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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

(इंद्रप्रस्थ भारती) विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की भाषा

विशालतम गणतंत्र की
अस्मिता की भाषा
- ऋषभदेव शर्मा 
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समय समय पर भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा होने की हिंदी की योग्यता और संवैधानिकता को लेकर उठने वाले राजनैतिक विवादों और मतभेदों के बावजूद, समसामयिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के महत्व को रेखांकित करने की दृष्टि से पिछले पाँच वर्ष के भारतीय राजनीति और वैदेशिक कूटनीति के परिदृश्य का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस अवधि में कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के क्षेत्र में हिंदी ने अपनी साफ-साफ आहट दर्ज कराई है। प्रधानमंत्री द्वारा कूटनैतिक चर्चाओं और औपचारिक संबोधनों के लिए विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी के व्यवहार से विश्व बिरादरी को यह संकेत मिला है कि भारत की भी अपनी राजभाषा (राष्ट्रभाषा) है और यदि वह इसके प्रयोग का आग्रही हो तो विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की इस भाषा को दुनिया को इस देश के साथ संबंधों की खातिर व्यवहार में स्वीकार करना होगा। 
भाषा यदि राष्ट्रीय गौरव का एक प्रतीक है तो यह कहना होगा कि भले ही 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में संविधान ने अधिकृत कर दिया हो, व्यवहारतः विश्व बिरादरी के बीच भारत अब तक अंग्रेज़ी ही बरतता रहा है और धिक्कारा जाता रहा है: ऐसे में यदि भारत के प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री/ अधिकारी राष्ट्रीय/ अंतरराष्ट्रीय औपचारिक अवसरों पर अपने वक्तव्य हिंदी में देना का नैतिक साहस दिखाते रहें तो इसे कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के स्तर पर हिंदी के महत्व को स्थापित करने की पहल के रूप में देखना उचित होगा। इससे हिंदी को विश्वस्तरीय संबंधों की माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने के अवसर मिलेंगे तथा विदेशों में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने को बढ़ावा मिलेगा। मानवीय और मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में भी हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और जानबूझ कर इस भाषा की उपेक्षा करने वाले दूतावासों में इसे सम्मान मिलने की शुरूआत होगी। इस प्रकार के संकेत मिलने लगे है कि सभी देशों ने हिंदी से जुड़ने की दिशा में सोचना आरंभ कर दिया है। उदाहरणार्थ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के साथ विश्व के कई सारे बड़े देशों के विश्वविद्यालयों से हिंदी पढ़ाने की जिम्मेदारी के समझौते हुए हैं। केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा भी इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। इसके अंतर्गत एक अनिवार्य पाठ्यक्रम ‘भारत परिचय’ का भी है जिसमें विशेष बल 1857 के बाद के अर्थात आधुनिक भारत पर होगा। अभिप्राय यह है कि आने वाले समय में विश्व स्तर पर आर्थिक-राजनैतिक परिवर्तनों के साथ हिंदी के जुड़ाव के लक्षण दिखाई देने लगे है।
