प्रवासी हिंदी कवियों की संवेदना : सरोकार के धरातल
- ऋषभ देव शर्मा
हिंदी कविता का फलक आज पूरी तरह से अक्षेत्रीय हो चुका है. हिंदी के साहित्य-जगत में अब कभी सूरज डूबता नहीं है. कक्षाओं में भले ही यह पढ़ाया जाता हो कि हिंदी अमुक-अमुक सीमित भू-खंड की भाषा है, परंतु उसका प्रसार अब समस्त भूमंडल तक है. हिंदी कविता का यदि एक आयाम क्षेत्रीय है तो उसका दूसरा आयाम अखिल भारतीय है. तीसरा आयाम उन देशों के रचनाकारों द्वारा निर्मित है जहाँ हिंदी भाषी जन उपनिवेशकाल में या तो स्वयं जा बसे या ले जाकर बसा दिए गए तथा चौथा आयाम उस पीढ़ी द्वारा निर्मित है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के आसपास यूरोप तथा अन्य महाद्वीपों में जा बसी. हिंदी कविता का आज एक पाँचवाँ आयाम और है जिसका संबंध उन कवियों से है जो किसी भी प्रकार भारतीय मूल के नहीं, लेकिन जिन्होंने हिंदी को सीखा ही नहीं अपनी अभिव्यक्ति की भाषा भी बनाया है. हिंदी कविता के बृहत्तर इतिहास में हिंदी-भूगोल के बाहर के समस्त रचनाकारों का लेखा-जोखा और मूल्यांकन होना अभी शेष है. प्रस्तुत आलेख में हम अपनी दृष्टि इनमें से तीसरे और चौथे आयाम पर फोकस करेंगे.
भारत के बाहर आज सारी दुनिया में भारतवंशी फैले हुए हैं. इनके हिंदी रचनाकर्म को आज प्रवासी हिंदी साहित्य के रूप में जाना जाता है. यदि अन्य विधाओं को छोड़ भी दें और केवल प्रवासी रचनाकारों की हिंदी कविता पर ही ध्यान दें, तो पता चलता है कि ऐसे कवियों की संख्या सैकड़ों में है. यहाँ हम स्थालीपुलाक न्याय से केवल कुछ कवियों की चुनिंदा कविताओं के अनुशीलन द्वारा उनके मुख्य सरोकारों को रेखांकित करने का प्रयास करेंगे.
1.
अभिमन्यु अनत (1937) को यों तो मारीशस का हिंदी-कथा-सम्राट माना जाता है, लेकिन सही अर्थ में प्रवासी हिंदी कविता के भी वे शीर्षस्थ हस्ताक्षर हैं. उनके पूर्वज ब्रिटिश शासन काल में भारत से मारीशस ले जाए गए थे. अभिमन्यु अनत का जन्म मारीशस (त्रियोले) में ही हुआ. उन्होंने हिंदी कविता को एक नया संस्कार दिया जिसका निर्माण मारीशस के जीवनानुभव और भारतभूमि के लिए तड़प की अभिक्रिया से हुआ है. वे सही अर्थ में आम आदमी की भावनाओं को व्यक्त करने वाले कवि हैं तथा शोषण, दमन, अत्याचार और क्रूरता के विरुद्ध विद्रोह को दर्ज करते हैं. वर्गभेद को उन्होंने नजदीक से देखा और भोगा है तथा साथ ही व्यवस्था की चालबाजियों को भी वे खूब समझते हैं – “जिस दिन सूरज को/ मजदूरों की ओर से गवाही देनी थी/ उस दिन सुबह नहीं हुई/ सुना गया कि/ मालिक के यहाँ की पार्टी में/ सूरज ने ज्यादा पी ली थी.” (अनत, अभिमन्यु). उन्हें मजदूरों की यह नियति स्वीकार नहीं है कि वे दो जून रोटी के लिए मालिक के सामने घुटने टेकें या हाथ पसारें – “तुमने आदमी को खाली पेट दिया/ ठीक किया/ पर एक प्रश्न है रे नियति/ खाली पेटवालों को/ तुमने घुटने क्यों दिए?/ फैलानेवाला हाथ क्यों दिया? (अनत, अभिमन्यु. खाली पेट). इसीलिए उन्हें यह स्थिति अत्यंत विडंबनापूर्ण प्रतीत होती है कि “पसीने की कीमत/ जब इतनी महँगी होती है/ तो मजदूर उसे इतने सस्ते क्यों बेच देता है?” (अनत, अभिमन्यु. कविता का प्रश्न).
