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शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

बिसर न जाए जो बीत गई




बिसर न जाए जो बीत गई


'जो बीत गई' लेखिका शकुंतला दुबे का आत्मवृत्त है जिसे कुछ गीतों और चित्रों के साथ सजाकर प्रस्तुत किया गया है। 20वीं शताब्दी के चौथे दशक में पैदा हुई एक लड़की के बचपन और कैशौर्य की दिलचस्प कहानी को उनके परिवारीजन के उत्साहवश प्रकाशित होकर सामने आना ही पड़ा। बड़ी-बड़ी स्त्रीविमर्शात्मक और औपन्यासिक आत्मकथाओं के दौर में यह सीधी सच्ची आप बीती इसलिए ध्यान खींचती है कि इसमें न तो अपना महिमामंडन है, न पुरुष का तिरस्कार। न नारेबाजी है, न स्मृतियों को कल्पना के साथ घोलने की कलाबाजी। इसके बावजूद भारतीय स्त्री की वेदना और गरिमा दोनों इसके माध्यम से उभर सकी है। कहीं-कहीं तो अपनी सहजता में शकुंतला दुबे महादेवी वर्मा के संस्मरणों की याद दिया देती हैं।


लेखिका ने अपने घर-परिवार और रीति-रिवाजों का खुलासा करते हुए समाज का भी जगह-जगह खुलासा किया है। लेखिका को बचपन में स्कूल ले जाने और ले आने के लिए एक नौकरानी नियुक्त थी - उमराई। उसके बहाने सामाजिक ऊँच-नीच और गैरबराबरी की ओर इशारा किया गया है। उस उम्र में लेखिका की समझ में नहीं आता कि उमराई के मोहल्ले के लोग उनके आने पर अदब से खड़े क्यों हो जाते हैं। (''तुम बड़े लोग हो। यह लोग छोटे हैं इसलिए अदब से खड़े हो जाते हैं।'' ''पर वे मुझसे छोटे कहाँ हैं? वे तो मुझसे बहुत बड़े हैं। बल्कि बूढ़े भी हो गए हैं।'' मैंने कहा। यह अंतर गहन था जो न तो उमराई मुझे समझा पाई और न ही मेरी छोटी-सी बुद्धि ग्रहण कर सकी।)


दूसरे विश्वयुद्ध के समय स्कूली बच्चों को बम गिरने पर बचने के संबंध में टेªनिंग का प्रसंग रोचक है। साथ ही स्कूलों में जबरन मजहबी शिक्षा का प्रसंग भी। इसी काल में लेखिका के मन में भारतीयता की जड़ें पुख्ता हुईं। यही वह समय था जब नन्ही-सी बच्ची के मन में यह प्रश्न उठा कि गुलाम क्या होता है और हम गुलाम क्यों हैं ?


एक लड़की अपने परिवेश से परिचित होना आरंभ करे, सपने देखने शुरू करे और उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ जाए - कैसा तो लगता होगा। बारह साल की उम्र में लड़की सयानी हो जाती है और सयानी लड़कियाँ घर में ही शोभा देती हैं! इस उम्र से आगे पढ़ाई का अधिकार सिर्फ लड़कों का था। लड़कियों के लिए इतना पढ़ना-लिखना काफ़ी था कि वे रामायण- महाभारत बाँच सकें, चिट्ठी-पत्री कर सकें । आखिर उन्हें चूल्हा-चौका, घर और बच्चे ही तो सँभालने होते हैं। शकुंतला दुबे की पढ़ाई छूट गई। उन्हें कैसा लगा? ''मेरी मानसिक हालत उस पंछी की हो गई थी, जो खुली हवा में पंख फैलाए उड़ रहा था, पेड़ की डालियों पर बैठकर आराम से ताजे फल कुतर रहा था, अपने संगी-साथियों के साथ गुटरगूं कर रहा था और अचानक उसे पकड़कर पिंजरे में एकाकी बंद कर दिया गया है। कभी-कभी मैं अपने घर की छत से स्कूल के बच्चों को देखती थी। स्कूल में कुछ बच्चे ऐसे थे, जो मुझसे छोटी कक्षा में थे, पर जिनके साथ मैं खेला करती थी। वे अभी भी स्कूल में पढ़ रहे थे। कई बार मुझे छत पर खड़ी देखकर मुझे वे अपने साथ खेलने के लिए बुलाते थे पर मुझे जाने की इजाजत नहीं थी।'' देश आजाद हो गया पर लड़कियों का आजाद होना अभी शेष था। आज भी बड़ी सीमा तक शेष है।