कोई भी भाषा तभी महत्वपूर्ण और सर्वस्वीकार्य होती है, जब वह अपने आपको निरंतर प्रगति की संस्कृति से जोड़कर नए नए प्रयोजनों (फंक्शंस) के अनुरूप अपनी क्षमता प्रमाणित करे। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी ने अपना यह सामर्थ्य पिछले दशकों में सिद्ध कर दिखाया है कि वह विश्व मानव के जीवन व्यवहार के समस्त पक्षों को अभिव्यक्त करने वाली सर्वप्रयोजनवाहिनी भाषा है। बीज रूप में कहना हो तो हिंदी के महत्व का आज के परिप्रेक्ष्य में पहला समसामयिक प्रयोजन क्षेत्र कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों [डिप्लोमेसी] की भाषा का है तो दूसरा पहलू शासन [गवर्नेंस] की भाषा का। तीसरा क्षेत्र प्रतियोगिता परीक्षाओं और रोजगार दिलाने वाली भाषा का और चौथा चुनाव तथा राजनीति की भाषा का है। 
हिंदी के महत्व के पाँचवें आयाम के रूप में मीडिया की भाषा को देखा जा सकता है जिसके अंतर्गत प्रिंट और इलेक्ट्रानिक जन संसार माध्यमों के अलावा फिल्म और नए [सोशल] मीडिया पर हिंदी के प्रभावी प्रसार का आकलन करना होगा। सूचना उद्योग हो या मनोरंजन उद्योग, बहुभाषी होना और हिंदी का व्यवहार करना, दोनों क्षेत्रों में सफलता की गारंटी सरीखा है। इससे रंग-बिरंगी हिंदी के जो रूप सामने आ रहे हैं, वे हिंदी की लचीली और सर्वग्राही प्रवृत्ति के प्रमाण भी हैं और परिणाम भी। भाषा मिश्रण पर नाक भौं सिकोड़ने वालों को हिंदी की केंद्रापसारी प्रवृत्ति और अक्षेत्रीय / समावेशी स्वभाव को ध्यान में रखना चाहिए अन्यथा वे इसके बहुप्रयोजनीय स्वरूप के विकास में रोडे ही अटकाते रहेंगे। इसे भाषा के खिचड़ी हो जाने की अपेक्षा प्रयोजन-विशेष के लिए लचीलेपन के रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित होगा। अर्थात हिंदी की पहले से विद्यमान और स्वीकृत सामाजिक शैलियाँ (हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी) अब भी अपनी जगह हैं और जीवंत प्रयोग में हैं तथा आगे भी रहेंगी लेकिन हिंदी के जो नए रूप आज मीडिया के माध्यम से उभर रहे हैं उन्हें भी नई शैली के रूप में स्वीकारना ज़रूरी है।
हिंदी की इन विविध शैलियों के प्रयोग के संदर्भ अलग-अलग हैं जो भाषा के बहुआयामी विकास के ही प्रतीक हैं। इसी से हिंदी के महत्व का छठा आयाम भी जुड़ा हुआ है जो विज्ञापन की भाषा से संबंधित है। कहना न होगा कि उत्तरआधुनिक भूमंडलीकृत विश्व वस्तुतः भूमंडीकृत विश्व है। इस भूमंडी या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के जितने बड़े हिस्से को कोई भाषा संबोधित कर सके वह उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाती है। हिंदी विज्ञापन भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया और अरब देशों तक के उपभोक्ता को और साथ ही दुनिया भर में बसे भारतवंशियों को संबोधित और आकर्षित करने में सक्षम हैं; क्योंकि दुनिया भर में हिंदी समझने वालों की तादाद सर्वाधिक नहीं तो सर्वाधिक के आसपास अवश्य है। अतः ग्लोबल मीडिया और बाज़ार दोनों की भाषा की दृष्टि से अब कोई हिंदी को नकार नहीं सकता।
