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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

(प्रवासी जगत) अभिमन्यु अनत के साहित्य में सामाजिक-आर्थिक चेतना


अभिमन्यु अनत के साहित्य में सामाजिक-आर्थिक चेतना

  • - ऋषभ देव शर्मा एवं गुर्रमकोंडा नीरजा  
        जिस मजदूर के हाथ से 
        तुमने मोती छीन लिया था 
        पगडंडी से लौटते 
        उसने कच्चू के पत्ते से 
        ओस की बूँद को 
        मुट्ठी में बाँध लिया है 
        उल्लसित वह उतना ही है 
        जितना तुम हो।“
                (अनत 1982 अ : 16) 
अभिमन्यु अनत (1937-2018) के कविता संग्रह कैक्टस के दाँत (1982) की उल्लसित वह इतना ही शीर्षक यह कविता मॉरिशस के सच्चे निर्माता भारतवंशी मजदूरों की वेदना, जिजीविषा और संघर्ष की गाथा को प्रतिबिंबित करती है। रचनाकार ने अत्यंत निकट से यह देखा, जाना और पहचाना है कि मजदूर अपने माथे की श्रम बूँदों को खेत में पहुँचकर बोता है और जब ये बूँदें लहलहाती फसल में रूपांतरित होती हैं तो उन हरे-भरे दानों को कोई और अपनी तिजोरी के लिए बटोर कर ले जाता है तब आक्रोश में आकर मजदूर सूरज को निगल लेता है। (अनत 1982 अ : तृप्ति’. 14)। यही वह केंद्रीय सामाजिक-आर्थिक चेतना है जो अभिमन्यु अनत के समग्र साहित्य को अनुप्राणित करती है।  
अस्तित्ववादी मुहावरे से मुक्त लेखक की सामाजिक-आर्थिक चेतना उनके उपन्यास एक बीघा प्यार (1972, 1999) में ठोस आकार ग्रहण करती दिखाई देती है। अदम्य साहस, निष्ठा और श्रम की महिमा इस उपन्यास के केंद्र में हैं। सत और असत का आदिम मिथ यहाँ चरितार्थ हुआ है। बेशक, यथार्थ से मुठभेड़ में आदर्श बहुत बार घायल होता है और पराजित होता हुआ-सा लगने लगता है। लेकिन मानवीय रिश्तों और पारिवारिकता के सूत्रों के प्रति आस्था अंततः सत की विजय के रूप में ही प्रतिफलित होती है। समाज का कमेरा वर्ग इस हद तक उच्च वर्ग का गुलाम है कि अपने व्यक्तिगत और घरेलू निर्णय लेने की भी आजादी उसे हासिल नहीं है। हीरा ऐसी ही चेतनाहीन पीढ़ी का प्रतिनिधि है। लेकिन सोम इस स्थिति के प्रति असंतोष और आक्रोश से भरा हुआ है। उसे यह बात बिलकुल पसंद नहीं थी कि हर काम के लिए सभा के प्रधान की सलाह लेते फिरें। “किसी को अपने घर से निकालना या अपने यहाँ स्थान देना यह तो अपनी व्यक्तिगत बात ठहरी। इतना अधिकार तो आदमी को होना चाहिए कि कुछ कामों को वह अपने न्याय और अपनी पसंद पर कर सके। यह सब सोचते हुए सोम को महसूस हो रहा था कि वे अपना खा-पीकर भी दूसरे की कठपुतलियाँ हैं, और इसी बात की उसे चिढ़ थी।