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गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

जीवनेच्छा और लोक लगाव के गीतकार ईश्वर करुण

बिहार में जन्मे ईश्वर करुण (1957) लगभग तीस वर्ष से चेन्नै में रहकर हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा कर रहे हैं. उन्होंने गीत और नवगीत की पुनः प्रतिष्ठा के लिए बहुत काम किया है और अपने गीतिकाव्य द्वारा साहित्यिक मंचों व पत्र-पत्रिकाओं में एक सुनिश्चित स्थान प्राप्त किया है. ईश्वर करुण के गीतों में वैयक्तिक अनुभूतियों की गहराई और जीवनराग के साथ सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना के स्वर मुखर हुए हैं. वे जनकल्याण में आस्था रखने वाले और वैश्विक मानवता की प्रतिष्ठा चाहने वाले ऐसे गीतकार हैं जिन्होंने कॉरपोरेट जगत की चकाचौंध के पीछे दौड़ते उत्तरआधुनिक मनुष्य को साधारणत्व के सुख की महिमा बतानी चाही है और कहा है कि जब भी स्वार्थ का व्याकरण घायल करे तो तुम भूखे नंगे फकीरों को चूम लो. गलाकाट प्रतिस्पर्धा से भरे हुए धूर्त वातावरण की पहचान वे कटाक्ष और व्यंग्य के साथ करते हैं और ध्यान दिलाते हैं कि झूठ और सच, ज्योति और तम तथा दान और धन के बीच खतरनाक गठबंधन के युग में रिश्ते नाते हाथ से छूटते जा रहे हैं. परंतु अपराजेय जीवनेच्छा से भरा कवि इस सब के बीच जब यह कहता है कि ‘चलते चलते चरण जब भी घायल करें साथ के राहगीरों को तुम चूम लो’ तो सहज ही उसकी यह मुद्रा ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ का ही नया पाठ रचती प्रतीत होती है.

सहयात्रियों से प्रेम का यह दर्शन कवि करुण को प्रकृति और मनुष्य दोनों से गहरा लगाव देता है. उनके गीतों में एक खास तरह की सम्बोध्यता है जिसके तहत कवि एक हद तक फकीराना अंदाज में पाठक को सतर्क करता है कि नेह के नगर में विश्वास की धरोहर को लुटने से बचाना तुम्हारी अपनी जिम्मेदारी है. इस जिम्मेदारी के तहत रागात्मक संवेदनाओं का संरक्षण और संपोषण भी शामिल है. यह तभी संभव है जब हम लोक से जुड़े रहें. लोक का जुड़ाव करुण के गीतों में कहीं काँटों के सकुचाने, सन्नाटों के सोहर गाने, गुलमोहर और अमलतास द्वारा बंजरों में वसंत लाने के लिए उपासना करने के रूप में तो कहीं प्रेमिका के टेसू और प्रेमी के हरा आंवला बनने के रूप में अभिव्यक्ति प्राप्त करता है. कहने की ज़रूरत नहीं कि इन अभिव्यक्तियों में ताजगी और टटकापन है जो पाठक और श्रोता और बाँधने में समर्थ है. 

ताजगी और टटकापन करुण के गीतों में अभिनव प्रतीक योजना व शब्दों के नए सह-प्रयोगों द्वारा भी आता है. कई बार तो वे शरारतपूर्ण सह-संयोजन से ऐसा कटाक्ष करते हैं कि बस क्या कहिए! प्रेम की यात्रा का चाँद के पार तक जाना, परंपरा विहित प्रयोग हो सकता है, लेकिन जब कवि साँसों को अभियान देने की बात कहता है और अस्तित्व के कल्पना चावला की तरह विलीन होने की भविष्यवाणी करता है तो सारा शब्द व्यापार सही रूप में रमणीय अर्थ का प्रतिपादक बन जाता है. इसी प्रकार चंडीगढ़ और अबोहर के एक साथ प्रेम की हवा में जीने से जुड़ी ध्वनि का राजनैतिक प्रसंगगर्भत्व गीत के फलक को समकालीनता से जोड़ता है. इतना ही नहीं, विहंसते कल की उज्ज्वल संभावना को हर गाँव के मनोहर रामराज्य के स्वप्न के रूप में अंकित करते हुए करुण जी जब यह कहते हैं कि ‘पीढ़ियों के पुण्य को प्रपंच घेर पाए ना / कान्हा की बांसुरी को कंस टेर पाए ना’ – तो वे प्रकारांतर से जन-गण को जागरण और संघर्ष का सन्देश देते प्रतीत होते हैं. इस संदर्भ में कवि का यह मानुष अहं प्रत्येक सवतंत्रचेता नागरिक का प्रण होना चाहिए – ‘’ईश ने जीवन दिया जब,/ ताप मैंने वर लिया तब,/ घर्ष से उत्कर्ष लूंगा,/ मैं न कोई दान लूंगा.’’

ईश्वर करुण की रचनाएँ उनके ‘तूती चुप मत रहना’, ‘पंक्तियों में सिमट गया मन’, ‘एक और दृष्टि’, ‘ईश्वर करुण के लोकप्रिय गीत’ और ‘चुप नहीं है ईश्वर’ शीर्षक संग्रहों में सम्मिलित हैं. यहाँ हम ‘भास्वर भारत’ के पाठकों के लिए उनके कुछ चुनिंदा गीत प्रस्तुत कर रहे हैं.

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