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शनिवार, 5 जनवरी 2019

साहित्य : सुधारात्मक दृष्टिकोण


साहित्य : सुधारात्मक दृष्टिकोण
- ऋषभदेव शर्मा एवं पूर्णिमा शर्मा

साहित्य की भारतीय अवधारणा ‘सहित’ अर्थात सामाजिकता, सामूहिकता और लोकमंगल के साथ जुड़ी हुई है। साहित्य के प्रयोजनों की चर्चा करते हुए यहाँ ‘शिवेतर’ की ‘क्षति’ का भी  बलपूर्वक आख्यान किया गया है। समाज के लिए जो अश्रेयस्कर है उस पर चोट करना और जो श्रेयस्कर है उसकी पुष्टि करना साहित्य का मूलभूत सामाजिक प्रयोजन है। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि यथार्थ की गहन पड़ताल करते हुए समाज को आदर्श की दिशा में प्रवृत्त करना साहित्य का परम उद्देश्य है। ऐसा करने के क्रम में स्वाभाविक रूप से एक रचनात्मक और सुधारात्मक दृष्टिकोण उभर कर सामने आता है। हिंदी साहित्य के इतिहास का अवलोकन करें तो पता चलता है कि आरंभ से ही यह लोकमंगल प्रधान  रचनात्मक और सुधारात्मक दृष्टिकोण हिंदी साहित्य की मूल प्रेरणा रहा है। गुरु गोरखनाथ, संत कबीरदास, गोस्वामी तुलसीदास और भूषण जैसे आदिकाल और मध्यकाल के साहित्यकारों ने अपनी रचनाधर्मिता के प्रभाव से समाज को सकारात्मक दिशा में प्रेरित करने का सदा प्रयास किया। आधुनिक काल का तो आरंभ ही नवजागरण और सुधार के आंदोलनों के बीच में हुआ जिससे साहित्य में यथार्थ के साथ-साथ आदर्श स्थापित करने की प्रवृत्ति को प्रतिष्ठा मिली। आगे चलकर हिंदी साहित्य में यथार्थ और उसके विविध रूपों का क्रमशः विस्तार हुआ; लेकिन कभी भी साहित्यकार की दृष्टि से यह सामाजिक लक्ष्य ओझल नहीं हुआ कि मनुष्य को रहने के लिए बेहतर व्यवस्था, बेहतर धरती और बेहतर भविष्य की आवश्यकता है। मनुष्य जीवन की इस बेहतरी के लिए साहित्यकारों ने अपने समय के विद्रूप चेहरे का अंकन अवश्य किया लेकिन साथ ही किसी न किसी प्रकार अपनी अभीष्ट बेहतर व्यवस्था की ओर भी इशारा किया।
यहाँ यह भी समझ लेना जरूरी है कि सुधारात्मक दृष्टिकोण से संचालित साहित्यकार उपलब्ध यथार्थ के ध्वंस की अपेक्षा उसकी चिकित्सा और उसके पुनर्निर्माण में विश्वास रखता है। इसीलिए उसका साहित्य समाधान के लिए सुझाव भी प्रस्तुत करता है। दूसरी ओर अपने सामाजिक यथार्थ से अत्यधिक असंतुष्ट होने के कारण जो साहित्य उसे ध्वस्त करके आमूलचूल परिवर्तन चाहता है, उसका लक्ष्य सुधार की तुलना में क्रांति हुआ करता है।  इन दोनों ही प्रकार के साहित्यों की एक बड़ी सीमा यही है कि इनके पास समस्याओं के पूर्व-निर्धारित समाधान होते हैं जो किसी आदर्श अथवा यूटोपिया की स्थापना करते हैं। इससे पाठक द्वारा  अपना पाठ निर्मित करने और अपने समाधान तलाशने की संभावना सीमित हो जाती है। अतः सुधारात्मक दृष्टिकोण की तुलना में या समाधान प्रस्तुत करने वाले साहित्य की तुलना में खुले अंत वाला साहित्य अधिक संभावनापूर्ण होता है। तथापि समाधान प्रस्तुत करने वाला अर्थात सुधारात्मक साहित्य लगातार लिखा जाता रहता है।  इस प्रकार के साहित्य के केंद्र में कोई न कोई ‘समस्या’ होती है।  रचनाकार उस समस्या के विभिन्न आयामों का उद्घाटन करता है, उसके कारणों की पड़ताल करता है और अपनी ओर से कोई संभावित समाधान भी सुझाता है। यही सुधारात्मक साहित्य की रचना-प्रक्रिया है।
