आचार्य पी.आदेश्वर राव (ज. 20 दिसंबर, 1936) दक्षिण भारत में हिंदी के उन आचार्यों में अग्रणी हैं जिन्होंने अपनी मौलिक साहित्य सर्जना के बल पर देश भर में प्रभूत यश अर्जित किया है। वे ‘गुरूणाम् गुरु’ हैं। हिंदी भाषा और साहित्य उनकी रग-रग में रमे हैं। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भाषा, साहित्य और हिंदी की भाषिक संस्कृति का लंबे समय तक अध्ययन करके उसे इस तरह आत्मसात कर लिया कि दक्षिण में अपने शिष्यों की कई-कई पीढ़ियों के लिए वे स्वयं हिंदी संस्कृति के पर्याय बन गए हैं।
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ॐ आदेश्वराय नमः
(आचार्य पी.आदेश्वर राव जी का
अभिनंदन ग्रंथ)
संपादक : आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद
प्रकाशक : माया प्रकशन,
कानपुर
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पुरुगुल्ला आदेश्वर राव ने दक्षिण भारत में हिंदी की सृजनात्मक परंपरा को आगे बढ़ाया। उन्होंने मौलिक लेखन भी किया, अनुवाद भी किया; और खूब किया। ‘अंतराल’, ‘धार के आर-पार’, ‘वातायन ये प्रेम सौध के’ – उनके तीन मौलिक काव्य संकलन हैं। उन्होंने अनेक कविताओं का अनुवाद तेलुगु से हिंदी में करके हिंदी और तेलुगु के बीच साहित्य-सेतु का निर्माण किया। इस दृष्टि से तेलुगु उपन्यास ‘पंडित परमेश्वर शास्त्री की वसीयत’ और ‘मोहभंग’ के अनुवाद भी उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा उन्होंने समीक्षा के क्षेत्र में भी अनेक कृतियों की रचना की। उनके द्वारा संपादित ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य के विकास में दक्षिण का योगदान’ बार-बार संदर्भित ग्रंथ है। दक्षिण भारत के हिंदी साहित्य को समझने के लिए वह एक अनिवार्य संदर्भ सामग्री है। एक भाषाशास्त्री के रूप में भी उन्होंने हिंदी तथा द्रविड भाषाओं के समानरूपी भिन्नार्थी शब्दों पर जो अपना अध्ययन प्रस्तुत किया है, वह भी अपना सानी नहीं रखता।
ऐसे आचार्य पी.आदेश्वर राव के नाम और काम से तो मैं दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में आने से बहुत पहले ही परिचित हो चुका था। लेकिन उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे 1990 में चेन्नै आने पर प्रो. के. रामा नायुडु के सौजन्य से ही प्राप्त हुआ। प्रथम साक्षात्कार से ही उनकी जो छवि मेरे मन में बनी, वह आज भी ज्यों की त्यों है। इस छवि की सबसे पहली विशेषता है इसका उदात्त खुलापन। मैं प्रो. पी. आदेश्वर राव को एक ऐसे उदात्त चित्त व्यक्ति के रूप में जानता हूँ जिसके ठहाके अपने मन को भी निर्मल करते हैं और दूसरों को भी निष्कलुष बनाने की शक्ति रखते हैं। पहली ही मुलाक़ात से मेरी समझ में यह आ गया कि आदरणीय आदेश्वर राव जी साहित्यिक किस्सों और संस्मरणों की जीवित खान हैं। और जब वे कोई किस्सा सुनाते, किसी संस्मरण का डूबकर विवरण देते तो उनके शब्दों में भाषा का ऐसा अविरल प्रवाह फूट पड़ता कि लगता शायद इसे ही वर्ड्सवर्थ ने वह सुंदर कविता कहा है जो अत्यंत भावावेग के साथ कवि के मानस से अपनी प्रबलता के कारण अनायास ही फूट पड़ती है। कथन की यह शैली और भाषा का यह प्रवाह जो प्रो. पी. आदेश्वर राव के व्यक्तित्व का ऐसा हिस्सा है जो किसी को भी विस्मित कर सकता है।
