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गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

कविता का समकाल -5) लोकचेतना और अद्यतन हिंदी कविता



कविता का समकाल/ आलोचना/
ऋषभ देव शर्मा/2011/लेखनी/ नई दिल्ली - 110059/
500 
रुपये/ 140 पृष्ठ/
ISBN 9788192082745
लोक चेतना के संदर्भ में हिंदी की अद्यतन कविता की चर्चा करते समय यह स्मरणीय है कि कविता की सार्थकता की एक कसौटी ‘लोकसंग्रह‘ (आचार्य रामचंद्र शुक्ल) की कसौटी रही है जो उसकी समाजोन्मुखता अथवा समाजपराङ्मुखता का निर्धारण करती है। हिंदी कविता अपने उदयकाल से ही लोकधर्मी रही है, इसीलिए उसे ‘संस्कृत और अपभ्रंश के ह्रासशील रूढ़ साहित्य के गर्भ से उत्पन्न लोकशक्ति की नवीन आकांक्षा‘ (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी) की अभिव्यक्ति के रूप में भी व्याख्यायित किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि साहित्य और उसके नियमों की जड़ें वातावरण, परिस्थिति और समाज में होती हैं तथा अद्यतन हिंदी कविता भी इसका अपवाद नहीं है। उसकी जड़ें व्यापक हिंदी लोक से ही पोषण प्राप्त कर रही हैं। यह संभव है कि ऊपरी सतह पर यह लोक-प्रभाव साफ-साफ न दीख पड़ता हो, परंतु अंतःसलिला के रूप में उसकी निरंतर उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता - वहाँ भी नहीं, जहाँ कविता अभिजन की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है क्योंकि अभिव्यक्ति के उपकरणों का चुनाव तो हर हाल में उसे लोक से ही करना पड़ता है (अन्यथा संप्रेषण के सीमित और बाधित हो जाने का ख़तरा जो है)। इसमें संदेह नहीं कि लोक और कविता का संबंध मिट्टी और फूल के संबंध के समान है (डॉ. नामवर सिंह)। जिस प्रकार अपने मौलिक रंग-रूप-गंध के बावजूद फूल पूरी तरह मिट्टी पर निर्भर है उसी प्रकार कविता लोक पर। इस प्रकार कविता का लोकसचेतन होना उसकी अस्तित्वगत अनिवार्यता है जिसकी अभिव्यक्ति दो स्तरों पर खोजी जा सकती है। एक तो यह कि क्या कविता लोक और लोकमानस को उनके तत्वों के साथ आत्मसात करके अपनी सचेतनता का प्रमाण दे रही है और दूसरा यह कि लोकविरोधी शक्तियों के प्रतिरोध के लिए लोकशक्तियों के संग्रह की चेतना को पहचानने और व्यंजित करने में यह कविता सक्षम है या नहीं। इसी से अद्यतन कविता की लोकचेतना और समाजोन्मुखता को रेखांकित किया जा सकता है।


