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सोमवार, 25 सितंबर 2023

डॉ. त्रिवेणी झा की कृति 'विविधा' की भूमिका

 


भूमिका


डॉ. त्रिवेणी झा की कृति 'विविधा' से गुजरना जीवन के विविध अनुभवों और अनुभूतियों की कहीं सँकरी तो कहीं चौड़ी पगडंडियों से होकर गुजरने जैसा है। यहाँ संकलित रचनाएँ उनके देखे, भोगे और झेले जीवन की सहज निष्पत्तियाँ हैं। कहानियाँ हो या कविताएँ अथवा व्यंग्य, सबमें लेखक एक परिपक्व मनुष्य की तरह मौजूद है। समय की आँच में पक कर निकलीं इन रचनाओं में एक खास तरह की निजी खनक है। इस खनक में जहाँ कई बार लेखक का अध्यापकीय संस्कार ध्वनित होता है, वहीं बहुत बार चुहल और चुटकी का अंदाज़ भी ठुनकता सा सुन पड़ता है। खड़ी बोली के अलावा मैथिली की रचनाएँ भी हैं, जो कवि की गहरी लोकानुरक्ति का सबूत देती हैं।


तीनों ही विधाओं की रचनाओं में जीवन मूल्यों की रक्षा अथवा पुनर्स्थापना के प्रति रचनाकार का आग्रह खास तौर पर ध्यान खींचता है। इसी आग्रह के सहारे वे समसामयिक परिवेश को घेरने वाले वास्तविक सवालों और समस्याओं से टकराते हैं। एक और बात यह भी कि वे सामाजिक प्रयोजन को आगे रखते हुए भी मनोरंजन और आनंद की सिद्धि की उपेक्षा नहीं करते। सौंदर्य की सृष्टि का सुख तो खैर अपनी जगह है ही। 


पुस्तक के पहले खंड में छोटी छोटी कुछ कहानियाँ अथवा लघु कथाएँ हैं, जिनमें व्यक्ति मन और समाज मन अपनी अपनी ठसक के साथ विद्यमान हैं। घर-परिवार से लेकर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवेश तक देश-दुनिया की खबर देती-लेती ये कहानियाँ कभी चोट करती हैं, कभी उपदेश देती हैं, कभी मुस्काने को विवश करती हैं, तो कभी रुलाती भी हैं। बौद्धिक आतंकवाद, वृद्धावस्था, पीढी अंतराल, विश्वमारी कोरोना की त्रासदी, वात्सल्य, दायित्व, गृहस्थ जीवन की ऊँच-नीच, संपत्ति, उत्तराधिकार, बेटे-बेटी, रिश्ते-नाते, पर्व-त्योहार, जीवनी शक्ति और मृत्यु बोध को कथ्य बना कर डॉ. त्रिवेणी झा ने अपनी लघु कथाओं की दुनिया का रुपहला संजाल रचा है। यह रचाव इतना सहज है कि पाठक को लेखक की दुनिया अपनी दुनिया लगने लगती है। 


यही बात दूसरे खंड पर भी लागू होती है। इस खंड में प्रस्तुत हास्य-व्यंग्य के प्रसंग दैनिक जीवन से लिए गए हैं और लेखक की विनोद वृत्ति का परिचय देते हैं। इनमें कहीं किस्से जैसा प्रवाह है, तो कहीं चुटकुले जैसा खिलंदड़ापन। शब्द क्रीड़ा भी बहुत बार बाँध लेती है। 'मसक पुराण', 'दाँत की करामात', 'चमचे नए पुराने' और 'बतरस' सरीखी रचनाएँ यह प्रमाणित करने के लिए भी काफी हैं कि कई दशकों की अध्यापकी और प्रिंसिपलगीरी के बावजूद लेखक के भीतर का नटखट बालक आज भी ऊर्जस्वित है। 


इसके अलावा, तीसरा अर्थात कविता खंड रचनाकार की विचारशीलता के साथ साथ उनकी भावप्रवणता का परिचायक है। कवि का आग्रह है कि सभ्य समाज में कलम की मर्यादा का सम्मान होना चाहिए। वे प्राकृतिक सौंदर्य और मानवीय सौंदर्य को एक साथ जोड़कर नैतिकता का पाठ भी बखूबी पढ़ाते हैं। कहना न होगा कि अँधेरी रात में 'जागते रहो' का संदेश बहुअर्थीय है। दुःख के अँधेरे को जिजीविषा के दीप जलाकर काटने की बात वे जिस ढंग से कहते हैं, वह बहुत सहज है। आपदाओं को अवसर में बदलने की प्रेरणा भी इन कविताओं में निहित है। नागर जीवन की अपसंस्कृति के बरक्स ग्राम जीवन की लोक संस्कृति का माहात्म्य भी कई स्थलों पर देखने को मिलता है - विशेषतः मैथिली कविताओं में। 


अंततः इस कृति के प्रकाशन के अवसर पर मैं डॉ. त्रिवेणी झा को, दादी-पोती के स्नेहिल रिश्ते को रूपायित करती और जीवन राग से भरी उनकी कविता 'सूखी डाली में कोंपल' के इस अंश के साथ, शुभकामनाएँ और बधाइयाँ देता हूँ कि: 