मारीशस में बसे भारतवंशियों के सामूहिक अचेतन में वे स्मृतियाँ आज भी संचित हैं जिनका संबंध भारत भूमि से उन्हें जबरन एक वीरान द्वीप पर लाकर छोड़ दिए जाने से है और जिनमें वह सारी संघर्षगाथा सुरक्षित है कि कैसे खून-पसीना सचमुच एक करके इन भारतवंशियों ने जिजीविषा की उत्तरजीविता प्रमाणित की. वे जिए क्योंकि उन्होंने संघर्ष किया. वे बचे क्योंकि वे सर्वोतम थे. लेकिन यह जीवन संघर्ष सदा-सदा के लिए सामूहिक स्मृति में दर्ज हो गया. अभिमन्यु अनत इसे अभिव्यक्त करने वाले सबसे प्रखर वक्ता हैं – “आज अचानक/ हिंद महासागर की लहरों से तैर कर आई/ गंगा की स्वर-लहरी को सुन/ फिर याद आ गया मुझे वह काला इतिहास/ उसका बिसारा हुआ वह अनजानआप्रवासी./ देश के अंधे इतिहास ने न तो उसे देखा था/ न तो गूँगे इतिहास ने कभी सुनाई उसकी पूरी कहानी हमें/ न ही बहरे इतिहास ने सुना था/ उसके चीत्कारों को/ जिसकी इस माटी पर बही थी/ पहली बूँद पसीने की/ जिसने चट्टानों के बीच हरियाली उगाई थी/ नंगी पीठों पर सहकर बाँसों की/ बौछार बहा-बहाकर लाल पसीना/ वह पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा/ जो मेरा भी अपना था, तेरा भी अपना.” (अनत, अभिमन्यु. वह अनजान आप्रवासी). यहाँ यह भी कहना उचित होगा कि कवि अभिमन्यु अनत का सौंदर्यबोध अत्यंत प्रशस्त है, लेकिन उनकी काव्य भंगिमा पूरी तरह एंटी-रोमांटिक है. इसका कारण भी उस मनोविज्ञान में ही निहित है जिसका गठन शोषण और विद्रोह के घात-प्रतिघात से होता है. कवि को समुद्र सुंदर लगता है, उसके किनारे की रेत भी सुंदर लगती है, मछुआरों के बच्चों की खाली मुस्कानें भी सुंदर लगती हैं, युवतियों के उरोज और जंघाएँ भी सुंदर लगती हैं; लेकिन कवि का मन इस इंद्रधनुष में नहीं रम पाता, क्योंकि उसे मनचलों की पिपासित आँखें, भिखारी का फैला हुआ हाथ, अमेरिकी पर्यटक की जेब में अकुलाते हरे-भरे डालर और उन डालरों के लिए बिकती हुई साँवली वेश्या से निर्मित परिदृश्य अश्लील और लज्जाजनक लगता है. इतना अश्लील और लज्जाजनक कि “उन्हें कराहते छोड़ झागों में/ नारंगी क्षितिज से/ भाग गया सूरज.” (अनत, अभिमन्यु. इंद्रधनुष का देश). यह सांस्कृतिक फाँक अभिमन्यु अनत सहित और भी तमाम प्रवासी कवियों को बेचैन करती है और वे इसे स्वर भी देते हैं, लेकिन सबके स्वर में अभिमन्यु अनत जैसी तल्ख़ी नहीं है – “मेरे अपने भीतर/ आज फिर खौल उठा है गुलमोहर/ और मैं/ अपने हाथों को एक बार फिर/ लाल करना चाह रहा हूँ / उस मूर्तिकार और उस कवि के खून से/ जो शाही खजाने से/ बना रहे हैं/ उस भेड़िये की मूर्ति/ और लिख रहे हैं उस पर एक दूसरा पृथ्वी रासो.” (अनत, अभिमन्यु. गुलमोहर खौल उठा).
2.