उसके बाद जाने कितनी बार ‘गुरु जी’ से मिलने का अवसर मिला। हाँ, मैं उन्हें आरंभ से ही ‘गुरु जी’ कहता रहा हूँ। बैठते ही कुछ ही देर में वे अतीत में खो जाते हैं। आप चाहें तो उन्हें अतीतप्रेमी और नॉस्टेल्जिक भी कह सकते हैं। शायद इसीलिए छायावाद उनका अत्यंत प्रिय काव्यक्षेत्र है। वे प्रो. के. रामा नायुडु, प्रो. चंद्रभान रावत, प्रो. रवींद्र कुमार जैन, प्रो. एस. टी. नरसिंहाचारी, कथाकार रमेश चौधरी आरिगपूडि और कवि आलूरि बैरागी चौधरी के जाने कितने संस्मरण धाराप्रवाह सुनाते चले जाते थे। सबसे अधिक प्रिय उन्हें आलूरि बैरागी के संस्मरणों में रहना है। एक बार यदि वे बैरागी की यादों में चले गए तो वहाँ से उन्हें वापस लाना आसान नहीं है। दिन बीत जाए, रात बीत जाए, लेकिन मजाल है कि आदेश्वर राव आलूरि के काव्यकुंज से बाहर आना चाहें। उन्होंने बैरागी के बारे में इतनी बार, इतनी घटनाएँ और इतनी काव्यपंक्तियाँ सुनाई हैं कि मेरे मन में कवि बैरागी का एक जीवित चित्र बन गया है। यह चित्र एक ऐसे फक्कड़ रचनाकार का है, जो अपने लेखकीय अहं में निराला से तुलनीय है। प्रो. राव ने अनेक शोधार्थियों को बैरागी पर शोध करने के लिए प्रेरित किया है। उनकी रचनाओं का संपादन और अनुवाद भी किया है। एक बार उन्होंने बताया कि उन्होंने विदेश में कभी अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाक़ात होने पर उन्हें घंटों बैरागी की रचनाएँ और अनुवाद सुनाए थे। आदेश्वर राव जी की स्मरण शक्ति से किसी को भी ईर्ष्या होनी चाहिए। उन्हें ‘कामायनी’, ‘आँसू’, ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘उर्वशी’ शायद अक्षरशः याद हैं। प्रसाद के नाटकों के लंबे-लंबे संवाद भी उनकी जिह्वा पर नाचते रहते हैं।
एक लेखक और रचनाकार के रूप में, आदेश्वर राव द्वंद्व में रहने वाले रचनाकार हैं। द्वंद्व अतीत प्रेम और यथार्थ बोध का। द्वंद्व छायावादी संस्कार और प्रगतिशील चेतना का। द्वंद्व तेलुगु और संस्कृत की काव्य परंपरा तथा अंग्रेजी और हिंदी की काव्य परंपरा का। इस द्वंद्व के ही कारण एक आलोचक के रूप में जहाँ पी.आदेश्वर राव लगातार मार्क्सवादी चिंतक के रूप में अपनी पहचान बनाते हैं, वहीं दूसरी ओर सृजनात्मक लेखन अर्थात काव्य में उनका मन छायावादी काव्यभाषा तक आकर ठहर गया है। वे चाहे बम्मेरा पोतना के ‘भागवत नवनीत’ का अनुवाद करें या अजंता की नई कविता का अनुवाद करें, भाषिक संस्कार उनका वही तत्सम प्रधान छायावादी रुझान वाला रहता है। यदि यह कहा जाए कि स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता और काव्यानुवाद के क्षेत्र में छायावादी काव्य संस्कार को जीवित रखने वाले कवियों और अनुवादकों में प्रो. पी.आदेश्वर राव का स्थान अग्रणी है, तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