  • दादी का सुमधुर स्वर

हवा में तैरने लगा है-

'मेरी रानी बड़ी सयानी

पी ले पी ले थोड़ा पानी'

यही समर्पण सूखे तन-मन को

हरिया गया, फिर तरी दे गया।

आज उस सूखी डाली में

स्पंदन हुआ, 

उस सिहरन से डाली में 

फिर कोंपल आने लगे।

मन पंछी चहचहाने लगे।


आशा है, इस सृजन की हरियाई डाल को सुधी पाठकों का भरपूर प्यार मिलेगा। 


  • ऋषभदेव शर्मा

हिंदी परामर्शी,

दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद।

31 जुलाई, 2023



शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

भूमिका : मैं मंज़िल का पथिक अकेला

सुरेश जैन के कविता संकलन 

"मैं मंज़िल का पथिक अकेला" की 

भूमिका

(एक जादूगर जिसने उगाया सूर्य का पौधा)

             

 "लगता है 

 सूर्य एक दिन धरती पर उतर कर 

 अपना पौधा उगाएगा 

 फिर धीरे-धीरे एक दिन 

 यह पौधा पेड़ बन जाएगा 

 और उस पेड़ पर उग आएँगे

 अनेक सूर्य 

 जिनसे प्रकाशमय हो उठेगा 

 सारा ब्रह्मांड"

 

‘कविराज’ सुरेश जैन का कविकर्म अपने खास अंदाज में सूर्य के इसी पौधे को पालने-पोसने की साधना है। कविता सूर्य का पौधा ही तो है, जिस पर आशा और आनंद के फूल और फल लगते हैं। कविगण अपनी-अपनी रुचि के फूल-फल इस पौधे से लेकर सहृदय आस्वादकों को बाँटने भर का काम करते हैं। कवि तो बस मध्यस्थ है, वितरक है - आनंद का। कविताएँ रची नहीं जाती, उतरती हैं- सूर्य की किरणों के रथ पर बैठकर कवि के मानस में। कवि उन्हें अपने शब्दों से सजाकर जनता को सौंप देता है। सुरेश जैन ने सूर्य के पौधे पर लगे कविता रूपी फूलों-फलों को हास-परिहास, कटाक्ष और व्यंग्य से सजा-सँवार कर अपनी निजी धज प्रदान की। लेकिन वे हास्य-व्यंग्य तक ही सीमित रहे हों, ऐसा नहीं है। उन्होंने समय-समय पर ओज का बाना भी पहना। प्रेम और शृंगार के बिना तो कविता हो ही नहीं सकती, क्योंकि कविता अंततः जीवन है। और जीवन की कल्पना भला प्रेम और शृंगार के बिना पूरी होती है क्या! अर्थात सुरेश जैन संक्षेप में समस्त जीवन के कवि हैं। 

सुरेश जैन एक सदा प्रसन्न रहने वाले हँसमुख, मृदुभाषी, मिलनसार और जीवंत सामाजिक जीव थे। यकीन नहीं होता कि वे अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों में हैदराबाद की हमारी हिंदी साहित्यिक बिरादरी के मेरे कई अतिप्रिय कविमित्र असमय विदा कहकर इस लोक की यात्रा को अधूरी छोड़ जाने किस परम लोक की यात्रा पर अचानक अकेले-अकले निकल गए। सुरेश जैन भी इसी तरह चले गए; कहते-कहते कि मैं मंज़िल को चला अकेला। वह मंज़िल ही ऐसी है - सबको साथ लेकर चलने वाले भी उसकी ओर तो अकेले ही जाते हैं। और अकेला कर जाते हैं सहसा राह में छूट गए संगी-साथियों और सहयात्रियों को। उनकी स्मृतियाँ ही रह जाती हैं, बाद में साथ निभाने को। ‘कविराज’ की ये स्मृतियाँ उनकी रचनाओं के रूप में यत्र-तत्र कागजों पर अंकित हैं। यह संकलनउन्हें ही समेटने-सहेजने का विनम्र प्रयास है।

इस संकलन की कविताएँ सुरेश जैन के कवि-मन की संवेदनशीलता का सच्चा पता हैं। एक हास्य-व्यंग्य रचने वाले सफल कवि के रूप में वे अपने समसामयिक समाज, परिवेश और घटनाचक्र से असंतुष्ट और क्षुब्ध थे। इस असंतोष और क्षोभ को व्यक्त करने के लिए ही उन्होंने अपनी कविता के सहारे सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश की विडंबनाओं और विसंगतियों को इस तरह अभिव्यक्त किया कि कहीं हास्य, कहीं रुदन और कहीं कारुणिक व्यंग्य के अलग-अलग रंग पाठक-श्रोता की चेतना को अनुरंजित करते चलते हैं। वे आधुनिक मनुष्य के दोगले आचरण पर बार-बार चोट करते हैं, सामाजिक-धार्मिक पाखंड पर से हँसते-हँसते पर्दा उठाते हैं और मौका मिलते ही राजनीति के विद्रूप को नंगा करने में भी नहीं चूकते। सहज विनोद और हास-परिहास के प्रसंग भी उन्हें अति प्रिय हैं। इनके सहारे वे पाठकों को गुदगुदाते हैं। प्रस्तुत संकलन उनकी कविताओं के इन सभी रंगों से आपको परिचित कराएगा और आप उनके काव्यात्मक सम्मोहन में बंधे बिना न रह सकेंगे; यह मेरा दावा है। 

अंततः स्वयं सुरेश जैन ‘कविराज’ के अपने शब्दों में बस इतना कि - 

"मेरे हाथों में जादू है जी 

मैं कुछ भी बना सकता हूँ!"


