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शुक्रवार, 14 जून 2013

दकन सा नहीं ठार संसार में

हैदराबाद : मोहल्ले, गली और कूचे :
 ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, खंड - 1; 
डॉ.आनंद राज वर्मा; 
2013; 
अकादमिक प्रतिभा, सरस्वती निवास, 
यू -9, नियर सोलंकी रोड, सुभाष पार्क, 
उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059; 
पृष्ठ – 258; 
मूल्य – रु.800 (पेपरबैक), 
रु.1600 (हार्डबाउंड)

हैदराबाद की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक गौरव-गरिमा का गान करते हुए कभी मुल्ला वजही ने कहा था – “दकन है नगीना अंगूठी है जग/ अंगूठी को हुरमत नगीना ही लग/ दकन सा नहीं ठार संसार में/ बंज फ़ाज़िलां का है इस ठार में.” यह आश्चर्यजनक है कि इस पुराने शहर पर हिंदी में कोई प्रामाणिक इतिहास ग्रंथ नहीं मिलता – अंग्रेज़ी, तेलुगु और उर्दू में तो कई हैं. लंबे समय से अनुभव किए जा रहे इस अभाव की पूर्ति की दिशा में एक सार्थक प्रयास के रूप में डॉ. आनंदराज वर्मा (1937) के ग्रंथ ‘हैदराबाद: मोहल्ले, गली और कूचे : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ (2013) का पहला खंड सामने आया है. डॉ.आनंदराज वर्मा बहुभाषाविद खोजी लेखक हैं और जीवविज्ञान की प्राध्यापकी से निवृत्त होने के बाद हैदराबाद के इतिहास और भूगोल की खुदाई गली-गली घूम-घूमकर कर रहे हैं. उनका यह ग्रंथ इस अर्थ में हैदराबाद का सूक्ष्म इतिहास है कि इसमें राजघरानों की तुलना में जनसामान्य की साधारण जीवन-प्रक्रिया से निर्मित होने वाली इस शहर की गाथा को लेखबद्ध किया गया है. 

किसी नगर की विरासत को समझने-समझाने का यह एक उम्दा तरीका  हो सकता है कि उसके गली, कूचे, मोहल्लों की कहानी खोजी जाए और डॉ. वर्मा ने यही किया है. इसमें उन्होंने मोहल्लों के नामों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उनके बसानेवालों की जानकारी देते हुए वहाँ के निवासियों के सामाजिक, व्यावसायिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश पर प्रकाश डाला है जो विभिन्न जातियों, वर्गों, संस्कृतियों की सटीक पहचान करने वाली सूक्ष्म दृष्टि का परिणाम है. लेखक ने ऐतिहासिक प्रमाणों से लेकर किंवदंतियों तक के सहारे इस गाथा का सृजन किया है. लेकिन यह कार्य उन्होंने पूरी खोजबीन के साथ और ईमानदारी से किया है. नक्शों, चित्रों और दस्तावेजों से सुसज्जित यह ग्रंथ मुहब्बत की नींव पर खड़े इस ऐतिहासिक-सांस्कृतिक नगर को लोकवृत्त के रूप में पुनः रचता है. इस लोकवृत्त को लेखक ने एक सफल किस्सागो और शैलीकार के रूप में पेश करते हुए लोकजीवन और लोकरस के साहारे इतिहास के कंकाल में साहित्यिकता के प्राण फूँके हैं. हैदराबाद के गली-कूचों और मंदिर-मस्जिदों की आवाज को जन-जन तक पहुँचाना ही इस ग्रंथ का उद्देश्य रहा है. 

विभिन्न स्थानों के नामकरण संबंधी चर्चा अत्यंत रोचक बन पड़ी है. लेखक ने यह भी विश्लेषण किया है कि हिंदी, उर्दू, तेलुगु और मराठी शब्दों के मेल से बने हुए ये नाम हैदराबाद की बहुसांस्कृतिकता के प्रतीक हैं. नगर, बन, घाट, पुर हिंदी से आए हैं तो आबाद, खिड़की, दायरा, दरीचा, चमन, बुर्ज उर्दू से. इसी प्रकार पल्ले, गूडेम, बंडा, गुट्टा और पुरम तेलुगु से तथा वाडी मराठी से. अनेक मोहल्लों के नाम हिंदी-उर्दू (हिंदुस्तानी) शैली के हैं जैसे – मंडी, बाज़ार, हवेली, गंज, चबूतरा, बावली. कुछ नाम बड़े विस्मयकारी भी हैं – कोका की टट्टी, पंछी बुर्राक, पेटला बुर्ज, सूखे मीर की कमान, कड़वे साहिब की गली, फिसल बंडा. लेखक ने इनके नामकरण का रहस्य रोचक शैली में समझाया है.

मोहल्लों के अलावा इस ग्रंथ में मंदिरों, मठों, अखाड़ों, दरगाहों, छिल्लों, अलावों, आशूरखानों, गुरुद्वारों और जैन मंदिरों का भी जितने विस्तार से शोधपूर्ण विवरण दिया गया है वह इसे इस विषय पर हिंदी का तो पहला ग्रंथ बनाता ही है, अन्य भाषाओं  में भी इसके अनुवाद की जरूरत जताता है. 
['भास्वर भारत' / अप्रैल 2013 / पृष्ठ 54]

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