भूमिका
"तेरा मेरा साथ रहे" (2019, कानपुर: माया प्रकाशन) डॉ रामनिवास साहू (1954) का नया उपन्यास है। इसकी कथा स्त्री-पुरुष संबंध के अलग-अलग रंग के धागों से बुनी गई है। सरल रेखा में चलती इस कथा की नायिका भारतीय समाज की एक सामान्य स्त्री है। स्त्री के रूप में वह सामान्य है, लेकिन उसकी जीवन दशाएँ असामान्य हैं। हँसते-खेलते दांपत्य की कामना में विवाह की दहलीज पर पहला कदम रखते ही उसे अपने पति के असामान्य आचरण से दो-चार होना पड़ता है। औरतों से शर्माने वाला यह पुरुष एक रात खुद यह स्वीकार करता है कि वह नपुंसक है। उसकी यह नपुंसकता असाध्य है। इसके चलते पत्नी को बाँझ होने का लांछन ढोना पड़ता है। दोनों को घर छोड़ना पड़ता है। पर अधूरापन दोनों को ही राहु की छाया बनकर घेरे रहता है। सारे अपराध बोध के बावजूद, लेकिन, यह पुरुष भला मानुस है। सारे अभाव के बावजूद यह स्त्री समझदार गृहिणी है। उसका गऊपन पति को और भी अपराधी बना देता है। पत्नी तलाक लेने को तैयार नहीं होती, तो पति मर जाने, आत्महत्या, का पाखंड करता है।
यहाँ से स्त्री सशक्तीकरण के सरकारी उपायों का लेखा-जोखा शुरू होता है। एक और पुरुष उस स्त्री के जीवन में आता है। पुनर्विवाह और संतान भी। बाँझ होने का लांछन धुला तो सही, लेकिन लेखक ने एक और बड़ा तूफान क्रूरतापूर्वक रच डाला।
क्रूरता इस उपन्यास की उन स्त्रियों में भी पूरी कटुता के साथ विद्यमान है, जो अपने आचरण से उस युगों पुराने मिथ को चरितार्थ करती हैं कि स्त्री की शत्रु होती है। कई बार लगता है, लेखक स्वयं स्त्री के प्रति क्रूर हो रहा है। पर, यही तो इस तमाम किस्से की खूबसूरती है। एक पक्ष लेखक का है, जिसके केंद्र में स्त्री की पूजा का भाव है। दूसरा पक्ष उस तथाकथित पंथ का है जो स्त्री को पापमय मानता है और अबोध युवकों को नपुंसक बना देता है। इन दो पक्षों के द्वंद में ही स्त्री-पुरुष संबंध की यह कथा पल्लवित होती है।
- ऋषभदेव शर्मा
8074742572
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