवासियों की पुरुषवर्चस्ववादी और स्त्रीविरोधी मानसिकता का व्यंग्यात्मक खुलासा भी विभिन्न कथायुक्तियों के सार्थक इस्तेमाल का प्रमाण है. 'आपद्काल' में तो तमाम सभ्यता और संस्कृति की कलई ही खोल दी गयी है. लोकतंत्र यहाँ तक आते आते शोक तंत्र में तब्दील हो चुका है - "इमरजेंसी के दौरान डमरुआ में हुई गिरफ्तारियों तथा बंगालिन ताई के अब तक डमरुआ न लौटने से पडियाइन चाची इतने डर गयी थीं कि उन्होंने रास्ते में लोगों को टोक-टोक कर बात करने की अपनी पुरानी आदत लगभग छोड़ दी थी." (पृ. 231). `अधबुनी रस्सी : एक परिकथा' की एक बड़ी ताकत है इसका लोक पक्ष. भूमंडलीकरण और बाजारवाद के विकट घटाटोप के बीच स्थानीयता और लोक से जुड़ाव ठंडी बयार जैसा सुख देता है. लेखक के जीवनानुभवों के लोक-सम्पृक्ति से संबलित होने के कारण यह कथाकृति कहीं भी अपनी जमीन नहीं छोड़ती. लोक की विपन्नता और दुर्दशा के जितने प्रामाणिक चित्र इस कृति में है, उसकी सरलता, सहजता और मानसिक सुंदरता भी उतने ही प्रामाणिक रूप में उभरी है. लोकविश्वास और अंधविश्वास दोनों ही को उपन्यासकार ने खास अंदाज में उकेरा है. यह लोक आज भी धरती को अपनी मानता है. "हे, धरती मैया! तुम कभी बूढ़ी मत होना. हम तुम्हारे बच्चे हैं, तुम्हारे जियाए जीते हैं. तुम दे देती हो तो दे कौर खा लेता हूँ, वरना वह भी नसीब न होता. तुम्हारे अलावा हमारा कोई और सहारा नहीं है." (पृ. 78). अभिप्राय यह है कि डॉ.सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने 'अधबुनी रस्सी' खूब बुनी है और पूरी बुनी है. इसकी बुनावट में भारतीय लोकतंत्र के अनुभव के रेशे पीड़ा, आक्रोश, व्यंग्य, विमर्श और लेखकीय विवेक के रेशों के साथ इस तरह गुंथे हुए है कि पाठक का आंदोलित हो उठना अपरिहार्य है. पिछडेपन, दरिद्रता और चौतरफा शोषण से ग्रस्त डमरुआ आमूलचूल परिवर्तन के लिए छटपटा रहा है. डमरुआ की यह छटपटाहट केवल एक पिछड़े से गाँव की छटपटाहट नहीं है बल्कि रूढियों में जकड़े इस देश के आम जन की छटपटाहट है! अधबुनी रस्सी : एक परिकथा (उपन्यास)/ सच्चिदानंद चतुर्वेदी/ 2009/ राजकमल प्रकाशन, 1- बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली- 110002/ पृष्ठ – 272/ मूल्य – रु.300. |
शुक्रवार, 1 जुलाई 2011
ओडियाभाषी सौरा नायक की हिंदी कविताएँ
बात संभवतः 1995 या '96 की है. केंद्रीय हिंदी निदेशालय के हिंदीतरभाषी नवलेखक शिविर के सिलसिले में गोवा जाना हुआ. हम मार्गदर्शकों को पूरे आठ दिन जिन लेखकों की सतत जिज्ञासा ने प्रभावित किया उनमें एक तो थे गुजरात के कहानीकार जो पेशे से डॉक्टर हैं [सियामी ट्विन्स पर उनकी कहानी मुझे आज भी याद है], और दूसरे थे ओडिशा के सौरा नायक जिन्होंने पात्र और डायरी लेखन में अधिक रुचि दर्शाई थी. बाद में इन दोनों की ही पुस्तकें प्रकाशित हुईं और मुझे जानकर अच्छा लगा कि वे मुझे भूले नहीं.
अभी कुछ माह पूर्व एक किशोर ने मेरे कार्यालय में आकर नमस्कार करने के बाद इतना ही कहा था कि 'मैं ओडिशा......' ; कि मैं उछल पड़ा - आप सौरा नायक के बेटे हैं?' वह बालक हैदराबाद की किसी कंपनी में कार्यरत है और अपने पिता की और से मुझे प्रणाम करने आया था. उसने फोन पर सौरा नायक से बात भी कराई. बातों-बातों में पता चला कि इन दिनों वे अपना कविता-संग्रह तैयार कर रहे हैं. कुछ ही दिन बाद उनकी कविताएँ भूमिका के लिए मेरे पास आ गईं. भूमिका लिख कर दे दी है; पर एक खास बात उसमें लिखने से छूट गई है; कि सामान्य सुविधाओं तक की दृष्टि से भी अत्यंत विपन्न पृष्ठभूमि से आए सौरा नायक की विनम्रता मुझे आज के समय में दुर्लभ लगती है.
