इस बार कई साल बाद ११ जनवरी को मैं अपने गृह-नगर खतौली में था. प्रो.देवराज भी संयोगवश मणिपुर से कुछ समय के लिए इन दिनों वहाँ आए हुए हैं. हम दोनों मिले तो १९८० से १९८३ की वे तमाम यादें ताज़ा हो आनी ही थीं जब हम दोनों पर तेवरी का जुनून हुआ करता था. तय हुआ कि जब संयोगवश इस बार तेवरी दिवस पर हम लोग साथ हैं तो विधिवत पुरानी यादों को मिल बैठ कर दुहराएँ और कुछ आपस में सुनें -सुनाएँ.
जगदीश सुधाकर जी का मूड उस दिन [यह बात ९ जनवरी की रात ११ बजे की है] उखड़ा हुआ था . देर तक हम दोनों की 'जुगाली' से शायद चिढ़कर बड़बड़ाए ,'' समस्या मैं दिए देता हूँ - एक थी तेवरी.'' मुझे बात लग गई और मैं लगा उन्हें उसी '८० के आंदोलनी अंदाज़ में बताने कि तेवरी ''थी'' नहीं ''है''; और कि कथ्य और शिल्प की जिस जनपक्षीयता की आवाज़ उस वक़्त हम लोगों ने उठाई थी , आज और भी समकालीन हो गई है. जसवीर राणा जी ने भी मेरी बात को पानी दिया तो सुधाकर जी के हाथ कंबल से बाहर निकल आए. लेकिन भोजन आने से उनका उकसाऊ आशु-काव्य स्थगित हो गया. दरअसल हम यार लोगों में वे सीनियर तो हैं ही,अकेले आशुकवि भी हैं - ऊपर से हास्यव्यंग्य में सिद्धहस्त. वे व्यंग्य से बाज नहीं आते और खासतौर से मैं चिढ़ने से नहीं चूकता. पहले तो हम दोनों एकदूसरे को काफी जलीकटी सुना देते थे. पर इस वक़्त सचमुच हम चारों को भूख लगी थी इसलिए विवाद होते होते बच गया जिसका हम सभी को अफ़सोस रहेगा क्योंकि वे कई रचनाएँ अब अनलिखी रह जाएँगी जो पहले की तरह इस तरह की बहस के बाद खुद-बखुद हम यारों के भीतर से फूट कर निकलनी थीं. अफ़सोस!
ठंड और कुहरे से भरी ठिठुराती-ठिठुरती रात के तीसरे पहर वे तीनों कम्बलवान मुझे सर्दी से बचने की हिदायत देते हुए अपने घरों को रवाना हुए तो इस संकल्प के साथ कि ११ को दिन भर बाहर काव्य-शास्त्र -विनोद और मधुर-कलह में बिताएँगे. मेरी आँखें गीली हो आई थीं, इसे वे अँधेरे में भी ताड़ गए ; और तेजी से निकल लिए. उनकी आँखें भी तो भरी हुई थीं!
११ जनवरी. तेवरी काव्यांदोलन की वर्षगाँठ. उस समय के सब युवा मित्र अब ५० पार के बूढ़े हैं . कुछ तो काल के प्रवाह में सदा सदा के लिए बिला भी गए - शौरमी और चमचा की तरह असमय. कुछ से कभीकभार का प्रत्यक्ष या परोक्ष संपर्क बचा हुआ है - पवन और रमेशराज की तरह. सुधाकर जी और राणा जी ने गुरुदत्त विद्रोही और धनीराम सुधीर जैसे शुभचिंतकों के भी अब न रहने की सूचना दी.
सुधाकर जी और राणा जी दोनों ही कुछ ऐसे कामों में फँस गए कि मैं और देवराज जी दिन भर उनकी राह देखते रह गए.
मैं देवराज जी के साथ होऊँ तो एक बड़ी गड़बड़ हमेशा हो जाती है कि हम हँसना भूल जाते हैं. गंभीर हो जाते हैं. उस दिन भी यही हुआ. हम दोनों पोस्ट ऑफिस गए, फिजियोथिरेपिस्ट के पास गए, सुबह से शाम तक अपने छोटे से कस्बे की गलियों में दूकान-दूकान घूमे,पैदल ही चीतल [गंगनहर पर पार्क] तक हो आए; और लगातार बातें भी करते रहे. बातें भी क्या कम हैं करने को? उन गली-सड़कों पर घूमते वक़्त हम हमेशा सुकरात और कंफ्यूशियस हुआ करते थे. आज भी हो गए. आनन फानन एक योजना बना डाली - मौका मिलते ही हैदराबाद में ''पूर्वोत्तर की सच्चाई'' पर सम्मलेन की.
होली चौक पर जलेबियाँ खाईं - ठेले के सामने खड़े होकर - ताजा गरमागरम. दुकानदार ने बैठने को कहा. पर हमें तो पहले की तरह खड़े रहकर अतीत की जुगाली करनी थी. मूंगफलीवाले ने तो हमें पहचान भी लिया. बाहर रोटीरोजी कमाने गए युवा को उसके अपने गाँव में पहचानने वाले धीरे धीरे ख़तम हो जाते हैं न! इतने बरस बाद सड़क पर किसी ने पहचाना तो सही!