“ (अनत 1999 : 28)। उसके युवा आंदोलन के साथ सहानुभूति रखने के पीछे भी यही वजह थी कि वह एक व्यक्ति की धड़कनों पर दूसरे व्यक्ति की सत्ता को स्वीकार नहीं करता था। समाज में पुराने और नए का संघर्ष भी उसके चरित्र में दिखाई देता है। वह यह नहीं मानता कि नए लोग पुराने लोगों से अलग ख्याल रखकर अलग ढंग से अपनी अलग दुनिया बनाए। लेकिन यह भी उसे बर्दाश्त नहीं कि पुराने ढंग और तरीकों को आज भी उसी तरह बनाए रखा जाए जैसे वे सुदूर अतीत में थे। कहना न होगा कि सोम के माध्यम से यहाँ लेखक ने सामाजिक मूल्यों के परिवर्तन को रूपायित किया है। साथ ही यह भी रेखांकित किया है कि सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ और नैतिकताएँ समाज के आर्थिक ढाँचे की हलचलों से नियंत्रित होती हैं। उपन्यास में यह आर्थिक ढाँचा अत्यंत विषमतापूर्ण है। किसानों और मजदूरों का सारा उत्पादन उच्च वर्ग के हाथों में चला जाता है, जबकि निम्न वर्ग के पास ढंग का घर तक नहीं है – “छत के रीसने के कारण घर के गोबर का फर्श जहाँ-तहाँ भीग गया था। तीनों कमरों की तीनों चारपाइयों को उनकी जगह से हटाकर दूसरी जगहों पर रखा गया था जहाँ ऊपर के छाजन में छेद न था।“ (अनत 1999 : 56)। यह गरीबी मॉरिशस के मजदूरों को उन नियुक्ताओं की देन है जिनके बहकावे में पड़कर कभी इनके पूर्वज भारत में सभी कुछ छोड़कर मॉरिशस आ गए थे। अपने घर-बार और ज़मीनों से दूर उन्हें मॉरिशस में गुलाम और बैल की तरह काम करना पड़ा। हाड़-तोड़ मेहनत के बल पर अभाव, दुख और दारुण यंत्रणाओं को सहते हुए उन्होंने यहाँ अपने लिए थोड़ी बहुत जमीन बना तो ली लेकिन उस पर बड़े लोगों की बुरी नजर रहती थी। अपने भारतीय संस्कार वश वे फिर भी इस जमीन को अपनी माँ मानते थे और चाहते थे कि प्राण चला जाए पर जमीन का टुकड़ा न जाए। लेकिन हीरा को परिस्थितिवश जमीन का वह टुकड़ा भी गिरवी रखना पड़ता है। जब वह जमींदार से धोखा खाता है तो उसे बार-बार अपने पूर्वजों की कहानी याद आती है। “एक तरह से उन्हें भी तो इसी तरह का धोखा हुआ था। वे भारत छोड़कर यहाँ इसीलिए पहुँचे थे कि वहाँ के पत्थरों के नीचे से वे सोना निकाल पाते पर वह उनके साथ भाग्य का करारा व्यंग्य था। आज हीरा भी अपने को उसी व्यंग्य का शिकार समझ रहा था और अपने को सांत्वना भी दे पा रहा था तो उन्हीं पुरानी बातों को सोचकर।“ (अनत 1999 : 106)। हीरा और सोम अपनी भलमनसाहत के चलते विपरीत परिस्थितियों और शोषण के दुष्चक्र में फँस जाते हैं। आपसी संबंधों की दृढ़ता और कौटुंबिक मूल्यों के प्रति आस्था उन्हें इस विषम संघर्ष में विजय दिलाती है तो खेती से मुँह मोड़ रहा सोम अपने भाई से मिले इस मंत्र से प्रेरित होकर निःशंक भाव से खेतों की ओर लौट आता है कि “हमें अपने खेत का पूरा विश्वास करना चाहिए। हमारी सब आशाएँ उसी पर हैं और फिर उससे अच्छा हमारे लिए कोई भी दूसरा साधन नहीं हो सकता। सच मानो सोम, इस बार मेरे भीतर बहुत बड़ा आत्मविश्वास है। हमारा पसीना इस बार अवश्य रंग लाएगा।“ (अनत 1999 : 138)। इस बहाने लेखक ने वर्तमान मॉरिशस के विकास में खेतिहर मजदूरों और छोटे किसानों के योगदान को भली प्रकार रेखांकित किया है। साथ ही शिक्षित बेरोजगारी की इस समस्या को भी उभारा है कि अच्छे खासे प्रमाण पत्रों के बावजूद लोगों को ढंग की नौकरी नहीं मिल पाती है। 
