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मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

भारतबोध : सांस्कृतिक-साहित्यिक संदर्भ

भारतबोध : सांस्कृतिक-साहित्यिक संदर्भ
- ऋषभदेव शर्मा

'भारतबोध' का सीधा सा अर्थ है 'भारत का ज्ञान', 'भारत की चेतना' अथवा 'भारतीय जीवन मूल्यों के प्रति जागरूकता'। यह एक अवधारणा है जो भारत के इतिहास, संस्कृति और मूल्यों की गहरी समझ को बढ़ावा देना चाहती है। 2017 में नई दिल्ली में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में इसे 'भारत के विचार' के रूप में रेखांकित किया गया था। सेमिनार का आयोजन भारतीय शिक्षण मंडल (बीएसएम) द्वारा किया गया था, जो पारंपरिक भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने वाला शैक्षिक संगठन है।

'भारतबोध' की अवधारणा इस विचार पर आधारित है कि भारत के पास एक अद्वितीय सभ्यतागत विरासत है जो संरक्षित करने योग्य है। भारतीय शिक्षण मंडल का तर्क है कि वैश्वीकरण और सांस्कृतिक समरूपीकरण की ताकतों द्वारा इस विरासत को नष्ट किया जा रहा है। उनका मानना ​​है कि भारतबोध भारत के अतीत और वर्तमान की गहरी समझ प्रदान करके इन ताकतों का मुकाबला करने में मदद कर सकता है। इसे 'ग्लोबल' होती जा रही दुनिया में 'लोकल' को सहेजने का भारतीय अभियान भी कहा जा सकता है। इसके लिए भारत शिक्षण मंडल ने पांच स्तंभों पर आधारित पाठ्यक्रम भी विकसित किया है। इसके अंतर्गत- 

1. इतिहास (प्राचीन काल से लेकर आज तक भारत का इतिहास),

2. संस्कृति (भारतीय कला, साहित्य और दर्शन),

3. मूल्य (भारतीय सभ्यता के मूलभूत जीवनमूल्य, जैसे अहिंसा, सहिष्णुता और करुणा),

4. विज्ञान और प्रौद्योगिकी (विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारत का योगदान) और

5. वैश्विक आउटरीच (विश्व में भारत की भूमिका और अन्य संस्कृतियों के साथ इसके संबंध) 

- शामिल हैं। भारतबोध के शिक्षण का समर्थन करने के लिए पाठ्यपुस्तकों, वीडियो और ऑनलाइन पाठ्यक्रमों सहित कई प्रकार की शैक्षिक सामग्री भी विकसित की गई है।

कहना न होगा कि भारतबोध की अवधारणा को मिश्रित प्रतिक्रिया मिली है। कुछ लोगों ने भारत की अनूठी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के एक तरीके के रूप में इसका स्वागत किया है, तो दूसरे कुछ ने इसे हिंदू राष्ट्रवाद का एक रूप बताकर इसकी आलोचना भी की है। विवाद अपनी जगह है, लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सजता कि भारतबोध की अवधारणा भारत में लोकप्रियता हासिल कर रही है।

