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सोमवार, 15 जुलाई 2024

भूमिका_श्री अवधेश कुमार सिन्हा_'लिए लुकाठी हाथ' के लिए

 ::भूमिका::


लुकाठी की चिनगारियों से बनता दीप-स्तंभ

अवधेश कुमार सिन्हा

कोई ‘किसी’ के साथ बात करते हुए हर बार कुछ नया सोचने पर विवश हो जाए, हर बार कुछ नया सीखे, कुछ नया करने की प्रेरणा पाए, तो वह ‘किसी’ व्यक्ति निश्चित ही बहुमुखी और विलक्षण प्रतिभा का धनी होगा। और खासकर तब जब सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में दैनन्दिन इनोवेट, दूसरों को इनफ्लुएंस व कनविन्स करने वाला कॉर्पोरेट जगत का एक उच्चस्थ प्रबंधन विशेषज्ञ उस ‘किसी’ से मिलने के बाद स्वयं इनफ्लुएंस हो रहा हो, इनोवेट करने की प्रेरणा पा रहा हो तो वह ‘किसी’ व्यक्ति कई मामलों में वाकई असाधारण एवं अनुकरणीय होगा। इस पुस्तक ‘लिए लुकाठी हाथ’  में वह ‘किसी’ प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा हैं और कॉर्पोरेट जगत का वह प्रबंधन विशेषज्ञ प्रवीण प्रणव हैं यानि इस कृति के रचनाकार। 


जिस प्रवीण प्रणव के लिए सत्रह वर्षों पूर्व जॉब के लिए हैदराबाद आने के समय साहित्य में अभिरुचि शौकिया थी, लेकिन वही प्रवीण जब पिछले लगभग नौ वर्षों के अंतराल में एक मुकम्मल कवि, ग़ज़लकार, कहानीकार, समीक्षक, संपादक बन जाते हैं, राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिका का संपादन करने लगते हैं, इस कृति को लेकर सात पुस्तकों के लेखक/संपादक बन जाते हैं, अनेकों साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित होते हुए भारत के सौ प्रमुख युवा साहित्यकारों की सूची में शामिल हो जाते हैं, हैदराबाद के युवा आईटी प्रोफेशनल्स के बीच कविता के प्रति अभिरुचि पैदा करने के लिए कई मंचों के द्वारा अलख जगाते हैं, साहित्य उनके लिए मानसिक शांति का पर्याय बन जाता है, तो इन परिवर्त्तनों के पीछे कहीं-न-कहीं सहृदय प्रेरणा के स्रोत गुरुवर ऋषभदेव शर्मा का प्रभाव होना स्वाभाविक लगता है।

