"सफर जारी है : भाग 7" (प्रो. बीना शर्मा) की भमिका
प्रो. बीना शर्मा की जीवन-यात्रा के अंतरंग और रमणीय स्मृतिचित्रों के साथ चल रहे उनके लेखन-वृत्त के इस नए पड़ाव पर लेखिका और पाठकों का हार्दिक अभिनंदन!
प्रो. बीना शर्मा एक ऐसी लेखिका हैं जो सामाजिक सरोकारों से गहरे जुड़ी हुई हैं और अकादमिक के साथ साथ सामाजिक कार्यों में निरंतर लगी रहती हैं। उनका लेखन एकदम आडंबरहीन है - उनके जीवन की तरह। उनके इन दैनिक आलेखों से गुजरते हुए जहाँ एक ओर यह धारणा पुष्ट होती है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, वहीं यह विश्वास भी दृढ़ होता है कि कृति में कृतिकार का व्यक्तित्व रचा, बसा और रमा होता है। बीना जी अपने निष्छल गद्य में इसी आत्मीयता के साथ रची, बसी और रमी हुईं हैं। उन्होंने अपने जीवन के विविध अनुभवों के सार को सूक्तिबद्ध करके इन आलेखों में अपने पाठकों के समक्ष जीवन-मंत्र की तरह प्रस्तुत किया है। यदि साहित्य का एक उद्देश्य समाज को कांतासम्मित उपदेश देना है, तो इन आलेखों से उस उद्देश्य की पूर्ति भली प्रकार होती है। ये अपने पाठक को जीवन जीने की कला सिखाते हैं, लेकिन रमणीयता और लालित्य की तनिक भी क्षति किए बिना। यही कारण है कि इस सहज प्रवाहशील गद्य में पाठक को रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाले श्रेष्ठ काव्य का सा आनंद मिलता है। यह लेखन की विशेष तकनीक के कारण संभव हो सका है। प्रो. बीना शर्मा अपने अत्यंत समृद्ध, विविधवर्णी अनुभवों के तने हुए तारों को लोक, पुराण, संस्कृति और साहित्य के सुनहरे धागों के साथ इस तरह बुनती हैं कि उनका हर लेख झीनी झीनी बीनी चदरिया सा लोकमंगलकारी बन जाता है।
डॉ. बीना शर्मा के इस लेखन से गुज़रना एक तरह से समग्र भारतीय लोकमानस से होकर गुज़रना है। लोक में उनके प्राण बसते हैं। इसलिए तनिक सा अवसर मिलते ही वें लोकरीति का डूब कर बखान करने लगती हैं; और तब निकाल कर लाती हैं लोकचित्त में पगी लोकभाषा के वे मोती जिन्हें सहेजना और अगली पीढ़ियों को सौंपना उन्हें अपना साहित्यिक कर्तव्य महसूस होता है। विविध पर्व-त्योहारों से लेकर संस्कारों और अनुष्ठानों तक का लौकिक विधिविधान उनके लेखन में लोक मुहावरों, कहावतों और सूक्तियों के साथ सहेजा गया है। ब्रज के लोकगीत और लोककथाएँ ही नहीं, ब्रजभाषा के सहज सरस स्वरूप के भी दर्शन इस कृति में अनेक स्थलों पर पाठक को अभिभूत करते हैं। लेखिका को मालूम है कि उनका पाठक वर्ग अक्षेत्रीय हिंदी का वह सार्वदेशिक पाठक है जो केवल भौगोलिक हिंदी क्षेत्र तक सीमित नहीं है। फिर भी वे जानबूझ कर मानक हिंदी के साथ साथ खाँटी ब्रजभाषा का इतना सुंदर तालमेल बिठाती हैं कि पाठक मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। साथ ही यह भी महसूस कर पाता है कि मानक हिंदी का मूल रसस्रोत ब्रज भाषा जैसे वे क्षेत्रीय भाषारूप ही हैं जिन्हें प्रायः हिंदी की बोलियां कहा जाता है। कहना न होगा कि बोली और भाषा का यह कोड मिश्रण डॉ. बीना शर्मा की साहित्य-भाषा का वह निजीपन है जिसमें उनकी सृजनात्मकता पूरी तरह प्रस्फुटित होती है।
लेखिका यद्यपि प्रतिदिन नियमबद्ध ढंग से लिखती हैं और भोर की पहली किरण के साथ प्रतिदिन नया रचना-पुष्प पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। ऐसे लेखन में यांत्रिकता का खतरा बना रहता है। लेकिन यंत्र की सहायता से लिखने के बावजूद लेखिका ने अपने आपको यांत्रिक होने से दूर रखा है। इसका सूत्र कहीं न कहीं उनके आस्थावान भक्त जैसे मन से जुड़ता है। उन्हें लिखने का कोई अभिमान नहीं है। वे स्वयं को दिव्य प्रेरणाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति का निमित्त मात्र मानती हैं - "राम जी की मर्ज़ी, जब तक चाहें लिखाएँ। हम तो लिखवैया हैं, जो लिखाएँगे सो ही लिखेंगे।" अब भला ऐसे समर्पित लिखवैया के लेखन में यांत्रिक ऊब के लिए जगह कहाँ?