कई तरह की रूढ़ियाँ हमारे समाज में तब भी थीं और आज भी हैं। स्वच्छता की बात तो ठीक है लेकिन यह क्या कि खाना बनाते समय केवल साड़ी पहननी है, पेटीकोट या ब्लाउज पहनने की इजाजत नहीं क्योंकि पेटीकोट में सिलाई होती है! इससे वह अशुद्ध हो जाता है! शकुंतला दुबे ने विरोध किया - ''आपको मेरा पेटीकोट पहनकर खाना बनाना मंजूर नहीं है तो मैं खाना ही नहीं बनाऊँगी।'' इस तरह उनके परिवार की लड़कियों को तो सिले कपड़े पहनकर रसोई बनाने की अनुमति मिल गई लेकिन रूढ़िवादी परिवारों में यह रिवाज आज भी कायम है।


'जो बीत गई' में जहाँ अनेक मनोरंजक प्रसंग हैं, वहीं दुःख और कष्ट का भी वर्णन है। शादी के अवसर पर गाँव जाने पर वहाँ के असुविधापूर्ण जीवन का सामना होना स्वाभाविक ही है। उस पर भी ऐसा गाँव जहाँ सब्जी और दूध बेचने का रिवाज न हो। ऐसा गाँव भारतीय कौटंुबिकता और सौहार्द की मिसाल बन सकता है। ''उन दिनों गाँवों के किसी भी परिवार में लड़की की शादी होती तो गाँव के बाकी सभी परिवार भी दावत के लिए दो-तीन दिन पहले से अपने घरों में थोड़ा-थोड़ा दूध बचा कर दही जमा दिया करते थे। सामान्य परिस्थितियों में गाँव के लोग मदद करने के लिए एक-दूसरे को दो-एक दिन दूध दे देते थे।'' परंतु ऐसे गाँव में बाहर से आकर रहना कितना कष्टकर हो सकता है यह तो गुड की काली चाय पीने वाला ही जान सकता है।


शकुंतला दुबे के साथ यह अच्छा हुआ कि विवाह के बाद वे अपनी पढ़ाई जारी रख सकीं और इस तरह उन्होंने समाजशास्त्र में एम.ए. की उपाधि अर्जित की। उन्होंने अपना पूरा ध्यान परिवार के पालन-पोषण पर लगा दिया और साथ ही डायरी लिखने और कविता रचने में भी लगी रहीं। घर भी उन्होंने खूब रचा और उन्हें अपनी संतानों की पूर्ण सफलता का सुख मिला। कविताएँ उनकी इस जीवन यात्रा के अनेक क्षणों की साक्षी हैं जिनमें कवयित्री ने डायरी के पन्नों पर एकांत में अपने मन को खोलकर रख दिया है। 'सन्नाटे' शीर्षक कविता उनके जीवन संघर्ष को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति देती है -

''इस अभिशापित जीवन के संग
कितने बोझिल पल काटे हैं
सारा विष चुपचाप पिया है
नहीं किसी से दुःख बांटे हैं

क्या जानो तुम बिना तुम्हारे
कैसे बीता जीवन मेरा
हर मंज़िल अंगार बनी है
पग-पग पर बिखरे कांटे हैं

आँख उठा कर जब-जब देखा
दूर-दूर तक सूनापन है
शहनाई के मधुर स्वरों में
गूँज नहीं अब, सन्नाटे हैं।''




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जो बीत गई / शकुंतला दुबे / 2008 (प्रथम संस्करण) / प्रकाशक-विवेक दुबे, के-3/6, वरिष्ठ अधिकारी आवास, कुंदन बाग, बेगमपेट, हैदराबाद / पृष्ठ १८४ / मूल्य - अंकित नहीं।






1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

''पर वे मुझसे छोटे कहाँ हैं? वे तो मुझसे बहुत बड़े हैं। बल्कि बूढ़े भी हो गए हैं।''
बचपन का अबोध मन बडे़ होते-होते कितनी कुठाओं से ग्रसित हो जाता है!!!