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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

हिंदी साहित्य : विश्व परिप्रेक्ष्य

 हिंदी साहित्य के विश्व परिप्रेक्ष्य को हमें हिंदी की आज की स्थिति के सापेक्ष  विवेचित करना होगा. इसमें संदेह नहीं कि आज हिंदी  का विस्तार पूरी दुनिया में है. बहुत सारे देशों में, विश्वविद्यालयों में, हिंदी पढ़ी-पढाई जाती है. हिंदी में लिखने वाले भारतीय और भारतेतर लोग दुनिया भर में फैले हुए हैं. यह एक पक्ष है जिसका संबंध ‘भाषा’ से है. लेकिन जब हम हिंदी ‘साहित्य’ की बात करते हैं तो दृष्टिकोण थोडा भिन्न होगा. दरअसल हमें हिंदी साहित्य के  विश्व परिप्रेक्ष्य को विश्व और भारत के आधुनिक संदर्भों  को ध्यान में रखकर समझने की ज़रूरत है.
सबसे पहले तो यही देखना होगा कि हिंदी साहित्य  में विश्व की सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक क्रांतियों के लिए कितनी जगह है क्योंकि हिंदी का जो अपना मूल चरित्र है वह मूलतः समाज-सांस्कृतिक चेतना प्रधान है; कम से कम अंग्रेजी की तरह से राजनैतिक चरित्र उसका प्रधान चरित्र नहीं है या उपनिवेशवादी चरित्र उसमें प्रधान नहीं है. उसमें समाज-सांस्कृतिक चैतन्य और समाज-सांस्कृतिक सरोकार ही प्रधान है. इसका कारण यह है कि हिंदी में सबसे अधिक शब्द-संपदा या परंपरा भले ही संस्कृत स्रोतों (वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पुराण) से आई, लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि सारी भारतीय भाषाओँ, भारतीय समाज के सभी रूपों और भारत के विभिन्न भौगोलिक स्थानों में जो कुछ घटता है वहाँ से हिंदी ने अपने स्वरूप को गढ़ने के सूत्र ग्रहण किए. आज जो हिंदी साहित्य है वह विभिन्न भारतीय भाषा-समाजों  को स्रोत के रूप में ग्रहण करता है और फिर अपना चरित्र बनाता है. यही उसका उपयोगी और महत्वपूर्ण चरित्र है. क्योंकि जितनी भी भारतीय भाषाएँ हैं वे पहले भाषाई दुनिया की दृष्टि से समाज-सांस्कृतिक परिघटनाएँ हैं, उसके बाद कुछ और. यही कारण है कि हिंदी का चरित्र समाज-सांस्कृतिक अधिक है, राजनैतिक कम.  इस दृष्टि से हमें देखना होगा कि दुनिया भर की जिन घटनाओं से विश्व परिप्रेक्ष्य बनता है, उनके आधार पर हिंदी में दुनिया भर की समाज-सांस्कृतिक और  समाज-धार्मिक क्रांतियों के लिए कितनी जगह है. इस दृष्टिकोण से देखने पर हमें पता चलता है कि आधुनिक काल की हिंदी में गद्य और पद्य की दोनों विधाओं में विश्व की क्रांतियों के बारे में, विश्व की सामाजिक संरचना के बारे में और विश्व की सांस्कृतिक घटनाओं के बारे में पर्याप्त सामग्री है. इतना ही नहीं, यह भी कि दुनिया के समाज जिन कारणों से बदले हैं, उन अलग-अलग कारणों की व्याख्या भी हिंदी में हो रही है.  कम से कम आधुनिक काल में यह प्रवृत्ति भारतेंदु से शुरू हो जाती है और द्विवेदी जी में बढ़ती है, शुक्ल जी में पकती है और जो परवर्ती लेखक आते हैं उनमें और आगे बढती है. मैथिलीशरण गुप्त की भी उसमें निश्चित भूमिका है. विश्व परिप्रेक्ष्य से घटनाओं को लेकर अपने साहित्य में रखना और उसके आधार पर रचना करना. चाहे वह अमेरिकी क्रांति रही हो, फ़्रांसीसी क्रांति रही हो, इंग्लैंड की क्रांति रही हो, चाहे दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया की क्रांति रही हो जो परवर्ती काल में घटित हुई; हिंदी साहित्य ने उन सबसे प्रभाव ग्रहण किए. एक यह चीज महत्वपूर्ण है.