यदि परंपरा का विहंगावलोकन करें तो, जैसा कि डॉ. नामवर सिंह ने ‘इतिहास और आलोचना‘ में लक्षित किया है, हिंदी के आरंभिक नाराशंसी वीरकाव्यों और प्रेमगीतों पर राजस्थानी लोकवार्ताओं का गहरा प्रभाव रहा है। रासो काव्य में संस्कृत से अपभ्रंश काव्य तक की परंपरागत काव्यरूढ़ियों का भी प्रभाव दिखाई देता है परंतु इनमें जिन लोकप्रचलित किंवदंतियों का समावेश हुआ है वे अभिजात साहित्य और पुराणों की परंपरा से भिन्न हैं। प्रेमकाव्य को कभी सूफी तो कभी अद्वैत सिद्धांतों के साथ जोड़ने की मशक्कत में हम यह भूल जाते हैं कि हिंदी के प्रेमाख्यानों के मूल में अनेक लौकिक आख्यानों और लोकगीतों की प्रेरणा विद्यमान है और अनेक स्थलों पर तो वे लोकगीतों के संग्रह जैसे भी प्रतीत होते हैं। वास्तव में मौखिक लोकगीतों और प्रेमाख्यानों की पृष्ठभूमि से पोषण प्राप्त करके ही संत और भक्तिकाव्य के कबीर, सूर, तुलसी और जायसी जैसे उन्नायक ऐहिक लोकानुभवों को आध्यात्मिक और भक्तिपरक महिमा से मंडित कर सके। रीतिकाव्य का लक्ष्य श्रोता भले ही अभिजात वर्ग था तथापि लौकिक गार्हस्थिक जीवन के रसमय चित्रों ने ही उसे जीवंतता प्रदान की, अन्यथा शास्त्र ने उस काल में कवित्व का गला घोटने के लिए क्या क्या नहीं किया! इसके बाद उन्नीसवीं शती के राष्ट्रीय पुनर्जागरण को भी हम पंद्रहवीं शती के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के साथ रखकर देख सकते हैं। इन दोनों ही अवसरों पर जागरण की परिणति शिष्ट और लोक के सान्निध्य के रूप में सामने आई। समाज में नीचे से ऊपर तक रागात्मक संबंध और सहभाव की धारा प्रवाहित होने लगी, जिसके परिणामस्वरूप संतों और भक्तों की भांति ही जागरण और सुधार काल के रचनाकार भी सौमनस्य के अमर गायक बनकर उभरे। कुलीनतंत्र द्वारा निर्मित विविध खाँचों को खंडित करके दोनों ही जागरण कालों की कविता ने मानवता की जो सरस धारा बहाई, वह भारतीय लोक चेतना की सहज अभिव्यक्ति ही थी। भारतेंदु युग से लेकर छायावाद युग तक के कवि भी संतों और भक्तों की भांति ही लोकदर्शी  रचनाकार थे तथा उनकी कविता सामान्य जन के हृदय को पूरी संवेदना के साथ उजागर करने में समर्थ थी। बहुजनस्पर्शी लोकचेतना और सहानुभूति  से संपन्न होने के कारण ही दोनों जागरण कालों की हिंदी कविता महान कृतियों की सर्जना कर सकी। वास्तव में वही युग महान कृतियों की सर्जना कर सकता है जो अदम्य जनसमूह की अजस्र लोकधारा के प्रति जागरूक रहता है। जिस युग में लोकधारा की उपेक्षा करके विदेशी सिद्धांतों, वादों और प्रभावों का आयात किया जाता है, उसकी जीवंतता सदा संदेह के घेरे में रहती है। हिंदी की आधुनिक कविता भी जब तक समाजवाद, मनोविश्लेषणवाद और अस्तित्ववाद का काव्यानुवाद भर करती रही, तब तक वह असंप्रेषणीय ही बनी रही, परंतु जब कवियों ने इन विचारों को आत्मसात करके भारतीय लोकचेतना के साथ इनका सामंजस्य स्थापित किया तथा सैद्धांतिक नामजप को छोड़कर लौकिक सहजसमाधि का मार्ग अपनाया, तो लोकचेतना का जादू विचारधाराओं के भी सिर पर चढ़कर बोलने लगा। यही कारण है कि बीसवीं शताब्दी की हिंदी कविता की छायावादोत्तर परंपरा में नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, धूमिल, सर्वेश्वर और रघुवीर सहाय जैसे लोकसचेतन कवि महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी बन सके। अद्यतन हिंदी कविता इसी कवि-परंपरा की उत्तराधिकारिणी है तथा विभिन्न स्तरों और उपस्तरों पर लोकचेतना की अभिव्यक्ति द्वारा अपनी लोकप्राणता को प्रमाणित कर रही है।