भारतबोध की अवधारणा को परिपुष्ट करने में पं. दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विचारों का योगदान अविस्मरणीय है। वस्तुतः पं. दीन दयाल उपाध्याय भारतबोध के विचार के प्रमुख प्रस्तावक थे। उनका मानना ​​था कि भारत के पास एक अद्वितीय सभ्यतागत विरासत है जो संरक्षित करने योग्य है। उन्होंने तर्क दिया कि वैश्वीकरण और सांस्कृतिक समरूपीकरण की ताकतों द्वारा इस विरासत को नष्ट किया जा रहा है। उनका मानना ​​था कि भारतबोध भारत के अतीत और वर्तमान की गहरी समझ प्रदान करके इन ताकतों का मुकाबला करने में मदद कर सकता है। अपने लेखन में डॉ. उपाध्याय ने अक्सर 'एकात्म मानववाद' के महत्व के बारे में चर्चा की है। एकात्म मानववाद एक ऐसा दर्शन है जो सभी चीजों की परस्पर संबद्धता पर जोर देता है। यह व्यक्तिवाद के विचार को खारिज करता है और इसके बजाय समुदाय और सहयोग के महत्व पर जोर देता है। डॉ. उपाध्याय का मानना ​​था कि एकात्म मानववाद भारत की अद्वितीय सभ्यतागत विरासत को संरक्षित करने का सबसे अच्छा तरीका है। उन्होंने तर्क दिया कि एकात्म मानववाद एक ऐसे समाज के निर्माण में मदद करेगा जो अहिंसा, सहिष्णुता और करुणा के सिद्धांतों पर आधारित होगा।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतबोध के विचार के एक अन्य प्रमुख प्रस्तावक थे। वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। मुखर्जी का मानना ​​था कि भारत एक अद्वितीय संस्कृति और विरासत वाला एक 'आध्यात्मिक राष्ट्र' है। उन्होंने तर्क दिया कि भारत को एक 'हिंदू राष्ट्र' होना चाहिए, जिससे उनका अभिप्राय एक ऐसे राष्ट्र से था जो 'हिंदू मूल्यों पर आधारित' हो। अपने लेखन में मुखर्जी ने अक्सर 'राष्ट्रीय एकता' के महत्व के बारे में चर्चा की है। राष्ट्रीय एकीकरण किसी राष्ट्र के विभिन्न हिस्सों को एक साथ लाकर एक एकीकृत इकाई बनाने की प्रक्रिया है। मुखर्जी का मानना ​​था कि भारत के भविष्य के लिए राष्ट्रीय एकता आवश्यक है। उन्होंने तर्क दिया कि राष्ट्रीय एकता से एक मजबूत और एकजुट भारत बनाने में मदद मिलेगी। डॉ. उपाध्याय और मुखर्जी दोनों का मानना ​​था कि भारतबोध भारत के भविष्य के लिए आवश्यक है। उनका मानना ​​था कि भारतबोध भारत की अद्वितीय सभ्यतागत विरासत को संरक्षित करने और एक मजबूत और एकजुट भारत बनाने में मदद करेगा। डॉ. उपाध्याय और मुखर्जी के विचारों का भारतीय राजनीति और समाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। उन्होंने साहित्य को भी कहीं प्रत्यक्षतः तो कहीं परोक्षतः प्रभावित किया है।

यदि भारतबोध को एक आलोचना दृष्टि के रूप में ग्रहण किया जाए, तो कहना होगा कि हिंदी के भक्ति काल, नवजागरण काल, जागरण-सुधार काल और छायावाद काल के साहित्य में भारतबोध किसी भी प्रकार के मतवादी आग्रह से परे, सहज रूप में अभिव्यक्त हुआ है। छायावाद के बाद विचारधाराओं के आग्रह के कारण भारतबोध के स्वर नेपथ्य में अवश्य चले गए, लेकिन लुप्त कभी नहीं हुए। इसका बड़ा कारण यह रहा कि हिंदी साहित्य कहीं भी भारतीय संस्कृति से विमुख नहीं हुआ। जहाँ जहाँ साहित्य ने भारतीय संस्कृति को सम्मुख रखा, वहाँ वहाँ भारतबोध की मुखरता ध्यान खींचती है।

स्मरणीय है कि भारतीय संस्कृति भारतवर्ष में बसे हुए विभिन्न मानव समुदायों की हजारों वर्षों की उस साधना का परिणाम है जो उन्होंने जीवन को उत्कृष्ट, उदात्त और श्रेष्ठ बनाने के लिए की। मनुष्य को उसके आदिम स्तर से उठाकर दिव्यता से भर देने के लिए जुड़े जो प्रयास अलग-अलग देशकाल में संपन्न हुए, यह संस्कृति उन्हीं का संपुंजन है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति मनुष्य के भीतर छिपी हुई उसकी दिव्यता को प्रकाशित करने के प्रयत्नों का सामूहिक नाम है। यह इतनी बहुआयामी है कि इसका कोई एक लक्षण निर्धारित नहीं किया जा सकता।