ब्रिटेन में बसे हुए डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव (1935) कैंब्रिज विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे हैं. उन्होंने कविता, यात्रावृत्त, डायरी और नाटक जैसी विभिन्न विधाओं में बहुत काम किया है. डॉ. सत्येंद्र की कविता में नई पहचान के साथ उभरता भारत उपस्थित है; ‘सर विंस्टन चर्चिल मेरी माँ को जानते थे’ उनकी एक ऐसी ही कविता है. इस कविता में कवि याद करता है कि ब्रिटिश साम्राज्य काल में भारत या तो अंग्रेजों के लिए विलासिता और लूट का स्रोत था; या फिर दमन और अत्याचार का पात्र. उस काल में ब्रिटेन सर्वशक्तिमान था और अंग्रेजों ने अपनी सुख-सुविधा के लिए हिमालय की गोद को काट-तराश कर मसूरी शहर बसाया था जो विंस्टन चर्चिल को एडिनबरा की याद दिलाता था. कवि ने इस कविता में सीधे-सीधे विंस्टन चर्चिल को संबोधित किया है और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान घटित उस प्रसंग की याद दिलाई है जब महात्मा गांधी के आह्वान पर सत्याग्रह करती हुई कुछ महिलाएँ अंग्रेज सैनिकों के दस्ते को आने-जाने से रोकने के लिए रास्ते पर पंक्तियों में लेट गई थीं. कविता उस समय ओज गुण की ऊँचाई पर पहुँचती है जब स्वतंत्र भारत के युवा नागरिक के रूप में आख्याता चर्चिल के पूर्व आवास पर पहुँचता है. करुणा, गौरव, राष्ट्रीयता और स्वाभिमान जैसे भाव एक साथ जागने लगते हैं जब आख्याता बताता है कि अंग्रेज़ सिपाहियों का रास्ता रोकने के लिए सड़क पर लेटने वाली उन भारतीय महिलाओं में स्वयं आख्याता की माँ भी थी जो गर्भवती थी और किसी भी क्षण शिशु को जन्म दे सकती थी. कवि के इस स्वर में चुनौती भी है – “सर विंस्टन आप मेरी माँ को जानते हैं/ वह भी एक सात महीने के बच्चे का पेट फुलाए/ मेरे पिता का आशीष लेकर/ मसूरी के उसी रास्ते पर लेट गई थी,/ जहाँ से फौजियों के दस्तों को लौटना पड़ा था –/ मैं उसी माँ के पेट से जन्मा उसका बेटा हूँ/ और मेरा नाम सत्येंद्र है/ और मैं आपसे यह कहने आया हूँ/ कि मैं अब इंग्लैंड में आ गया हूँ.” (श्रीवास्तव, सत्येंद्र. सर विंस्टन चर्चिल मेरी माँ को जानते थे.)
सत्येंद्र श्रीवास्तव मानवीय संबंधों और संवेदनाओं के विघटन के प्रति भी चिंतित दिखाई देते हैं. इन्हें आज का समय किसी निरंतर घटित होती हुई ग्रीक ट्रैजडी जैसा प्रतीत होता है. इसे व्यक्त करने के लिए कवि ने प्रभावशाली बिंबों का विधान किया है. दृष्टियों में बीते हुए कल की बाढ़ होना, बाढ़ में ऐसे दिलों का बहना जो जड़ों से अलग हो चुके हैं, स्याह क्षितिजों की अरथियों पर किरणों की लाशें पड़ी होना, खामोशियों का फैलना, पीड़ा का हर इंच दरकना जैसे बिंब समर्थ काव्यभाषा का निर्माण करते हैं और कवि यह सूक्ति रचता है – “प्यार है अपशब्द जग के कोश में.” (श्रीवास्तव, सत्येंद्र. यह घड़ी.) दरअसल, बिंब रचना में कवि सत्येंद्र बहुत दक्ष हैं. इसके लिए वे तुक का तो प्रयोग करते ही हैं, द्वंद्वात्मक समांतरता का भी प्रभावी उपयोग करते हैं. जैसे – “रात आधी/ सो रहे कुछ लोग पुल के पास/ साथ कुछ रंगीन चेहरे/ माँगते सहवास.” (श्रीवास्तव, सत्येंद्र. लंदन के चेरिंग क्रास के लोग – शब्द चित्रों में). यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि कवि के सरोकार एकदेशीय न रहकर क्रमशः वैश्विक होते जाते हैं. प्रवास में अपना मूल आवास तमाम निजी संस्कारों के साथ याद जरूर आता है, लेकिन शब्दों में उतरते वक्त वह स्थानीयता से मुक्त साधारणीकरण को संभव बनाता है. जब कवि गोलियाँ चलने, लोगों के मरने, अखबारी दाँव पेंच के पन्ने भरने, लड़ते गिरते जन के मर मिटने के शब्दचित्र बाँधकर इस परिणति को व्यक्त करता है कि ‘अब लगता राजनीति से/ कब्रें ढकते हैं’ (वही), तो इससे उसका प्रवास की धरती से स्थापित हो चुका रिश्ता भी व्यंजित होता है.
3.
