प्रवीण प्रणव एवं अवधेश कुमार सिन्हा की समीक्षा कृति "मुक्ता की परख" की
भूमिका
चर्चित एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. अहिल्या मिश्र ( Ahilya Mishra:1948) के अमृतोत्सव की मांगलिक वेला में प्रस्तुत कृति 'मुक्ता की परख' (2023; हैदराबाद: गीता प्रकाशन) में उनके सिरजे साहित्य-मुक्ताओं की परख अवधेश कुमार सिन्हा और प्रवीण प्रणव जैसे दो गुणी और पारखी जौहरियों ने बहुत सूक्ष्मता से और गहराई से की है। इस परख के दौरान सहज भाव से इन मुक्ताओं की सिरजनहार के जीवन और व्यक्तित्व की भी बेलाग पड़ताल हुई है क्योंकि 'मौक्तिकम् न गजे-गजे'! कहना न होगा कि मुक्ताओं की रचना के मूल में निहित रचनाकार के वैशिष्ट्य और औदात्य को रेखांकित करने के कारण इस कृति का महत्व और भी बढ़ गया है। इससे यह एक ऐसी स्वतःपूर्ण आलोचना की पुस्तक बन गई है जो डॉ. अहिल्या मिश्र के संपूर्ण व्यक्तित्व और समग्र कृतित्व की झाँकी भी देती है और उसका मूल्यांकन भी करती है। ऐसा संभव हो सका है क्योंकि दोनों ही पारखी जौहरी अहिल्या जी और उनके रचनाकर्म दोनों को निकटता और गहराई से जानते हैं। यह निकटता और गहराई इस पुस्तक की प्रामाणिकता का ठोस आधार है।
पहले जौहरी अवधेश कुमार सिन्हा की पारखी नज़र सबसे पहले उस परिस्थिति और परिवेश को ताड़ती हैं, जिसके प्रभावों ने इन आबदार मोतियों को सुडौलता और दीप्ति बख्शी है। वे यह खास तौर पर लक्षित करते हैं कि अहिल्या मिश्र के रूप में बिहार की मिट्टी में उपजा प्रतिभा का पौधा विकास की संभावनाओं की उठती आयु में हैदराबाद की जलवायु में रोपित होकर कैसे सारे वातावरण को अपनी गौरव-गंध से आप्यायित कर देता है। उन्होंने याद दिलाया है कि अपनी यात्रा के रास्ते में कई मील के पत्थर गाड़ने वाली, दक्षिण भारत में सबसे बुलंद आवाज़ में हिंदी का परचम लहराने वाली, अपने साहित्य के जरिये विचार क्रांति लाने वाली तथा समाज सेवा द्वारा मानवता, विशेषकर नारियों के उत्थान के लिए समर्पित लेखिका डॉ. अहिल्या मिश्र के मन-प्राण में बिहार की मिट्टी की सोंधी खुशबू बसी हुई है। अवधेश जी मानते हैं कि अहिल्या जी बिहारवासियों की क्षमताओं से भी भली-भाँति परिचित हैं और बिहार की वर्तमान दशा-दिशा से उनका व्यथित होना स्वाभाविक है। यह व्यथा उनकी रचनाओं में कहाँ और कैसे प्रतिफलित हुई है, इसका पता यह पुस्तक भली-भाँति देती है। आलोचक ने लक्षित किया है कि लेखिका ने अपनी आत्मकथा में बिहार के 1969 के दशक की परंपराओं, रूढ़ियों और मान्यताओं के साथ ही महिलाओं के प्रति समाज के नज़रिये का दस्तावेज़ीकरण किया है। किशोरावस्था की अपरिपक्व उम्र में लड़कियों का उनकी इच्छा के विरुद्ध विवाह, ससुराल में नव-विवाहिताओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं पर थोपे जाने वाले निषेधात्मक प्रतिबंध, लड़कियों-महिलाओं में शिक्षा का अभाव व उनके ज़्यादा पढ़ने की मनाही जैसी विद्रूपताओं के सजीव चित्रण के लिए उन्होंने अहिल्या जी की औपन्यासिक आत्मकथा को खास माना है। इसके अलावा अहिल्या जी के निबंध उन्हें इसलिए पठनीय लगते हैं कि इनमें भारत की गौरवशाली संस्कृति एवं साहित्य पर नव-धनाढ्यों, सरकारी तंत्र, पूँजीपतियों द्वारा पोषित व संचालित मीडिया व संचार माध्यमों, व्यावसायिक फिल्म उद्योग के कब्जे तथा बढ़ते बाजारवाद व उपभोक्तावाद से उपज रही अपसंस्कृति एवं जन-संस्कृति के हो रहे ह्रास के प्रति लेखकीय चिंता ही प्रकट नहीं हुई है, बल्कि इन परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए अपनी संस्कृति व साहित्य को बचाये रखने के लिए कई सुझाव भी दिए गए हैं ।
