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मंगलवार, 1 नवंबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्रीय समीक्षादृष्‍टि पर त्रि-दिवसीय व्याख्यानमाला संपन्न

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में आयोजित त्रिदिवसीय व्याख्यानमाला 'भारतीय काव्यशास्त्रीय समीक्षादृष्टि '  के दूसरे दिन मुख्य वक्‍ता प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी के सान्निध्य में लिया गया सामूहिक चित्र

हैदराबाद, 1  नवंबर, 2011.

"भारत में काव्यशास्त्रीय चिंतन के बीज  ऋग्वेद  काल से ही उपल्ब्ध होने लगते हैं यहाँ तक कि दसवें मंडल में आम भाषा और साहित्य भाषा के अलग होने का भी  संकेत प्राप्‍त होता है. किसान जिस तरह छलनी की सहायता से अच्छे अनाज का चुनाव करता है रचनाकार भी लोक से उसी प्रकार श्रेष्‍ठ भाषा को छाँटकर उसका सर्जनात्मक उपयोग करता है. आगे चलकर वैदिक और बौद्ध साहित्य में वाक्‌ विषयक चिंतन का विकास हुआ तथा ईसा की पहली शताब्दी के आस पास भरतमुनि ने नाट्‍यशास्त्र की रचना की. उन्होंने इसकी सामग्री का आधार पाठ, गीत, अभिनय और रस के रूप में चारों वेदों को बनाया."

ये विचार यहाँ उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में ''साहित्य संस्कृति मंच'' द्वारा आयोजित त्रि-दिवसीय व्याख्यानमाला ''भारतीय काव्यशास्त्रीय समीक्षादृष्टि''  के अंतर्गत संस्कृत और रूसी भाषा के मूर्धन्य विद्वान प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी ने प्रकट किए. 

प्रो.ऋषभ देव शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न इस व्याख्यानमाला के पहले दिन शुक्रवार को प्रो.डिमरी ने विस्तार से भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा का विश्‍लेषण किया और ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के साथ जोड़कर उसकी व्याख्या की. 

व्याख्यानमाला के दूसरे दिन शनिवार को प्रो.जे.पी.डिमरी ने अलंकारवाद, गुण-रीति वाद और रस-ध्वनि का विवेचन करते हुए यह प्रतिपादित किया कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र इन्हीं सिद्धांतों की नींव पर खड़ा हुआ है. रसों की चर्चा करते हुए जब उन्होंने हर रस के अलग अलग देवता और रंग पर प्रकाश डाला तथा भाव विवेचन के संदर्भ में इस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिकता का मर्म समझाया तो उपस्थित छात्र और शोधार्थी ही नहीं अध्यापकगण भी चमत्कृत रह गए. 

व्याख्यानमाला के  समापन सत्र में मंगलवार 1 नवंबर, 2011 को अतिथि वक्‍ता ने व्यावहारिक समीक्षा द्वारा प्राचीन और आधुनिक साहित्य के विवेचन के लिए भारतीय काव्यशास्त्र की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला. रस और वक्रोक्ति की कसौटी पर क्रमशः सूरदास के पद 'मधुवन, तुम कत रहत हरे' और सुमित्रानंदन पंत की कविता 'उच्छ्वास' के विवेचन द्वारा उन्होंने इस समीक्षा प्रणाली को सोदाहरण स्पष्ट किया.

व्याख्यान के उपरांत चर्चा परिचर्चा में डॉ.साहिरा बानू, डॉ.बलविंदर कौर, डॉ.जी.नीरजा, डॉ.गोरखनाथ तिवारी, डॉ.मृत्युंजय सिंह, डॉ.पी.श्रीनिवास राव, डॉ.बी.बालाजी, डॉ.पूर्णिमा शर्मा, राधा कृष्ण मिरियाला, सरिता मंजरी, जी.संगीता, राजीव कुमार, रामप्रकाश साह, अजय कुमार मौर्य, अंजु  कुमारी, टी.सुभाषिणी, प्रमोद कुमार तिवारी आदि ने विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ की.

संस्थान की ओर से संपर्क सचिव ने उत्तरीय और स्मृतिचिह्न प्रदान कर प्रो.डिमरी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की तथा छात्रों ने भी वाग्देवी की प्रतिमा समर्पित कर सम्मान किया.   



3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बधाई, सुन्दर व सफल आयोजन के लिये।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आज के वार्ता में यह समाचार देख लिया था सर जी। समापन दिवस के समाचार की प्रतीक्षा है॥

राधा कृष्ण मिरियाला ने कहा…

आदरणीय गुरूजी को नमस्कार !
आपकी अध्यक्षता में प्रो.डिमरी जी की व्यख्यान सुसंपन्न हुई है . भारतीय काव्यशास्त्र के बारें में बहुत कुछ जानकारी हमें प्राप्त हुई है , इस कार्यक्रम की आयोजन के लिए आप को बहुत-बहुत धन्वायाद अर्पित करना चाहता हूँ .आशा करता हूँ की छात्रों की ज्ञान की वृद्दि हेतु इस प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन आगे भी संस्थान में रहें !>>>>

सधन्यवाद सहित ,

आप का प्रिय छात्र

राधाकृष्ण मिरियाला