हिंदी की आज की कविता अपने समय और समाज के वैविध्यों के अनुरूप अपने आपको ढालने में लगी है। इसका परिणाम अनेक परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियों के रूप में देखा जा सकता है। एक ओर जहाँ उत्तर आधुनिक विमर्श के अलग अलग रंग इस कविता में दीख पड़ते हैं, वहीं परंपरा और पौराणिकता के प्रति प्रेम भी। विचारधाराओं के व्यामोह के टूटने से उत्पन्न निर्वात को भरने के लिए परिधि पर के जिन विमर्शों को केंद्रीय महत्व मिलता दीख रहा है, उनमें लोक-विमर्श भी है। समाज के असंतुलित आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण तथा अब कथित भूमंडलीकरण के कारण लोक का उपेक्षित छूटना स्वाभाविक था। अब जब उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं और मनुष्य की जीवनीशक्ति निरंतर दोहन से त्रस्त होकर छीजने लगी है, तब लोकधारा की ओर मुड़ना समय की आवश्यकता है, युगधर्म है। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों की हिंदी कविता का अवलोकन करने से पता चलता है कि वह इस युगधर्म के प्रति काफी सचेत है। उसे इस सत्य का आभास हो गया है कि आयातित विकास के पिछलग्गू बनकर हम स्मृतिहीनता के ऐसे गर्त में गिर सकते हैं जिसमें हमारी पहचान ही खो जाए। हमारी यह पहचान हमारी उन मातृभाषाओं में सुरक्षित है जिन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजारवाद की भाषा निरंतर निगल रही है परंतु जिन्हें सामान्य जन अपने पिछड़ेपन के बावजूद बचाए हुए है -

‘‘पराई भाषा में खोजते थे
हम अपने होने के आशय
पारदर्शी किंतु स्मृतिहीन
हिंदी में थे और देश में
जैसे भौंचक परदेश  में
इस बार भी भाषा के सीमांत पर
दूर देहात में मिली वह कुंजड़िन
गाहक से करती ठिठोली
फिर परास्त हुआ वैयाकरण
और तरह पा गई एक पिछड़ी बोली 
(सवाई सिंह शेखावत, जीवन का दंश -  आठ, समकालीन भारतीय साहित्य, जनवरी-फरवरी, 2003, पृ. 50)।

लोकभाषा की इस शक्ति की व्याख्या इस रूप में भी की जा सकती है कि जब-जब साहित्य की भाषा जड़ीभूत होने लगती है, तब-तब उसे नवोन्मेष से भरने के लिए रचनाकार लोक से भाषिक उपादान ग्रहण करता है। देहात की कुंजडिन की तरह ही करघे पर कपड़ा बुनते हुए बुनकर से भी लोकशब्दावली और प्रयोजनवती अभिव्यक्ति ग्रहण करके आज का कवि अपनी अभिव्यंजना को टटकापन प्रदान करता है।  बुनकर, धागा, रेशा, करघा, रंग, कपड़ा और थान मिलकर रंगों के एक ऐसे मेले की रचना करते हैं जिसमें आकाश, बादल, परियों और बच्चों की उपस्थिति कविता, लोक और भाषा को एकमेक कर देती है -

‘‘धागे और बुनकर के बीच
पसरी  भाषा को ही
कहा जाता है कपड़ा।
धागे के रेशों में
बहती हुई ऊर्जा ही
प्रमाणित करती है
करघे का अस्तित्व
उसी का जादू
निरंतर बदलता रहता है करघे को
अगणित रंगों के असंख्य थानों में
जिन्हें पहन लेते हैं
गांव नगर घाटियां और पहाड़ जंगल
जैसे आकाश  ने
पहने हों सुबह शाम के बादल धुपहले कत्थई सुर्मई रेशमी आभा वाले
धागे के रेशों के गांव में
जुड़ता है रंगों का मेला
दौडे चले आते हैं सभी मेले में
परियों की दुनिया में दौड़ते हैं जैसे बच्चे सपनों में।‘‘ 
(देवराज/धागा: पांच अनुभव/समकालीन भारतीय साहित्य, जनवरी-फरवरी, 2003/पृ.66)।

आधुनिक मनुष्य जब कभी अपनी पहचान खोजने निकलता है तो उसे ‘अपनी खबर‘ इस लोक में ही मिलती है - कभी पेड़, तो कभी पात्र, या नाव, या पहिये के रूप में -