इसमें संदेह नहीं कि भारतवर्ष मनुष्यों का ऐसा महासमुद्र है जिसमें अनेक मानव समूह समय-समय पर आकर घुलते-मिलते गए हैं और इसकी सामासिक संस्कृति का निर्माण करते चले हैं। कई बार लोग यह कहते सुने जाते हैं कि भारत में ‘कई’ संस्कृतियाँ हैं। हम कहना चाहते हैं कि भारतीय संस्कृति तो ‘एक’ ही है, लेकिन उसका सृजन करने वाली सांस्कृतिक धाराएँ अनेक हैं। महासमुद्र में मिल जाने पर अलग-अलग नदियों की धाराओं की पहचान खोजना पानी पर नाम लिखने जैसा व्यर्थ प्रयास कहा जाएगा। इन विभिन्न धाराओं में जो ‘अविरोधी भाव’ है वही भारतीयता है, भारतीय संस्कृति का केंद्रीय मूल्य है; और भारतबोध का आधार भी। विरोधों को खोज-खोज कर रेखांकित करना संस्कृति की सामासिकता को विघटित करने जैसा है। “जंगल में जिस प्रकार लता, वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परिक सम्मिलन से अविरोधी स्थिति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कृति के द्वारा एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं।” (अग्रवाल, वासुदेवशरण: ‘राष्ट्र का स्वरूप’; पृथिवी पुत्र)। सामूहिकता, सहअस्तित्व अथवा अविरोधी भाव की व्याख्या करते हुए डॉ. देवेंद्रनाथ शर्मा ने सही कहा है कि, “रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, उत्सव-त्योहार सब एक-एक हैं। एक कतार में खड़े कर दिए जाएँ तो कहना असंभव होगा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान, कौन ब्राह्मण, कौन क्षत्रिय, कौन वैश्य, कौन शूद्र। बिना बताए बगल के गाँव का भी कोई व्यक्ति इसका अंतर नहीं समझ सकता। भारत से जो लोग विदेश जाते हैं, वे सब के सब भारतीय समझे जाते हैं।... हमारी न तो ब्राह्मण संस्कृति है, न क्षत्रिय संस्कृति, न लुहार संस्कृति, न सुनार संस्कृति, न बढ़ई संस्कृति, न जुलाहा संस्कृति। ये तो विभिन्न पेशों के वर्ग हैं। संस्कृति सबकी एक ही है और वह है भारतीय संस्कृति। रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार, रस्म-रिवाज प्रायः एक ही हैं।” (शर्मा, देवेंद्रनाथ: भाषा, धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता: निबंधश्री: पृ. 75-76)।

