भूमिका
प्रोफ़ेसर एन. गोपि (1948) समकालीन भारतीय कविता और तेलुगु आलोचना के प्रथम पंक्ति के रचनाकारों में शामिल हैं। उनकी कविताओं का देश-विदेश की 25 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उन्होंने अपने साहित्य अकादमी से पुरस्कृत काव्य 'समय को सोने नहीं दूँगा' के माध्यम से तो प्रभूत यश अर्जित किया ही है, नई काव्य विधा 'नानीलु' के प्रवर्तन के माध्यम से समकालीन तेलुगु मुक्तक काव्य जगत में एक आंदोलन का श्रेय भी अर्जित किया है। 'जलगीतम' जैसी लंबी कविता से उन्होंने जल-चेतना फैलाने के लिए साहित्य के सार्थक उपयोग का अन्यतम उदाहरण प्रस्तुत किया है, तो 'वृद्धोपनिषद' के रूप में वृद्धावस्था विमर्श को नया सकारात्मक आयाम प्रदान किया है। उनके विभिन्न संकलनों से गृहीत कुछ कविताओं का यह हिंदी अनुवाद पाठकों को उनकी काव्य-प्रतिभा के विविध आयामों के दर्शन एक स्थान पर कराने की सदिच्छा से प्रेरित है। 'अनुवाद श्री' के विरुद से सम्मानित हिंदी और तेलुगु के प्रकांड विद्वान और संवेदनशील कवि डॉ. एम. रंगैया ने यह अनुवाद-कार्य अत्यंत समर्पण भाव के साथ संपन्न किया है। निस्संदेह यह कार्य भारतीय साहित्य की श्रीवृद्धि करने वाला तथा तेलुगु-हिंदी-सेतु को और सुदृढ़ करने वाला सिद्ध होगा।
प्रो. एन. गोपि समकालीन कवियों के बीच अपनी विशिष्ट काव्य-शैली के कारण निजी पहचान रखते हैं। वे वक्तव्य और विचारधारा की प्रधानता के इस युग में इस अर्थ में एक अपवाद की तरह हैं कि वे काव्यार्थ को संप्रेषित करने के लिए दैनिक जीवन से जुड़े चित्रों, रूपको, उपमाओं, प्रतीकों और बिंबों की सहायता से अपनी काव्य-भाषा को गढ़ते हैं। सूक्ष्म लक्षणाओं और व्यंजनाओं से लबालब उनकी कविताएँ देखने में बड़ी मासूम लगती हैं, लेकिन तनिक निकट आते ही पाठक को अनुभूतियों के गहन गह्वर में खींच ले जाती हैं। साधारण से साधारण अनुभवों को काव्य-सत्य में ढलते हुए देखना हो, तो एन. गोपि की कविताओं में उसे बखूबी देखा जा सकता है। सड़क हो, या बस स्टॉप, या गुदड़ी, या बगीचा - प्रो. एन. गोपि की सृजनात्मक कल्पना का संस्पर्श पाते ही सब नए-नए अर्थों से अभिमंत्रित विंबो में बदल जाते हैं। आँसू, काल (समय भी, मृत्यु भी), वर्षा और सूरज तो उनकी कविताओं के बीज-शब्द हैं ही; किसान, मजदूर, गाँव, शहर, भीड़ और प्रकृति के विभिन्न उपादान भी उनकी कविता के सर्व-परिचित प्रस्थान-बिंदु हैं, जहाँ से वे अपने पाठक को जीवन-यथार्थ और उसके पार तक की अंतरिक्ष यात्रा पर ले जाते हैं। यहाँ कवि और उसका परिवेश अलग-अलग नहीं रह जाते, बल्कि बिंब-प्रतिबिंब-भाव से एक दूसरे में गुँथ जाते हैं, मथ जाते हैं।
इस संकलन की कविताओं का एक मुख्य स्वर स्मृतियों का भी है। वे स्मृतियाँ हैं - रिश्तों की, परिवार की और लोक की। कहना न होगा कि आज के मनुष्य के हाथ से स्मृतियों की यह संपदा छूटती जा रही है। इस स्मृतिविहीन होते जा रहे उत्तरआधुनिक और अमानुषिक समय में कवि प्रो. एन. गोपि इन स्मृतियों को और मनुष्यता को केवल सहेजते और पुनः पुनः सिरजते ही नहीं हैं, अगली पीढ़ी को सौंपते भी हैं
"कोई भी कल हो शायद मैं न रहूँ।
यदि कल सूरज उदित हो तो
कहिए कि निमिलीत मेरे नेत्रों में
आर्द्र एक अश्रु-बिंदु
बचा रह गया है।
"चाँद यदि दिखाई दे तो
अवश्य कहिए कि वह
किरणों का जाल बिछा रहा है लेकिन
भीतर एक छोटी मछली
अभी तक छटपटा रही है।
"… … …
कल की पीढ़ियों से
विस्तार से कहिए कि
मेरा अदृश्य होना मरण नहीं।
इस मिट्टी में
अक्षरों को बिखेरकर गया हूँ मैं।"
इसके बाद कहने को क्या बचता है?
समस्त शुभेच्छाओं सहित
ऋषभदेव शर्मा
परामर्शी (हिंदी),
मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद-500032
मोबाइल : 80 7474 2572
23 दिसंबर, 2019
1 टिप्पणी:
सार्थक नोट के लिए आपका हार्दिक आभार सर |
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