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बुधवार, 6 जुलाई 2016

भूमिका : मलयालम कवि सेबास्टियन की कविताएँ

अदृश्य तंबुओं की खोज में (सेबास्टियन की चुनिंदा कविताएँ)

भूमिका

अग्रणी समकालीन मलयालम कवि सेबास्टियन व्यापक सरोकारों और गहरे सौंदर्यबोध के कवि हैं. उनकी कविताओं से गुजरने पर मलयालम कविता का उत्तरआधुनिक चेहरा सहज ही उभरकर सामने आ जाता है. वस्तु विन्यास से लेकर अभिव्यंजना शिल्प तक एक खास तरह की विरलता उन्हें दूसरों से अलग व्यक्तित्व प्रदान करती है. 

एक ऐसे समय में जब आदमी के हाथ से आदमीयत छूटी जा रही है और जीवन मूल्य मुट्ठी में बंद रेत की तरह रिसते जा रहे हैं, सेबास्टियन आम आदमी की ‘सफरिंग’ का पाठ रचते हैं. एक ऐसे समय में जब सब ओर से हमला करता हुआ बाजार भावनाओं के संसार को निगलने में व्यस्त है, सेबास्टियन की कविताएँ राहत देती हैं क्योंकि वे खाँटी संवेदनाओं को शब्दबद्ध करती हैं. आज जब हम एक ऐसे ठंडे संसार में जीने को विवश हैं जिसमें बड़ी से बड़ी दुर्घटनाएँ भी सनसनीखेज समाचार से अधिक महत्व नहीं रखतीं – जिनका श्रोता समाज न तो विचलित होता है, न बौखलाता है, न गुस्साता है; ऐसे वक्त में सेबास्टियन का कवि-मन छोटी-छोटी चीजों से द्रवित हो जाता है, साधारण दीखने वाली घटनाओं से विचलित हो उठता है और दैनिक जीवन की जड़ताओं से असंतुष्ट होकर, असहमत होकर, कभी व्यंग्य करता है तो कभी अपनी समानांतर दुनिया खड़ी करता है – फैंटसी की दुनिया. इस कवि के लिए काव्य सृजन कुएँ की तह में डुबकी लगाकर अभिव्यक्ति की तलाश करने जैसा है – ‘आकाश में/ एक कुंआ प्रकट हुआ/ धरती से इसका पानी/ नीला नजर आया/ बाल्टी और रस्सी के/ नीचे उतरने पर/ गरारी ने आवाज की/ आश्चर्य की बात है/ मैंने रस्सी को पकड़/ जल्दबाजी में खींचा/ कुएँ की तह में पड़ी/ कविता बाहर निकली...’ 

यदि यह कहा जाए कि सेबास्टियन का काव्य संसार दैनिक सामान्य जीवन से उठाए गए बिंबों का संसार है, तो अनुचित न होगा. वे एक ऐसे काव्यशिल्पी हैं जिन्हें ‘परिचित’ चीजों के नए संयोजन द्वारा ‘अद्भुत’ की सृष्टि करने में महारत हासिल है. इस कविता संग्रह की शीर्षक पंक्ति ‘अदृश्य तंबुओं की खोज में’ जिस कविता से ली गई है वह भी इस तथ्य को प्रमाणित करती है. ‘भूख’ शीर्षक यह कविता सीधे-सीधे भूख को संबोधित है – ‘भूख!/ तेरा घर व पता/ मुझे नहीं मालूम.’ और इस न-मालूम होने का कारण है आख्याता की वह संपन्नता जिसके कारण वह दिन में तीन-तीन बार खाकर अघा चुका है. ऐसा व्यक्ति भूख और उसकी यातना से भला कैसे परिचित हो सकता है! लेकिन सूखे और अभाव के दिनों में जब उसका साक्षात्कार मृत्यु की ओर अग्रसर उन गरीबों से होता है जो किन्हीं अदृश्य तंबुओं की खोज में निकले हुए हैं तो उसके स्मृतिकोश से गरीबी और भूख के वे अनुभव सहसा बाहर आकर साधारणीकृत होते हैं जिन्हें भोगते हुए कभी साधनहीनता के बीच उसके दादा की मृत्यु हुई थी. इस प्रकार यह कविता ध्वनित करती है कि संपन्नता शाश्वत नहीं है, उसके पीछे भी विपन्नता का इतिहास है. यदि यह इतिहास याद रहे तो भूख से परिचय बना रह सकता है. इस प्रकार अपरिचय से आरंभ हुई कविता परिचय के साथ समाप्त होती है. लकड़ी के ढेर में दीमक-खाया दिवंगत दादा का चित्र इस परिचय का माध्यम बनता है – ‘वहाँ मैंने अनजाने में/ तेरा घर व पता/ पा लिया.’