अपने समस्त सांस्कृतिक वैभव को सुरक्षित रखने और संवर्द्धित रूप में अगली पीढ़ियों को सौंपने की जिम्मेदारी प्रत्येक ‘वर्तमान’ की होती है। कहना यह भी होगा कि आज इस समेकित विरासत के विभक्त होकर बिखर जाने का ख़तरा हमारे सामने है। इसीलिए सांस्कृतिक दृष्टि से हमारे समय की सबसे पहली चुनौती इस संस्कृति के स्वरूप को बनाए रखने की है। आवश्यकता इस बात की है कि “देश के विभिन्न अंगों को अलग-अलग लीकों में पड़कर विच्छिन्न हो जाने से बचाने के लिए प्रयत्न किया जाए। सदियों से साथ रहने वाले समाज क्रमशः एक-दूसरे से इतना परे हट जाएँ कि जब एक-दूसरे की ओर देखें तब उनकी आँखों में सख्य का आलोक न हो, जिज्ञासा अथवा कौतूहल का आकर्षण भी न हो, केवल घनीभूत अपरिचय और उपेक्षा एक पत्थर की दीवार की तरह बीच में खड़ी हो जाय – यह किसी भी देश के लिए स्वयं एक भारी ट्रेजेडी है।” (अज्ञेय: पुराण और संस्कृति: निबंधश्री: पृ. 68)। इस ट्रेजेडी की रचना उन तत्वों ने की है जिनकी सत्ता देश को बिखेरे रखकर ही बनी रह पाती है। ऐसी शक्तियाँ हमारी उपलब्धियों को भी हमारी न्यूनताओं के रूप में देखती-दिखाती हैं तथा हमारी परंपराओं, मिथकों, पुराणों और इतिहास की विकृत व्याख्याएँ करके देशवासियों को एक-दूसरे के विरुद्ध खडा कर देती है। संप्रदाय, भाषा, जाति, दल, नस्ल और विचारधारा पर आधारित इन कट्टरवादी और पृथकतावादी ताकतों को पहचाने और निष्प्रभावी बनाए बिना भारतीय संस्कृति और भारतबोध का संरक्षण और संवर्धन नहीं हो सकता।

वर्तमान में संपूर्ण विश्व इस भय से ग्रसित है कि जाने कब पृथ्वीवासियों को उपलब्ध सारे प्राकृतिक संसाधन समाप्त हो जाएँ। खतरा इतना बढ़ गया है कि शुद्ध हवा और पानी भी क्रमशः लुप्त होने के कगार पर हैं। भविष्य की चिंता करने वाले तो यहाँ तक सलाह देने लगे हैं कि मनुष्यों को शीघ्र ही पृथ्वी को छोड़कर कहीं और बसेरा ढूँढ़ लेना चाहिए। इसका अर्थ है कि उन्हें यह लगता है कि धरती पर मानव-अस्तित्व-विरोधी परिस्थितियाँ इतनी विकट हो चुकी हैं कि उनका कोई इलाज नहीं किया जा सकता। यह स्थिति मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को बिगाड़ने के कारण पैदा हुई है। पाश्चात्य देशों की संस्कृतियाँ यह मानती हैं कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी है और प्रकृति की रचना मनुष्य के लिए हुई है। यही कारण है कि इन संस्कृतियों की प्रेरणा से मनुष्य ने प्रकृति का क्रूरतापूर्वक दोहन और शोषण किया है तथा हवा और पानी तक का संकट खुद पैदा किया है। इस संकट का समाधान भारतीय संस्कृति के पास है। हमारी संस्कृति में प्रकृति को पूज्य माना गया है। मनुष्य उसका स्वामी नहीं, बल्कि वह मनुष्य की माता है। माता और संतान के संबंध का यह भाव यदि आज के मनुष्य के भीतर पैदा किया जा सके, तो जितना कुछ बिगड़ा है उसे सुधारा जा सकता है। बात केवल इतनी ही नहीं है, बल्कि यह सारा का सारा जीवनमूल्य और नैतिकता की भिन्नता का मामला है। भारतबोध का सर्वाधिक ज़ोर भारतीय जीवनमूल्यों और नैतिकता की पुनर्स्थापना पर है, जिसके केंद्र में पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) की समझ विद्यमान है।