लाल पसीना (1977) इतिहास की चक्की में पिसकर रह जाने वाले ऐसे पात्रों की गाथा है जिन्होंने मर खप कर मॉरिशस का इतिहास रचा है। मॉरिशस के द्वीप के रूप में जन्म लेने से लेकर एक मजबूत अर्थ व्यवस्था बनने तक की दास्तान इसमें कही गई है। यह पूरी दास्तान विषम परिस्थितियों से संघर्ष की दास्तान तो है ही, शोषण और प्रतिरोध की दास्तान भी है। इस दास्तान के पन्ने भारतीय मजदूरों के खून पसीने से कुछ इस तरह भीगे हुए हैं कि उन्हें आग भी नहीं जला सकती। यह खून पसीना मॉरिशस की जमीन में इस तरह जज़्ब हो गया है कि आज भी धरती की सोंधी गंध उसकी गवाही देती रहती है। (अनत 1977 : 14)। सोने का लालच देकर इन मजदूरों को उसी तरह धोखे से यहाँ लाया गया था जिस तरह मारीच स्वर्णमृग बनकर राम को पंचवटी से दूर ले गया था। फूलो भी तीन सौ व्यक्तियों के साथ समुद्री जहाज से यही सपना लेकर वहाँ उतरी थी। (अनत 1977 : 86)। उन सबके लिए जो परीयों का देश था उसका यथार्थ बेहद डरावना निकला। भारत के किसी सुदूर प्रांत में अपना सब कुछ छोड़ आए इन भारतवंशियों ने अपनी जड़ों को बचाए रखने के लिए भी जी जान से यत्न किए। गोरे मालिकों को पसंद नहीं था फिर भी उन्होंने रामायण’, हनुमान और कालीमाई को अपने अस्तित्व के साथ जोड़कर रखा। कैदी हैं तो क्या हुआ? भारत का जीवन दर्शन फिर भी मन प्राण में बसा हुआ है – “हम सबन मिलके गाँव में कालीमाई की स्थापना करना चाहत रहीं पर कोठी वाले गोरवा ने आज्ञा ही ना दी... साले मौगों को मालूम नाहीं कि राज करते राजा जइहें, रूप करते रानी, बेद पढ़ते पंडित जइहें, रह जयहीं नेक निशानी।“ (अनत 1977 : 16)। लेखक ने यह भी दर्शाया है कि अंग्रेजों द्वारा मॉरिशस को जीतने के पहले से ही शोषण की परंपरा वहाँ जम चुकी थी। यदि कोई मजदूरों को संगठित करने या शोषण का विरोध करने के लिए प्रेरित करता तो इसे जमींदारों के खिलाफ विद्रोह माना जाता और उस व्यक्ति को कैदखाने में डालकर भीषण यातनाएँ दी जाती थीं। उपन्यास का पात्र कुंदन लगातार यह अनुभव करता है कि संगठित न होने के कारण ही मजदूरों की यह दुर्दशा है। इसीलिए वह मजदूरों के भाईचारे के लिए सतत प्रयत्नशील है। लेखक ने अनेक स्थलों पर यह दर्शाया है कि मजदूरों की दशा कुत्तों से भी बदत्तर थी। नदी के जिस ठौर पर साहब के कुत्ते को नहलाया जाता था वहाँ नहाते पकड़े जाने पर किसन को नंगी पीठ पर दस कोड़े की सजा मिली थी। (अनत 1977 : 53)। ऐसे श्रम और शोषण से आर्थ लोक के लिए एक ही शरणस्थली थी। जहाँ पहुँचकर ये “लोग दिन-भर की कड़ी मेहनत की थकान को सचमुच ही भूल जाते... कोड़ों और बाँसों की बौछार के दर्द भी अपने-आप कम हो जाते थे। गा-बजा-कर तथा खुली हवा को अपनी फरियाद सुना कर ये सभी मजदूर आश्वासन पा जाते। भीतर और बाहर की पीड़ा को कम करने के लिए इससे अच्छा उपाय उनके लिए दूसरा था ही नहीं। वह उल्लास उनके अपने ढंग का रो-तड़पकर अपनी कुंठा को मिटाना था। उसे भूल जाना था।“ (अनत 1977 : 52)। सहने की भी एक हद होती है। जब ऐसी स्थिति असह्य हो गई कि जरा-जरा सी बात पर मजदूरों का खाना कुत्तों और सूअरों के सामने डाल दिया जाता और उन्हें भूखों मरने की सजा दी जाती तो किसन का गुस्सा फूट ही पड़ा – अब हद हो गई। अब हमारा एक ही इरादा है। आप लोग यह जान लें कि हम लोग भी आदमी हैं। और आदमी के साथ आदमी की तरह पेश आना चाहिए।