यहीं हिंदी भाषा के महत्व का सातवाँ बिंदु सामने आता है जिसका संबंध ज्ञान, विज्ञान और विमर्श की भाषा से है। भाषिक प्रयुक्तियों, तकनीकी शब्दावलियों और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी का भंडार अकूत है लेकिन शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को स्वीकार न करने के कारण सभी भारतीय भाषाओं सहित हिंदी के प्रयोक्ता संदेह, संशय और हीन भावना के शिकार हैं। समाज को इस औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आकार स्वतंत्र लोकशाही जैसा आचरण सीखना होगा और बुद्धिजीवियों को ‘निजभाषा’ के व्यवहार से जुड़े आत्मगौरव को अर्जित करना होगा। आज ज्ञान-विज्ञान-विमर्श के हर पक्ष को व्यक्त करने में हिंदी समर्थ हो चुकी है। पर जाने हमारे बुद्धिजीवी अपनी भाषा के व्यवहार में कब समर्थ होंगे ? भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित नई शिक्षा नीति में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने के प्रस्ताव इस दृष्टि से अत्यंत महतवपूर्ण है। 
हिंदी के महत्व का आठवाँ आयाम भारत की संपर्कभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के थ्री-डाइमेंशनल प्रकार्य से आगे बढ़कर फोर्थ डाइमेंशन के रूप में विश्वभाषा बनकर उभरने से संबंधित है। इसका एक पक्ष तो राजनैतिक और कूटनैतिक है – संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में। इसके लिए बार बार संकल्पबद्ध होकर भी भारत सरकार ने कुछ ठोस कार्य नहीं किया है। इससे हमारी अपनी भाषा के प्रति उदासीनता ही प्रकट होती है। लेकिन विश्वभाषा का दूसरा पक्ष शुद्ध रूप से व्यावहारिक है। व्यवहारतः आने वाले समय में वे भाषाएँ ही विश्वभाषा के रूप में टिकेंगी जिनमें बाज़ार की भाषा और कंप्यूटर की भाषा के रूप में टिके रहने की शक्ति होगी। बाजार की चर्चा पहले ही की जा चुकी है, रही कंप्यूटर की बात, तो आज यह जगजाहिर हो चुका है कि हिंदी कंप्यूटर  के लिए और कंप्यूटर हिंदी के लिए नैसर्गिक मित्रों जैसे सहज हो गए हैं। हिंदी के कंप्यूटर-दोस्त होने के कारण तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियाँ अब ऐसे उपकरण और कार्यक्रम लाने को विवश हैं जो हिंदी-दोस्त हों। दरअसल हिंदी ने साबित कर दिया है कि वह ‘दोस्त भाषा’ है – मीडिया की दोस्त, बाजार की दोस्त, कंप्यूटर की दोस्त। इस प्रकार विश्वभाषा के रूप में भी अपने प्रकार्य को निभाने में हिंदी निरंतर अग्रसर है। इतना ही नहीं, वह कॉर्पोरेट जगत के दरवाज़े पर भी आ खड़ी हुई है तथा अंदर प्रवेश करने के लिए नया सोशियो-टेक्नोलॉजिकल अवतार लेने वाली है।
इतना ही नहीं, अनुवाद उद्योग की भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में अत्यंत संभावनाशील और समर्थ भाषा के तौर पर अपने महत्व के नौवें आयाम को छू रही है। इसके अलावा अपने जन्म से ही साहित्य और संस्कृति की भाषा के तौर पर स्वयंसिद्ध सामर्थ्य आज भी उसकी प्रामाणिकता की दसवीं दिशा है जिसके द्वारा वह विश्व मानवता के भारतीय आदर्श को परिपुष्ट करती है। इसी से जुड़ा है हिंदी भाषा के महत्व का ग्यारहवाँ आयाम जो राष्ट्रीय अस्मिता और निज भाषा के गौरव से संबंधित है। कहना न होगा कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है वह भारतीय अस्मिता का पर्याय है – हम चाहे कितनी ही मातृबोलियों और मातृभाषाओं का व्यवहार करते हों, हिंदी उन सबमें निहित हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनकर उभरती है। निस्संदेह, हिंदी के महत्व के और भी अनेक आयाम हैं लेकिन वे सब इस विराट आयाम में समा सकते हैं। वस्तुतः ‘निजभाषा उन्नति’ से जुड़े राष्ट्रीय गौरव के बोध के बिना हृदय की वह पीड़ा मिट ही नहीं सकती जिसके दंश का अनुभव करके कभी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पराधीन देश को अहसास कराया था कि ‘बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल!’