भारतीय मूल्य दृष्टि जीवन के दो मुख्य लक्ष्य मानती है – अभ्युदय (प्रोस्पेरिटी) और निःश्रेयस (लिबरेशन)। अभ्युदय से जुड़े हैं धर्म, अर्थ और काम; तथा निःश्रेयस से जुड़ा है मोक्ष। ये चारों जीवनमूल्य या पुरुषार्थ परस्पर निर्भर हैं। धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन करते हुए, अर्थ अर्थात भौतिक सुख साधन अर्जित करना और कामनाओं को इस प्रकार पूर्ण करना कि यह सारी प्रक्रिया धर्मसम्मत बनी रहे, अभ्युदय का नैतिक आधार है। इसके साथ ही भोग में त्याग की वृत्ति बने रहना लोक कल्याण की प्रेरणा देता है। ऐसा व्यक्ति या ऐसा समाज ही तृप्ति की एक सीमा पर पहुँचकर अपने समस्त अर्जित को लोक के लिए अर्पित कर सकता है। इस विसर्जन से ही मोक्ष की भूमिका तैयार होती है। भारतीय अर्थशास्त्र का सार यह है कि उत्पादन का मोक्ष उपभोग में नहीं, दान में है। इसी सूत्र को आज भी यह विश्व अपना ले, तो बाजारवाद की तमाम विकृतियों पर विजय प्राप्त करके ‘कुटुंब भाव’ की प्रतिष्ठा की जा सकती है। अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति आज की दुनिया को साहचर्य, सामूहिकता और सहअस्तित्व को संभव बनाने वाला ‘कुटुंब भाव’ सौगात के रूप में दे सकती है. ‘कुटुंब भाव’ से हमारा अभिप्राय है, अपने हित से पहले विश्व परिवार के अन्य सदस्यों के हित की चिंता करना।

भारतीय संस्कृति की परंपरा बहुत पुरानी है। तरह-तरह के आक्रमणों के कारण इस परंपरा का काफी हिस्सा क्षत-विक्षत और नष्ट हो गया. फिर भी, लोक संपदा के रूप में जितना कुछ बचा है, वह भी कम नहीं है. उसे सहेजने तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की कसौटी पर परखने और उसे नया जीवन देने की बड़ी आवश्यकता है। ज्योतिष, योग, चिकित्सा, ललित कला, कृषि, प्रबंधन, राजनय, शिक्षा, वास्तु, मौसम विज्ञान आदि अनेक जीवनोपयोगी ज्ञान क्षेत्रों में भारत ने जो कुछ अर्जित किया, वह शास्त्र और लोक दोनों में फैला पड़ा है। इसे समेटा और सहेजा न गया तो यह नष्ट हो सकता है। इसलिए आज के संस्कृतिकर्मी के समक्ष इस सारी संपदा को संरक्षित करने की बहुत बड़ी चुनौती उपस्थित है, क्योंकि इस संपदा से ही हमारे सांस्कृतिक वैभव का निर्माण होता है।

यहाँ भाषा और साहित्य की चर्चा करना इसलिए भी आवश्यक है कि किसी भी राष्ट्र की संस्कृति साहित्य और भाषा द्वारा ही सँभालकर भावी पीढ़ियों को हस्तांतरित की जाती है। किसी एक साहित्यिक कृति का खो जाना या विकृत हो जाना संस्कृति के किसी पक्ष का खो जाना या विकृत हो जाना है। इसी प्रकार किसी एक मातृभाषा का लुप्त हो जाना भी उसके साथ जुड़ी हुई समूची सांस्कृतिक विरासत का लुप्त हो जाना है। नित नएपन की झोंक में यदि हम अपने साहित्य को विकृत करते हैं, या भाषा के एक भी प्रतीक को मर जाने देते हैं, शब्दों को प्रचलन के बाहर चला जाने देते हैं, साहित्यिक धाराओं को लुप्त हो जाने देते हैं, तो वस्तुतः हम संस्कृति की हत्या कर रहे होते हैं! अतः आवश्यकता इस बात की है कि हजारों मातृभाषाओं और जनभाषाओं से लेकर अनेक क्लासिक भाषाओं तक की विराट भाषिक और साहित्यिक संपत्ति को हम सँभालकर रखें, उसे समझें और समझाएँ तथा उसमें निहित उच्च मानवीय मूल्यों और उदात्त भारतीय संस्कृति को विश्व के समक्ष रखें।