दिव्या माथुर संवेदनात्मक स्तर पर भारत की जमीन से गहरे जुड़ी हुई कवयित्री हैं. उन्हें समकालीन आर्थिक और राजनैतिक गतिविधियों की भी अच्छी समझ है. यही कारण है कि वे प्रगति के रूप में आ रही ‘अगति’ और ‘दुर्गति’ को देख और दिखा पाती हैं. टर्मिनेटर बीज केवल एक ऐसा उत्पाद ही नहीं है जिससे उगने वाली फसल बीज के रूप में परिणत नहीं हो पाती, बल्कि एक प्रतीक भी है - नए सृजन की संभावना को नष्ट करने के षड्यंत्र का. पुरानी फसल के बीजों को सुरक्षित रखना कई तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक संबंध का आधार था. टर्मिनेटर बीज उस संबंध को भी टर्मिनेट कर देगा और ऋण-आधारित ऐसी सभ्यता को बढ़ावा देगा जिसमें गाँव बिकेंगे और किसान आत्महत्या कर लेंगे – “सुना है/ किसान अब अपने बीज नहीं बो सकते/ न ही वे बाँट सकते हैं अपने ही जाए बीज/ अपनों को./ सुना है/ बैंक तैयार हैं कर्ज देने को बीज/ जिनकी फसलें होंगी रंगीन और पुष्ट/ पर बेस्वाद और फुसफुसी.” (माथुर, दिव्या. तरक्की पर भारत.)
दिव्या माथुर की कविता ‘रंग दे बसंती चोला’ यद्यपि बड़ी सीमा तक इतिवृत्तात्मक प्रतीत होती है तथापि उसमें निहित सरदार भगतसिंह और उनकी माँ के वार्तालाप का द्विभाषिक (हिंदी और पंजाबी) प्रोक्ति गठन, भारतीय लोकजीवन और लोकमानस की जीवंत उपस्थिति, हिंसा और अहिंसा का द्वंद्व और अंग्रेजों के प्रति टिप्पणी उसे उल्लेखनीय रचना बनाने के लिए काफी हैं. ढोलक, समूह नृत्य, हल्दी की रस्म, तेल चुआने की रस्म, फेरे लेने की रस्म, अक्षत छिड़कना, टीका करना और मंत्र फूँकना जैसे प्रयोग जहाँ प्रवासी कवयित्री की भारतीय लोकसंपृक्ति के द्योतक हैं, वहीँ भगतसिंह की माँ का यह कथन स्वतंत्रता आंदोलन के पूरे परिवेश की अगुवाई करता दिखाई देता है – “गोरों दा दीन-ईमान नहीं/ तोपाँ ते तैन्नु देंगे उड़ा.” (माथुर, दिव्या. रंग दे बसंती चोला).
4
ज़ेबा रशीद का काव्य संस्कार बड़ी सीमा तक उर्दू की इश्किया शायरी से बना प्रतीत होता है. प्रेम काव्य की परंपरागत काव्यभाषा और भावुकता की मुद्रा उनकी कविता में देखी जा सकती है. खत, गुलाब, आँसू, दिल, दवा, सुकून, दर्द, ख्वाहिश, ख़्वाब, दुश्मन और खंजर जैसी शब्दावली ज़ेबा की कविता में संवेदनाओं का एक ऐसा ताना-बाना बुनती है जिसकी उदास सी रंगत पाठक को अपनी सी लगती है – “मैंने खत भेजा तो/ जवाब में/ सूखा गुलाब आया है/ हमने आँखों में/ सजा लिए आँसू/ खूब जवाब आया है/ सुकूने दिल की दवा/ माँगी तो/ दर्द बेहिसाब आया है./ ख्वाहिशें मुस्करा कर/ कहती हैं/ खाली ख़्वाब आया है.” (रशीद, ज़ेबा. जवाब).
प्रेम का ज़ेबा रशीद का अपना फ़लसफ़ा है. वे नहीं कहतीं कि प्रेमपात्र को सर्वगुणसंपन्न और चमत्कारी व्यक्तित्व वाला ही होना चाहिए, लेकिन इतना अवश्य मानती हैं कि प्रेम में विकल्पहीन अनन्यता हो – “ख़्वाब मेरे हैं/ मगर ध्यान तेरा है.” (रशीद, ज़ेबा. चाहतें). यह प्रेम ही अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित शत्रुओं के बीच निःशस्त्र खड़े रहने की ताकत देता है – “यूँ तो दुश्मन है/ सारा ज़माना मेरा/ मेरे हाथों में भी/ खंजर हो/ यह जरूरी तो नहीं.” (वही). यहाँ तक आते-आते निजी प्रेम विश्वप्रेम में बदल जाता है.