शुभकामनाओं सहित 

#ऋषभदेव_शर्मा 


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मैं मंज़िल का पथिक अकेला (सुरेश जैन की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन)/  संपादक- प्रवीण प्रणव/ 2023/ प्रकाशक- कादंबिनी क्लब, हैदराबाद/ पृष्ठ 126/ ₹150.

भूमिका : मुक्ता की परख



प्रवीण प्रणव एवं अवधेश कुमार सिन्हा की समीक्षा कृति "मुक्ता की परख" की 

                 भूमिका


चर्चित एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. अहिल्या मिश्र ( Ahilya Mishra:1948) के अमृतोत्सव की मांगलिक वेला में प्रस्तुत कृति 'मुक्ता की परख' (2023; हैदराबाद: गीता प्रकाशन) में उनके सिरजे साहित्य-मुक्ताओं की परख अवधेश कुमार सिन्हा और प्रवीण प्रणव जैसे दो गुणी और पारखी जौहरियों ने बहुत सूक्ष्मता से और गहराई से की है। इस परख के दौरान सहज भाव से इन मुक्ताओं की सिरजनहार के जीवन और व्यक्तित्व की भी बेलाग पड़ताल हुई है क्योंकि 'मौक्तिकम् न गजे-गजे'! कहना न होगा कि मुक्ताओं की रचना के मूल में निहित रचनाकार के वैशिष्ट्य और औदात्य को रेखांकित करने के कारण इस कृति का महत्व और भी बढ़ गया है। इससे यह एक ऐसी स्वतःपूर्ण आलोचना की पुस्तक बन गई है जो डॉ. अहिल्या मिश्र के संपूर्ण व्यक्तित्व और समग्र कृतित्व की झाँकी भी देती है और उसका मूल्यांकन भी करती है। ऐसा संभव हो सका है क्योंकि दोनों ही पारखी जौहरी अहिल्या जी और उनके रचनाकर्म दोनों को निकटता और गहराई से जानते हैं। यह निकटता और गहराई इस पुस्तक की प्रामाणिकता का ठोस आधार है। 


पहले जौहरी अवधेश कुमार सिन्हा की पारखी नज़र सबसे पहले उस परिस्थिति और परिवेश को ताड़ती हैं, जिसके प्रभावों ने इन आबदार मोतियों को सुडौलता और दीप्ति बख्शी है। वे यह खास तौर पर लक्षित करते हैं कि अहिल्या मिश्र के रूप में बिहार की मिट्टी में उपजा  प्रतिभा का पौधा विकास की संभावनाओं की उठती आयु में हैदराबाद की जलवायु में रोपित होकर कैसे सारे वातावरण को अपनी गौरव-गंध से आप्यायित कर देता है। उन्होंने याद दिलाया है कि अपनी यात्रा के रास्ते में कई मील के पत्थर गाड़ने वाली, दक्षिण भारत में सबसे बुलंद आवाज़ में हिंदी का परचम लहराने वाली, अपने साहित्य के जरिये विचार क्रांति लाने वाली तथा समाज सेवा द्वारा मानवता, विशेषकर नारियों के उत्थान के लिए समर्पित लेखिका डॉ. अहिल्या मिश्र के मन-प्राण में बिहार की मिट्टी की सोंधी खुशबू बसी हुई है। अवधेश जी मानते हैं कि अहिल्या जी  बिहारवासियों की क्षमताओं से भी भली-भाँति परिचित हैं और बिहार की वर्तमान दशा-दिशा से उनका व्यथित होना स्वाभाविक है। यह व्यथा उनकी रचनाओं में कहाँ और कैसे प्रतिफलित हुई है, इसका पता यह पुस्तक भली-भाँति देती है। आलोचक ने लक्षित किया है कि लेखिका ने अपनी आत्मकथा में बिहार के 1969 के दशक की परंपराओं, रूढ़ियों और मान्यताओं के साथ ही महिलाओं के प्रति समाज के नज़रिये का दस्तावेज़ीकरण किया है। किशोरावस्था की अपरिपक्व उम्र में लड़कियों का उनकी इच्छा के विरुद्ध विवाह, ससुराल में नव-विवाहिताओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं पर थोपे जाने वाले निषेधात्मक प्रतिबंध, लड़कियों-महिलाओं में शिक्षा का अभाव व उनके ज़्यादा पढ़ने की मनाही जैसी विद्रूपताओं के सजीव चित्रण के लिए उन्होंने अहिल्या जी की औपन्यासिक आत्मकथा को खास माना है। इसके अलावा अहिल्या जी के निबंध उन्हें इसलिए पठनीय लगते हैं कि इनमें भारत की गौरवशाली संस्कृति एवं साहित्य पर नव-धनाढ्यों, सरकारी तंत्र, पूँजीपतियों द्वारा पोषित व संचालित मीडिया व संचार माध्यमों, व्यावसायिक फिल्म उद्योग के कब्जे तथा बढ़ते बाजारवाद व उपभोक्तावाद से उपज रही अपसंस्कृति एवं जन-संस्कृति के हो रहे ह्रास के प्रति लेखकीय चिंता ही प्रकट नहीं हुई है, बल्कि इन परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए अपनी संस्कृति व साहित्य को बचाये रखने के लिए कई सुझाव भी दिए गए हैं ।