वर्तमान संदर्भ में यह पूछा जा सकता है कि भारतबोध के विकास की दृष्टि से नए भारत के साहित्य से क्या अपेक्षाएँ हो सकती हैं। सो, इस दिशा में सबसे पहली अपेक्षा है कि हमारा साहित्य भारत के इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ को व्यक्त करे। ज्ञान और समझ को व्यक्त करने के लिए साहित्य एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है। भारत के अतीत और वर्तमान के विमर्श के सहारे साहित्य भारत के समृद्ध इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है। दूसरी अपेक्षा है कि साहित्य में भारत की विविधता का उत्सव रूपायित होता दिखाई दे। भारत अपने लोगों और संस्कृतियों दोनों के मामले में महान विविधता का देश है। साहित्य भारत को बनाने वाले विभिन्न लोगों और संस्कृतियों को कथ्य बनाकर इस विविधता का जश्न मनाने में भूमिका निभा सकता है। तीसरी अपेक्षा यह है कि साहित्य भारत के मौलिक मूल्यों की पुनः पुष्टि करे। भारतबोध अहिंसा, सहिष्णुता और करुणा जैसे मौलिक भारतीय जीवनमूल्यों के महत्व पर जोर देता है। नए भारत के साहित्य को विभिन्न विधाओं में इन मूल्यों की पुष्टि करने वाला पाठ गढ़ना चाहिए। चौथी अपेक्षा यह है कि वह भारत के भविष्य के लिए एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करे। इस तरह हमारा साहित्य भारत के भविष्य की कल्पना का साधन भी हो सकता है। भारत कैसा हो सकता है, इसे कथ्य बनाकर साहित्य लोगों को अपने देश के बेहतर भविष्य की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करने में मदद कर सकता है।

बेशक, ये कुछ उम्मीदें हैं जो भारतबोध के संदर्भ में नए भारत के साहित्य से की जा सकती हैं। याद रहे कि भारत के भविष्य को आकार देने में साहित्य की भूमिका भारत के लेखकों और पाठकों पर निर्भर है। यहाँ ठहरकर, कुछ विशिष्ट उदाहरण दिए जा सकते हैं कि भारतबोध को बढ़ावा देने के लिए साहित्य का उपयोग कैसे किया जा सकता है:

- ऐतिहासिक उपन्यास जो किसी प्रसिद्ध भारतीय नेता या घटना की कहानी कहता हो।

- लघु कथाओं का संग्रह जो भारत की विभिन्न संस्कृतियों का पता लगाता हो।

- कविता जो भारत के लोगों की विविधता का उत्सव मनाती हो।

- नाटक जो आज भारत के सामने आने वाली चुनौतियों और अवसरों की पड़ताल करता हो।

- ग्राफिक उपन्यास जो ऐसे युवा भारतीय की कहानी बताता हो जो दुनिया में अपना स्थान खोजने की कोशिश कर रहा है।

संभावनाएँ अनंत हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य का उपयोग उन कथानकों और विमर्शों को रचने के लिए किया जाए, जो भारत और उसके लोगों के लिए सार्थक हों तथा भारत के सांस्कृतिक वैभव को उसके आज से जोड़ सकें।

यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि हम अपने इस सांस्कृतिक वैभव को प्रदर्शित करके न तो किसी को चमत्कृत करना चाहते हैं, न आतंकित। हम यह भी नहीं कहना चाहते कि कोई अन्य संस्कृति या संस्कृतियाँ हमारी संस्कृति से कमतर हैं। हम तो बस अपने सांस्कृतिक गौरव को महसूस करना चाहते हैं – बराबरी के साथ। हमारे इस सांस्कृतिक गौरव का आधार हमारी वह जीवनदृष्टि है जो किसी के साथ भी मेरा-तेरा जैसा भेदभाव नहीं करती, सबमें एक जैसी दिव्यता के दर्शन करती है और संपूर्ण पृथ्वी को अपना परिवार तथा सारे ब्रह्मांड को अपना घर मानती है- ‘यत्र विश्वं भवत्येक नीडम्’। 000

- ऋषभदेव शर्मा

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