“ (अनत 1977 : 115)। उसने संगठन और विद्रोह का बिगुल तो बजा दिया लेकिन अत्याचार का क्रम रुख नहीं पाया। अमानुषिकता का नग्न नृत्य तो तब देखने को मिला जब स्पेन के किसी जहाज द्वारा वहाँ आई महामारी को भारतीय मजदूरों के बीच बिखरने दिया गया। बस्ती के आधे लोग मर गए। उन्हें अन्न और दवा के लिए अपनी स्त्रियॉं को गोरे साहबों की अंकशायिनी बनाना पड़ा। संपूर्ण जाति की रक्षा के लिए ज़ीनत को रेमो साहब के बेटे के पास भेजते समय उसके पति दाऊद का यह कथन अत्यंत कारुणिक है कि “एक बहुत बड़े उद्देश्य के लिए थोड़ी देर आँखें मूँद लेने से क्या अनर्थ हो जाएगा? तुम औरत हो ज़ीनत। और औरत की देह रोटी का कोई टुकड़ा नहीं होती जो किसी के मुँह लगने से जूठी हो जाए। तुम जूठी नहीं होओगी। पर याद रहे, अपने को उसके हवाले करने से पहले सौदा हो जाना चाहिए। तुम पहले उसे राजी कर लेना, फिर अपने को समर्पित करना। (अनत 1977 : 167)। दाऊद और ज़ीनत की यह त्रासदी मॉरिशस के इतिहास की नींव में दबे हुए साधारण आदमी के बलिदान की उदात्त गाथा है। साथ ही लेखक की स्त्री विमर्श की गहरी समझ भी इससे व्यंजित होती है। धीरे-धीरे सब की समझ में स्वामी की यह बात आने लगती है कि “हमारी रक्षा के लिए कोई आगे नहीं आएगा। हमें अपनी रक्षा खुद करनी होगी। हमारी लड़ाई तो कोई दूसरा लड़ नहीं सकता। अपनी लड़ाई हमें खुद लड़नी है।“ (अनत 1977 : 218)। और मदन तथा मीरा मजदूरों की इस अपनी लड़ाई के अगुआ बन जाते हैं। वे लोगों को यह समझाने में सफल होते हैं कि मॉरिशस के खेतों में उनके द्वारा उगाए गए गन्नों की पोर में रस के रूप में भरी हुई समृद्धि के वास्तविक अधिकारी वे स्वयं हैं जिससे उन्हें कोठी के मालिकों ने वंचित कर रखा है। एक-एक कर आस-पड़ोस के गाँवों के मजदूर संगठित होते हैं। भाग्यवाद के अंधेरे से वे लोग बाहर आते हैं। लेकिन मालिकों का क्रोध मदन पर उतरता है – उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं। (अनत 1977 : 339)। इसके बावजूद वह पराजित नहीं होता। मनु और श्रद्धा की तरह मदन और मीरा जागरण के पुरोधा बनते हैं। वे अब तक अभाव और अन्याय सहकर घुट-घुट कर जीने वाले मजदूरों को अस्मिता की रक्षा की लड़ाई में एकजुट करने में कामियाब होते हैं।                                        
अपनी ही तलाश (1982) में लेखक ने मॉरिशस की युवा पीढ़ी पर आधुनिकता और बाजारवाद के भटकाव भरे प्रभाव को दर्शाया है। दूसरे देशों के अबाध आगमन के कारण मॉरिशस में बाजारवाद भारत की तुलना में काफी पहले अपने विकराल रूप में आता हुआ दिखाई देता है। शायद इसी का एक प्रभाव इस रचना पर यह भी पड़ा है कि इसके पृष्ठ-पृष्ठ पर नशा और सेक्स बिखरा पड़ा है। अकेलेपन और अस्तित्ववाद के खोल को भेदने पर यह समझ में आता है कि अपनी ही तलाश एक ऐसे देश की प्रतीक कथा भी है जो हर स्तर पर दूसरों के सहारे जीता है लेकिन अपनी जड़ों की तलाश, अपनी अस्मिता की खोज के दंश को हर क्षण अपनी आत्मा को खरोंचते पाता है, गढ़े हुए काँटे की तरह।