अवधेश कुमार सिन्हा ने अहिल्या मिश्र की रचना-प्रक्रिया और भाषा-शैली को भी अलग-अलग कोणों से परखा है। उनका निष्कर्ष है कि अहिल्या मिश्र अपनी कहानियों, कविताओं, निबंधों आदि के माध्यम से कहीं-कहीं तो सीधे और कहीं-कहीं संकेतों, प्रतीकों, बिंबों, ध्वनियों एवं अंतर्लयों के प्रभाव से अपने कथ्य को इस प्रकार प्रकट करती हैं कि पाठकों के लिए पहेली न होकर सहज अनुभूति का विषय हो जाता है। वे बताते हैं कि अपने लेखन में अहिल्या जी ने जहाँ एक ओर समाज की रूढ़ियों, अंधविश्वासों और पाखंडों आदि पर प्रहार किया है, वहीं दूसरी ओर वे आधुनिकता के नाम पर बढ़ती यांत्रिकता, कुंठा, हताशा, प्रतिस्पर्द्धा, नग्नता और अश्लीलता को कहीं भी स्वीकार नहीं करती हैं। 


दूसरे जौहरी प्रवीण प्रणव की निगाह में यह अधिक महत्वपूर्ण है कि जिन मुक्ताफलों की परख वे कर रहे हैं, वे परंपरा के लिहाज़ से किस कोटि के हैं। इसके लिए वे एक तरफ तो अहिल्या जी की रचनाओं को विभिन्न साहित्यिक विधाओं की ऐतिहासिक सरणि में रखकर देखते हैं तथा दूसरी तरफ इन्हें कालजयी एवं प्रतिष्ठित साहित्यकारों की प्रसिद्ध पंक्तियों के निकष पर कसकर देखते हैं। कहा जाता है कि कष्ट-कंटकों में पलने वाले सुमनों की सुगंध प्रायः दिगंतव्यापी होती है। इसी के अनुरूप प्रवीण प्रणव ने यह लक्षित किया है कि डॉ. अहिल्या मिश्र ने अपनी ओर फेंके गए पत्थरों से ही अपने लिए सफलता की सीढ़ियाँ बनाई हैं और एक बेहतरीन कवयित्री के रूप में अपनी पहचान स्थापित करते हुए न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को स्थापित किया है तथा अपनी कविताओं की सरल लेकिन प्रभावी विषयवस्तु से साहित्यप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है। वे मानते हैं कि सफलता के बाद भी अहिल्या जी अपने संघर्ष की स्वीकारोक्ति से परहेज़ नहीं करतीं और इस तरह नई पीढ़ी को यह मंत्र दे पाती हैं कि  सृजन के दर्द को सहे बिना सफलता के द्वार को छूना दुष्कर है। आलोचक ने यह भी रेखांकित किया है कि अहिल्या मिश्र को व्यक्तिगत जीवन में अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुज़रना पड़ा, कई आत्मीय रिश्तों और रिश्तेदारों ने ठेस पहुँचाई तो कई लोग ऐसे भी मिले जो अपने न होते हुए भी अपनों से बढ़कर निकले। कहना न होगा कि इन विविधवर्णी जीवनानुभवों ने ही अहिल्या जी के लेखन को गहरी विश्वसनीयता की चमक बख्शी है। 


नाटकों, कहानियों, निबंधों, संस्मरणों और कविताओं में, कमोबेश सभी विधाओं में, प्रवीण प्रणव को अहिल्या मिश्र का यह दु:ख व्याप्त दिखाई  देता है कि आज के समय में मानवता खून के रिश्तों की ऐसी छावनी बन गई है जिसमें अलगाव ने जगह-जगह पड़ाव डाल रखे हैं। उन्होंने बताया है कि अहिल्या जी इसीलिए बार-बार यह ध्यान दिलाती हैं कि संस्कारों का चेहरा बिगाड़ना आसान है और साथ ही सवाल भी उठाती हैं कि क्या संस्कारों का पुनर्गठन भी इतना ही सहज है। रिश्तों, संस्कारों और मूल्यों के प्रति विशेष आग्रह के कारण अहिल्या जी की रचनाएँ अनेक स्थलों पर शिक्षाप्रद और उपदेशात्मक मुद्रा भी ग्रहण कर लेती हैं। इसे पहचानने के साथ-साथ प्रवीण प्रणव ने उनकी रचनाओं में लोकजीवन की व्याप्ति और भावप्रवणता को रचनाकार की विशेष उपलब्धि माना है। दरअसल ये ही वे गुण हैं जो अहिल्या जी के लेखन को देशकाल की सीमाओं के परे उत्तरजीविता की शक्ति प्रदान करते हैं। 