जीवन और जगत की कटु सच्चाइयाँ भी ज़ेबा रशीद की कविताओं का एक मुख्य सरोकार हैं. जीवन के तल्ख़ अनुभवों को वे कभी-कभी तो इतने सामान्य ढंग से बयान करती हैं कि बाल कविताओं जैसे तुक और लय सामने आने लगते हैं. (रशीद, ज़ेबा. सच्चाइयाँ). भारतीय मानस कहीं भी रहे रिश्तों की गरमाहट खोजता है. ज़ेबा को भी इसीलिए यह बहुत नागवार गुजरता है कि अब मतलब के बाजार में तेरा-मेरा रिश्ता गुम है, हर दिल में लालच है, दौलत चाहे कितनी मिल जाए, आदमी का दिल ख्वाहिशों का जंगल है. (रशीद, ज़ेबा. बदलता मौसम). अभिप्राय यह है कि मानवीय मूल्यों का विघटन तथा बाजारवाद का प्रसार कवयित्री को विचलित करता है.
5.
डॉ. मृदुल कीर्ति की कविताएँ अमरीका में रह रहे भारतीय व्यक्ति की जीवन मूल्यों और अध्यात्म के मुख्य सरोकार से प्रेरित कविताएँ हैं. उन्होंने आध्यात्मिक जीवन-सत्य को काव्यवस्तु बनाया है, जिसकी अभिव्यंजना का वैशिष्ट्य लोकतत्व और मिथकीय प्रसंगों के सर्जनात्मक उपयोग में निहित है. लोकभाषा को भी उन्होंने सहेजकर रखा है. तुलसी-दीप चौबारे में बारो, आरती का स्वर उचारो, कुंठा बुहारो, गाओ प्रभाती, उदित रवि को जल चढ़ा दो, मन को अर्जुन सा बनाकर तीव्र गति सा तीर मारो, उदित रवि को सिर नवा लो, प्रकृति को गुरुवर बना लो, आरती उतारो (कीर्ति, मृदुल. अब उठो कुंठा बुहारो) जैसे प्रयोग रचनाकार के इसी लोक लगाव की सूचना देते हैं. इनकी कविताओं में समांतरता (तप्त भूमि/ तृषित मन/ तप्त तन. एक मन/ एक चित्त/ एक टक. तुम्हारी तपन/ तुम्हारी आसक्ति/ तुम्हारी प्यास/ तुम्हारी तृष्णा), विपथन (‘मृगतृष्णा’ शीर्षक कविता में पानी को देखती दृष्टि का अंततः ऐसी जगह पहुँचना जहाँ ‘ज़मीन तक गीली नहीं’), प्रश्न (कहाँ? क्या तुम? कहाँ तक जाएगी? कब तक भागोगे?), संबोध्यता (सुनो, हे नाथ!), सूक्ति गठन (अतृप्त सदा उदास रहता है/ और उदास व्यक्ति कभी शांत नहीं हो सकता/ और शांत कभी उदास नहीं हो सकता. रत्नों से प्यास नहीं बुझती. बूँद तृप्तिगर्भा है.) जैसे शैलीय उपकरणों का सहज समावेश अभिव्यक्ति को आकर्षण तत्व से संयुक्त करता है.
मृदुल कीर्ति की ‘बूँद और सागर’ जैसी रचनाओं में अभिव्यंजित सौंदर्यबोध (ऊपर व्योम के आँगन में कुलाँचे/ भरते घन शावक./ मेरे सामने के पेड़ के कोमल पात पर/ एक बूँद का गिरना/ मोती सा चमकना) और जीवन दर्शन (अपने रूप गुण पर आसक्त/ गर्वीले सागर की लहरें/ एक बूँद का अस्तित्व न सह सकीं/ ठीक ही है किसी की सत्ता कोई सहता नहीं/ क्योंकि अहं तो सागर से भी बड़ा है/ एक बूँद और मिटाने को विशाल लहरें) इस बात का भी प्रमाण हैं कि भौगोलिक संदर्भ के बदल जाने से रचना के विश्वजनीन सरोकार नहीं बदल जाते. साथ ही, ‘दिवाली’ जैसी बाल कविताएँ यह प्रमाणित करती हैं कि विदेश में बैठकर देश कुछ अधिक ही याद आता है, अपने पर्व-उत्सवों के साथ. रचनाकार इन पर्व-त्योहारों में पुरखों के वरदान और अपनों से पहचान की खोज करता है – “पुरखों का वरदान दिवाली/ अपनों से पहचान दिवाली/ XXX/ अपनों से जब दूर हों बैठे/ लगती है सुनसान दिवाली/ मधुर क्षणों की अनुभूति ये/ कविता का उनवान दिवाली.” (कीर्ति, मृदुल. दिवाली).
6.