चीतल पार्क कितना बदल गया है. खुलापन न दिखा. सब बंद-बंद सा लगा. वहाँ कुछ खानेपीने का मन नहीं हुआ. पर आए हैं तो कुछ तो लेंगे ही न. सो वेज-सूप ले लिया. सूप क्या था साहब ,सारी मौसमी सब्जियाँ थीं. मिर्च ज़रूर ज़रुरत से ज्यादा थी, लेकिन यह क्षण भर में खोपड़ी में कौंध गया कि अपनी खतौली जैसी सब्जियाँ न ऋषभ को हैदराबाद में नसीब हो सकती हैं , न देवराज को मणिपुर में. देवराज जी ने जब कहा कि हर सड़क पर गुजरते हुए मैं तो तड़प के साथ देखा करता हूँ ताज़ा तरकारियों को कि यहाँ से जाकर हमने जाने क्या क्या खो दिया, तो बात गंभीर होते हुए भी मैं जोर से हँस पड़ा. शायद बहुत दिन बाद संक्रामक हँसी हँस रहा था ,तभी तो देवराज भी हँसने लगे यह बताते हुए कि - मैं तो अवकाशप्राप्ति के बाद यहीं लौटने के बारे में गंभीरता से सोच रहा हूँ - कम से कम सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी खाने को बुढापे में.[ अपने सुधाकर जी सुंदर को स्वादिष्ट और स्वादिष्ट को सुंदर कहते हैं.यानी पुरुष या स्त्री स्वादिष्ट और मिठाई या सब्जी सुंदर!]
बहुत दिनों के बाद इतनी दूर पैदल चलने से थक गया था. डॉ.साहब को तो खूब पैदल चलने की आदत है, पर मैं सचमुच आलसी और मोटा हो गया हूँ. पहली बार मेरा ध्यान इस बात की ओर गया कि जी टी रोड पर स्थित पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह प्रमुख कस्बा कुछ ख़ास बदला नहीं है. काफी जड़ता है. तभी एक गड्ढे में पैर पड़ने से घुटना लचक गया. ख़याल आया कि खतौली में ऑटो नहीं आया अभी तक. एक रिक्शा संभावित सवारी समझकर हमें घूरता हुआ धीरे धीरे पास से गुजरा. मैंने डॉ. साहब से कहा - इस मौसम में रिक्शा पर सवार होना अत्याचार से कम नहीं होगा न? डॉ.साहब समझ गए कि मैं थक रहा हूँ. उन्होंने अपनी गति धीमी कर दी. कीमती के होटल में भोजन किया तो मैं विस्मित रह गया कि आज के ज़माने में भी दो आदमी मात्र ३५ रूपए में भरपेट लंच कर सकते हैं. देवराज जी ने फिर दुहराया - यहीं लौटना है. मैंने जोड़ा - सब्जी ही नहीं रोटी भी सुंदर मिलती हैं - गोरी, गरम और गदबदी! फिर वही संक्रामक हँसी - कुछ डर नहीं कि कोई 'असभ्य' कहेगा या पूछेगा कि 'मास्टर होकर इस तरह ठहाके क्यों लगाते हो'!
शाम हो आई. देवराज जी के घर बैठक जमी. सुधाकर जी और राणा जी भी आ गए - अन्य मित्र भी. दस दिन से धुंध बरस रही थी. अब हल्की सी वर्षा भी होने लगी. भाभी [श्रीमती देवराज] ने तमाम सब्जियाँ मँगा रखी थीं - जानती हैं वे कि ऋषभ आएगा तो पकौड़ी की फरमाइश करेगा. मैं देवराज जी का ब्लॉग [चौपला] बनवाने में लगा था इसलिए फरमाइश में चूक गया . लेकिन भाभी नहीं चूकीं. जमकर यार लोगों ने पकौड़ियाँ खाईं . मगभर चाय का दूसरा दौर चल रहा था कि भूड़ [ मेरे घर] से भतीजे का फोन आ गया ,'' कहाँ हैं? आपने बथुए को कहा था ,आ गया है. ज्योति [बहू] पूछ रही हैं कि रायता बनाएँ या पराँठे ?'' ''अरे हाँ! मैं तो भूल ही गया था . चाहे जो बना लें. मुझे तो बथुए से मतलब है. और हाँ ,हम सब आ रहे हैं.''
सुधाकर जी ने पूछा था - क्यों ,वहाँ हैदराबाद में नहीं मिलता क्या बथुआ? मुझसे पहले देवराज बोल पड़े - सुधाकर जी भी नहीं मिलते. अब क्या बताऊँ कि क्या क्या नहीं मिलता. [ वैसे प्रो. जे. पी. डिमरी कह रहे थे कि उन्हें कभी कभार मोंडा मार्केट में बथुआ मिल जाता है. मिलता होगा. पर मेरी खतौली जैसा कतई नहीं.] राणा जी ठहरे बेसिकली किसान आदमी , सो उन्होंने वे दिन याद दिलाने शुरू कर दिए जब हरे साग खेत से तोड़कर लाया करते थे. [ वे कुछ दिन कितने सुंदर थे जब........!]
खैर, जमकर बथुए के पराँठों का आनंद लिया गया. गाजर के हलवे ने देवराज जी को फिर सब्जियों के सौंदर्यशास्त्र पर व्याख्यान का सुअवसर मुहैया कराया.
और बाद में मुँह में घुलती हुई गुड़ की कंकर! सुंदर भी , स्वादिष्ट भी.
2 टिप्पणियां:
गांव की चौपाल सी महकती सुन्दर संस्मराणात्मक पोस्ट.
आनन्द आ गया.
पंडित जी, बढ़िया संस्मरण. इस बहाने हम भी थोड़ा-बहुत आपका गृह-नगर देख आए. पढ़कर फिल्म माचिस का वह गीत ताजा हो गया 'चप्पा-चप्पा चरखा चले, गोरी-चट गोरी जो कटोरी से खिलाती थी......' उम्मीद है 'गपशप' में महबूबनगर पर लिखा संस्मरण पसंद आया होगा.
होमनिधि शर्मा
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