कुल मिलाकर, ‘मुक्ता की परख’ विद्वान लेखक-द्वय की ओर से डॉ. अहिल्या मिश्र को उनके जन्मदिन पर सर्वथा योग्य अनमोल उपहार है। 


शुभकामनाओं सहित,

#ऋषभदेव_शर्मा

6 अगस्त, 2023

रविवार, 3 सितंबर 2023

(पुण्य स्मरण) दर्द से जकड़ा है देश का चौड़ा मुँह: जयंत महापात्र

 

पुण्य स्मरण 

दर्द से जकड़ा है देश का चौड़ा मुँह: जयंत महापात्र

  • ऋषभदेव शर्मा


जयंत महापात्र (22 अक्टूबर, 1928 - 27 अगस्त, 2023) भारतीय अंग्रेजी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित हस्ताक्षरों में सम्मिलित हैं। उनकी पहचान कविता के एक ऐसे प्रशांत स्वर के रूप में है जिसमें सदा भारतीयता अनुगुंजित होती रहती है। उनकी दृष्टि में, मानव मन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली शक्ति कविता है, इसीलिए वे चाहते हैं कि कवि को मानव जीवन की परिस्थितियों पर दूसरी तमाम चीजों से अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्होंने अपने काव्य में ऐसा ही किया है और इसीलिए वे सही अर्थों में मनुष्यता के कवि है। उनकी कविता में प्रेम है तो प्रेम से मोहभंग भी है। वे वर्तमान काल के एकाकीपन और उससे जुड़े भय तथा यातना को अपनी कविता में वाणी प्रदान करने वाले समर्थ, तथा सही अर्थों में समकालीन, कवि रहे। जीवनराग विविध रूपों में उनकी कविता में फूट पड़ता दिखाई देता है - और जीवन से जुड़े भय तथा भ्रम भी, चाहे वे बुढ़ापे से संबंधित हों या मृत्यु से, भूख से संबंधित हों या आतंक से। उन्होंने सुनहरे अतीत के गीत गाए हैं, लेकिन उसके व्यामोह में वे नहीं फँसते। बल्कि अतीत की स्मृतियाँ वर्तमान की व्याख्या करने में उनकी सहायता करती हैं और भविष्य के स्वप्न की प्रेरणा भी बनती हैं। उड़ीसा की मिट्टी में पले-पुसे इस महान कवि ने अपनी रचनाओं में स्थानीयता के रंगों को भी खूब उकेरा है - सुंदर भी और विद्रूप भी।


जयंत महापात्र के निकट काव्यरचना परिवेश के वज़न के दबाव को स्वीकार करने का, सहनीय बनाने का, एक यत्न है - इस तरह कि वह पोशाक जैसा हल्का हो जाए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उससे उत्पन्न होने वाली पीड़ा समाप्त हो जाती हो। नहीं, वह तो ज्यों की त्यों रहती है, हर शाम मंदिर की घंटियों की तरह जागती है और रचनाकार की हड्डियों पर अपना वज़न लाद देती है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि कवि न तो उस स्त्री की उपेक्षा कर सकता है जो घुटनों को छाती से लगाए लुटी-पिटी सी बैठी है और न ही उस हवा की आवाज सुनने से इनकार कर सकता है जो माँ की बाँहों में मरती बच्ची की चीख को उठाए फिर रही है। यह पीड़ा आकाश तक फैली है - धरती फट गई है, उसके हर टुकड़े से उड़ चिड़िया दूर चली गई है, और बारिश का तो कहीं अता-पता ही नहीं। ऐसे में जीवन को चारों ओर से घेरता हुआ अनंत भय नाई की दुकान के समानांतर आइनों में प्रतिबिंबित होता नित्य बढ़ता चला जाता है, सुबह प्रकाशमान न होकर ताप भरे कूड़े-करकटों वाली भर रह जाती है और सूरज के तले केवल धुँआँ-धुँआँ बचा रहता है। परिणामस्वरूप व्यर्थताबोध आम आदमी की तरह कवि को भी डसने लगता है। दीवारों पर छिपकलियाँ हँसती हैं धीरे-धीरे और नम धरती पर कुकुरमुत्ते उगते हैं, जगने पर न रात का बोध होता है न दिन का, लगता है जीवन झूठा है और इस झूठ में समय बीत रहा है। कवि ने इस निरर्थकता और व्यर्थता को गहराई से पकड़ा है और उससे जुड़ी खीझ और ऊब के मनोभावों को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की है।