‘‘पर वैशाली में मैं आम का एक पेड़ था
श्रावस्ती में शायद एक भिक्षु का भिक्षापात्र
वाराणसी में एक नाव हो सकता था मैं,
अगर मेरे बढ़ई ने मुझे छीलछाल कर
एक पहिया न बना दिया होता। 
(केदारनाथ सिंह/अपनी खबर/समकालीन भारतीय साहित्य/ नवंबर-दिसंबर, 2002/पृ. 87. उद्धृत - परमानंद श्रीवास्तव)।

यह पहचान मिलते ही लोक के उत्सव और संस्कार अर्थवान हो उठते हैं और उनसे जुड़ने पर ही परिपूर्णता का अहसास हो पाता है। यही कारण है कि कविता लोकोत्सवों में पूरे मन से सम्मिलित हो रही है -

‘‘धान की बालियों वाली झालर
मैंने लटकाई
दरवाजे की चौखट पर
और गृहप्रवेश से पहले
न्योता भेजा चिडियों को विधिवत। 
(सतीश जायसवाल /गृहप्रवेश /समकालीन भारतीय साहित्य/ जनवरी-फरवरी, 2003/पृ. 53)।

लोक के जुड़ाव से जीवन की समझ पैदा होती है और कविता की भाषा में लोकानुभव से उपजे कथन स्थान लेते दिखाई देते हैं -
‘‘कटाई का समय सिर पर खड़ा है
फसल अब खेत में क्या बो रहे हैं
सुना है आप हैं बेदाग अब तक
तो दामन फिर भला क्यों धो रहे हैं।‘‘ 
(सरवत जमाल/तीन गज़लें/अभिनव कदम, मई-अक्तूबर, 2001/पृ. 212)।

इस लोकानुभव का एक पक्ष लोककथाओं द्वारा भी पुष्ट होता है। अद्यतन कविता अपने पाठक को संबोधित करने के लिए विदेशी  कथानायकों और आयातित प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करती, बल्कि लोककथाओं के उन पात्रों और कथास्थितियों का सहारा लेती है जिनके प्रतीकार्थ हिंदी जाति के सामूहिक अचेतन में आदिबिंबों की तरह सुरक्षित हैं। लोकचेतना के जागरण के लिए इन आदिबिंबों का प्रयोग आज की काव्यभाषा को अद्भुत प्रभाविष्णुता तथा मारकता से मंडित करता है -

‘‘बेटों के बेटे, नाती-पोते बड़े हो गए
तो पता चला-
यही मेरा राजा
यही राजा का घर
यही उसकी चोंच, यही उसका पर
यहीं सब कुछ तय होता
संदर्भित व्यक्ति रहता
इतनी बकबक के बाद
राजा ने पोल खोल दी
पिंज़रे में बंद तोते ने गरदन सिकोड़ी
पंख समेटा, ठोर चलाया
राजा की जान इसी में है
बाकी है गरदन मरोड़ना।‘‘ 
(वीरेंद्र सारंग/अब पता चलता है/अभिनव कदम/मई- अक्तूबर, 2001/पृ. 194)।

लोकचेतना को झकझोरने और जगाने के लिए आज की कविता लोकधारा के प्रवाह में आए व्याघात की भी जोर देकर चर्चा करती है तथा कल और आज की तुलना करके विरोधी समांतरता की सृष्टि करती है।  इससे पाठक भावमग्न होने के स्थान पर बेचैन और चिंतित होता है जिससे वर्तमान की विसंगतियों के प्रति उसका असंतोष क्रमशः व्यंग्य और आक्रोश  के रूप में अभिव्यक्त होने लगता है -

‘‘उजड़ते जा  रहे हैं मेले
 यहाँ पिपहिरी की आवाज
नहीं सुनाई पड़ती
बजते नहीं ढोल और मजीरे
नट नहीं दिखाते
अपने खेल
जादूगर दिल्ली की तरफ
चले गए हैं  x x x
जिन मेलों को देखते हुए
मैं बड़ा हुआ
वहाँ स्त्रियों के बिकने की
सूचना है।‘‘ 
(स्वप्निल श्रीवास्तव/मेले/अभिवन कदम/ मई- अक्तूबर, 2001/पृ. 70-71)।