अनूप भार्गव का कवि व्यक्तित्व गणित, इंजीनियरिंग तथा विभिन्न देशों और भाषाओं के साहित्य के आस्वाद से निर्मित है. सोशल मीडिया को कवियों के परस्पर संवाद का कारगर मंच बनाने में उन्हें बड़ी सफलता मिली है. उनके निकट कविता उत्कट जीवनानुभव की सहज अभिव्यक्ति है – “न तो साहित्य का बड़ा ज्ञाता हूँ,/ न ही कविता की/ भाषा को जानता हूँ,/ लेकिन फिर भी मैं कवि हूँ,/ क्योंकि जिंदगी के चंद/ भोगे हुए तथ्यों/ और सुखद अनुभूतियों को,/ बिना तोड़े मरोड़े,/ ज्यों की त्यों/ कह देना भर जानता हूँ.” (भार्गव, अनूप. प्रारंभ). उनकी नजर भारत की राजनैतिक गतिविधियों पर बराबर रहती है. उनके भीतर का कवि राजनैतिक मूल्यों के क्षरण से दुखी होता है. 2 अक्टूबर, 1978 को जब दो राजनैतिक दलों के बीच राजघाट पर इस बात को लेकर झगड़ा हुआ कि महात्मा गांधी की समाधि को पहले कौन धोएगा और लाठी, पत्थर तथा गोलियों के साथ अहिंसा के पुजारी की समाधि पर हिंसा का नंगा खेल खेला गया तो आहत कवि-मन चीत्कार कर उठा – “बापू/ देखो आज हम/ तुम्हारी समाधि धोने आए हैं./ ये बात अलग है कि साथ में/ लाठी, पत्थर और आँसू गैस के खिलौने लाए हैं,/ लेकिन सच सच बताएँ बापू,/ ये समाधि को धोना वोना/ तो बेकार की बात है,/ अरे हम तो इस युग के नाथू राम गोडसे हैं/ जो अपना अपना अधूरा काम करने आए हैं/ शरीर से तो तुम्हें कब का मार चुके/ आज तुम्हारी आत्मा तमाम करने आए हैं.” (भार्गव, अनूप. दूसरी हत्या).
अनूप भार्गव की कविताओं का वैशिष्ट्य उनकी कथन भंगिमा में निहित है. वे प्रायः छोटी कविताएँ लिखते हैं, जिन्हें ‘पंच’ अविस्मरणीय बना देता है. उनका नायक नायिका को यह मानने के लिए बाध्य करता है कि वह कल रात सपने आई थी, “वरना/ सुबह सुबह/ मेरी आँखों की नमी का मतलब/ और क्या हो सकता है?” अन्यत्र नायक नायिका से सवेरे उठकर ज़माने को ज़रा सी रोशनी देने के लिए कहता है. हद तो यह कि “देखो/ सूरज खुद/ तुम्हारी खिड़की पर/ तुमसे रोशनी माँगने आया है.” यह अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा उस मध्यकालीन परंपरा की याद दिलाती है जिसमें प्रकृति का सारा सौंदर्य नायिका की जूठन हुआ करता था. अनूप भार्गव के यहाँ अगर सूरज नायिका से प्रकाश माँग रहा है तो यह कहीं न कहीं चंदबरदाई के उस सौंदर्यबोध का नया संस्करण है जिसमें माना जाता था कि चंद्रमा स्वयं अल्पवयस्क पद्मावती के समीप आकर अमृत ग्रहण करता है – ‘बाल वैस ससि ता समीप अमृत रस पिन्निय.’ अनूप भार्गव की यह नायिका तब कालिदास की शकुंतला प्रतीत होती है जब लज्जा का अनुभाव पाँव के अँगूठे से जमीन कुरेदने के माध्यम से प्रकट होता है – “सुनो,/ अब अपनी नज़रें उठाओ/ और पाँव के अँगूठे से/ जमीन को कुरेदना बंद करो/ मैं समझ गया पगली/ लेकिन कोई ऐसे भी/ अपने दिल की बात/ कहता है?” (भार्गव, अनूप. सुनो...).
प्रशस्त राजनैतिक चेतना के बावजूद अनूप भार्गव मूलतः प्रणय और सौंदर्य के कवि हैं. प्रेम की देशकाल सापेक्ष चाहे जितनी परिभाषाएँ और व्याख्याएँ की जाती रहें, अपने उत्कृष्ट रूप में वह आत्मदान और आत्मविस्तार को संभव बनाने वाला उदात्त भाव है जिसमें अपने अस्तित्व को शून्य करके अनंत की उपलब्धि की जाती है – “सुनो,/ तुम जानती हो/ मेरा अस्तित्व/ तुम से शुरू होकर/ तुम पर खत्म होता है/ फिर बता सकोगी/ मुझे मेरा विस्तार/ अनंत सा क्यों लगता है?” (वही).