जयंत महापात्र ने अपनी कविताओं में भूख और बदहाली के जो चित्र उकेरे हैं, संभवतः उनकी प्रेरणा उन्हें उड़ीसा की जनजातियों की जीवनस्थितियों से मिली होगी। इसीलिए गोल चक्कर काटते नर्तकों की परिधि पर नृत्य के आवेग के चरम क्षण में कवि ने बीते युगों के क्षण, धरती की शक्ति, पेड़ों की छाया और स्फटिक सबको टूटते देखा है- भुखमरी की शक्तिहीन खामोशी के समक्ष । भूख के साथ ही रात और आतंक के भी अनेकविध चित्रांकन जयंत महापात्र की कविता में मिलते हैं जो इतिहासबोध और समकालीनताबोध की संधिरेखा पर अवस्थित हैं:


  • रात आ रही है 

केवल समुद्र की मरणांतक शांति 

जिसमें एक नाव डूब गई 

शहर की अंधी गली ने

बचपन के पेट को चबा लिया

और युवक की आँतों को छलनी कर दिया

मांस के खिलाफ भिंची मुट्ठी सा 

फूट पड़ता है जीने का स्वाद

यहाँ कोई अंत नहीं 

हृदय की निःशब्द चीखों का,

केवल पवित्र जल्लाद तनकर खड़ा है

इतिहास को हड्डियों की गहराई में काटते हुए।


अपने बचपन से लेकर देश और मनुष्यता के इतिहास तक का मंथन करके कवि ने यह निष्कर्ष पाया है कि:


  • हमारे जाये हर एक बच्चे के भीतर 

अंधकार का एक टुकड़ा है 

जो उसका पीछा करता है

जहाँ भी जाए, दिन-रात।

 

अंधकार का यह टुकड़ा सर्वव्यापी है। बाहर भी है और भीतर भी। इसीलिए इससे बचने की खातिर खिड़की बंद करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि कमरे में भी रात है। रात कमरे में ही नहीं, व्यक्ति के भीतर भी है जिसके अँधेरे में उसे बरसों गुम रहना पड़ता है - अपना रास्ता ढूँढ़ निकालने से पहले।


अँधेरा परिवेश में भी है और देश में भी। पर कोशिश करने पर भी रास्ता इसलिए नहीं मिलता कि हम अंधकार से लड़ने के लिए अंधकार का ही सहारा लेते रहते हैं। धरती की परछाइयों के आगे आकाश का रंग शर्मसार होता है, क्योंकि हम इतनी सी बात नहीं समझ पाते कि "मानव का वैर खुद हमसे कैसे हिफाजत करेगा हमारी?" परिणाम स्पष्ट है कि पृथ्वी-ग्रह हिंसा और असुरक्षा से घिरा हुआ है। आज हर आदमी की आत्मा एक-दूसरे की हत्या करने के कारण भारी है। इस युद्ध और आतंकवाद से भरी हुई दुनिया में बुद्ध और ईसा के बाद सर्वाधिक प्रासंगिक यदि कुछ है, तो वह है गांधी की अहिंसा का दर्शन। जयंत महापात्र ने अपनी कविताओं में महात्मा गांधी को कई तरह से याद किया है, पुकारा है:


  • ईसा के इतने सालों बाद 

तुम रो पड़े तो क्या तुमने रुदन को पुकारा?

तुम सभी चीजों की एकता को छूते हो 

दिन का लालित्य आता और जाता है

ताकि तुम्हारे शरीर से आसानी से जिंदगी बहे 

साथ में खून भी जो कि हमारी नियति को भविष्यवाणी देता है 

ताकि हम यह समझें कि 

यह देश तुम्हारा कितना साथ देता है!


महात्मा गांधी और उनके स्वप्न का स्वराज्य इसलिए भी कवि को बार-बार याद आता है कि पिछली पौन शताब्दी में भारत में प्रतिदिन महात्मा गांधी की हत्या हुई है और उनके स्वप्न के साथ बलात्कार हुआ है। लोकतंत्र की विफलता को लक्षित करते हुए कवि एक साधारण जागरूक नागरिक के रूप में स्वयं को भी इस सबके लिए उत्तरदायी मानते हैं:


  • छोटी बच्ची का हाथ अंधकार से बना है

मैं इसे कैसे थामूँ? 

सड़क की बत्तियाँ कटे हुए सिर की तरह लटक रही हैं।

खून हमारे बीच के उस डरावने दरवाजे को खोलता है 

दर्द से जकड़ा है देश का चौड़ा मुँह

और शरीर काँटों की सेज पर

कराह रहा है,

इस नन्हीं बच्ची के पास बचा है बस बलात्कार किया हुआ शरीर

ताकि मैं उसके पास पहुँचूँ,

मेरे अपराध का बोझ

मुझे रोक नहीं पाता उसे बाँहों में भरने से।" 


इतने पर भी कवि को तब कुछ सांत्वना मिलती है जब इस कीचड़ में से, आत्माओं की एकत्र अस्थियों में से, कमल के ऐसे फूल के खिलने का संकेत मिलता है जो आँसू जैसा पवित्र है। इस फूल की पंखुड़ियों में से शताब्दियों के अंधकार का खून बह रहा है, तथापि संतोष का विषय है कि कब्र के बाहर रोशनी की चोंच खुलती है और पड़ोसी के घर में बच्चा रोने लगता है तो भविष्य के इन शुभ संकेतों के बीच जागरण की संभावनाएँ रूपायित होती दिखाई देती हैं।