मेलों में स्त्रियों के बिकने की सूचना यदि लोक की दुर्दशा  का संकेत करती है, तो सदा मर्यादित रहे मिट्टी के चूल्हे की आग की मर्यादा लाँघने की तत्परता इस दुर्दशा  के प्रतिकार के संकल्प को रूपायित करती है -
‘‘माँ मिट्टी के चूल्हे को लीप-पोतकर रोज सुबह
उसमें लकड़ियाँ डाल आग जलाती थी
भोजन पकता था और हम सभी तृप्त होते थे
उसके भीतर भी तो एक आग ही धधका करती थी
और बाहर हवन का सामान रहता था ......
फिर हम इसे अनहोनी कैसे कह सकते हैं
कि एक दिन वह पूरी की पूरी सुलग उठी।
ऐसे में तो कोई भी अपनी
मर्यादा लाँघ सकता है न?‘‘ 
(संध्या गुप्ता/जब तक न लगाओ/समकालीन भारतीय साहित्य (104)/नवंबर- दिसंबर, 2002/पृ. 34)।

चूल्हा केवल आग जलाने और रोटी पकाने भर का स्थान नहीं, बल्कि लोक संस्कृति का एक प्राणवंत तत्व है। उसके साथ पूस की रातों की वे स्मृतियाँ जुड़ी हैं जिनका संबंध घर-परिवार के तमाम रिश्ते-नातों की सहज अंतरंगता से है। हमारा दुर्भाग्य है कि आधुनिक सभ्यता ने हमें चौके-चूल्हे की उस सौंधी गंध से वंचित कर दिया है -

‘‘पूस की रात
चूल्हे को घेरे बैठी
ननदें-देवर-सास
और चूड़ियों की खनखनाहट सान
मकई की रोटी सेकती
चौके की वो ठिठोली गंध कहाँ गई?‘‘ 
(वीरेन नंदा/कहाँ गई/कब करोगी प्रारंभ (पुरुष काव्य पुस्तिका)/पृ. 75)।

आत्मीय संबंधों की गंध के लुप्त होते ही लोक को भी आतंक ने अपने घेरे में ले लिया है। जिस युग में बच्चे की नींद और सपने भी भय और हिंसा से लथपथ हों, उसमें भला लोक स्वस्थ कैसे रह सकता है -

‘‘बच्चे की नींद और
सपनों के बारे में सोचती हुई
दहशतजदा हैं -
खिड़कियाँ, छत और दीवारें
मंदिर, गुरुद्वारे और मीनारें
न जाने कब
राख का ढेर हो जाएँ।
भाषा से किताब तक की जद्दोजहद
समझने लगा है बच्चा।‘‘ 
(मीठेश  निर्मोही /बच्चा/समकालीन भारतीय साहित्य/जनवरी-फरवरी, 2003/    पृ. 57)।

लोकजीवन को अपनी कुंडली  में समेटनेवाले इस भय, हिंसा और आतंक के अजगर को कविता न पहचानती हो, ऐसा नहीं है। उसे मालूम है कि लोग किसके डर से तालाब में नहाने नहीं जाते। उसे यह भी अहसास है कि धनबल और भुजबल द्वारा निरंतर जनबल के दमन के कारण संघर्षषीलता के ईमानदार संस्कार के क्षरण की भी पूरी संभावना है -

‘‘जब से पटवारी ने
पट्टा कर दिया है रामखेलावन सिंह के नाम
तालाब! बिना छिनगाये बाँसों से
भरा है तालाब। आदमी यूँ भी
नहाने नहीं जाते
उलझ जाने के डर से
x x x 
तालाब महसूसने लगा है
अगर इसी तरह मुट्ठी में बंद रहा
उसका अस्तित्व
आनेवाली पीढ़ियाँ
नहीं सीखेंगी तैरना
पानी से डरेंगी।‘‘ 
(जिलेदार सिंह /पानी/कृति ओर/अक्तूबर- दिसंबर, 2001/ पृ. 10)।