इसके साथ ही हमें हिंदी साहित्य के उस निजी परिप्रेक्ष्य का अवलोकन करना होगा जो उसे विश्व की सीमा में ले जाता है, उसपर हमें ध्यान देना चाहिए. विश्व की अधिकांश भाषाओँ से हिंदी में अनुवाद के माध्यम से सामग्री आती रही है और अभी भी आ रही है.  कुछ भाषाएँ तो ऐसी हैं जिनमें कुछ विधाएँ अनुवाद के माध्यम से ही शुरू हुईं और उनसे हिंदी ने प्रेरणा ग्रहण की. इस आधार पर दुनिया की बहुत सारी भाषाओँ का साहित्य हमारे यहाँ आता रहा है. अनुवाद के माध्यम से हिंदी के परिप्रेक्ष्य को बढ़ाने का एक प्रमाण यह है कि साहित्यिक मूल्यांकन के संदर्भ में यह प्रश्न विचारणीय माना जाता है कि हिंदी के लिए अंग्रेजी उपन्यास ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या फ़्रांसीसी और रूसी उपन्यास? जब इन तीनों भाषाओँ के उपन्यासों का हिंदी साहित्य से संबंध हम जोड़ते हैं या उस परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य को देखते हैं तो पता चलता है कि हिंदी ने कम से कम उपन्यास की दृष्टि से (और कथा साहित्य की दृष्टि से) जो मूल्य रूस और फ़्रांस से ग्रहण किए हैं, वे मूल्य अंग्रेजी से ग्रहण नहीं किए हैं. कारण कि अंग्रेजी में वे मूल्य रहे ही नहीं. जैसे एक खास अंतर अंग्रेज़ी, रूसी और फ़्रांसीसी उपन्यासों में है कि अंग्रेज़ी उपन्यास क्लब कल्चर का उपन्यास है. उसका पूरा कथा साहित्य केंद्रीय दृष्टि से व्यक्तिगत संबंधों के विश्लेषण का साहित्य है, या अस्तित्व के साथ खड़े हुए प्रश्नों का साहित्य है, या व्यक्तिगत स्वाधीनता की रक्षा में बहुत सारे तर्क करने का साहित्य है. इस प्रकार वह साहित्य एकदम सिमट जाता है. स्मरणीय है कि व्यक्तिगत स्वाधीनता और मुक्ति एवं इसके साथ-साथ आभिजात्य और सामान्य के भेद और अंतर्विरोध औपनिवेशिक प्रभाव के कारण सारे उपनिवेशों में प्रमुखता प्राप्त कर चुके थे, इसलिए उपनिवेश के लोगों को ऐसा लगता रहा कि जो अंग्रेजी में लिखा जा रहा है वही महत्वपूर्ण है और वही हमारा दिशा-निर्देश कर सकता है.  इससे बड़ी सावधानी से जो भाषाएँ बचीं, उनमें मराठी और हिंदी जैसी भारतीय भाषाओँ का स्थान महत्वपूर्ण है. अन्य भाषाएँ भी होंगी लेकिन यहाँ हम हिंदी की बात कर रहे हैं. अतः हिंदी उपन्यासों को अगर शुरुआत से देखें तो पता चलता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना उनके केंद्र में है. यह अलग बात है कि उनका कथानक सशक्त है या नहीं. लेकिन उनके लिखने का जो उद्देश्य है वह समाज को बचाना मुख्य रूप से रहा है; जो इंग्लैंड का स्वभाव नहीं था, फ़्रांस का स्वभाव था और रूस का स्वभाव था . इसका अर्थ यह है कि हिंदी ने अपने विश्व परिप्रेक्ष्य को सायास और बहुत सावधानी के साथ जोड़ा है फ़्रांस और रूस के साथ. यही कारण है कि उन भाषाओँ में जो लेखक