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मंगलवार, 31 जुलाई 2018

(रामायण संदर्शन) उघरहिं अंत न होइ निबाहू

आजकल जिसे देखिए वही गठबंधन और समझौते की बातें करता दिखाई देता है। किसी तात्कालिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किए जाने वाले ऐसे गठबंधन बिखर भी बहुत जल्दी जाते हैं। दरअसल किन्हीं दो व्यक्तियों या संस्थाओं का लंबे समय तक या आजीवन साथ-साथ चलना तब तक संभव नहीं जब तक उनके परस्पर जुडने का आधार विवेकसंगत न हो। अविवेक पूर्वक किसी प्रकार के आवेश में बनाए गए संबंध बहुत दूर तक नहीं चलते। इसीलिए तुलसी बाबा सावधान करते हैं कि भली प्रकार पहचान कर ही ‘संग्रह’ और ‘त्याग’ का निर्णय करना चाहिए, अन्यथा परिणाम दुखद होते हैं। यह विश्व गुण-दोषमय है। नीर और क्षीर के विवेक से ही संग्रह और त्याग की तमीज़ आती है। विवेक को बहुत बार भ्रमित करने की भी कोशिश की जाती है – जैसे चुनाव की वेला में नेतागण जनता को भ्रमित किया करते हैं। ऐसे समय किसी तात्कालिक लाभ और लोभ में न पड़कर धैर्यपूर्वक परीक्षा की आवश्यकता होती है, क्योंकि यदि कोई ठग भले आदमी का सा वेश बना ले तो भले ही लोग कुछ समय तक उस वेश के प्रताप से उसे पूजते रहें, लेकिन एक न एक दिन ऐसे कपटी लोगों की पोल खुल ही जाती है। तब पता चलता है कि वे तो रक्षक के वेश में भक्षक थे। कालनेमि, रावण और राहु का भेद अंततः खुल ही जाता है। (संपादक)

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