“ (अनत 1982 आ : आवरण)। इसी क्रम में लेखक की सामाजिक और आर्थिक चेतना भी अभिव्यंजित होती चलती है। एल एस डी के नशे में ही सही लेकिन आख्याता अपनी पीढ़ी के राजनीति द्वारा शोषण को भी बखूबी उकेरता है। वह महसूस करता है कि स्वतंत्रता के बाद की युवा पीढ़ी को राजनैतिक विश्वास ने उसी प्रकार जी भर कर छला है जिस प्रकार पहले की पीढ़ी को धार्मिक विश्वासों ने छला था। धार्मिक विश्वासों ने उस पीढ़ी को सामाजिक सक्रियता से छिन्न करके आत्मलीन बना दिया था तो राजनैतिक विश्वासों ने इस पीढ़ी को अपने आप तक सिकोड़ने का काम किया है। यह आधुनिक पीढ़ी नशे और सेक्स की शरण खोजती है ठीक वैसे ही जैसे पहले की पीढ़ी के लोग “अपने लिए आत्मशांति के वास्ते दूसरों को पीछे छोड़ गए - यातनाओं को भुगतते रहने के लिए।“ (अनत 1982 आ : 63)। समाज में व्याप्त आत्मनिराशा, कुंठा, घुटन और आत्महत्या सहित तमाम तरह के नकारवाद की जड़ शायद इन्हीं विश्वासों में है। इसीलिए मिशलीन पूछती है कि दूसरों की दुनिया और दूसरों की ज़िंदगी हम क्यों जिए? वह ऐसी ज़िंदगी को डूब जाने देना चाहती है जो दूसरों के अंधविश्वास, निजी कानून और रिवाजों के हाथों गिरवी है। युवा पीढ़ी के समाज के प्रति विद्रोह को समझने के लिए मिशलीन के मानस को पढ़ना काफी है। यह स्थिति मॉरिशस में विदेशी मुद्रा अर्जित करने की होड़ से भी जुड़ी हुई है। होटल व्यवसाय इसका केंद्र है जिसे पुलिस का भी सहयोग प्राप्त है। गाँव के नवजवान पर्यटन उद्योग के सहारे पसरती अपसंस्कृति का विरोध करते हैं तो तंत्र उन्हीं को खलनायक बना देता है। (अनत 1982 आ : 66)। आख्याता को सामाजिक-आर्थिक वर्ग अंतराल का भी स्पष्ट बोध है। अंधाधुंध आधुनिकीकरण ने समाज को आर्थिक स्तर पर दो परस्पर विरोधी वर्गों में बाँट दिया है। एक विवश और अधिकारहीन वर्ग है जबकि दूसरा समर्थ और अधिकार संपन्न वर्ग है। यह एक नई तरह की गुलामी है जो आर्थिक शक्तियों पर निर्भरता से पैदा हुई है। आख्याता के ये शब्द इस नई व्यवस्था की प्रामाणिक व्याख्या करते हैं – “मैं जो जीता हूँ उसके क्षण-क्षण के मालिक तुम हो। इस दुनिया में मेरे तरह भी बहुत से लोग हैं और तुम्हारी तरह भी। बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो जिस जीवन को जीते हैं वे उनके अपने नहीं होते। और बहुत से ऐसे लोग होते हैं जिनकी मुट्ठी में दूसरों का जीवन बंधक होता है।“ (अनत 1982 आ : 161)। 
मॉरिशस में आप्रवासी भारतीय मजदूरों की 150 वीं वर्षगाँठ पर लिखे गए उपन्यास गांधी जी बोले थे (1984) में लेखक ने “प्रवासी भारतियों के शोषणग्रस्त जीवन के अंधकार को चीरकर उगते स्वाधीन चेतना के सूर्य की कथा प्रस्तुत की है। अपने बचपन में कथानायक परकास, दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट रहे गांधी जी को सुनता है। उन्हीं के आदर्श से प्रेरित होकर वह अन्याय के अस्वीकार के लिए शिक्षा व राजनीति को स्वीकार करता है तथा मानवोचित अधिकारों की प्राप्ति के लिए शोषित मजदूर किसानों को संगठन और संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। मॉरिशस के समाज में उस औपनिवेशिक दासता के काल में भारतीयों की स्थिति तथा मर्मांतक दरिद्रता के बीच अपनी ही बहुविध जड़ता और गौरांग सत्ताधीशों से उनके संघर्ष को इस उपन्यास में समग्रतः अभिव्यक्त किया गया है।