खतौली से लौटकर हलके-फुल्के अंदाज़ में लिख दी थी पिछली पोस्ट " सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी बुढापे में! " मित्रों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मन में संकोच सा भी था. लेकिन मैं विस्मित रह गया यह देखकर कि अपने डॉ.राधे श्याम शुक्ल जी ने उसे २४ जनवरी को अपने पत्र ''स्वतंत्र वार्ता'' के साहित्य वाले साप्ताहिक पन्ने पर छाप डाला. कई सारे मित्रों और छात्रों ने फोन करके विधिवत उस आलेख का नोटिस लिया. कुछ व्यक्तिगत ईमेल भी आए.और हाँ, ''हिन्दी भारत'' समूह पर भी अच्छा प्रतिसाद मिला. अपने ऐसे सभी मित्रों के प्रति आभार व्यक्त करने के साथ ही उन प्रतिक्रियाओं को यहाँ सहेजने का मोह मैं संवरण नहीं कर पाया. सो,यह पोस्ट तैयार हो गई.
भारत डायनेमिक्स के वरिष्ठ हिंदी अधिकारी होमनिधि शर्मा ने लिखा है-
पंडित जी, बढ़िया संस्मरण. इस बहाने हम भी थोड़ा-बहुत आपका गृह-नगर देख आए. पढ़कर फिल्म माचिस का वह गीत ताजा हो गया 'चप्पा-चप्पा चरखा चले, गोरी-चट गोरी जो कटोरी से खिलाती थी......' उम्मीद है 'गपशप' में महबूबनगर पर लिखा संस्मरण पसंद आया होगा.होमनिधि शर्मा
शर्मा जी की ही तरह सैयद मासूम रज़ा भी एक अन्य वैज्ञानिक संस्थान में वरिष्ठ हिंदी अधिकारी हैं - नाभिकीय ईंधन सम्मिश्र में. उन्हें इलाहाबाद के दिल में छिपा अपना गाँव याद हो आया -
धन्यवाद सर,मज़ा आ गया (कम से कम सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी खाने को बुढापे में) को पढ़कर. हाल ही लगभग ऐसा ही आनंद मैंने भी उठाया अपने गाँव इलाहाबाद में. मजबूरी ये है कि कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है.शुभ रात्रिरज़ा
हैदराबाद विश्वविद्यालय के डॉ.आलोक पांडे जी को शायद सुकरात और कन्फ्युशीयस वाला आत्मव्यंग्य भा गया -
अच्छा लगा. वैसे भी सागरो मीना में दर्शन का सुख कहाँ!
अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के रूसी विभाग के प्रोफ़ेसर डॉ. जगदीश प्रसाद डिमरी मेरे प्रति अकारण परम स्नेह रखते हैं. गलती हो गई कि उनके लिए गुड़ नहीं लाया गया.ज्ञात हो कि हमारा जिला [मुज़फ्फर नगर] एशिया की सबसे बड़ी गुड़-मण्डी माना जाता है. तो डिमरी सर ने लिखा -
प्रिय ऋषभदेव जी ,सुंदर सुंदर सब्जियों वाला आलेख मिला. बहुत अच्छा लगा. खतौली और चीतल की याद ताजा कर दी. ये दोनों मेरे घर जाने के रास्ते में पड़ते हैं. बथुवे की याद तरो ताजा कर दी. मोंडा से एक दिन बथुवा लाया था, लेकिन मजा नहीं आया. बथुवा मरा जैसा था .खतौली में गुड़ भी अच्छा बनता है. लाये हैं क्या?
जे पी. डिमरी
अपने सत्य नारायण शर्मा कमल जी तो सदा मेरी हर रचना पर आशीर्वाद देते ही हैं. उन्हें भी खतौली की जलेबियाँ पसंद हैं. अत्यंत स्नेहपूर्वक उन्होंने लिखा -
प्रिय ऋषभ देव जी,आपके खतौली प्रवास पर आपके वरिष्ठ मित्र कवि-साहित्यकारों के साथबीते समय का वृत्तान्त पढ़ कर मन आनंद से भर गया | गाज़ियाबादसे मुज़फ्फरनगर देहरादून या हरिद्वार आते जाते खतौली से कई बारगुज़रा हूँ | मुख्य मार्ग पर नहर से मिले होटल में उस समय बढ़ियाखाना और जलेबी आदि मिलती थी | हरी ताज़ी सब्जियों का मज़ातो पश्चिम उत्तर प्रदेश में देखते और खाते ही बनता है | यादें ताज़ाहो गईं |सस्नेहकमल
आदरणीय अनूप भार्गव जी ने तेवरी में रूचि दर्शाई है -
आदरणीय ऋषभ जी:आप के सुन्दर और स्वादिष्ट संस्मरण के लिये धन्यवाद :-) बहुत रोचक और मन से लिखा हुआ लगा ।मेरा अनुमान है कि यह वही प्रो. देवराज हैं जिन की ज्योति बसु जी पर लिखी कविता आप ने कुछ दिन पहले भेजी थी । बहुत सशक्त कविता है ।मेरी अज्ञानता समझ लीजिये लेकिन ’तेवरी काव्यांदोलन’ के बारे में और जानने की इच्छा है । आप की कुछ तेवरी पढी हैं और बहुत अच्छी लगीं, बस जानकारी वहीं तक सीमित है ।सादरअनूप भार्गव
अब शीघ्र ही कुछ पोस्टें तेवरी के इतिहास और प्रवृत्तियों पर लिखनी होंगी. प्रिय डॉ.बी. बालाजी को भी तेवरी से जुड़ा प्रसंग रोचक लगा. उन्होंने अपने चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी के स्वास्थ्य के बारे में भी पूछा है. दरअसल प्रसाद जी के कोलिक अल्सर के ऑपरेशन से दो दिन पहले ही बालाजी और मैं उनके आवास पर गए थे. बालाजी लिखते हैं -