1986 में प्रो. राव का कविता संग्रह ‘धार के आर-पार’(पराग प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली-32/ 1986/ 104 पृष्ठ/ 35 रुपये) प्रकाशित हुआ जो उनकी अत्यंत समादृत और चर्चित कृति के रूप में मान्य है। ‘धार के आर-पार’ में उन्होंने अपनी काव्यधारा के दो तटों की चर्चा की है। एक तट प्रेम और सौंदर्यबोध का है, तो दूसरा तट समाज और लोकबोध का। इन दो तटों के द्वंद्व में ही आदेश्वर राव की काव्यप्रतिभा प्रवाहित होती है। फिर भी यदि यह कहा जाए कि प्रेम और सौंदर्य ही उनकी काव्यप्रतिभा के नैसर्गिक क्षेत्र हैं, तो ज्यादती नहीं होगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि समाज और लोक चेतना का तट उन्हें खूब भाया है, लेकिन उस तट पर वे उतना रमते नहीं। प्रेम और सौंदर्य के बोध वाला तट उन्हें बार-बार अपनी ओर खींचता रहता है। वहीं उनका मन सहज विश्राम का अनुभव करता है। इस तट पर कवि की कल्पना-सुंदरी है, प्रेमिका है। लेकिन छायावादी संस्कार के अनुरूप यह सुंदरी, यह प्रेमिका आलोकमयी अधिक है। सदेह होते हुए भी विदेह सी प्रतीत होती है। कवि प्रेयसी के सौंदर्य को जिन परंपरित उपमानों की सहायता से उकेरने की कोशिश करता है, वे क्रमशः सूक्ष्म और उदात्त होते जाते हैं तथा प्रेमिका का चित्र उभरते-उभरते परमतत्व का चित्र बन जाता है। आदेश्वर राव की इस काव्य नायिका के नयन नव नीलोत्पल सरीखे हैं, केश अलिदल की तरह चंचल हैं, चरण शतदल जैसे रक्तिम हैं और कुल मिलाकर उसका रूप मधुर मनोहर है। इससे अधिक मांसलता तो ‘मधुराष्टकम्’ के कृष्ण के चित्र में है। अभिप्राय यह कि आदेश्वर राव का सौंदर्यबोध उज्ज्वल, उदात और सूक्ष्म अप्रस्तुत विधानों से अभिव्यंजित होता है। वे प्रेयसी को पुरुष के नेत्रों से नहीं देखते, कवि के नेत्रों से देखते हैं। कवि के ये भाव-नयन जिस प्रेयसी को तन्मय होकर देख रहे हैं, उसका रूप विमल है और कवि के हृदय में उसने एक स्थायी आग्रह का स्थान बना लिया है- ‘पा चुका हृदय में अमर टेक।‘ अपनी इस अपरूप सुंदरी, काव्य-प्रेरणा रूपी प्रेयसी को पाने की चाह को ‘धार के आर-पार’ में कवि ने बार-बार अलग-अलग प्रकार से व्यंजित किया है। कवि की चाह है कि वह प्रेयसी की कुटिल अलकों में उलझ जाए। वह अपनी प्रेयसी को सारी प्रकृति में दीप्त देखता है। उषा की लालिमा में उसे अपनी प्रिया के दर्शन होते हैं; और यदि कहीं यह प्रेयसी तनिक मंद-मंद मुसका दे, तो कवि अपने अस्तित्व को ही भूल जाता है। प्रेम की आत्म-विस्मरण जैसी यह दशा तब और भी उदात्त भूमि का स्पर्श करती है, क्षितिज का स्पर्श करती है, जब इंद्रधनुष नील घन मंडल से सुशोभित होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ नील घन मंडल स्वयं कवि का व्यंजक है और इंद्रधनुष प्रेमिका का। यह प्रेमी कवि अंधेरे में सोती सजनी को देखते हुए गीत रचने भर की पावन चाह रखता है। जिस प्रेमिका के सौंदर्य और अपरूप स्वरूप को लेकर इतनी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ प्रेमी कवि ने पाल रखी हैं, वह कौन है? इस रहस्य पर से पर्दा कभी उठता ही नहीं। उठ भी नहीं सकता, क्योंकि कवि जिससे प्रेम कर रहा है वह उससे परिचित नहीं है। मिलने की इच्छा है, पर जान-पहचान तो हुई ही नहीं। बस एक अद्भुत सौंदर्य है, जिस पर कवि रीझता है और विस्मित होता है। मिलन भी होता है, लेकिन स्वप्न में; और तब भी यह पता नहीं चलता कि वह है कौन! विस्मित होकर कवि पूछ बैठता है – ‘तुम स्वप्न की अमराइयों में मुझे इस तरह अपने अंक में क्यों बाँध लेती हो? भला तुम स्वर्ग के मधुनंदनों में मुझे अपना प्रेम रूपी अधर मधु क्यों पिलाती हो? इस तरह अपनी लज्जा का अतिक्रमण करके मुझसे प्रेम करने वाली तुम कौन हो? अपना नाम तो बताओ।