“ (शर्मा, पूर्णिमा (2011). उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना. नई दिल्ली : लेखनी. 46)। इस उपन्यास में एक स्थान पर यह द्वंद्व उपस्थित होता है कि व्यक्तिगत सुख, गृहस्थ जीवन और सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक महत्वपूर्ण है या धर्म के नाम पर समाज को तोड़ने वाली शक्तियों के खिलाफ़ संघर्ष करना अधिक बड़ी सार्थकता है। उपन्यास के केंद्रीय पात्र प्रकाश और मीरा समाज को संगठित रखने के लिए संघर्ष का मार्ग चुनते हैं। वे मजदूरों के संघर्ष को कमजोर करने के षड्यंत्रों का जमकर मुक़ाबला करते हैं। गिरफ्तार मजदूरों को छुड़ाने के लिए सत्याग्रह का मार्ग भी अपनाते हैं। अन्याय के विरुद्ध लड़ाई के लिए पत्रकारिता का भी सहारा लेते हैं जिसकी प्रेरणा उन्हें वकील माणिकलाल से प्राप्त होती है। (अनत 1984 : 167)। जनता की एकता का आह्वान करने वाला प्रकाश गांधी जी के संदेश से निरंतर प्रेरणा प्राप्त करता है। वह महिलाओं को राष्ट्रीय कार्यों में सक्रिय रूप से भागीदारी के लिए प्रेरित करने का काम मीरा को सौंपता है। वह चाहता है कि महिलाएँ इस बात को समझें कि अलग-अलग होकर हम न तो इस देश में अपनी इज्जत करा पाएँगे और न ही अपने अधिकार हासिल कर सकेंगे। उसे यह चिंता है कि एक समुदाय के रूप में एकता न टूटने पाए क्योंकि जिस दिन यह एकता टूट गई उस दिन वे किसी मोल के नहीं रहेंगे। उसकी इच्छा है कि मॉरिशस में शोषण के खिलाफ खड़े होने के लिए सिर्फ भारतीयों को ही नहीं बल्कि प्रत्येक मजदूर को एक सूत्र में बंध जाना चाहिए। उसकी मान्यता है कि “मजदूर तो अपने आप में एक विशाल जाति है। पूँजीपति तो हमेशा यह चाहते रहे हैं कि मजदूर जाति कभी एक जाति के रूप न रहे क्योंकि धनपतियों का कल्याण इसी में है कि मजदूर वर्ग मुसलमान, क्रियोल, हिंदू आदि अलग-अलग धर्मों में बंटा रहे। अब तो हिंदू भी हिंदू नहीं रहा। ... कभी जात-पाँत में बंट रहा है तो कभी प्रांतों के साथ जुड़कर विभाजित हो रहा है। यदि यही चलता रहा तो इससे लाभ उठाकर धनवान और धनी बनता चला जाएगा तथा गरीब और गरीब बनता रहेगा।“ (अनत 1984 : 140)। सामाजिक एकता और राजनैतिक जागरूकता की इस जरूरत को प्रकाश ने सबसे पहले तब महसूस किया था जब गोरों के सिपाहियों और कुत्तों ने दो सौ से अधिक आदमियों के सामने नोच-नोच कर देवराज चाचा की हत्या कर दी थी। लेकिन गाँव का कोई भी आदमी इस क्रूर कांड के विरोध के लिए आगे नहीं आया था। प्रकाश ने क्रमशः यह समझा कि इसका कारण कमजोरी नहीं भय था। इसीलिए वह स्वतंत्रता की चेतना को जगाने के लिए मजदूर संघ का गठन करते हुए इस बात पर सबसे अधिक ज़ोर देता है कि “आप में से किसी को डरना नहीं है। इस बस्ती में जो कुछ होता रहा है वह आप लोगों के इस तरह डरने की वजह से। यहाँ की कोठी के मालिक को न तो कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार है और न ही किसी मजदूर को खरगोश समझकर उसका शिकार करने का। पुलिस का काम जनता की सुरक्षा है न कि हत्यारे की सुरक्षा।“ (अनत 1984 : 159)। इस प्रकार इस उपन्यास में आर्थिक वर्ग चेतना प्रखर सामाजिक और राजनैतिक चेतना के रूप में मुखर हुई है। 