रहे हैं, हिंदी लेखकों ने उनका अनुवाद भी किया है, उनका अनुकरण भी किया है. अभिप्राय यह है कि एक विश्व परिप्रेक्ष्य वह है जो उपनिवेशप्रधान देशों से मिलकर बनता है और  एक विश्व परिप्रेक्ष्य वह है जो ऐसे देशों के साहित्य से मिलकर हमारे साहित्य में बनता है जो समाजार्थिक प्रश्नों पर ज्यादा गहराई से सोचते रहे हैं या जो भूख से,  अपराधों से, सामाजिक बुराइयों से मनुष्य की मुक्ति के बारे में ज्यादा सोचते रहे हैं. यह कहना उचित होगा कि एक प्रकार से अभिजात विचार और उनसे प्रेरित जो विलासिता की प्रवृत्ति होती है, उससे मुक्ति की चिंता इन भाषाओँ के साथ है. हिंदी ने अपने आपको इनके साथ जोड़ा है.
पिछले लगभग पचास वर्षों में हिंदी में उन देशों की भाषाओँ का साहित्य बहुत तेजी से आया है जो देश हाशिए पर रहे हैं. उदाहरण के लिए – म्यांमार. म्यांमार के तीस से भी अधिक उपन्यासों का अनुवाद बर्मी से हिंदी में हुआ है.  इनमें संयुक्त राष्ट्र के तीसरे महासचिव यू थांट का उपन्यास ‘काला सोना’ भी शामिल है. बहुत बड़ी संख्या में कविताएँ आई हैं. जिन्हें तीसरी दुनिया के देश कहकर अपमानित किया जाता है और जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं उन देशों की कविताओं का अनुवाद बहुत बड़ी मात्रा में हुआ है. उन देशों में जो मुक्ति अभियान चलाने वाले लेखक रहे हैं उनका साहित्य बड़ी तेजी से आया है. उनके लेखकों के परिचय बहुत तेजी से आए हैं.  इसके साथ-साथ उपनिवेशों में भी जो अपने बल पर खड़े हो गए हैं – मॉरीशस जैसे देश, उनका साहित्य चाहे वह हिंदी में लिखा जा रहा हो या अंग्रेज़ी, फ्रेंच या चीनी भाषा में, मूल रूप में या अनूदित होकर हिंदी में आया है. कहने का अर्थ यह है कि केवल यूरोप और दूसरे बड़े व बहुत जाने-पहचाने देश ही नहीं, वे देश जो हमारे बहुत कम जाने-पहचाने हैं और जिनमें राजनैतिक दृष्टि से हमारी रुचि बहुत कम रही है (अब धीरे-धीरे बढ़ रही है) या जिनके इतिहास से हमारा बहुत कम परिचय रहा है, अनुवाद के माध्यम से हिंदी साहित्य में उनका साहित्य पहुँच चुका है और इसने निश्चित रूप से हिंदी में क्रांति का एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य तैयार  किया है.  अर्थात अगर अफ्रीका के या लैटिन अमरीका के किसी देश में अत्याचार होता है और कोई लेखक उसका विरोध करना चाहता है तो हिंदी में वह अपनी प्रतिक्रिया लिख सकता है.  इसके बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं. इस प्रकार, हिंदी अपने मूल समाज-सांस्कृतिक चरित्र से जुड़ते हुए, उसका विकास करते हुए विश्व की भाषाओँ के समाज-सांस्कृतिक चरित्र को ग्रहण करके अपना विस्तार कर रही है. यह उसके वैश्विक परिदृश्य को और अधिक विस्तारित करने के प्रति प्रतिबद्धता का सूचक है, जो बहुत आशाजनक है.
