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सोमवार, 15 नवंबर 2010

भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की समग्र शोध पत्रिका 'समुच्चय'


हिंदी में शोध पत्रिकाएँ गिनी चुनी ही हैं और उनकी भी सामग्री को लेकर प्रायः असंतोष जताया जाता रहता है। ऎसी स्थिति में हैदराबाद स्थित अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्‍वविद्यालय के हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग ने 'समुच्चय' के रूप में एक न‍ई शोध पत्रिका आरंभ करने का स्तुत्य कार्य किया है और उसे ’एक और पत्रिका’ बनाने की अपेक्षा विशिष्‍ट पहचान देने की दृष्‍टि से ऎसी ’मूल्यांकित शोध पत्रिका’ के रूप में प्रस्तुत किया है जिसकी सामग्री विशेषज्ञ समिति द्वारा अनुमोदित होने पर ही प्रकाशित की जाती है। 


भाषा, साहित्य एवं संस्कृति विषयक चिंतन और शोध को समर्पित इस पत्रिका के प्रवेशाकं (नवंबर 2010) में संपादक प्रो. एम.वेंकटेश्‍वर (अध्यक्ष हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग ,इफ्लू ) ने "हिंदी तथा विदेशी भाषाओं एवं उनके साहित्यक रूपों के मध्य एक सुदृढ अकादमिक संबंध स्थापित कर अनुवाद एवं तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से इस भाषा 'समुच्चय' को समृद्ध करने " को हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग का उद्देश्य बताया है। 'समुच्चय' इस उद्देश्य की प्राप्ति की दिशा में एक सुविचारित पहल है। इस पत्रिका का लक्ष्य "अखिल भारतीय स्तर पर भाषा,साहित्य और संस्कृति की बहुआयामी विकासशील चिंतन परंपरा को शोध दृष्‍टि प्रदान करना" है। यह भी स्पष्‍ट किया गया है कि पत्रिका केवल प्रतिष्‍ठित और बहुचर्चित हस्ताक्षरों तक ही सीमित नहीं रहेगी बल्कि प्रमुख रूप से "भावी चिंतकों की पीढ़ी को" लक्षित करेगी। इसमें संदेह नहीं कि प्रवेशांक के माध्यम से ही ’समुच्च्य ’ ने विभिन्न भाषा साहित्यों पर अभिनव दृष्‍टिकोण से विमर्श की शुरूआत कर दी है। यह अंक अपनी शोधदृष्‍टि और वैचारिकता के आधार पर आश्‍वस्त करता है कि ’समुच्च्य ’ का प्रकाशन विश्‍वविद्यालयी शोध पत्रकारिता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण घटना है। संबंधित विभाग इस उपलब्धि के लिए अभिनंदनीय है। 


प्रवेशांक की सामग्री में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं ’नए विमर्शों पर केंद्रित’ आलेख। उदाहरण के लिए प्रो. दिलीप सिंह का "फिल्म भाषा की आर्थी संरचना " शीर्षक आलेख इस अंक की महती उपलब्धि है जिसमें ’फिल्म भाषाविज्ञान’ जैसा एक अध्ययन क्षेत्र प्रस्तावित किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि सिनेमा जीवन नहीं है,वह एक सृजनात्मक दर्शनीय कला है जिसकी प्रोक्ति एक पूरी प्रक्रिया से बनती है। इस वर्ग का दूसरा आलेख आदिवासी या जनजाति विमर्श से संबंधित है जिसमें रमणिका गुप्ता ने कई महत्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रश्‍न उठाए हैं। यदि इस आलेख में दिए गए आँकड़ों को संदर्भों द्वारा पुष्‍ट किया गया होता तो अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता। इसी प्रकार विदेशी साहित्य के अनुवाद पर केंद्रित दिविक रमेश के आलेख में अनुवाद विमर्श के क‍ई पहलू छिपे हैं जिनपर आगे कार्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त उत्तरआधुनिक स्त्रीविमर्श और उपभोक्‍ता संस्कृति पर केंद्रित आलेख में तर्कपूर्वक उपभोक्‍तावाद और उपभोक्‍ता संस्कृति को अलगाया गया है और बाजार की शक्‍तियों के समक्ष स्त्रीशक्‍ति को खड़ा किया गया है। 


