शुभाशंसा .....
जीने-भोगने के यथार्थ पलों का कच्चा चिट्ठा
निर्मला एस. मौर्य
… जो मंद-मंद मुस्कुराते हुए चुप रहते हैं और अचानक हँस कर कह देते हैं- ’प्रेम बना रहे!’... उनका यह कथन बरबस ही सामने वाले का मन अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। कुछ न कह कर अपने व्यवहार से बहुत कुछ कह जाने वाला एक अनोखा व्यक्तित्व… जिसका नाम है डॉ. ऋषभदेव शर्मा… पारिवारिक मित्र, सहकर्मी, बड़े भाई सा स्नेह रखने वाले, अग्रज… ऐसे कई संबोधन हैं जो उनके ऊपर जँचते हैं!...
जब जब मन में आक्रोश अपने पाँव पसारता है, तब-तब ‘लेखनी से शब्द उतरते हैं पन्नों पर चुपचाप’ और पाठकों के हृदय को आंदोलित तथा आलोड़ित कर देते हैं।… डॉ. ऋषभदेव शर्मा का साहित्य संसार बहुआयामी है और इनकी रचनाओं में कहीं अकेलापन है, कहीं आदमी और धूप की कथाएँ हैं, कहीं बूँदे बरसती हैं तो कहीं अधूरे सपनों को पूरा करने का ख़्वाब है। वह कई अनुभवों से गुजरते हैं; ऐसा लगता है मानो उनका रचना संसार स्वयं गुपचुप बतियाता है। कहीं वह मन से आह्लादित होते हैं तो कहीं रिक्त मन की व्यथाएँ और वेदनाएँ पंक्तियों में उतर आती हैं। उनका साहित्य मानव के अस्तित्व का साहित्य है। अब आसपास का संसार बड़ी तेजी से बदल रहा है। इन बदलती हुई परिस्थितियों को आपकी रचनाओं में देखा जा सकता है क्योंकि, इन घटती हुई घटनाओं ने रचनाकार के मन को लगातार प्रभावित किया है और इन्हीं में से रचनाकार ने अपनी कृतियों के लिए पंक्तियाँ ढूँढ़ ली हैं तथा शब्दों के सहारे अपनी अभिव्यक्तियाँ दे दी हैं। उनकी इन्हीं अभिव्यक्तियों को ‘लिए लुकाठी हाथ’ समीक्षा कृति में बहुत शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। इस समीक्षा कृति के समीक्षक प्रवीण प्रणव कहते हैं- ‘शोषक वर्ग के विरुद्ध और शोषितों के साथ खड़े होना उनकी कविताओं की मूल भावना है। उनकी रचनाएँ किसी वाद का समर्थन नहीं करतीं बल्कि उनके लिए वाद का अर्थ ही वंचित वर्ग में है।’ वह लिखते हैं कि- ‘ऋषभ जी की रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए उनकी तुलना समकालीन और कालजयी साहित्य के साथ की जानी चाहिए।’
मैं यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि किसी भी कृतिकार या रचनाकार की रचनाओं का मूल्यांकन अन्य कोई कर ही नहीं सकता, उस पर दृष्टिपात करते हुए विचार अवश्य किया जा सकता है; मूल्यांकन तो रचनाकार स्वयं अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व से करता है तथा लगातार अपने कृतित्व में सुधार करते हुए आगे बढ़ता चला जाता है। रचनाकार का अपना संसार और अपनी दुनिया होती है। मानव जीवन सम और विषम रेखाओं के बीच पलता है तथा रचनाकार इन्हीं रेखाओं की अभिव्यक्ति, शब्दों को संवेदनाओं के धागों में पिरोकर करता है।
प्रवीण प्रणव द्वारा लिखित यह समीक्षा कृति अपने आप में अनूठी है। इसमें कुल 9 आलेख शामिल हैं। ‘दीवानों की बस्ती में उम्मीदों का रोशनदान’ में ऋषभ जी के साहित्यिक व्यक्तित्व और उनके अवदान की चर्चा है। प्रणव जी कहते हैं- ‘साहित्य समाज दर्पण होता है लेकिन साहित्य साहित्यकार का भी दर्पण होता है।’ इस आलेख में ऋषभ जी के कवि कर्म की विस्तार से चर्चा की गई है और इसके साथ ही ‘देहरी’ जैसी कृति में किस प्रकार स्त्री पक्ष की चर्चा ऋषभ जी ने की है इसका बड़ा ही सूक्ष्म अवलोकन दिखाई देता है। समीक्षक कहते हैं- ‘प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा की कविताओं की नायिका किसी भी जुल्म को खामोशी से सह जाने की परंपरा के खिलाफ आवाज़ उठाती है।’ ‘प्रेम बना रहे’, ताकि सनद रहे, धूप ने कविता लिखी है,कविता के पक्ष में, कथाकारों की दुनिया, हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान, कविता का समकाल, हिंदी भाषा के बढ़ते कदम, जैसी अनेकानेक रचनाओं पर विचारोत्तेजक समीक्षा देखने को मिलती है। समय-समय पर लिखे जाने वाले संपादकीयों की चर्चाओं को ‘संपादकीयम - भविष्य का आईना, वर्तमान की नज़र’ में समेटा गया है। एक अच्छा व्यंग्य भी है ‘तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है’। यह रचना सियासत का कच्चा चिट्ठा खोलती है। ‘हम हैं बिलोकना चाहते जिस तरु को फूला- फला’ जैसे लंबे लेख में भाषिक संस्कृति के प्रति चिंता की दृष्टि दिखाई देती है। ‘कबहूँ न जाइ ख़ुमार’ बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है। ये सभी शीर्षक अपने आप में एक-एक पुस्तक के समान हैं और कभी मौका मिला तो इस समीक्षा पुस्तक पर अलग से अपने विचार अवश्य विस्तार से व्यक्त करूँगी।
इसी प्रकार ‘अपने शिल्प की सीमा से बाहर जाकर लिखने की कला’ में डॉक्टर ऋषभ जी के लेखन सौंदर्य और लेखन प्रक्रिया की चर्चा है। ‘आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे’ में जीवन के भिन्न-भिन्न रंग दिखाई देते हैं। कोरोना काल की विभीषिकाओं के कई रंग इस आलेख को विचारोत्तेजक बनाते हैं। कोरोना महामारी के समय पूरा विश्व मृत्यु की काली छायाओं में लिपटा हुआ था, शहरों में सन्नाटा था। इस समीक्षा को पढ़ना उस लंबी काली रात के अँधेरों की याद दिलाता है।
इस तरह, लेखक प्रवीण प्रणव का यह समीक्षा ग्रंथ अपने हर शीर्षक में अनुभूतियों का ज़खीरा समेटे हुए है। समग्रतः, यह ग्रंथ पाठक के मन को बाँध लेने में समर्थ है, क्योंकि पाठक अपने मन के सभी भावों और रंगों को इन शीर्षकों में पाता है और स्वयं को इनसे जोड़ पाता है। चारों तरफ नज़र दौड़ाएँ तो यह देखने में आता है कि अब समय जितनी तेज़ी से बदल रहा है, उतनी ही तेज़ी से मानव का अस्तित्व भी बदल रहा है। आज का साहित्य अपनी परिधि से बाहर निकल कर विश्व के विशाल प्रांगण में आ खड़ा हुआ है। रचनाकार बदलती हुई घटनाओं से तेज़ी से प्रभावित होता है और इन्हीं घटनाओं को अपनी कृतियों में जगह देता है। इन जीती- जागती कृतियों को समीक्षक ने जीने-भोगने के यथार्थ पलों का कच्चा चिट्ठा बनाकर प्रस्तुत कर दिया है। हर व्यक्ति जिस लक्ष्य को लेकर चलता है; उसका वह लक्ष्य पूरा हो, वह नव-सृजन कर पाए, यही मेरी कामना है। मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद अत्यंत आवश्यक होता हैं, तभी एक मजबूत रिश्ता बनता है। यदि संवाद सार्थक न हो तो बरसों से बंद हृदय के कपाट भी नहीं खुल पाते। प्रवीण प्रणव की समीक्षात्मक कृति ’लिए लुकाठी हाथ’ एक व्यक्तित्व ही नहीं बल्कि एक अस्तित्व के मन के सफ़र की दास्तां है। साहित्य जगत में यह समीक्षा कृति सदैव अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहेगी।
शुभमस्तु…
प्रो. निर्मला एस. मौर्य
पूर्व कुलपति
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, उत्तर प्रदेश
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