लोकचेतना का आधार सामूहिकता के संस्कार से निर्मित होता है। राजनीतिक कुचक्र ने इसकी जड़ों को काट डाला है जिससे सामूहिकता की मूलभूत इकाई के रूप में सदियों से स्वीकृत घर नष्ट हो गया है।  बेघरबार बच्चे दंगाइयों का डर झेलते हुए बड़े हो रहे हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि घरेलू अपनेपन से भरे-पूरे इस पर्वत-लोक में आकाश  में उड़ती पतंगों, चिड़ियों और तितलियों तक को आतंकित करने के लिए वृक्षों में विषबुझे तीर किसने मारे हैं-

‘‘मैं आधा जलकर बच गया, लेकिन मेरा घर पूरा जलकर हो गया राख
अभी भी मैं डर के मारे आँखें बंद कर लेता हूँ
मुझे नींद नहीं आती
नींद में भी मैं डर से चिल्लाने लगता हूँ।
किसने बिछाया बारूद इन पहाड़ों में
यहाँ मेरी पतंगे उड़ती थीं
किसने मारे विषबुझे तीर इन वृक्षों में
यहाँ मेरे पक्षी रहते थे
जिन रास्तों पर मैं दौड़ता था,
जो ढंक गए थे घास के गुलाबी फूलों से
तितलियाँ नहीं
अब वहाँ राख उड़ती है
किसने मारे विषबुझे तीर इन वृक्षों में
यहाँ मेरे पक्षी रहते थे
जिन रास्तों पर मैं दौड़ता था,
जो ढंक गए थे घास के गुलाबी फूलों से
तितलियाँ नहीं
अब वहाँ राख उड़ती है।‘‘ 
(एकांत श्रीवास्तव/कैंप में बच्च: दो (मोहम्मद यासीन, उम्र 8 वर्ष)/वागर्थ, नमंबर-दिसंबर, 2002/पृ. 74)।

ये विषबुझे तीर जिन्होंने पेड़, पहाड़ और घर-सब कुछ को जलाकर राख कर दिया है, सांप्रदायिकता में बुझी राजनीति के तीर हैं।  अद्यतन कविता लोकगीत के लयपूर्ण रचना साँचे का सहारा लेकर लोकचेतना के उस रूप को अभिव्यक्त करने का भी प्रयास कर रही है जो मंदिर-मस्जिद की इस संप्रदायवादी राजनीति के हिंसक चेहरे के उघड़ जाने की प्रतिक्रिया के रूप में प्रकट हो रही है। कवि लोकजीवन के उन बुनियादी रिश्तों  की याद दिलाता है जिन पर इस पुंश्चली राजनीति ने आघात किया है और लोक के रागात्मक संबंधसूत्रों को छिन्नभिन्न करने का अमानुषिक कृत्य किया है -

‘‘अगल भी चिनना बगल भी चिनना
उस माँ को लेना संभाल
जिसका लाल कटा दंगे में

अगल भी चिनना  बगल भी चिनना
उस बहू का करना ख्याल
जिसका कंत मरा दंगे में

अगल भी चिनना बगल भी चिनना
उस बाल को लेना पाल
जिसकी माँ न बाप बचा दंगे में

अगल भी चिनना बगल भी चिनना
नहीं मन साफ तो कुछ नहीं माफ
चाहे जितने मंदिर लो चिनवा।‘‘ 
(अनूप सेठी/ रामशिला की प्रार्थना/वागर्थ/नवंबर-दिसंबर, 2002/पृ. 77)।

आज की लोक-सचेतन कविता अपने पाठकों की मानसिकता को लोकचेतना के संस्कार से संबलित  करना चाहती है।  इसके लिए वह घर, रिश्ते-नातों और आपसी सद्भाव की ओर ध्यान आकर्षित करती है क्योंकि ये ही वे शक्तियाँ हैं जो विकट विपरीत झंझावात के बीच सहज मानवीय रागात्मकता रूपी लोक के प्राण की रक्षा करने में समर्थ हैं -