केवल भारत ही नहीं संभवतः सभी देशों और समाजों में किसी न किसी रूप में देह व्यापार से जुड़ी हुई सामाजिक समस्या पाई जा सकती है। हिंदी साहित्य में इसे केंद्र बनाकर विभिन्न विधाओं में अनेक कृतियों की रचना हुई है। यहाँ इस समस्या पर सुधारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाले तीन उपन्यासों पर चर्चा की जा रही है। 
कथा सम्राट प्रेमचंद (1880 1936) ने अपने पहले उपन्यास ‘सेवासदन’ (1916) में वेश्या जीवन  को केंद्र में रखा है। इस उपन्यास में दर्शाया गया है कि भारतीय समाज में प्रचलित दहेज प्रथा किस प्रकार भोली-भाली लड़कियों को नारकीय जीवन में धकेल देती है।  लेखक ने गरीबी और विलासिता पूर्ण जीवन की ललक के द्वंद्व को उभारते हुए स्त्री-पुरुष संबंधों के भी अर्थ-केंद्रित होते जाने के क्रूर यथार्थ को अत्यंत मार्मिक ढंग से उद्घाटित किया है। लेकिन अपने सुधारात्मक दृष्टिकोण के कारण प्रेमचंद तमाम तरह की दानवता के बीच ही मानवता का अंकुर उगाने में भी सफल हुए हैं। भारी दुर्भाग्य झेलने के बाद अंततः इस उपन्यास की नायिका सुमन दुनिया के प्रति उदार हो जाती है और उसका पति भी साधु बनकर अपने दुष्कर्म का प्रायश्चित करता है। सुमन को स्वामी जी के रूप में एक सच्चा मार्गदर्शक मिलता है जो उसे यह बोध कराता है कि “सतयुग में मनुष्य की मुक्ति ज्ञान से होती थी, त्रेता में सत्य से, द्वापर में भक्ति से; पर इस कलयुग में इसका केवल एक ही मार्ग है और वह है सेवा।  इसी मार्ग पर चलो और तुम्हारा उद्धार होगा। जो लोग तुमसे भी दीन-दुखी-दलित हैं, उनकी शरण में जाओ और उनका आशीर्वाद तुम्हारा उद्धार करेगा। कलयुग में परमात्मा इसी सुख-सागर में निवास करते हैं।“ (प्रेमचंद,सेवासदन : 342 343)। वेश्या जीवन की समस्या का समाधान अपराधबोध से ग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेना नहीं है। लेखक ने इसका उपाय समाजसेवा के रूप में प्रस्तावित किया है। अनाथाश्रम का संचालन करने वाले गजानंद सुमन के भीतर की ममतामयी स्त्री को जगाते हैं, “इस अनाथालय के लिए एक पवित्र आत्मा की आवश्यकता है और तुम ही वह आत्मा हो। मैंने बहुत ढूँढा पर कोई ऐसी महिला न मिली जो यह काम प्रेम भाव से करे, जो कन्याओं का माता की भाँति पालन करे और अपने प्रेम से अकेली उनकी माताओं का स्थान पूरा कर दे। वे बीमार पड़ें तो उनकी सेवा करे। उनके फोड़े-फुंसियाँ, मल-मूत्र देखकर घृणा न करे और अपने व्यवहार से उनमें धार्मिक भावों का ऐसा संचार कर दे कि उनके पिछले कुसंस्कार मिट जाएँ और उनका जीवन सुख से कटे। वात्सल्य के बिना यह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। ईश्वर ने तुम्हें ज्ञान और विवेक दिया है, तुम्हारे हृदय में दया है, करुणा है, धर्म है और तुम ही इस कर्तव्य का भार सँभाल सकती हो।“ (वही : 346-347)। इस आश्रम से ही सुमन को अपने जीवन का चरम लक्ष्य मिलता है जिसकी परिणति ‘सेवासदन’ के रूप में चरितार्थ होती है। 