‘ लेकिन कवि की यह स्वप्नसुंदरी प्रेयसी सपनों के बाहर नहीं आती। वहीं मिलती है, आलिंगन में भरती है, चुंबन और परिरंभण करती है; और पहचान में आने से पहले ही रहस्य के पर्दे के पीछे चली जाती है।
छायावादी भावबोध के ही विस्तार के रूप में मानव सौंदर्य से आगे बढ़कर प्रकृति सौंदर्य की चर्चा भी की जा सकती है। बादल, समुद्र और साँझ के जो मनोरम चित्र कवि आदेश्वर राव ने ‘धार के आर-पार’ की कई रचनाओं में खींचे हैं, वे छायावाद के समय के और बाद के भी कई रचनाकारों की याद दिलाते हैं। कहना न होगा कि इन दृश्यों को शब्दबद्ध करते समय कवि भारतीय प्रकृति-काव्य की संपूर्ण परंपरा से अनुप्राणित प्रतीत होते हैं। इसीलिए उन्होंने बादलों, समुद्रों और संध्या तीनों ही का जीवित मानवीकृत रूप वर्णित किया है। प्रकृति और मनुष्य के बीच बिंब-प्रतिबिंब भाव को भी इन रचनाओं में व्यंजित होते देखा जा सकता है। साथ ही प्रकृति में निरंतर प्रवाहित होने वाली ऊर्जा की प्रेरणा को भी कवि ने शब्दबद्ध किया है।
कवि आदेश्वर राव ने महान कवियों और लोकनायकों के उज्ज्वल चरित्र को उजागर करने वाली कविताओं की भी पूरी शृंखला की रचना की है। इनमें एक ओर सूर, तुलसी, जयशंकर प्रसाद, महाप्राण निराला, सुमित्रानंदन पंत और हरिवंशराय बच्चन सरीखे अनुपम शब्दशिल्पी शामिल हैं, तो दूसरी ओर लालबहादुर शास्त्री और लोकनायक जयप्रकाश नारायण से लेकर चौधरी चरणसिंह, नंदमूरि तारक रामाराव और संजय गांधी तक भारतीय राजनीति के विविध चेहरे भी विद्यमान हैं। कहना न होगा की इन सभी व्यक्तित्वों ने सतत संघर्ष द्वारा अपने-अपने क्षेत्र में सुनिश्चित उत्कर्ष प्राप्त किया। संभवतः इस संघर्ष-तत्व ने ही कवि को इन चरित्रों को अपना काव्य-नायक बनाने की प्रेरणा दी।
अंततः, कवि आदेश्वर राव राजनीति और सामाजिक विसंगतियों पर केंद्रित अपनी कविताओं में अपने समकालीन रचनाकारों से किसी भी प्रकार पीछे नहीं हैं –भले ही वह उनका प्रकृत क्षेत्र नहीं है। उदाहरण के रूप में, लोकतंत्र के मूल्यों के क्षरण और सारे के सारे राजनैतिक परिवेश के प्रदूषण के यथार्थ को व्यक्त करने वाली डॉ. पी.आदेश्वर राव की इन काव्य-पंक्तियों को उद्धृत करते हुए मैं अपने इस कथन को विराम देना चाहूँगा –
चुनाव के उस समरांगण में
विज्ञापन के रंग ढंगसे
प्रलोभनों के जाल बिछाकर
मतदाताओं को उलझाकर
नोटों से वोटों को भरकर
सत्ता को हाथों में लेकर
लागत को सौ बार बढ़ाकर
लोकतंत्र व्यापार बन गया। 000
- डॉ. ऋषभदेव शर्मा
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा।
आवास`: 208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर,
हैदराबाद- 500013 (तेलंगाना)।