‘‘घर अडिग विश्वास
निश्छल स्नेह है घर
दादियों और नानियों की आँख में
तैरते सपने हमारे घर

घर पिता का है पसीना
घर बहन की राखियाँ हैं
भाइयों की बाँह पर ये घर खड़े हैं,
पत्नियों की मांग में ये घर जड़े हैं

आपसी सद्भाव माँ की
मुट्ठियों में
घर कसे हैं,

क्यों भला अचरज
कि अब तक
घर बसे हैं
घर बचे हैं।‘‘ 
(ऋषभदेव शर्मा/घर बसे हैं/गंध/मार्च 2002/पृ. 45)।

इसमें संदेह नहीं कि बाजार की ताकतें आज पूरी दुनिया को तेजी से मंड़ी में तब्दील करने पर उतारू हैं, पर कवि भी हार मानने को तैयार नहीं। वह प्रेम के बल पर इस बाजार से होड़ लेने को सन्नद्ध है। इस संबंध में अपनी रणनीति का खुलासा वह प्रेमिका के नाम प्रेमपत्र में इस प्रकार करता है -
‘‘तेजी से मंडी बदलती हुई दुनिया में
बिकने से पेशतर
एक गोदनहारू बुलाऊँगा 
माथे पर, बाजू पर, छाती पर
तुम्हारे नाम का गोदना 
गोदवा लूँगा।‘‘ 
(सदानंद शाही/ प्रेमपत्र/अभिनव कदम/मई-अक्तूबर, 2001/ पृ. 229)।

इस रणनीति के तहत कविता को सीधे सीधे लोक से जुड़ना होगा तथा उसी की अभिव्यक्ति प्रणाली के सहज स्वाभाविक उपकरण ग्रहण करने होंगे जिनका संबंध लोक के खेती और मजदूरी जैसे दैनंदिन जीवनक्रम से हो।  लोक के सामूहिकता और समरसता जैसे मूल्यों को आत्मसात् करने पर ही यह संभव है कि सद्भाव और सहानुभूति की छाँह और गंध के सहारे युग की तपन और घृणा पर विजय प्राप्त की जा सके -

‘‘पीर के कुछ बीज
जिस दिन बो दिए
अंतःकरण में
थी उसी दिन से प्रतीक्षा
एक दिन अंकुर उगेंगे
x x x
चाहती हूँ
किसी का ताप हर लें
तपन हर लें
छाँह दें
विश्राम दें
दें गंध अपनी
और ऊँचे उठ
सभी ये।‘‘ 
(कविता वाचक्नवी/ पीर के कुछ बीज/गंध, मार्च, 2002/   पृ. 42-43)।

लोकमंगल की यह कामना कवि और कविता को उसकी अपनी जड़ों से जोड़ती है, मिट्टी की पहचान कराती है-

‘‘मिट्टी से दोस्ती
पुरानी कहानी
हम उतने पुराने
जितनी मिट्टी।‘‘ 
(नरेंद्र जैन/मिट्टी में चेहरे/वागर्थ/नवंबर- दिसंबर, 2002/ पृ. 69)।

यह मिट्टी प्रतीक है उस संस्कार का जो हमारी चेतना को लोक से प्राप्त होता है-

‘‘माटी ने जो दिया है
लेप की तरह है
रंग की तरह है
पक्के संग की तरह है
 x x x
मेरी माटी ने मुझे पैदा किया
पैदा किए मुझमें ऐसे संस्कार
जो बार बार करते मुझे तैयार।‘‘ 
(सुदर्शन वशिष्ठ /मेरी माटी/समकालीन भारतीय साहित्य (104)/नवंबर- दिसंबर, 2002/पृ. 42)।