नमस्कार सर.'सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी बुढापे में!'संस्मरण पढ़ने का मौका मिला. पढ़कर अच्छा लगा .तेवरी आन्दोलन की जानकारी मिली. तेवरी आन्दोलनकारियों की दोस्ती भी अच्छी लगी. यह 'अपनापन' का दर्पण है. बहुत से स्थल मन को छूते हैं.आपके द्वारा इस तरह के संस्मरणों के संकलन की प्रतीक्षा रहेगी.एक संस्मरण का संकलन हो ही जाए.चंद्रमौलेश्वर जी का क्या हाल है.शुभ रात्रि.आपकाबालाजी
संकलन-फंकलन तो खैर अभी सपने में भी नहीं सोचा - कोई संभावना नहीं. हाँ, चन्द्र मौलेश्वर जी ऑपरेशन के बाद स्वास्थ्यलाभ कर रहे हैं - अभी अस्पताल में ही हैं और आज कुछ चले-फिरे भी. अरे हाँ, उन्होंने भी बथुवे में रुचि प्रदर्शित की थी फोन करके.अब यह सुरुचि सम्पन्नता ही तो है कि वरिष्ठ कवयित्री डॉ. प्रतिभा सक्सेना जी को गन्ने से लेकर सब्जियों तक सब कुछ प्रत्यक्ष हो आया -
भावनाओं के सहज और आत्मीय उद्गार, विगत की स्मृतियों के साथ और प्रभावी हो गये हैं, सीधे मन में उतर जाते हैं.उत्तरप्रदेश का वह भाग कुछ दूसरे ही हवा-पानी से युक्त है. मैं बारह वर्ष से भी अधिक उधर रही हूँ, वहीं से एम.ए.किया. वहाँ के लोग, वहाँ का गन्ना, मेवा पड़ा ताज़ा गुड़, लुकाट, लीचियाँ और सब्ज़ियां - आपने कह ही दिया (मेरे बोलने को कुछ नहीं बचा)! यह जान कर अच्छा लगा कि अभी भी यथावत् हैं.आपका आभार कि फिर वही सब प्रत्यक्ष-सा हो गया..सादर,प्रतिभा सक्सेना
डॉ. शकीला खानम जी, डॉ अंबेडकर ओपन यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग की अध्यक्ष हैं. उन्हें भी अपना गाँव याद आया -
आदरणीय,आप का आलेख पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा. मेरे मन में भी अपने गाँव की पुरानी स्मृतियाँ ताज़ी हो गयी.सादर,शकीला.
प्रो. शकीला जी ने स्लाइड शो बाद में देखा - और ध्यान से देखा. दो तस्वीरें हिंदी की उपेक्षा को उजागर करने को लगाई गयी थीं - मैडम ने उनका सटीक नोटिस लिया -
नमस्कार !अभी-अभी तस्वीरें भी देखी है ! इनमें से अंग्रेज़ी की दीवार-हिंदी लाचार वाली तस्वीर और स्लोगन - दोनों बहुत अच्छे लगे. ऐसी तस्वीरों को राजभाषा विभाग की दृष्टि में ले जाना चाहिए. संसदीय राजभाषा समिति अपने निरीक्षण के बहाने जबतब अधिकारियों को परेशान करती रहती हैं तब क्या उनकी नज़र इनपर पडती नहीं? या तेवरी की प्रजा सिर्फ अंग्रेज़ी ही जानती हैं ? !सादर,शकीला
उड़न तश्तरी ने ब्लॉग पर टिप्पणी में कहा -
गांव की चौपाल सी महकती सुन्दर संस्मराणात्मक पोस्ट.आनन्द आ गया.
और आदरणीय गुरुदयाल अग्रवाल जी ने तो कृपा की बरसात ही कर दी -
I was away to Bangalore for a couple of days having returned to Hyderabad only on 23.1.10night. I read this article in Varta yesterday which truely depicts the picture of the heavenlypleasures of meeting old friends (for 'friends' read 'friends who are only friends and nothingelse'). This is further loaded with 'bathua' the miracle in green leaves. This also happens to bemy weakness and stands certified from the fact that during this season if ever I happen to goto Delhi all my relations keep a packed of boiled 'bathua' for me and sometimes I have tocarry more than 2/3 kg of the same to Hyderabad and enjoy it for a long long timeNow it is available here also but not alwaysWith happly bathua greetingsas ever yoursg.d.agarwala
गुरुदयाल जी के बथुवा-प्रेम से अभिभूत होकर उन्हें फोन किया तो लंबी बात हुई. वे बोले - ''आपका संस्मरण पढ़कर एक बात समझ में आई कि आपके जीवन में एक बड़ी कमी है.'' ''वह क्या?''-मेरी उत्सुकता स्वाभाविक थी. उनका उत्तर परम स्वादिष्ट था -''यह कि आपने अभी तक मेरे हाथ के पराँठे नहीं खाए. एक बार खाएँगे तो बार बार संस्मरण लिखेंगे.'' अब आप समझ सकते हैं कि आगे क्या हुआ होगा.
जी हाँ, फरवरी के दूसरे सप्ताह उन्होंने मुझे सपरिवार अपने घर पराँठों के आस्वादन के लिए न्यौत दिया है.
अब लिखने को रह क्या गया?
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