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अभिमन्यु अनत के साहित्य में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रश्नों की गहरी समझ परिलक्षित होती है। वे एक ओर जहाँ उन तमाम त्रासद स्थितियों की गवाही देते हैं जिनसे मॉरिशस के खेतों में सचमुच सोना उपजाने वाले भारतवंशियों को गुजरना पड़ा है। वहीं दूसरी ओर उस जिजीविषा का भी पता देते हैं जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति में गहरे पैठी हुई हैं। लेखक की आर्थिक समझ और वर्ग चेतना बेहद साफ और निर्भ्रांत है। इसीलिए वह भारतवंशी मजदूरों के वर्ग शत्रु की पहचान कराने और उससे टकराने का जज्बा पैदा करने में कामियाब है। अंततः, इस परिप्रेक्ष्य में कैक्टस के दाँत की कविता कुहासे में द्रष्टव्य है -         
        कुहासे को गले में लपेटे
        झूल रहा आदमी 
        सहम गई है हवा संकुचित अँधियारे में 
        सूरज को ओढ़ा आया है आदमी 
        एक काली चादर 
        सेंहुड़ पर रख आया है नवजात शिशु को 
        तान रहा आदमी 
        समय को प्रलय-रेखा के उस पार 
        आपाधापी में समय जा गिरा 
        कड़ाह के खौलते पानी में 
        रेत के पहाड़ पर ध्वजा गाड़ आया 
        दहाड़ते ज्वारभाटे के मुँह में 
        चिराग जला आया आदमी 
        दम तोड़ते परिंदे के डैनों को 
        अपने में जोड़कर 
        ऊपर जा पहुँचा उड़कर आदमी 
        विस्फोट के बाद ताकि 
        देख सके वह नीचे के 
        प्रज्वलित दृश्यों को 
        अपनी साँसों के कुहासे में!
                    (अनत 1982 अ : 2) 
       
संदर्भ ग्रंथ 
  1. अनत, अभिमन्यु (1972, 1999 तृतीय आवृत्ति). एक बीघा प्यार. नई दिल्ली : राजकमल 
  2. अनत, अभिमन्यु (1977, 1997 आवृत्ति). लाल पसीना. नई दिल्ली : राजकमल 
  3. अनत, अभिमन्यु (1982 अ). कैक्टस के दाँत. दिल्ली : ज्ञान भारती
  4. अनत, अभिमन्यु (1982 आ). अपनी ही तलाश. नई दिल्ली : अक्षर 
  5. अनत, अभिमन्यु (1984). गांधी जी बोले थे. नई दिल्ली : राजकमल 

  • डॉ. ऋषभ देव शर्मा, पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दभाहिप्र सभा। आवास : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश
नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013. rishabhadeosharma@yahoo.com 
  • डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह संपादक : स्रवंति’, असिस्टेंट प्रोफेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500004. neerajagkonda@gmail.com     

1 टिप्पणी:

Priya Raj ने कहा…

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