7.
भारत (अमृतसर, पंजाब) में जन्मी और नॉर्वे, जर्मनी, थाईलैंड तथा ब्रिटेन के बाद अब अमरीका में बसी कवयित्री डॉ. कविता वाचक्नवी (1963) खांटी देसी संस्कार वाली कवयित्री हैं – गाँव घर द्वारे इसे प्यारे लगें/ आज भी ‘कविता’ हुई शहरी नहीं! उनकी कविता एक बड़ा सरोकार स्त्री विमर्श से संबंधित है. वे परिवेश और कवि मानस के तादात्म्य को साहित्य सृजन की अनिवार्य शर्त मानती हैं. वे एक ऐसे लोक को अपनी रचनाओं में प्रत्यक्ष करती हैं “जो संसार के लिए कल्पना लोक हो सकता है लेकिन ‘मैं’ के लिए वह प्रत्यक्ष संसार होता है; (अनुमान, संभावना अथवा कल्पना द्वारा रचा नहीं.) ...जहाँ विलाप के अनुभव ‘व्याप्त अनुभव’ बनकर कालिदास के समक्ष पेड़ों और पौधों और पक्षियों के विलाप को मूर्त कर देते हैं; अथवा जब सच में धरती पीड़ित स्त्री के विविध सहनशील रूपों को बिंबायित करती है.” (वाचक्नवी, कविता (2005). मैं चल तो दूँ. सिकंदराबाद : सुमन प्रकाशन. पृ. 8). यह धरती, स्त्री भी, किसी एक भूखंड से बँधी हुई नहीं है. देशकाल की सीमाओं से परे ये दोनों ही शोषण और दोहन की शिकार हैं. पुरुषवादी व्यवस्थाओं के स्त्री सरोकार के पाखंड पर कवयित्री चोट करती है – “पृथ्वी की परिभाषा/ मेट दो,/ कहीं आकाश में बादल नहीं घुमड़ते/ किसी आकाश में जल के छींटे अवशिष्ट नहीं./ पाखंड हैं फुहारें/ और/ ‘एलर्जी/ है नीलांचल को/ गंध से,/ इसीलिए/ वह नहीं बरसा सकता/ नेह का मेह.” (वाचक्नवी, कविता. तत्र... गंधवती पृथिवी).
कविता वाचक्नवी के स्त्री विमर्श संबंधी दृष्टिकोण को समझने के लिए ‘हाशिए उलाँघती औरत’ शृंखला के ‘प्रवासी कहानियाँ खंड’ (2014) के उनके संपादकीय को देखना चाहिए. वे बताती हैं कि विदेश में भारत से आई हुई पीढ़ी की महिलाओं का जीवन दर्शन वहाँ जन्मी, पली, बढ़ी भारतीय मूल की स्त्रियों से अलग होता है, किंतु देह को लकर उनके विचार अभी भी भारतीय विचारों से मेल खाते हैं. उनके अनुसार भारत से विदेश जाने वाली स्त्रियाँ बहुधा कई प्रकार के सांस्कृतिक द्वंद्वों का सामना करती हैं और देह उनके व्यक्तित्व को अपराध बोध से भर, कुंठित करती रहती है. उनका यह दृढ़ मत है कि स्त्री की देह, उसकी शुचिता, उसका पर्दे में रहना जिस समाज में जितना बड़ा मूल्य है, उस समाज में स्त्री देह पर सर्वाधिक आक्रमण होते हैं. सर्वाधिक ढकी हुई देहों वाले समाजों में ही स्त्री की देह सर्वाधिक बर्बरता झेलती है, उसी का सर्वाधिक शोषण होता है. जिन देशों में देह इन अर्थों में मूल्य नहीं है, वहाँ देह स्त्री को तो अकुंठ करती ही है, पुरुषों द्वारा शोषण का अनुपात भी बहुत कमतर करती है. इन कारणों के चलते व्यक्तित्व में कुंठा और अपराधबोध का अनुपात कम होता है जो व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है. (द्रष्टव्य : हाशिया उलाँघती औरत (प्रवासी कहानियाँ खंड), 28 मार्च, 2014, संपादकीय).