अगला महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इधर जो परिवर्तन हो रहे हैं चाहे वे बाजारवाद से संबंधित हों अथवा  युद्धों का विस्तार या उस विस्तार को रोकने की कोशिशों के रूप में विभिन्न देशों के नए सिरे से पारिभाषित हो रहे रिश्तों से जुड़े हों, चाहे विभिन्न देशों में चलने वाले आंदोलनों और लोकतांत्रिक मूल्यों की चिंताओं से संबंधित हों – उन वैश्विक परिवर्तनों को आधार बनाकर हिंदी में भी लिखा जा रहा है. उदाहरण के लिए, वैश्वीकरण पर हिंदी में स्तरीय साहित्य उपलब्ध है - उसके इतिहास पर भी, उसके कारणों और  प्रभावों-दुष्प्रभावों पर भी. यह उसके सावधान भाषा होने का या सावधान साहित्य होने का प्रमाण है.  इसी प्रकार उपनिवेशवाद, नव उपनिवेशवाद और उत्तर उपनिवेशवाद को लेकर जो नई धारणाएँ सामने आ रही हैं, उनपर दो दृष्टियों से काम हिंदी में हो रहा है. एक तो उनके चरित्र पर पुस्तकें लिखी जा रही हैं और दूसरे  नव उपनिवेशवाद और उत्तर उपनिवेशवाद की पारिभाषिक शब्दावली की व्याख्या हिंदी में लिखी जा रही है. जो हिंदी साहित्य में समालोचना का हिस्सा बन रही है. यह काम भविष्य में हिंदी को समृद्ध करने वाला काम है क्योंकि जिन खतरों के खिलाफ दूसरे देशों की भाषाओँ में विचार किया जा रहा है, लोग लिख रहे हैं, बात कर रहे हैं; वे खतरे हमारे यहाँ न हों इसकी पूर्व तैयारी हिंदी में है या उस दिशा में लोग काम कर रहे हैं, कोशिश कर रहे हैं.  इससे निश्चित रूप से हिंदी का वैश्विक परिप्रेक्ष्य बढ़ता है.
वैश्विक परिदृश्य को ग्रहण कर लेना ही पर्याप्त नहीं है. वैश्विक परिदृश्य को निरंतर माँजते जाना और उसके  वास्तविक स्वरूप का क्षरण न हो इसके प्रति सावधान रहना और वैश्विक परिदृश्य की भ्रामक  परिभाषाओं से बचना भी  बहुत ज़रूरी है. हिंदी में इसके प्रति अभी सावधानी कम है. हिंदी साहित्य इसके प्रति अभी धीरे-धीरे सावधान हो रहा है. खतरा यह है कि अगर वैश्विक परिदृश्य को परंपरागत ढंग से परिभाषाओं में बाँध दें तो वह रूढि बन जाएगी जबकि वैश्विक परिदृश्य निरंतर परिवर्तनशील प्रक्रिया का परिणाम होना चाहिए और यह निरंतर परिवर्तनशील प्रक्रिया विकासशील प्रक्रिया होनी चाहिए. दरअसल, जिसे हम वैश्विक परिदृश्य कह रहे हैं वह कोई चित्र नहीं है; वह एक स्थिति है और उस स्थिति में एक ओर जहाँ भौतिक चीजें शामिल हैं जो चल-फिर नहीं सकतीं और उससे अधिक चलने-फिरने वाला मनुष्य शामिल है, वहीं उससे भी ज्यादा दुनिया भर के सामाजिक और राजनैतिक वर्ग शामिल हैं जो निरंतर बदल रहे हैं, जिनकी रुचियाँ निरंतर बदल रही हैं, जिनके नए-नए अंतर्विरोध लगातार सामने आ रहे हैं, जिनके स्वभाव में लगातार बदलाव हो रहा है, जिनकी ग्रहणशीलता में लगातार बदलाव हो रहा है – यह सब जीवित मानव समूहों की बात है, जीवित सामाजिक वर्गों की बात है और इनको किसी निश्चित परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता. जब हम इन सबसे जुड़ी स्थितियों का निर्वचन करते हैं तो हमें जड़ वस्तुओं या जड़ संसाधनों के साथ-साथ जीवित संसाधनों का भी निर्वचन करना होगा; और ज्यादा सावधानी से करना होगा. यह सावधानी हिंदी साहित्य में पूरी तरह से नहीं दिखाई दे रही है. जो हिंदी के चिंतक हैं या हिंदी की चिंता करनेवाले लोग  हैं या हिंदी को दिशा देने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने वाले लोग हैं, उन्हें यह ध्यान देना होगा कि इस दिशा में हिंदी दूसरी भाषाओँ से पिछडनी नहीं चाहिए.