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हिंदी भाषा के आधुनिकीकरण और डिजिटलीकरण के संदर्भ में यह ध्यान रखना जरूरी है कि भूमंडलीकरण ने विगत कुछ दशकों में भारत जैसे महादेश के समक्ष जो नई चुनौतियाँ खड़ी की हैं उनमें सूचना विस्फोट से उत्पन्न हुई अफ़रा-तफ़री और उसे सँभालने के लिए जनसंचार माध्यमों के पल-प्रतिपल बदलते रूपों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान संदर्भ में भूमंडलीकरण का अर्थ व्यापक तौर पर बाज़ारीकरण (भूमंडीकरण) है।
भारत दुनियाभर के उत्पाद निर्माताओं के लिए एक बड़ा ख़रीदार और उपभोक्ता बाज़ार है। बेशक, हमारे पास भी अपने काफ़ी उत्पाद हैं और हम भी उन्हें बदले में दुनियाभर के बाज़ार में उतार रहे हैं क्योंकि बाज़ार केवल ख़रीदने की ही नहीं, बेचने की भी जगह होता है। इस क्रय-विक्रय की अंतरराष्ट्रीय वेला में संचार माध्यमों का केंद्रीय महत्व है क्योंकि वे ही किसी भी उत्पाद को खरीदने के लिए उपभोक्ता के मन में ललक पैदा करते हैं। यह उत्पाद वस्तु से लेकर विचार तक कुछ भी हो सकता है। यही कारण है कि आज भूमंडलीकरण की भाषा का प्रसार हो रहा है तथा मातृबोलियाँ सिकुड़ और मर रही हैं।
आज के भाषा संकट को इस रूप में देखा जा रहा है कि भारतीय भाषाओं के समक्ष उच्चरित रूप भर बनकर रह जाने का ख़तरा उपस्थित है क्योंकि संप्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण उत्तरआधुनिक माध्यम टी.वी. अपने विज्ञापनों से लेकर करोड़पति बनाने वाले अतिशय लोकप्रिय कार्यक्रमों तक में हिंदी में बोलता भर है, लिखता अंग्रेज़ी में ही है। इसके बावजूद यह सच है कि इसी माध्यम के सहारे हिंदी अखिल भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक विस्तार के नए आयाम छू रही है। विज्ञापनों की भाषा और प्रोमोशन वीडियो की भाषा के रूप में सामने आनेवाली हिंदी शुद्धतावादियों को भले ही न पच रही हो, युवा वर्ग ने उसे देश भर में अपने सक्रिय भाषा कोष में शामिल कर लिया है। इसे हिंदी के संदर्भ में संचार माध्यम की बड़ी देन कहा जा सकता है।
सूचना संचार प्रणाली किसी भी व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अंग्रेज़ रहे हों या हिटलर जैसे तानाशाह, सबको यह मालूम था कि सैन्य शक्ति के अलावा असली सत्ता जनसंचार में निहित होती है। आज भी भूमंडलीकरण की व्यवस्था की जान इसी में बसती है। दूसरी तरफ़ समाज के दर्पण के रूप में साहित्य भी तो संचार माध्यम ही है जो सूचनाओं का व्यापक संप्रेषण करता है। साहित्य की तुलना में संचार माध्यमों का ताना-बाना अधिक जटिल और व्यापक है क्योंकि वे तुरंत और दूरगामी असर करते हैं। भूमंडलीकरण ने उन्हें अनेक चैनल ही उपलब्ध नहीं कराए हैं, इंटरनेट और वेबसाइट के रूप में अंतरराष्ट्रीयता के नए अस्त्र-शस्त्र भी मुहैया कराए हैं। परिणामस्वरूप संचार माध्यमों की त्वरा के अनुरूप भाषा में भी नए शब्दों, वाक्यों, अभिव्यक्तियों और वाक्य संयोजन की विधियों का समावेश हुआ है। इस सबसे हिंदी भाषा के सामर्थ्य में वृद्धि हुई है। संचार माध्यम यदि आज के आदमी को पूरी दुनिया से जोड़ते हैं तो वे ऐसा भाषा के द्वारा ही करते हैं। अत: संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने पर हिंदी समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड़ गई है। वह अदालतनुमा कार्यक्रमों के रूप में सरकार और प्रशासन से प्रश्न पूछती है, विश्व जनमत का निर्माण करने के लिए बुद्धिजीवियों और जनता के विचारों के प्रकटीकरण और प्रसारण का आधार बनती है, सच्चाई का बयान करके समाज को अफ़वाहों से बचाती है, विकास योजनाओं के संबंध में जन शिक्षण का दायित्व निभाती है, घटनाचक्र और समाचारों का गहन विश्लेषण करती है तथा वस्तु की प्रकृति के अनुकूल विज्ञापन की रचना करके उपभोक्ता को उसकी अपनी भाषा में बाज़ार से चुनाव