शांति लाने में है बहादुरी : ‘संपादकीयम्’
- डॉ. रामनिवास साहू
आज का मानव अपनी सभ्यता के विकास को चरम स्थिति पर पाकर जहाँ गर्व से फूला जा रहा है, वहीं आज के चिंतक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, साधु, ऋषि, मुनि, उपदेशक, रक्षक, संरक्षक, यहाँ तक कि उच्चतम पत्रकार, संपादक संसार के, विश्व के, प्रकृति के यहाँ तक कि संपूर्ण ब्रह्मांड के समक्ष खड़े-पड़े विनाशक अणु-परमाणु बम के भंडारों को देखकर अपनी नींद उड़ाए जा रहे हैं। सचमुच कल क्या होगा? किसको पता? ऐसी परिस्थिति में कोई यह ध्वज फहराता चले कि ‘युद्ध करना नहीं, शांति लाना है बहादुरी’, तो सचमुच स्तुत्य है। इस विचार, दर्शन, सोच, व्यवहार, धर्म, कर्म से ही मानव जाति लुप्त होने से बच सकेगी। संसार में मानव है तो संपूर्ण जीव है, प्रकृति है, साधन है, संपन्नता है, ब्रह्मांड है, लोक है, परलोक है, स्वर्ग है, नरक है। समझदार मानव के चहुँओर चींटी से हाथी, दूब से महावट, धूल से चट्टान सुरक्षित, संरक्षित एवं सुव्यवस्थित है। रे मानव! कुछ तो सुन, पढ़, देख, समझ, फिर बोल, फिर कर। तुम कहीं भी एक नहीं हो। तुम्हारे अनेक होने के क्रम में आज हम सात अरब मानव यत्र तत्र सर्वत्र हैं। कविवर हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में, ‘यह महान दृश्य है/ चल रहा मनुष्य है/ अश्रु, स्वेद, रक्त से/ लथपथ! लथपथ!! लथपथ!!!’
पिछले दिनों मैसूर विश्वविद्यालय के परिसर में ‘प्रवासी हिंदी साहित्य : संवेदना के विविध संदर्भ‘ (मार्च 6-7, 2019) पर विशेष रूप से आमंत्रित साहित्यकार डॉ. ऋषभदेव शर्मा से भेंट हुई, तो आश्चर्यचकित करते हुए उन्होंने मुझे वहाँ लोकार्पित अपनी सद्य:प्रकाशित रचना “संपादकीयम्” (परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद: 2019: 140 रुपये: आईएसबीएन- 97893 84068 790) मंच पर भेंट की। मुझे और भी आश्चर्यचकित करते हुए उन्होंने पन्ने पलटते हुए इस पुस्तक का समर्पण-वाक्य पढ़कर सुनाया, “आदरणीय मित्रवर डॉ. रामनिवास साहू को सप्रेम!” मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं नि:शब्द! धन्यवाद के दो-चार शब्द ही कह सका। पुनः धन्यवाद। पंद्रह दिन बाद पढ़ने के लिए विशेष रूप से बैठा, तो भी मेरा मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। मोरपंख के आधारस्तंभ की तरह ‘संपादकीयम्’ लिखा कवर बहुत कुछ कहता है।
पुस्तकों के अंतिम पृष्ठों में प्रायः सारांश, उपसंहार, मंतव्य आदि के साथ संदर्भ ग्रंथों एवं पत्र-पत्रिकाओं की सूची होती है, जो लेखक को समझने में सहायक होती है। उसी आदत के अनुसार मैंने पुस्तक के अंतिम पृष्ठ को देखा। यहाँ भी मुझे आश्चर्यचकित होना पड़ा। पुस्तक का ‘युद्ध करना नहीं, शांति लाना है बहादुरी’ (पृष्ठ 135-136) शीर्षक अंतिम आलेख अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तथा उत्तर कोरियाई राष्ट्रपति किम जोंग उन के ‘मधुर मिलन’ को चित्रित करते हुए संपूर्ण मानवता को संदेश देता प्रतीत होता है। यही लेखक का मंतव्य है, विश्वशांति के प्रयत्नों का अंतिम परिणाम है, आतंकित समाज, विश्व तथा मानवता का अभिवादन है।
पुस्तक के आरंभ में ही लेखक ने सूचित किया है कि इसमें प्रस्तुत आलेख मूलतः हैदराबाद के समाचार पत्र ‘डेली हिंदी मिलाप’ में प्रकाशित समसामयिक विषयों पर लिखी उनकी संपादकीय टिप्पणियाँ हैं। दो-दो पृष्ठों के इन 61 संपादकीयों को 8 खंडों में विभाजित किया गया है, जो इस प्रकार हैं- स्त्री संदर्भ, लोकतंत्र और राजनीति, जो उपजाता अन्न, शहर में दावानल, व्यवस्था का सच, हमारी बेड़ियाँ, अस्तित्व के सवाल, वैश्विक संदर्भ। लेखक ने अपनी व्यापक सर्वग्राह्य संवेदना से संपूर्ण मानवता के प्रति अपना हृदय स्पंदित किया है तथा अपनी दिव्य दृष्टि से ‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि’ की तर्ज पर मानव को आतंकित, पीड़ित, दलित, कुंठित करने वाली हर घटना का अवलोकन कर साहित्यकार की भाषा शैली एवं बिंब से विवेचित किया है। पुस्तक पठनीयता के उच्चतम शिखर पर है। एक बार अवश्य पढ़ें। शुभमस्तु!
- डॉ रामनिवास साहू, मैसूर
मोबाइल 7489117706.