हिंदी का चरित्र मूलतः समाज-सांस्कृतिक चरित्र है और इसकी समाज-सांस्कृतिकता दूसरे देशों से आयातित समाज-सांस्कृतिकता नहीं है बल्कि यह अपनी भाषाओँ से अपने देश की स्थितियों से, अपने देश के सामाजिक विकास से, अपने देश के सभ्यतागत विकास से, अपने देश के परंपरागत ज्ञान की बड़ी बृहत परंपराओं से ग्रहण की हुई समाज-सांस्कृतिकता है, इसलिए हिंदी साहित्य वैश्विक परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में जो चीज ग्रहण कर रहा है वह अपनी समाज-सांस्कृतिकता के परिप्रेक्ष्य में ही ग्रहण कर रहा है. अन्य जो लोग हैं जिन्हें  वैश्विक परिदृश्य को समझना है उन्हें भी हिंदी की समाज-सांस्कृतिक विशेषताओं को समझना जरूरी है अन्यथा वैश्विक परिदृश्य की उनकी समझ अधूरी ही रहेगी. यह ठीक उसी प्रकार से है जिस प्रकार से हिंदी के लोगों को यदि वैश्विक परिदृश्य को समझना है तो बाहर के देशों में जो कुछ वैश्विक परिप्रेक्ष्य है, हमें भी उसे समझना होगा. चाहे हम उस भाषा को सीखकर समझें, चाहे अनुवाद के माध्यम से समझें. जो दूसरे देशों की भाषाओँ का साहित्य है वह हिंदी भाषा के साहित्य से बहुत कुछ ले सकता है क्योंकि समाज-राजनैतिक दृष्टि से आज भारतवर्ष जिस दशा में पहुँच गया है, वह ऐसी स्थिति है जहाँ कोई भी देश भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता. प्रत्येक देश के लिए ज़रूरी है कि वह भारत को समझे, तभी वह भारत से प्रगाढ़ संबंध भी बना सकता है और उसका मुकाबला भी कर सकता है. इन दोनो बातों को समझने के लिए या इन दोनों मोर्चों पर अपनी भूमिका निर्धारित करने के लिए लगभग सभी देशों को और वहाँ की भाषाओँ को जाननेवाले लोगों को हिंदी साहित्य के निकट आना ही चाहिए और उन्हें आना होगा.  आज हिंदी साहित्य की स्थिति यह है कि अगर भारत को समेकित रूप में जानना है तो हम हिंदी साहित्य पढकर ही जान  सकते हैं.  भारत के विभिन्न अंचलों को समझने के लिए वहाँ की भाषाओँ को और वहाँ के साहित्य को समझना अनिवार्य है.  लेकिन समग्र रूप से अगर एक ही जगह पर भारत को समझना है, तो फिर हमें हिंदी साहित्य का अध्ययन करना होगा और बाहर से जिसे भी भारत को समझना है उसे हिंदी साहित्य को समझने की आवश्यकता को महसूस करना होगा. जब तक भारत की अलग समाज-सांस्कृतिक पहचान रहेगी, तब तक हिंदी साहित्य की आवश्यकता विश्व अन्य समाजों को रहेगी.

- ऋषभदेव शर्मा 


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