की सुविधा मुहैया कराती है। किस्सा कोताह कि आज व्यवहार क्षेत्र की व्यापकता के कारण संचार माध्यमों के सहारे हिंदी भाषा की भी संप्रेषण क्षमता का बहुमुखी विकास हो रहा है। हम देख सकते हैं कि राष्ट्रीय ही नहीं, विविध अंतरराष्ट्रीय चैनलों में हिंदी आज सब प्रकार के आधुनिक संदर्भों को व्यक्त करने के अपने सामर्थ्य को विश्व के समक्ष प्रमाणित कर रही है। अत: कहा जा सकता है कि वैश्विक संदर्भ में हिंदी की वास्तविक शक्ति को उभारने में संचार माध्यमों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
एक तरफ‍ साहित्य लेखन की भाषा आज भी संस्कृतनिष्ठ बनी हुई है तो दूसरी तरफ़ संचार माध्यम की भाषा ने जनभाषा का रूप धारण करके व्यापक जन स्वीकृति प्राप्त की है। समाचार विश्लेषण तक में कोडमिश्रित हिंदी का प्रयोग इसका प्रमुख उदाहरण है। इसी प्रकार पौराणिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, पारिवारिक, जासूसी, वैज्ञानिक और हास्यप्रधान अनेक प्रकार के धारावाहिकों का प्रदर्शन विभिन्न चैनलों पर जिस हिंदी में किया जा रहा है वह एकरूपी और एकरस नहीं है बल्कि विषय के अनुरूप उसमें अनेक प्रकार के व्यावहारिक भाषा रूपों या कोडों का मिश्रण उसे सहज जनस्वीकृत स्वरूप प्रदान कर रहा है। एक वाक्य में कहा जा सकता है कि संचार माध्यमों के कारण हिंदी भाषा बड़ी तेज़ी से तत्समता से सरलीकरण (तद्भवता) की ओर जा रही है। इससे उसे अखिल भारतीय ही नहीं, वैश्विक स्वीकृति प्राप्त हो रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक हिंदी दुनिया में तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा थी परंतु आज स्थिति यह है कि वह दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है तथा यदि हिंदी जानने-समझने वाले हिंदीतरभाषी देशी-विदेशी हिंदी भाषा प्रयोक्ताओं को भी इसके साथ जोड़ लिया जाए तो सहज ही हिंदी दुनिया की प्रथम सर्वाधिक व्यवहृत भाषा सिद्ध हो सकती है। हिंदी के इस वैश्विक विस्तार का बड़ा श्रेय भूमंडलीकरण और संचार माध्यमों के विस्तार को जाता है। यह कहना ग़लत न होगा कि संचार माध्यमों ने हिंदी के जिस विविधतापूर्ण सर्वसमर्थ नए रूप का विकास किया है, उसने ‘भाषासमृद्ध’ समाज के साथ-साथ ‘भाषावंचित’ समाज के सदस्यों को भी वैश्विक संदर्भों से जोड़ने का काम किया है। यह नई हिंदी कुछ प्रतिशत अभिजात वर्ग के दिमाग़ी शगल की भाषा नहीं बल्कि अनेकानेक बोलियों में व्यक्त होने वाले ग्रामीण भारत की नई संपर्क भाषा है। इस भारत तक पहुँचने के लिए बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी हिंदी और भारतीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है।
हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में यह तथ्य निहित है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है। इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ़ दिखाई देता है। ऐसे अवसरों पर हिंदी व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदारता के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है। यही प्रवृत्ति हिंदी के निरंतर विकास का आधार है और जब तक यह प्रवृत्ति है तब तक हिंदी का विकास रुक नहीं सकता। बाज़ारीकरण की अन्य कितने भी कारणों से निंदा की जा सकती हो लेकिन यह मानना होगा कि उसने हिंदी के लिए अनुकूल चुनौती प्रस्तुत की। बाज़ारीकरण ने आर्थिक उदारीकरण, सूचनाक्रांति तथा जीवनशैली के वैश्वीकरण की जो स्थितियाँ भारत की जनता के सामने रखी, इसमें संदेह नहीं कि उनमें पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल का विकास ही हुआ। अभिव्यक्ति कौशल के विकास का अर्थ भाषा का विकास ही है।