प्रो. बीना शर्मा की सामाजिक चेतना बहुत प्रखर और मुखर है। वे रिश्ते-नातों और आत्मीय संबधों को सामजिकता का आधार मानती हैं। साथ ही जीवन-संघर्ष में निरंतर सकारात्मक वृत्तियों को जगाए रखना उन्हें मनुष्य का परम पुरुषार्थ लगता है। उन्हें यह स्थिति बहुत सालती है कि प्रायः लोग बुज़ुर्ग होने पर लाचारी और असहायपन को अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं। इससे ऐसी नकारत्मकता पैदा होती है जो इन बुजुर्गों को तोड़ डालती है। वे भूल जाते हैं कि उनके पास अनुभवों की कितनी संपदा है। ऐसे बुजुर्गों को प्रेरित करते हुए लेखिका आह्वान करती हैं - गर्व से कहो हम बुजुर्ग हैं; और पूछती हैं कि इस पड़ाव का यह मतलब कब से हो गया कि आप बेचारगी से जीएँ! संदेश साफ है - बुजुर्ग हुए हैं, लाचार नहीं, असहाय नहीं! इसी प्रकार लेखिका को लोगों का दोगला व्यवहार भी बार बार विचलित करता है। किसी भी निष्छल मन वाले व्यक्ति को छल-छद्म से पीड़ा होती ही है! फिर आज के आदमी ने तो इतना छल-छद्म ओढ़ लिया है कि पूर्ण सत्य का स्वर्णिम प्रकाश भी खंड सत्यों की अंधेरी सुरंग में खो गया है। ऐसे में सत्य, ज्योति और अमरत्व का साक्षात्कार करने के लिए लेखिका सकारात्मक वृत्तियों को जगाए रखने की प्रेरणा देती हैं।
आधुनिक मनुष्य का यह छल-छद्म इतना बढ़ गया है कि उसने प्रेम के अमृत फल को भी कड़वा कर दिया है। लेखिका इस बात से दुखी हैं कि नए जमाने का प्यार प्यार नहीं अपना अपना फायदा देखने वाला व्यापार बन कर रह गया है। ऐसे प्यार को वे दूर से ही नमस्कार करती हैं, क्योंकि उनके मानस में तो उस प्रेम का संस्कार बैठा हुआ है जो प्रेमास्पद को भगवान का दर्जा देने और प्रेम को भक्ति के समकक्ष मानने का आग्रही है। इसलिए वे यह चाहती हैं कि हमारी पीढ़ियाँ राजा मिडास जैसी स्वर्ण-लोभी न हों, क्योंकि वैसा होने पर प्रेम की सारी संभावनाएँ सुनहरी होकर पथरा जाएँगी। ऐसा न हो इसलिए वे तमाम माता-पिताओं से आग्रह करती हैं कि अपने बच्चों को रिश्ते-नातों और घरेलू परिवेश से काटकर अकेलेपन के पथरीले जंगल में न धकेलें। उन्हें सब रिश्तों की स्नेह भरी बारिश में खुलकर भीगने दें। ताकि उनके भीतर स्नेह का ताल सूखने न पाएँ। स्नेह का यह ताल अगर बचा रहा, तो रिश्ते बचे रहेंगे। रिश्ते बचे रहें, तो सामाजिकता बची रहेगी। सामाजिकता बची रही, तो मनुष्यता बची रहेगी। मनुष्यता को बचाए रखना ही तो साहित्य का परम लक्ष्य है। कहना न होगा कि प्रो. बीना शर्मा के सारे लेखन का भी परम लक्ष्य मनुष्य और मनुष्यता ही है।
और क्या कहूँ? कहने को तो बहुत कुछ है, लेकिन भूमिका के लिए इतना ही…
हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
- ऋषभदेव शर्मा
विजयादशमी: 05/10/2022.
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