इसी प्रकार - घिसी हुई चप्पल सीता हुआ मोची, शवपेटिका में लिटाई जाती हुई माँ को पहली बार जूता पहनाते हुए रिश्तेदार, केरल का नीली नसों वाला मानचित्र देखता हुआ बेटा, हथेली में खेती करने वाला किसान, खेत में गूँजती हुई सारस और मेंढक की आवाजें, रेल यात्रा में तीव्र गति से परिवर्तित होता हुआ बाहर का परिदृश्य, सूने घर की दीवार पर टंगा किसान का फटा हुआ चित्र, चट्टान पर बैठ पानी पीता एक छोटा मेंढक, चारों ओर से पानी की दीवारों के बंदीगृह में कैद व्यक्ति, वेश बदलकर साँप बनता हुआ प्रेमी, एक दूसरे को ढूँढ़ते हुए घर और गृहस्वामी, रास्ते में पाँव रखते ही बनते हुए गड्ढे और हर गड्ढे से बाहर निकलती काली बिल्ली, बाण की नोक से सिली जाती हुई फटी धरती, सीमेंट की बेंच पर बैठे हुए स्त्री और पुरुष, जाल में फँसी नदी को सुखाता मछुआरा, धूप में लाल झंडे सी बहती नदी, खिड़की के काँच पर दस्तक देता बारिश का मौसम, प्रतीक्षा में क्रमशः पेड़ में तब्दील होता हुआ व्यक्ति, रात भर गीले मैले कपड़े से थोडा-थोडा कर अंधेरे को पोंछता हुआ मनुष्य, सात भागों में फैली हुई इंद्रधनुष की स्याही, गले में अटका शब्द का काँटा और उससे घायल होता हुआ गला – ये सेबास्टियन की इन कविताओं में निर्मित कुछ बिंब हैं. इन्हें एक नजर देख लेने भर से कवि के विस्तृत अनुभव जगत और उतने ही विराट कल्पना संसार के वैभव का सहज ही अनुमान किया जा सकता है. 

यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सेबास्टियन की कविताओं में यथार्थ का पर्याप्त आग्रह दिखाई देता है. इस आग्रह के कारण ही उनकी प्रेम कविताएँ भी पर्याप्त ठोस प्रतीत होती हैं. कुछ स्थलों पर रहस्य और अध्यात्म के संस्पर्श के साथ सेबास्टियन की प्रेम कविताएँ यथार्थमूलक फैंटेसी के रूप में मूर्त होती हैं. कवि जब प्रेमिका की दिगंबर देह का शब्दचित्र बनाने को उद्यत होता है तो चिड़िया, हवा, मेघ, नारियल का पेड़ और बारिश मिलकर अंगडाई ले रहे स्वयं उसके शरीर पर प्रेमिका के शरीर के सौंदर्य और गंध को लिख डालते हैं. (शरीर पर लेखन). कवि को विश्वास है कि नदी की खामोशी, लहरों के रुदन और धूप की प्रतीक्षा में सुबह की बेला में प्रेम जागेगा. (निर्मलता). यह ठीक है कि प्यार के दिनों की किताबें दीमक ने चाट ली हैं, फिर भी कभी न कभी तो दीमक ‘मैं’ नामक पुस्तक को पढ़ेगी. (आठ प्रेम कविताएँ). यह प्रेम कविता को एक ऐसी पारदर्शी कमीज बना देता है जिसके पार से सच्चाई झलकती है – ‘कविता भी एक कमीज है/ पारदर्शी/ हर कोई इसे पहन नहीं सकता/ कुलीन पहनेंगे तो/ इनकी नग्नता दिखायी देगी.’ (आठ प्रेम कविताएँ). 

सेबास्टियन की कविता में केरल केवल समुद्र, मछली और बारिश के ही रूप में नहीं आया है बल्कि आज के आदमी की इस विवशता के रूप में भी आया है कि – ‘सागर की रेलगाड़ी गुजर रही है/ मेरे पास काँटा नहीं है/ इसलिए मैंने खुद को उसमें लटका कर/ खिड़की से बाहर फेंका जोर से...’ (मत्स्यन). ‘ग्लोबल’ के दबाव में लुप्त होते ‘लोकल’ के प्रति कवि विशेष रूप से चिंतित हैं – ‘सब कुछ हटा दिया/ लेकिन चिमनियाँ बाकी हैं/ *** / हर दिन तीन बार काली चिमनियों में घुसकर/ दीवारों पर जीभ से चाटकर/ सारे गुणों का अनुभव करें/ कोई भी राज्य पेटेंट के लिए न आए/ स्थानीय लोग व रिश्तेदार इसमें शामिल न हो.’ (चिकित्सार्थ). अभिप्राय यह है कि बाजारीकरण के इस दौर में केरल की अपनी स्थानीय रंगत लुप्त होने के कगार पर है. प्रकृति और संस्कृति दोनों पर ही मंडराते हुए खतरे से आगाह करता हुआ कवि कहता है – ‘आंगन में/ कोई नहीं है/ फूलों के पेड़ नहीं है/ न कुंआ है/ न भरा हुआ/ पानी का घड़ा/ न/ नन्हों का पदचिह्न/ न लोरी/ दृष्टि के उस पार/ कुछ भी नहीं है/ आंगन में साफ़ जमीन है/ जिसमें से सब कुछ/ अलग कर दिया गया...’ (आंगन). 

कवि सेबास्टियन की इन समर्थ और सुंदर कविताओं से हिंदी जगत को परिचित कराने का श्रेय इनके अनुवादक डॉ. संतोष अलेक्स को जाता है. डॉ. संतोष अलेक्स की मातृभाषा मलयालम है और उन्हें हिंदी, अंग्रेजी और तेलुगु पर भी इतना अधिकार प्राप्त है कि वे निरंतर इन सब भाषाओं में मौलिक सृजन और अनुवादकर्म करते आ रहे हैं. मैं उनके द्वारा अनूदित इन मलयालम कविताओं के प्रकाशन पर उन्हें और मूल कवि सेबास्टियन को हार्दिक बधाई देता हूँ. 

4 जुलाई, 2016                                                                                                         - ऋषभदेव शर्मा

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