यहाँ यह भी जोड़ा जा सकता है कि बाज़ारीकरण के साथ विकसित होती हुई हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता भारतीयता के साथ जुड़ी हुई है। यदि इसका माध्यम अंग्रेज़ी हुई होती तो अंग्रेज़ियत का प्रचार होता। लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी होने के कारण वे भारतीय परिवार और सामाजिक संरचना की उपेक्षा नहीं कर सकते। इसका अभिप्राय है कि हिंदी का यह नया रूप बाज़ार सापेक्ष होते हुए भी संस्कृति निरपेक्ष नहीं है। विज्ञापनों से लेकर धारावाहिकों तक के विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि संचार माध्यमों की हिंदी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की छाया से मुक्त है और अपनी जड़ों से जुड़ी हुई है। अनुवाद को इसकी सीमा माना जा सकता है। फिर भी, कहा जा सकता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं ने बाज़ारवाद के खिलाफ़ उसी के एक अस्त्र बाज़ार के सहारे बड़ी फतह हासिल कर ली है। अंग्रेज़ी भले ही विश्व भाषा हो, भारत में वह डेढ़-दो प्रतिशत की ही भाषा है। इसीलिए भारत के बाज़ार की भाषाएँ भारतीय भाषाएँ ही हो सकती हैं, अंग्रेज़ी नहीं। और उन सबमें हिंदी की सार्वदेशिकता पहले ही सिद्ध हो चुकी है।
बाज़ार और हिंदी की इस अनुकूलता का एक बड़ा उदाहरण यह हो सकता है कि पिछले डेढ़-दो दशक में संचार माध्यमों पर हिंदी के विज्ञापनों के अनुपात में लगभग शत प्रतिशत उछाल आया है। इसका कारण भी साफ़ है। भारत रूपी इस बड़े बाज़ार में सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग मध्य और निम्नवित्त समाज का है जिसकी समझ और आस्था अंग्रेज़ी की अपेक्षा अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा से अधिक प्रभावित होती है। इस नए भाषिक परिवेश में विभिन्न संचार माध्यमों की भूमिका केंद्रीय हो गई है।
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भारतीय जनता को आज सरकार पर दबाव बनाना होगा कि सारे ज्ञान-विज्ञान और साहित्य-वाङ्मय को यथाशीघ्र इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भारतीय भाषाओं – यथासंभव हिंदी - में उपलब्ध कराया जाए। आज हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद के जो सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, उन्हें और भी विकसित करके मुक्त रूप से (मुफ्त) इंटरनेट पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग बढ़ेगा। विश्वभाषा के रूप में हिंदी तभी जीवित रहेगी जबकि वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अंतरराष्ट्रीय बाजार की चुनौती का सामना कर सकेगी। 
भाषा सदा गतिशील होती है। मीडिया ने उसे और अधिक त्वरा प्रदान कर दी है। नई नई जरूरतों के अनुरूप शब्द, वाक्य और अभिव्यक्ति चुनने तथा वाक्य संयोजन की विधियों को भी विकसित करते रहना होगा। ऐसा करके ही हिंदी व्यापक जनमत का निर्माण करने वाली भाषा बन सकती है, क्योंकि उसकी पैठ व्यापक जनसंख्या तक है और मीडिया की मजबूरी है कि वह इतनी व्यापक पैठ वाली भाषा की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसीलिए चाहे विकास के कार्यक्रम हों अथवा जनशिक्षण के, चाहे विज्ञापन हो या समाचार, चाहे मनोरंजन हो या इतिहास, मीडिया को सरल, अर्थपूर्ण और विषयवस्तु की प्रकृति के अनुकूल भाषा की तलाश रहती है। हिंदी ने व्यवहारक्षेत्र की इस बहुविध व्यापकता के अनुरूप अपने को ढालकर अपनी भाषिक संचार क्षमता का विकास बहुत तेजी से कर दिखाया है। यही कारण है कि आज अंतरराष्ट्रीय चैनलों में हिंदी फैशन से लेकर विज्ञान और वाणिज्य तक सब प्रकार के आधुनिक संदर्भों को बखूबी व्यक्त कर रही है। 