अंधकार में बजती टेलीग्राफ की कुंजियों की ठकठकाहट में जीवन का मर्म खोजने वाले भारतीय अंग्रेज़ी कवि जयंत महापात्र अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन कीर्तिशेष और कृतिशेष कालजयी रचनाकार के रूप में वे सदा यह कहते हुए हमारी चेतना को झकझोरकर जगाते रहेंगे कि:

  • तुम्हारी पाई आज़ादी के हाथ में फंदा है।

यह कीमती भ्रम है।

भारत के चेहरे पर भुलक्कड़ परछाई के रंग,

ऊपर तारों में लटके कौओं का शोर,

रूप खुद की परछाई में अदृश्य हो जाता है 

और सूरज की खोखली छाया बहती जाती है गंगा में! 000


  • ऋषभदेव शर्मा

हिंदी परामर्शी, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद। मो. 8074742572. ईमेल: rishabhadeosharma@yahoo.com 



"सफर जारी है : भाग 7" (प्रो. बीना शर्मा) की भमिका

 


"सफर जारी है : भाग 7" (प्रो. बीना शर्मा) की  भमिका

प्रो. बीना शर्मा की जीवन-यात्रा के अंतरंग और रमणीय स्मृतिचित्रों के साथ चल रहे उनके लेखन-वृत्त के इस नए पड़ाव पर लेखिका और पाठकों का हार्दिक अभिनंदन! 

प्रो. बीना शर्मा एक ऐसी लेखिका हैं जो सामाजिक सरोकारों से गहरे जुड़ी हुई हैं और अकादमिक के साथ साथ सामाजिक कार्यों में निरंतर लगी रहती हैं। उनका लेखन एकदम आडंबरहीन है - उनके जीवन की तरह। उनके इन दैनिक आलेखों से गुजरते हुए जहाँ एक ओर यह धारणा पुष्ट होती है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, वहीं यह विश्वास भी दृढ़ होता है कि कृति में कृतिकार का व्यक्तित्व रचा, बसा और रमा होता है। बीना जी अपने निष्छल गद्य में इसी आत्मीयता के साथ रची, बसी और रमी हुईं हैं। उन्होंने अपने जीवन के विविध अनुभवों के सार को सूक्तिबद्ध करके इन आलेखों में अपने पाठकों के समक्ष जीवन-मंत्र की तरह प्रस्तुत किया है। यदि साहित्य का एक उद्देश्य समाज को कांतासम्मित उपदेश देना है, तो इन आलेखों से उस उद्देश्य की पूर्ति भली प्रकार होती है। ये अपने पाठक को जीवन जीने की कला सिखाते हैं, लेकिन रमणीयता और लालित्य की तनिक भी क्षति किए बिना। यही कारण है कि इस सहज प्रवाहशील गद्य में पाठक को रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाले श्रेष्ठ काव्य का सा आनंद मिलता है। यह लेखन की विशेष तकनीक के कारण संभव हो सका है। प्रो. बीना शर्मा अपने अत्यंत समृद्ध, विविधवर्णी अनुभवों के तने हुए तारों को लोक, पुराण, संस्कृति और साहित्य के सुनहरे धागों के साथ इस तरह बुनती हैं कि उनका हर लेख झीनी झीनी बीनी चदरिया सा लोकमंगलकारी बन जाता है। 

डॉ. बीना शर्मा के इस लेखन से गुज़रना एक तरह से समग्र भारतीय लोकमानस से होकर गुज़रना है। लोक में उनके प्राण बसते हैं। इसलिए तनिक सा अवसर मिलते ही वें लोकरीति का डूब कर बखान करने लगती हैं; और तब निकाल कर लाती हैं लोकचित्त में पगी लोकभाषा के वे मोती जिन्हें सहेजना और अगली पीढ़ियों को सौंपना उन्हें अपना साहित्यिक कर्तव्य महसूस होता है। विविध पर्व-त्योहारों से लेकर संस्कारों और अनुष्ठानों तक का लौकिक विधिविधान उनके लेखन में लोक मुहावरों, कहावतों और सूक्तियों के साथ सहेजा गया है। ब्रज के लोकगीत और लोककथाएँ ही नहीं, ब्रजभाषा के सहज सरस स्वरूप के भी दर्शन इस कृति में अनेक स्थलों पर पाठक को अभिभूत करते हैं। लेखिका को मालूम है कि उनका पाठक वर्ग अक्षेत्रीय हिंदी का वह सार्वदेशिक पाठक है जो केवल भौगोलिक हिंदी क्षेत्र तक सीमित नहीं है। फिर भी वे जानबूझ कर मानक हिंदी के साथ साथ खाँटी ब्रजभाषा का इतना सुंदर तालमेल बिठाती हैं कि पाठक मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। साथ ही यह भी महसूस कर पाता है कि मानक हिंदी का मूल रसस्रोत ब्रज भाषा जैसे वे क्षेत्रीय भाषारूप ही हैं जिन्हें प्रायः हिंदी की बोलियां कहा जाता है। कहना न होगा कि बोली और भाषा का यह कोड मिश्रण डॉ. बीना शर्मा की साहित्य-भाषा का वह निजीपन है जिसमें उनकी सृजनात्मकता पूरी तरह प्रस्फुटित होती है। 