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’(1899-1961)ने अपने पहले उपन्यास ‘अप्सरा’(1931) में एक अलग अवलोकन बिंदु से वेश्या जीवन को देखा है।  गंधर्व जाति और अप्सरा के रूपक का समावेश करते हुए लेखक ने रूपजीवा कनक की इस विवशता को उभारा है कि उसे प्रेम करने का अधिकार नहीं है। सर्वेश्वरी अपनी पुत्री कनक का पालन-पोषण इस प्रकार करती है कि  उसके मन में पुरुष के प्रति प्रेम नहीं बल्कि उसकी स्वभावगत कमजोरियों का लाभ उठाने की भावना दृढ़ होती जाती है। इस वृत्ति द्वारा उसे अपार संपत्ति की प्राप्ति तो होती है, लेकिन प्रेम से प्राप्त होने वाले आत्मतोष का परिचय उसे नहीं मिल पाता। माता सर्वेश्वरी ने कनक को सिखलाया था, “किसी को प्यार मत करना।  हमारे लिए प्यार करना आत्मा की कमजोरी है।  यह हमारा धर्म नहीं।“ (निराला : अप्सरा :15)। लेकिन जब इस प्रेम की उसे अनुभूति होती है तो वह माँ को दिए वचन  से मुक्ति के लिए तड़प उठती है। उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास की संक्षिप्त सी ‘भूमिका’ में निराला ने यह कहा है कि “मैंने किसी विचार से ‘अप्सरा’ नहीं लिखी। किसी उद्देश्य की पुष्टि इसमें नहीं। अप्सरा स्वयं मुझे जिस-जिस ओर ले गई, मैं दीपक-पतंग की तरह उसके साथ रहा। अपनी ही इच्छा से अपने मुक्त जीवन प्रसंग का प्रांगण छोड़ प्रेम की सीमित पर दृढ़ बाहों में सुरक्षित, वैध रहना उसने पसंद किया।“ (अप्सरा :भूमिका)। कहना न होगा कि इस कथन के माध्यम से लेखक ने ‘मुक्त जीवन’ के स्थान पर ‘प्रेम’ पूर्ण दांपत्य के विकल्प को सुरक्षित और वैध घोषित किया है जो उनके सुधारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है।  इसीलिए तो अपने चरित्र बल से सर्वेश्वरी के विकृत परमाणुओं को रोकती है। उसकी अविचल स्त्रीत्व के प्रति निष्ठा के समक्ष आप ही आप सर्वेश्वरी का मस्तक झुक गया।  इससे सर्वेश्वरी के हृदय में शांति का उद्रेक हुआ। (अप्सरा: 210-211)। सर्वेश्वरी ने जिंदगी में उपार्जन उसने बहुत किया था लेकिन अब उसकी चित्तवृत्ति बदल रही थी। इस प्रकार निराला ने अप्सरा को वेश्या जीवन से मुक्त करके प्रेमपूर्ण दांपत्य से युक्त पारिवारिक जीवन का चुनाव करने का अवसर दिया तथा इसका विरोध करने वाले तत्वों पर तारा की सदाशयता की विजय दर्शाई।
वस्तुतः वेश्या जीवन पर उपन्यास लिखते समय सुधारात्मक दृष्टिकोण वाले साहित्यकार के समक्ष मुख्य समस्या वेश्या के सम्मान पूर्ण सामाजिक जीवन में पुनर्वास की होती है।  प्रेमचंद ने इस हेतु सुमन के माध्यम से सेवासदन रूपी आश्रम की स्थापना कराई और निराला ने अपनी नायिका कनक को विधिवत वैवाहिक जीवन में प्रतिष्ठित किया और पारिवारिक तथा सामाजिक सम्मान दिलवाया। वेश्या अथवा सेक्स-वर्कर के पुनर्वास की समस्या से इक्कीसवीं  शताब्दी की लेखिका अनामिका (1961) भी अपने उपन्यासों ‘तिनका तिनके पास’ और ‘दस द्वारे का पींजरा’ (2008) में जूझती हुई दिखाई देती हैं। इन दोनों ही उपन्यासों में उन्होंने वेश्यावृत्ति के पारंपरिक से लेकर आधुनिक तक विविध रूपों को उजागर किया है।