भूमिका
हमारा समय अत्यंत क्रूर और असाध्य समय है. आज के रचनाकार की रचनाधर्मिता की पहली कसौटी यही होनी चाहिए कि उसने अपने समय की इस क्रूरता और असाध्यता को किस प्रकार संबोधित किया है. ओडियाभाषी सौरा नायक इस रचानाधर्म को पहचानते हैं, इसीलिए उन्होंने चतुर्दिक व्याप्त मूल्य विघटन, अपसंस्कृति और अमानुषिकता के प्रति असंतोष, आक्रोश और क्रोध को सीधे-सीधे बयान कर दिया है - सपाटबयानी के आक्षेप की परवाह किए बिना.
कवि सौरा नायक इस स्थिति से अत्यंत विचलित हैं कि हम सैद्धांतिक स्तर पर तो सत्य का जय घोष करते हैं लेकिन व्यावहारिक स्तर पर सत्य का गला घोंटने में नहीं हिचकते. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से रहित लोकतंत्र उन्हें असह्य प्रतीत होता है - सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन ऐसे में दो लेखकों ने नाम भर नहीं रह जाते, अभिव्यक्ति का ख़तरा उठानेवाले तमाम योद्धाओं के प्रतीक बन जाते हैं.
संपन्नता और विपन्नता के बीच जितना बड़ा अंतर हम आज देख रहें हैं, मनुष्यता के इतिहास में यह पहले शायद इतना न रहा हो. यह खाई दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है. कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि इतने भीषण अंतराल के चलते शायद ऐसा वर्ग संघर्ष कभी संभव न हो जो समत्व के स्वप्न को साकार कर सके. ऐसे में भूख का बढ़ते जाना अत्यंत क्रूर सच्चाई है. सौरा नायक तो यह तक कहने में संकोच नहीं करते कि बुद्ध तक भूख के चंगुल से नहीं बच पाए और उन्हें बुद्धत्व का प्रकाश आहार से ही मिला. प्रकारांतर से वे यह कहते हैं कि भारत जैसे दरिद्रता से जूझ रहे देश की प्राथमिकता रोटी होनी चाहिए, संबोधि नहीं क्योंकि अब यहाँ सत्य की नहीं दौलत की प्रतिष्ठा है.
आज के कवि को यह प्रश्न बहुत व्यथित करता है कि वह क्या लिखे, क्यों लिखे, किसके लिए लिखे? सौरा नायक भी काव्य रचना से अधिक प्रासंगिक आज के समय में प्रलय के आह्वान को मानते हैं. वास्तव में भारत के अधिकांश संवेदनशील और ईमानदार नागरिक आज ऐसा ही महसूस करते हैं. इसका कारण है मनुष्यों को अनुशासित करने की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था अर्थात लोकतंत्र की भयावह असफलता. कवि का विश्वास कल्याणकारी लोकतंत्र में है, परंतु उस समय इस विश्वास की चूलें हिलने लगती हैं जब गणतंत्र के सारे स्तंभ धन देवता, वोट देवता और डंडा देवता की देहरी पर दम तोड़ते दिखाई देते हैं. इतना ही नहीं लोकतंत्र में जनसंघर्ष का हथियार समझे जानवाले सत्याग्रह तक को स्वार्थ की राजनीति करनेवालों ने जनविरोधी और लोकविरोधी बना डाला है. ऐसे में कवि का क्रोध जायज है - "नामर्दो, बंद करो/ यह आग जनी लूट पाट/ रेल रोको, रास्ता रोको हड़ताल से/ भला क्या हासिल होगा/ सिवाय इसके कि.../ मजदूरों की रोटी मारी जाएगी/ कोई बेबस बेइलाज/ मारा जाएगा..../ कुछ बेघरवार हो जाएँगे/ उनकी झोपड़ियों को/ आग लील जाएगी,/ कुछ भोले भाले/ इन्सानों की... लहू/ मिट्टी में सन जाएगी/ बेकसूरों से जेल भर जाएगी." यहीं से वे प्रतिक्रियाएँ जन्म लेती हैं जिन्हें विद्रोह कहकर सदा सत्ता कुचलती रहती है - "जला सको तो/ नामर्दो..../ उस नेता को जलाओ,/ तोड़ सको तो तोड़ो.../ उनके शीश महल-हवा महल को"
सौरा नायक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक चिंताओं के कवि हैं. उनके सरोकार अत्यंत व्यापक है जिनमें एक विफल होते हुए लोकतंत्र की पीड़ा अभिव्यंजित है. उनके ये सरोकार उन्हें कहीं भी चैन लेने नहीं देते, न भोलेनाथ की नगरी भुवनेश्वर में न जगन्नाथ की नगरी पुरी में. वे उस देहात में लौट जाना चाहते हैं जहाँ संबंधों का स्वर्ग आज भी महमहाता है. उनके कवि हृदय को प्रकृति की अपरूप लीला मुग्ध करती है, पानी के तरल कोमल वर्म पर रजत किरणों की फिसलन उन्हें मोह लेती है. प्रेमोन्मत्त नायक की निगाह सी किरण और विवश लज्जाशील बाल तरुणी सी झील उनकी सहज सौंदर्य चेतना को उद्बुद्ध करती है.
कुल मिलाकर प्रस्तुत कविता संग्रह सौरा नायक के सहज संवेदनशील हृदय का दर्पण है; और इस हृदय में सारी कायनात समाई है. साहित्य जगत में उनकी इस कृति को यथेष्ट सम्मान मिलेगा, इसी कामना के साथ-
-ऋषभ देव शर्मा
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