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में हिंदी साहित्य के आचार्य रहे तथा वर्तमान में एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के परामर्शी के तौर पर कार्यरत कवि, भाषाविद, समीक्षक, पत्रकार, संपादक एवं मंत्रमुग्ध कर देने वाले प्रखर वक्ता तथा सम्मोहक व्यक्तित्व वाले प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा का साहित्यिक वर्णपट सतरंगी और उसका फलक विस्तृत है। सत्य की लुकाठी लेकर पाखंड में चिनगारियाँ लगाने वाले (सत्य की लेकर लुकाठी/ वह खड़ा बाजार में;/ पाखंड ने/ चिनगारियाँ महसूस कीं/ अपने परों में !)  तेवरी काव्यांदोलन के प्रवर्तकों में से एक प्रो. शर्मा एक ओर अपनी कविताओं में जहाँ आक्रोश में निरंकुश सत्ता के विरुद्ध जनमानस को आंदोलन के लिए उठ खड़े होने का आह्वान करते हैं, युग के स्वरों में आग बोते हैं- ‘बो रहा है आग वह/ युग के स्वरों में/ और हम दुबके हुए/ अपने घरों में’,  वहीं दूसरी ओर वह इतने कोमल हो जाते हैं कि फूल की पंखुड़ियों को नोचने से भी परहेज करते हैं- ‘उस दिन मैंने फूल को छुआ/ सहलाया और सूँघा/ हर दिन की तरह/ उसकी पंखुड़ियों को नहीं नोचा’। पुरानी ज़मीन की मिट्टी से काफी खुबसूरत एवं सार्थक मूर्तियाँ गढ़ने में सिद्धहस्त प्रो. शर्मा  अपनी कई कविताओं में पौराणिक आख्यानों  का उद्धरण लेकर आज की समस्याओं की जटिलताओं का बखूबी विश्लेषण करते हैं, बदलते परिवेश में उनकी स्वीकार्यता पर सवाल खड़े करते हैं- ‘मैं मेघदूत की यक्षिणी नहीं थी/ नहीं थी मैं नैषध की दमयंती/ मैं शकुंतला भी नहीं थी/ राधा बनना भी मुझे स्वीकार न था’। स्त्री-विमर्श पर उनकी कविताएँ उस स्त्री के साथ मज़बूती के साथ खड़ी दिखाई देती हैं ‘जिसका एक पैर/ ज्वालामुखी के मुँह पर है/ और दूसरा/ समुद्र की गहराई में छिपी/ सबसे निचली पहाड़ी पर’। ये कविताएँ न केवल स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति जागृत कर उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखाती हैं, वरन् पुरुषों को भी उनके दायित्वबोध का अहसास कराती हैं। एक दैनिक समाचार-पत्र के संपादकीय लेखक/ पत्रकार के रूप में भी उनके प्रतिदिन के साहित्यिक फ्लेवर से संपृक्त संपादकीय लेख समसामयिक होते हुए भी भविष्य की राह दिखाते हैं और सत्ता को सचेत करते हुए जन-साधारण के लिए दीप-स्तंभ का काम करते हैं। एक समीक्षक के तौर पर बिना किसी सख़्त टिप्पणी के कंसट्रक्टिव फीडबैक वाली उनकी समीक्षाएँ लेखकों को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें आगे बढ़ने को प्रेरित करती  हैं। यही कारण है कि बहुसंख्यक नवोदित लेखकों के वे सबसे पसंदीदा समीक्षक, भूमिका-लेखक हैं। आज के लगातार बदल रहे आधुनिक परिवेश में जहाँ भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा का क्षरण होता जा रहा है, वहीं प्रो. ऋषभदेव शर्मा उन विरले आचार्यों में से हैं जिनके वर्षों पुराने परा-स्नातक छात्र-छात्राएँ, एमफिल व पीएचडी के शोधार्थी आज भी अपने गुरु प्रो. शर्मा को वही सम्मान देते हैं, वही आदर-भाव रखते हैं जो वर्षों पूर्व उनकी कक्षा में पढ़ते हुए और उनके निर्देशन में शोध करते हुए देते थे । आज के समाज का यह एक अनुकरणीय उदाहरण है। 


प्रवीण प्रणव समय-समय पर प्रो. ऋषभदेव शर्मा के कविता-संग्रहों, आलोचना ग्रंथों एवं संपादकीय संकलनों पर समीक्षाएँ लिखते रहे हैं जो यत्र-तत्र पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में प्रकाशित होती रही हैं। ‘लिए लुकाठी हाथ ’ उन्हीं समीक्षाओं और टिप्पणियों का एकत्रित संकलन है जिसमें प्रो. शर्मा के व्यक्तित्व व कृतित्व का समग्र आकलन नौ आलेखों में शामिल है। पुस्तकाकार रूप में यह संकलन निश्चित तौर पर प्रो. ऋषभदेव शर्मा जैसे विलक्षण एवं बहुआयामी प्रतिभा के साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं उनकी रचनाओं को एक ही जगह समग्रता में समझने, उससे कुछ सीखने, प्रेरणा लेने के लिए न केवल हिंदी साहित्य के अध्येताओं के लिए वरन् इसमें अभिरुचि रखने वाले सामान्य पाठकों के लिए भी उपादेय है, संग्रहणीय है। मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद अधिक से अधिक लोग प्रो. शर्मा के साहित्य के प्रति आकृष्ट होंगे और इनके साहित्य पर अधिक गहन विचार-विमर्श की प्रक्रिया आरंभ होगी ।


अवधेश कुमार सिन्हा

ग्रेटर नोएडा (पश्चिम), गौतमबुद्ध नगर

उत्तर प्रदेश

 

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