अवधेश कुमार सिन्हा ने अहिल्या मिश्र की रचना-प्रक्रिया और भाषा-शैली को भी अलग-अलग कोणों से परखा है। उनका निष्कर्ष है कि अहिल्या मिश्र अपनी कहानियों, कविताओं, निबंधों आदि के माध्यम से कहीं-कहीं तो सीधे और कहीं-कहीं संकेतों, प्रतीकों, बिंबों, ध्वनियों एवं अंतर्लयों के प्रभाव से अपने कथ्य को इस प्रकार प्रकट करती हैं कि पाठकों के लिए पहेली न होकर सहज अनुभूति का विषय हो जाता है। वे बताते हैं कि अपने लेखन में अहिल्या जी ने जहाँ एक ओर समाज की रूढ़ियों, अंधविश्वासों और पाखंडों आदि पर प्रहार किया है, वहीं दूसरी ओर वे आधुनिकता के नाम पर बढ़ती यांत्रिकता, कुंठा, हताशा, प्रतिस्पर्द्धा, नग्नता और अश्लीलता को कहीं भी स्वीकार नहीं करती हैं।
दूसरे जौहरी प्रवीण प्रणव की निगाह में यह अधिक महत्वपूर्ण है कि जिन मुक्ताफलों की परख वे कर रहे हैं, वे परंपरा के लिहाज़ से किस कोटि के हैं। इसके लिए वे एक तरफ तो अहिल्या जी की रचनाओं को विभिन्न साहित्यिक विधाओं की ऐतिहासिक सरणि में रखकर देखते हैं तथा दूसरी तरफ इन्हें कालजयी एवं प्रतिष्ठित साहित्यकारों की प्रसिद्ध पंक्तियों के निकष पर कसकर देखते हैं। कहा जाता है कि कष्ट-कंटकों में पलने वाले सुमनों की सुगंध प्रायः दिगंतव्यापी होती है। इसी के अनुरूप प्रवीण प्रणव ने यह लक्षित किया है कि डॉ. अहिल्या मिश्र ने अपनी ओर फेंके गए पत्थरों से ही अपने लिए सफलता की सीढ़ियाँ बनाई हैं और एक बेहतरीन कवयित्री के रूप में अपनी पहचान स्थापित करते हुए न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को स्थापित किया है तथा अपनी कविताओं की सरल लेकिन प्रभावी विषयवस्तु से साहित्यप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है। वे मानते हैं कि सफलता के बाद भी अहिल्या जी अपने संघर्ष की स्वीकारोक्ति से परहेज़ नहीं करतीं और इस तरह नई पीढ़ी को यह मंत्र दे पाती हैं कि सृजन के दर्द को सहे बिना सफलता के द्वार को छूना दुष्कर है। आलोचक ने यह भी रेखांकित किया है कि अहिल्या मिश्र को व्यक्तिगत जीवन में अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुज़रना पड़ा, कई आत्मीय रिश्तों और रिश्तेदारों ने ठेस पहुँचाई तो कई लोग ऐसे भी मिले जो अपने न होते हुए भी अपनों से बढ़कर निकले। कहना न होगा कि इन विविधवर्णी जीवनानुभवों ने ही अहिल्या जी के लेखन को गहरी विश्वसनीयता की चमक बख्शी है।
नाटकों, कहानियों, निबंधों, संस्मरणों और कविताओं में, कमोबेश सभी विधाओं में, प्रवीण प्रणव को अहिल्या मिश्र का यह दु:ख व्याप्त दिखाई देता है कि आज के समय में मानवता खून के रिश्तों की ऐसी छावनी बन गई है जिसमें अलगाव ने जगह-जगह पड़ाव डाल रखे हैं। उन्होंने बताया है कि अहिल्या जी इसीलिए बार-बार यह ध्यान दिलाती हैं कि संस्कारों का चेहरा बिगाड़ना आसान है और साथ ही सवाल भी उठाती हैं कि क्या संस्कारों का पुनर्गठन भी इतना ही सहज है। रिश्तों, संस्कारों और मूल्यों के प्रति विशेष आग्रह के कारण अहिल्या जी की रचनाएँ अनेक स्थलों पर शिक्षाप्रद और उपदेशात्मक मुद्रा भी ग्रहण कर लेती हैं। इसे पहचानने के साथ-साथ प्रवीण प्रणव ने उनकी रचनाओं में लोकजीवन की व्याप्ति और भावप्रवणता को रचनाकार की विशेष उपलब्धि माना है। दरअसल ये ही वे गुण हैं जो अहिल्या जी के लेखन को देशकाल की सीमाओं के परे उत्तरजीविता की शक्ति प्रदान करते हैं।
कुल मिलाकर, ‘मुक्ता की परख’ विद्वान लेखक-द्वय की ओर से डॉ. अहिल्या मिश्र को उनके जन्मदिन पर सर्वथा योग्य अनमोल उपहार है।
शुभकामनाओं सहित,
#ऋषभदेव_शर्मा
6 अगस्त, 2023
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