दूसरा वर्ग ’पुनर्पाठ ’ से संबंधित है। प्रो. जगदीश्‍वर चतुर्वेदी ने "तुलसी का बाख्तियन मूल्यांकन" प्रस्तुत किया है जो निश्‍चय ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और आज के समय में आज की दृष्‍टि से तुलसी और 'मानस' को प्रांसगिक सिद्ध करता है। लेकिन इस आलेख की त्रासदी है इसकी वाकस्फीति, जिसके कारण अनेक स्थलों पर प्रवाहहीनता और शाखाचंक्रमण की स्थितियाँ पैदा हो गई हैं और शोधपत्र के पैनेपन की क्षति हुई है। यदि फिल्म भाषा वाला आलेख 'समुच्च्य' का सर्वाधिक सुगठित आलेख है तो तुलसी पर केंद्रित यह आलेख इस अंक का सर्वाधिक बिखरा हुआ आलेख है, जिसका संपादन कर दिया गया होता तो बेहतर होता। डॉ. चतुर्वेदी ने आंरभ में इस बात पर बल दिया है कि ’मानस ’ को ’महाकाव्य ’ की अपेक्षा ’ रेटोरिक ’के रूप में देखने की ज़रूरत है लेकिन आगे चलकर स्वयं उन्होंने ’जीवनगाथा ’ के रूप में भी इसका ’महाकाव्यत्व ’ ही सिद्ध किया है। कथा, भाषा और मूल्यों की वर्णसंकरता को उन्होंने सही ही ’मानस’ की बड़ी उपलब्धि माना है जो पहले से ही सर्वस्वीकृत है और समन्वय की चेतना के रूप में तुलसी के लोकनायकत्व का आधार है। इस वर्ग में शकुंतला मिश्र के "आचार्य शुक्ल की विचारसरणि में रवींद्र" तथा अमिष वर्मा के "19वीं सदी का नागरी हिंदी आंदोलन'' को भी रखा जा सकता है| अमिष वर्मा ने अनेक उद्धरणों की सहायता से यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि उन्नीसवीं शताब्दी का ’हिंदी आंदोलन ’ मूल रूप में ’हिंदू आंदोलन’ था और भारतेंदु हरिश्‍चंद्र तथा उनके समकालीन हिंदी लेखक सांप्रदायिक लेखन कर रहे थे। इतिहास का ऎसा पुनर्पाठ खंडदृष्‍टि का ही परिणाम हो सकता है तथा इस पर अगले अंकों में बहस आमंत्रित की जानी चाहिए क्योंकि इस दृष्टिकोण में कई खतरनाक संकेत छिपे प्रतीत हो रहे हैं। हाँ,अयोध्या प्रसाद खत्री के योगदान को सही रूप में रेखांकित किया गया है जिस पर स्वतंत्र शोध की आवश्‍यकता है। रावण को नायकत्व प्रदान करने वाली एक रचना की समीक्षा भी इस वर्ग में रखी जा सकती है परंतु इसमें भूषणचंद्र पाठक द्वारा जिस प्रकार की अतिरंजनापूर्ण उक्‍तियों का प्रयोग किया गया है उनसे बचा जाना चाहिए था। रामकथा के जाने कितने पाठ कुपाठ होते रहते हैं; नवकांत बरुआ का ’रावण ’भी वैसा ही एक और प्रयास है जिसमें रावण को ’स्वप्नविभोर महानायक ’ बनाया गया है। 


'समुच्च्य ’ के प्रवेशांक की सामग्री का तीसरा वर्ग 'शोध समीक्षा’ का हो सकता है। इस वर्ग में प्रज्ञा के "मुक्तिबोध की कथा संवेदना : आत्मसंघर्ष से जनसंघर्ष तक " तथा शैलजा के "नवें दशक की हिंदी कहानी की संरचना" शीर्षक आलेखों को सम्मिलित किया जा सकता है। पहले शोधपत्र में दर्शाया गया है कि मुक्तिबोध मध्यवर्ग की सहानुभूति पूर्ण आलोचना करते हुए उसे आत्मसंघर्ष और जनपक्षधरता के लिए प्रेरित करते हैं जबकि दूसरे में नवें दशक की कहानियों की पड़ताल वर्णन, किस्सागोई, बयान, मिथक और फैंटेसी के निकष पर की गई है। ये दोनों ही आलेख इन विषयों पर पूर्ण शोधप्रबंध की संभावना दर्शाते हैं।


'पुस्तक चर्चा’ वर्ग में हीरालाल नागर के आलेख को रखा जा सकता है जिसमें प्रदीप सौरभ के उपन्यास ’मुन्नी मोबाइल’ की प्रभाववादी समीक्षा करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि कथावस्तु और कथाविधि दोनों ही दृष्‍टियों से यह एक अभिनव प्रयोग है।


अंत में विभाग में कुछ समय पूर्व संपन्न "भाषा, साहित्य एवं संस्कृति : समकालीन संदर्भ " विषयक राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी की रिपोर्ट दी गई है जो पर्याप्त जानकारीपूर्ण है। उद्घाटन सत्र की भाँति ही यदि चर्चा सत्रों पर भी विस्तार से लिखा जाता तो यह विवरण और भी उपयोगी हो सकता था। 



कुल मिलाकर 'समुच्च्य’ का प्रवेशांक हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग (इफ्लू) की शोध संबंधी प्राथमिकताओं की ओर संकेत करने में सफल दिखाई देता है। ये प्राथमिकताएँ हैं - समसामयिक दृष्‍टियों से मध्यकालीन साहित्य का पुनर्पाठ, इतिहास की पुनर्व्याख्या, नए विमर्शों पर विशेष बल तथा हिंदी के साथ-साथ विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं के साहित्य पर एक मंच पर लोकतांत्रिक विचार विमर्श। 'समुच्च्य’ के रूप में एक स्तरीय शोधपत्रिका का प्रकाशन निश्‍चय ही हैदराबाद के लिए गौरव का विषय है। इस अंक को अलग से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया जा सकता है क्योंकि संदर्भ सामग्री के रूप में इसकी उपादेयता असंदिग्ध है| विश्वास किया जाना  चाहिए कि इस अर्धवार्षिक शोधपत्रिका के भावी अंकों की प्रस्तुति और अधिक सुगठित होगी तथा पृष्ठसंख्या भी दोगुनी तो होगी ही| 



समुच्च्य (अंक-1)/
[भाषा,साहित्य एवं संस्कृति की मूल्यांकित शोध पत्रिका]/
संपादक - प्रो. एम. वेंकटेश्‍वर/ 
2010/ 
हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग, 
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्‍वविद्यालय, तारनाका, हैदराबाद-500007 / 
पृष्ठ 122/ 
मूल्य 30 रुपए|

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

`लेकिन इस आलेख की त्रासदी है इसकी वाकस्फीति, जिसके कारण अनेक स्थलों पर प्रवाहहीनता और शाखाचंक्रमण की स्थितियाँ पैदा हो गई हैं और शोधपत्र के पैनेपन की क्षति हुई है। '

वैसे भी, जगदीश्वर चतुर्वेदी [नया ज़माना ब्लाग] कि विचारधारा को देखते हुए उनका तुलसी पर कुछ कहना अटपटा लगता है :)