इस प्रकार स्पष्ट है कि हिंदी की वास्तविक शक्ति को उभारने में संचार माध्यमों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जहाँ आज भी एक ओर लेखन की भाषा संस्कृतनिष्ठता के आग्रह से जुड़ी है, वहीं संचार माध्यम की भाषा जनस्वीकृति के आग्रह से जुड़ी होने के कारण जनभाषा के अधिक निकट है। विषयक्षेत्र के अनुरूप विविध प्रकार की मिश्रित भाषाओं का विकास करने में टी.वी. धारावाहिकों की भूमिका भी निर्विवाद है, जिन्होंने जनभाषा के पौराणिक से लेकर जासूसी धारावाहिकों तक के अनेक चेहरे गढ़ डाले हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाचक्र के समाचार-विश्लेषण संबंधी कार्यक्रमों में भी भाषामिश्रण की छटा देखते ही बनती है। इनकी भाषा में तत्समता और सरलीकरण का संतुलन भी द्रष्टव्य है। 
आज जरूरत है कि हिंदी के व्यापक उपभोक्ता समाज की संख्या को ध्यान में रखते हुए हिंदी में ‘डेटा बेस’ विकसित किए जाएँ, हिंदी में वेबसाइट पर विभिन्न विषयों के शब्दकोश और विश्वकोश उपलब्ध हों, वैज्ञानिक चैनलों के साथ साथ आध्यात्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक चैनल भी हिंदी में - और भारतीयता को उभारने के दृष्टिकोण से - स्थापित किए जाएँ। इस सारी तैयारी के साथ हिंदी वैश्वीकरण और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की संयुक्त चुनौती का सामना कर सकती है, इसमें संदेह नहीं। 
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उपर्युक्त चर्चा के आधार पर, वैश्विक बाज़ार से मोर्चा लेने वाली विश्व के विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की भाषा के रूप में ‘हिंदी के भविष्य’ के संबंध में यह कहा जा सकता है कि (1) हिंदी और उसका भविष्य इस शती में बाज़ार और प्रौद्योगिकी/तकनीक के बल पर सुरक्षित है और रहेगा। (2) हिंदी अब अंग्रेजी के रास्ते पर है अर्थात अंग्रेज़ी के साथ ग्लोबल भाषा के रूप में स्वयं को सिद्ध करने वाली है। (3) आने वाले समय में हिंदी पूरी तरह अक्षेत्रीय (सर्वक्षेत्रीय) भाषा के रूप में उभरेगी। (4) हिंदी पर से तथाकथित हिंदी-बैल्ट का वर्चस्व लगातार घटेगा। (5) भविष्य में हिंदी सबकी साझी हिंदी होगी - किसी इस या उस वर्ग, क्षेत्र , जाति, धर्म या संप्रदाय की नहीं।
साथ ही ‘भविष्य की हिंदी’ के स्वरूप के बारे में भी कुछ भविष्यवाणियाँ की जा सकती हैं। यथा – (1) बाज़ार के दबाव और विज्ञापन के प्रभाव के कारण हिंदी-व्याकरण के नियम टूटेंगे और भाषा का लचीलापन बढ़ेगा। (2) देशज शब्दों का प्रयोग बढ़ेगा क्योंकि उनके माध्यम से अधिक बड़ी जनसंख्या को संबोधित करना संभव होगा। (3) बिंदास शब्दावली की सार्वजनिक रूप से स्वीकृति बढ़ेगी। (4) अभी तक व्यक्तिगत संबंधों में जो भाषा की शालीनता और सामाजिक नैतिकता है, वह भी टूटेगी। (5) हिंदी के विभिन्न रूप क्षेत्रवार विकसित और स्वीकृत होंगे तथा पिजिनीकरण और कोड मिश्रण/परिवर्तन के बढ़ने के साथ हिंदी का बचा-खुचा पंडिताऊपन टूट जाएगा। (6) साहित्य में भी ये सारी चीज़ें आएँगी और एक ही कृति में विविध भाषा रूपों के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ेगी। (7) भविष्य की हिंदी के स्वरूप निर्धारण में सोशल नेटवर्किंग साइटों की प्रभावी भूमिका होगी तथा हिंदी में शब्दों के संक्षेपीकरण की प्रवृत्ति और सीमित शब्दों में संप्रेषण के कौशल का विकास होगा। 
    
ऋषभदेव शर्मा
परामर्शी (हिंदी), मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद/ आवास : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रमंतापुर, हैदराबाद – 500013. मोबाइल : 8074742572. <rishabhadeosharma@yahoo.com>   


2 टिप्‍पणियां:

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…


आदरणीय गुरुवर, आपके इस आलेख में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए सकारात्मक सोच और ऊर्जा प्रकट होती है। साथ ही, आपने हिंदी की अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति के लिए योजना भी उपलब्ध कराई है। मार्ग प्रशस्त किया है। आभार।

Gopal Sharma ने कहा…

हिंदी के लिए इसी प्रकार के आलेख अब अधिक चाहिए । धन्यवाद ।