प्राक्कथन
डॉ. सत्यनारायण के ग्रंथ “हरियाणा का सामाजिक एवं साहित्यिक परिदृश्य” की पांडुलिपि देखने का सौभाग्य मिला। इस सामग्री से गुजरते हुए मैं जहाँ लेखक की गहन शोध दृष्टि का कायल होता गया, वहीं इस ग्रंथ की नींव में निहित हरियाणा की सामाजिक और साहित्यिक चेतना से अभिभूत भी होता गया। हरियाणा के हिंदी लेखकों द्वारा इक्कीसवीं शताब्दी में रचित-प्रकाशित कहानियों में गुंथे सामाजिक जीवन के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालने वाला यह ग्रंथ आनुषंगिक रूप में हरियाणा के सामाजिक और ऐतिहासिक वृत्त को भी सफलतापूर्वक रेखांकित करता है जिसके कारण इसके अभिप्रेत विषय में पर्याप्त विस्तार और समग्रता का समावेश हो गया है।
यों तो भारत-गणराज्य के एक प्रदेश के रूप में हरियाणा का गठन स्वातंत्र्योत्तर काल में 1966 में हुआ, लेकिन अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपरा और परिपुष्ट जड़ों की दृष्टि से हरियाणा भरत खंड की प्राचीनतम सभ्यताओं के उत्थान-पतन का साक्षी रहा है। सिंधु सभ्यता, वैदिक सभ्यता, कुरुक्षेत्र, गीता का उपदेश, नाथ संप्रदाय, जैन संप्रदाय, सूरदास, गरीबदास, निश्चलदास, सूफी परंपरा – कहाँ तक गिना जाए? हरियाणा की उर्वरा भूमि सभ्यता, संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से भी उतनी ही उपजाऊ रही है जितनी खाद्यान्न के उत्पादन की दृष्टि से। साथ ही, इस सच को नकारना संभव नहीं कि आधुनिक काल में हरियाणा के विविध विधाओं के साहित्यकारों और पत्रकारों की सूची अत्यंत विस्तृत है। इस पूरी परंपरा का अंकन और आकलन करते हुए विद्वान लेखक ने हरियाणा के सामाजिक जीवन के सौंदर्य से पाठक का साक्षात्कार कराया है। हरियाणा की प्राकृतिक सुषमा, समृद्ध अर्थव्यवस्था और सुसंपन्न लोक संस्कृति इसे स्वर्गीय सुखोपभोग की धरती बनाती है। कृषि, उद्योग, राजनीति, खेल और युद्ध जैसे तमाम क्षेत्रों में अपना डंका बजाने वाली हरियाणा की यह धरती जिन संतानों को जन्म देती है उनकी नस-नस में जुझारूपन और स्वाभिमान भरा रहता है। साथ ही, एक विशेष प्रकार की सहज-स्वाभाविक ग्राम्य जीवन की नैसर्गिक सुगंध उन्हें संपूर्ण भूमंडल पर अलग निजी पहचान प्रदान करती है। हरियाणा का यह समाज अपनी आस्तिकता, लोक धर्म में आस्था, विविध संस्कारों की लौकिक परंपरा, सर्वधर्म समभाव की व्यावहारिक चेष्टा और सब का कल्याण चाहने की वसुधैव कुटुंबकम् की उदार मूल्य चेतना का वाहक है। कुल मिलकर, ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ को सटीक कृतार्थता प्रदान करने वाला हरियाणा का समाज सौंदर्य, शौर्य और और औदार्य के मूल त्रिकोण पर अपने अस्तित्व को रूपायित करता है।
डॉ सत्यनारायण ने हरियाणा के सामाजिक जीवन की इन तमाम विशेषताओं के संदर्भ में इक्कीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानी की हरियाणा की फसल की गहन पड़ताल की है और यह दर्शाया है कि हिंदी कहानी की समस्त प्रवृत्तियों और आंदोलनों की आहटें अत्यंत मुखर रूप में हरियाणा के कहानी साहित्य में अभिव्यक्त हुई हैं। अपनी यात्रा में यह कहानी समकालीन समाज के विविधवर्णी परिवर्तनों के सभी आयामों का प्रत्यंकन करती है और इस प्रकार अपनी सामाजिक प्रासंगिकता प्रमाणित करती है।
लेखक ने इक्कीसवीं शताब्दी में सक्रिय इस क्षेत्र के यथासंभव सभी प्रमुख एवं गौण कहानीकारों का सर्वेक्षण एवं उनके योगदान का सूत्रात्मक शैली में जो मूल्यांकन किया है, वह कहानीकारों के एक कोश के लिए भी आधार प्रदान करने में समर्थ है। विवेच्य कहानियों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक पक्षों का विशद एवं सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए डॉ. सत्यनारायण ने यह प्रतिपादित किया है कि हरियाणा के कथाकारों की रचनाएं हरियाणवी मानस के अनुरूप सब प्रकार के बनावटीपन से मुक्त और और समकालीन यथार्थ पर आधारित हैं। उन्होंने इनकी संवेदना के धरातलों की भी गहन विवेचना की है और साथ ही यह भी दर्शाया है कि अपनी मिट्टी से ग्रहण की हुई भाषा का इन कथाकारों ने सृजनात्मक स्वरूप गठित करने में पूर्ण सफलता हासिल की है।
इस विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ के लेखक डॉ. सत्यनारायण गहन अन्वेषी प्रवृत्ति के अध्येता हैं। वे पारदर्शी सरल सहज व्यक्तित्व के स्वामी हैं और शैक्षणिक से लेकर समाज सेवा तक के कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। हँसमुख स्वभाव का यह खिलाड़ी अध्यापक रेडक्रॉस की गतिविधियों में भी निरंतर आगे रहने के लिए सुपरिचित है। अपनी जमीन के लिए ललक, निष्ठा और आत्मीयता से लबालब डॉ. सत्यनारायण ने अपनी प्रकृति के अनुरूप ही इस ग्रंथ को अपनी जमीन के सामाजिक और साहित्यिक परिदृश्य पर केंद्रित किया है। मुझे विश्वास है कि हिंदी जगत में उनके इस ग्रंथ को समुचित सम्मान मिलेगा।
शुभकामनाओं सहित
ऋषभदेव शर्मा
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
एरणाकुलम और हैदराबाद केंद्र
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