लेखिका यद्यपि प्रतिदिन नियमबद्ध ढंग से लिखती हैं और भोर की पहली किरण के साथ प्रतिदिन नया रचना-पुष्प पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। ऐसे लेखन में यांत्रिकता का खतरा बना रहता है। लेकिन यंत्र की सहायता से लिखने के बावजूद लेखिका ने  अपने आपको यांत्रिक होने से दूर रखा है। इसका सूत्र  कहीं न कहीं उनके आस्थावान भक्त जैसे मन से जुड़ता है।  उन्हें लिखने का कोई अभिमान नहीं है। वे स्वयं को दिव्य प्रेरणाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति का निमित्त मात्र मानती हैं - "राम जी की मर्ज़ी, जब तक चाहें लिखाएँ। हम तो लिखवैया हैं, जो लिखाएँगे सो ही लिखेंगे।" अब भला ऐसे समर्पित लिखवैया के लेखन में यांत्रिक ऊब के लिए जगह कहाँ?

प्रो. बीना शर्मा की सामाजिक चेतना बहुत प्रखर और मुखर है। वे रिश्ते-नातों और आत्मीय संबधों को सामजिकता का आधार मानती हैं। साथ ही जीवन-संघर्ष में निरंतर सकारात्मक वृत्तियों को जगाए रखना उन्हें मनुष्य का परम पुरुषार्थ लगता है। उन्हें यह स्थिति बहुत सालती है कि प्रायः लोग बुज़ुर्ग होने पर लाचारी और असहायपन को अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं। इससे ऐसी नकारत्मकता पैदा होती है जो इन बुजुर्गों को तोड़ डालती है। वे भूल जाते हैं कि उनके पास अनुभवों की कितनी संपदा है। ऐसे बुजुर्गों को प्रेरित करते हुए लेखिका आह्वान करती हैं - गर्व से कहो हम बुजुर्ग हैं; और पूछती हैं कि इस पड़ाव का यह मतलब कब से हो गया कि आप बेचारगी से जीएँ! संदेश साफ है - बुजुर्ग हुए हैं, लाचार नहीं, असहाय नहीं! इसी प्रकार लेखिका को लोगों का दोगला व्यवहार भी बार बार विचलित करता है। किसी भी निष्छल मन वाले व्यक्ति को छल-छद्म से पीड़ा होती ही है! फिर आज के आदमी ने तो इतना छल-छद्म ओढ़ लिया है कि पूर्ण सत्य का स्वर्णिम प्रकाश भी खंड सत्यों की अंधेरी सुरंग में खो गया है। ऐसे में सत्य, ज्योति और अमरत्व का साक्षात्कार करने के लिए लेखिका सकारात्मक वृत्तियों को जगाए रखने की प्रेरणा देती हैं। 

आधुनिक मनुष्य का यह छल-छद्म इतना बढ़ गया है कि उसने प्रेम के अमृत फल को भी कड़वा कर दिया है। लेखिका इस बात से दुखी हैं कि नए जमाने का प्यार प्यार नहीं अपना अपना फायदा देखने वाला व्यापार बन कर रह गया है। ऐसे प्यार को वे दूर से ही नमस्कार करती हैं, क्योंकि उनके मानस में तो उस प्रेम का संस्कार बैठा हुआ है जो प्रेमास्पद को भगवान का दर्जा देने और प्रेम को भक्ति के समकक्ष मानने का आग्रही है। इसलिए वे यह चाहती हैं कि हमारी पीढ़ियाँ राजा मिडास जैसी स्वर्ण-लोभी न हों, क्योंकि वैसा होने पर प्रेम की सारी संभावनाएँ सुनहरी होकर पथरा जाएँगी। ऐसा न हो इसलिए वे तमाम माता-पिताओं से आग्रह करती हैं कि अपने बच्चों को रिश्ते-नातों और घरेलू परिवेश से काटकर अकेलेपन के पथरीले जंगल में न धकेलें। उन्हें सब रिश्तों की स्नेह भरी बारिश में खुलकर भीगने दें। ताकि उनके भीतर स्नेह का ताल सूखने न पाएँ। स्नेह का यह ताल अगर बचा रहा, तो रिश्ते बचे रहेंगे। रिश्ते बचे रहें, तो सामाजिकता बची रहेगी। सामाजिकता बची रही, तो मनुष्यता बची रहेगी। मनुष्यता को बचाए रखना ही तो साहित्य का परम लक्ष्य है। कहना न होगा कि प्रो. बीना शर्मा के सारे लेखन का भी परम लक्ष्य मनुष्य और मनुष्यता ही है। 

और क्या कहूँ? कहने को तो बहुत कुछ है, लेकिन भूमिका के लिए इतना ही… 

हार्दिक शुभकामनाओं सहित,

                   - ऋषभदेव शर्मा

विजयादशमी: 05/10/2022.