‘दस द्वारे का पींजरा’ के आरंभ में ही यह विद्रूप यथार्थ उद्घाटित हो जाता है कि  ‘‘भारतीय रेल के डिब्बों-सी हैं ये सेक्स वर्कर्स- तरह-तरह की भाषिक अस्मिताएं इनमें घुली हैं। सादा कपड़ों में (पुलिस की वर्दी उतारकर) उनसे और तकलीफों से रू-ब-रू होना एक अनुभव है जो जिन्दगी में कभी आदमी को चैन से नहीं सोने दे। बिहार-बंगाल और नेपाल में दारिद्रय और लावण्य-दोनों ज्यादा हैं, इसलिए वहाँ की लड़कियों की तो भरमार है।’’ लेकिन वेश्यावृत्ति में पहुंची हुई इन  स्त्रियॉं को अनामिका अपराधबोध से ग्रस्त नहीं बनातीं। तारा और ढेलाबाई ऐसी ही स्त्रियाँ हैं जो अपनी इस नियति के कारण किसी प्रकार ग्लानि में नहीं डूबतीं। लेखिका ने उन्हें स्वाभिमान और मर्यादा से युक्त ऐसी उच्च सामाजिक चेतना संपन्न स्त्रियों के रूप में चित्रित किया है जो वेश्या के रूप में स्त्री के वस्तूकरण का प्रतिकार उसके पुनः मानुषीकरण द्वारा करती हैं। पूरा जीवन वेश्या के रूप में जीने वाली ढेलाबाई  अपनी नातिन काननबाला से पूछती है कि औरत की देह मिली है तो क्या? वह इस देह को रूह का कैदखाना बनाए रखने के लिए तनिक भी सहमत नहीं। उसके अनुसार इस समस्या का सुधारात्मक समाधान यह है कि स्त्री को अपना संसार और बड़ा करना होगा।
 वेश्यावृत्ति में फंसी महिलाओं और उनके परिवारों के पुनर्वास के निमित्त प्रेमचंद के सेवासदन की ही तर्ज पर अनामिका भी आधारशिला और जोगिनिया कोठी के माध्यम से ऐसे कम्यून की कल्पना करती हैं जहाँ इन अभिशप्त परिवारों को सम्मानजनक जीवन मिल सके। ये स्त्रियाँ अपने ही अनुभव से यह सीखती हैं कि “शिक्षा ही इस दलदल से निकलने का एकमात्र उपाय है- अस्मिता के विकास की एकमात्र गारंटी। हमारी वंशपरंपरा,जाति, वर्ग, नस्लें व्यक्तित्व का आरोपित सत्य ही होते हैं- महज एक संयोग- उसके लिए शर्मिदा या गौरवान्वित होना दुनिया की बड़ी बेवकूफियों में एक है!” ढेलाबाई आध्यात्मिक साधना और कुंडलिनी शक्ति के जागरण द्वारा देह से ऊपर उठ जाती है, मुक्त हो जाती है। वह अफसाना बेगम के आह्वान पर दिल्ली में ‘मुक्ति मिशन’ में जाकर पंडिता रमाबाई से भेंट करती है। इन जागरूक स्त्रियॉं से मिलने पर उसकी समझ में यह भी आता है कि औरतों को चाँद  बनकर रहने से कोई फायदा नहीं, खुद सूरज बनकर दमक उठना है। इसीलिए वह दुनिया भर की बेसहारा औरतों को ‘मुक्ति मिशन’ में एकजुट करने के काम में लग जाती है। लेखिका ने शमीम पुतली तवायफ के गुप्त संगठन के बारे में भी यह रहस्योद्घाटन किया है कि उसमें शामिल  तवायफें अपनी देह की कमाई  क्रांतिकारियों को हथियार दिलवाने में खर्च करती हैं। अभिप्राय यह कि लेखिका ने सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए वेश्याओं के समक्ष सामाजिक कार्य, सार्वजनिक जीवन में भागीदारी तथा कम्यून के माध्यम से अपने समुदाय के कल्याण के लिए काम करने का रचनात्मक विकल्प प्रस्तुत किया है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद, निराला और अनामिका तीनों ने वेश्या जीवन पर केंद्रित अपने उपन्यासों में जहाँ इस समस्या के स्वरूप और कारणों का यथार्थपरक चित्रण किया है, वहीं वेश्याओं व उनके परिवार के पुनर्वास के संबंध में समाधान सुझाते हुए अपने सुधारात्मक दृष्टिकोण का भी सफलता पूर्वक प्रतिपादन किया है। 000

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