मिट्टी से पहचान स्थापित हो जाने पर मनुष्य अपने चारों ओर विद्यमान लोक परिवेश की महत्ता और महिमा से परिचित होता है जिससे उसकी लोक चेतना पुंजीभूत होती है। इस पुंजीभूत लोकचेतना की व्याप्ति पिंड और ब्रह्मांड में एक साथ रूपांतरण का हेतु बनती है और आज का कवि भी स्वयं को लोकचेता ऋषियों की परंपरा में सम्मिलित करके प्रार्थना में लीन हो जाता है -

‘‘पर्वत! देना मुझे अपना सा धैर्य
सिखाना अपना धर्म
चमकें चाहे लाख बिजलियाँ
अपनी सी दमक देना
मैं जाऊँ चाहे मैदान
चाहे समंदर किनारे
अपना-सा घर देना
देना मुझे गुफा-सा गांभीर्य
चोटी-सी ऊँचाई देना
चट्टान-सा बल देना
मुझे कस्तूरी से भर देना।‘‘ 
(सुदर्शन वशिष्ठ /मेरे पर्वत/समकालीन भारतीय साहित्य (104)/नवंबर-दिसंबर, 2002/पृ. 41)।

प्रार्थना धीरे-धीरे संकल्प में बदलती है और लोक चेतना के जागरण को अभिव्यक्ति की सतेज भंगिमा प्राप्त होती है -

‘‘हम सूरज को
अपने लाल तवे के ऊपर
पकता हुआ देखना चाहते हैं
सूरज: नहीं है किसी की बपौती
हर बस्ती की उम्मीद है वह
गोया हर हाथ की रोटी।‘‘ 
(गोविंद प्रसाद/ सूरज/अभिनव कदम/मई-अक्तूबर, 2001/ पृ. 234)

ऐसी स्थिति में लोक के सामूहिक अचेतन में बसा कल्पवृक्ष का आदिबिंब एक बार फिर कवि के आंगन में फूट पड़ता है जिसे प्रकट करती है सारे लौकिक-अलौकिक संबंधों की गंगोत्री माँ, क्योंकि वही तो मनुष्य को लोक के सद्भाव पर विचारने की मंगलमयी प्रेरणा देती है-

‘‘एक बार फिर से
प्राणियों के सद्भाव पर सोच कर तो देखो प्रेमशंकर 
मैं अपने अंचल में सहेजे
अदृश्य कल्पवृक्ष को
तुम्हारे आंगन में प्रकट कर दूँगी।‘‘ 
(प्रेमशंकर रघुवंशी /कल्पवृक्ष/समकालीन भारतीय साहित्य (104)/नवंबर-दिसंबर, 2002/पृ. 40)।

लोकमंगल के वरण की इस शुभकामना में लोक के अमंगल का निषेध भी निहित है। कविता में लोकचेतना की अभिव्यक्ति को यदि मंगलभवन अमंगलहारी बनना है तो ग्रहण और त्याग का यह विवेक अनिवार्य है। अद्यतन/समकालीन कविता रागात्मकता के जिस धागे से अपने अस्तित्व को बुन रही है, वह धागा अपनी दुनिया से लोकविरोधी और युद्धजीवी तत्वों को निष्कासित करता है-

‘‘धागा
उन्हें भी नहीं बनाना चाहता नागरिक
अपनी दुनिया का
जो शांति के लिए
जरूरी मानते हों विचारों की हत्या
चिडियों से छीनते हों घोंसले
जंगलों से हँसी
नदियों से पानी के साथ जुड़ा मादक प्रेम
बच्चों से किलकारियाँ
और घरौंदे बनाने की आजादी।
 (देवराज/धागा: पांच अनुभव/समकालीन भारतीय साहित्य /जनवरी-फरवरी, 2003/पृ. 67-68)।

यदि शब्दों के धागे की यह सदिच्छा पूरी होगी तो लोक भी बचेगा और लोकचेतना भी सुरक्षित रहेगी। अपसंस्कृति के आक्रमणों के बीच हम अपनी पहचान को लोकमंगल की इसी साधना के बल पर बनाए रख सकते हैं।

2 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति ||

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भाषा तो सदा ही प्राकृत और संस्कृत के बीच झूलती रही है..