कहना यह है कि कविता वाचक्नवी के काव्य सरोकार वस्तुतः बहुआयामी परिवेश और गहन निजी अनुभूतियों के गुणनफल की उपलब्धि है. उनमें धरती और स्त्री के बहाने सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सरोकारों का संपुंजन है. उदाहरणार्थ उनकी अलग-अलग कविताओं की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं – “माँ की तुलसी माला/ पिरोनी बची है/ यों छोड़ जाना/ संभव नहीं मेरे लिए/ और/ अनुमति तो ली ही नहीं – पिता से/ दुखते घुटनों चल/ घाट तक कैसे जाएँगे – वे?” (वाचक्नवी, कविता. मैं चल तो दूँ...). “पूस माघ की ठंडी रातें/ ‘मौसी’ के गले हाथ/ सब याद है मुझे.” (मैं कुछ नहीं भूली). “युद्ध/ तुम्हारे युद्ध/ धर्म, भाषा व क्षेत्र के/ आकांक्षा, प्रभुत्व, लालसा/ अधिकारों की त्राहि-त्राहि.” (युद्ध). “मैं पृथ्वी का/ आनेवाला कल सम्हालती/ डटी हुई हूँ” (युद्ध : बच्चे और माँ). “इस सुगंधहीन/ आधी फसल से/ भरता नहीं/ मेरा जी/ और/ नंगे हो गए हैं/ मेरे पेड़ भी....” (आधी फसल). “राग का रवि/ शिखर पर जब/ चमकता है/ मूर्ति, छाया/ मिल परस्पर/ देर उतनी/ एक लगते.” (पुरुष सूक्त). “बचा कर रखना/ थोड़ी आग/ कि आग देने मुझे/ कोई नहीं आएगा जब/ तब दे सको/ एक चिंगारी भर/ मेरी पिपासा के पुनरागमन के लिए.” (नैनम् दहति पावकः). “अपनी राजशाही में शांति, सुख के लिए/ तुम/ फिर दोगे/ प्रेम को निर्वासन/ और तुम फिर सुनाओगे/ अपनी दिग्विजय की कहानियाँ/ अपने अश्वमेध की पूर्णाहुति के चारण.” (उत्तरकांड). “छोड़ दो गउएँ/ मूक प्राणी हैं.../ कुछ न कहेंगी/ हकाल ले जाओ भले, किंतु मैं/ रोकती हूँ तुम्हारा मार्ग,/ ठहरो...!!/ प्रश्न तो सुनो, याज्ञवल्क्य!!!” (गार्गी उवाच). ये तमाम उद्धरण यह प्रमाणित करने के लिए काफी हैं कि कविता वाचक्नवी के काव्य संस्कार का निर्माण गहरी लोक संपृक्ति और सांस्कृतिक मिथक बोध से हुआ है तथा उनके सरोकार की परिधि वैयक्तिक वेदना से लेकर विश्व वेदना तक परिव्याप्त है.
8.
हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती और उर्दू में समान अधिकार से लिखने वाली कवयित्री अंजना संधीर (1960) ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुजराती कविताओं का हिंदी में अनुवाद (आँख ये धन्य है) भी किया है. उन्होंने अपने अमरीका प्रवास के अनुभवों को अत्यंत प्रभावी ढंग से काव्यात्मक अभिव्यंजना प्रदान की है. इस दृष्टि से उनकी कृति ‘अमरीका हड्डियों में जम जाता है’ विशिष्ट है. ‘अमरीका हड्डियों में जम जाता है’ जैसी कई कविताओं में डॉ. अंजना ने उस सांस्कृतिक झटके को बखूबी प्रतिबिंबित किया है जो अमरीका पहुँचने पर भारतीयों द्वारा शिद्दत से महसूस किया जाता है. वे दोनों देशों की सांस्कृतिक भिन्नता को भली प्रकार संप्रेषित करती है. बाजारवाद के लाख आक्रमण के बावजूद भारतीय मानस में आज भी कुटुंब संस्कृति किसी न किसी रूप में जीवित रहती है. इसीलिए जब वह अमरीका की बाजार संस्कृति के बीच पहुँचता है तो उसे अमरीका और उसका बाजारवाद क्रमशः अपने भीतर पैठता और बैठता महसूस होता है. कवयित्री ने इस प्रक्रिया को कुछ क्रियाओं के समानांतर प्रयोग द्वारा व्यक्त किया है – “अमरीका धीरे धीरे साँसों में उतरने लगता है/ और अमरीका धीरे धीरे स्वाद में बसने लगता है/ धीरे धीरे हड्डियों में उतरने लगता है अमरीका/ अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में समा जाता है/ अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है.” (संधीर, अंजना. अमरीका हड्डियों में जम जाता है). यहाँ साँसों में उतरने, स्वाद में बसने, हड्डियों में उतरने, हड्डियों में समा जाने और हड्डियों में जम जाने की क्रमिकता उस गति और गहराई को महसूस कराती है जिसे कोई प्रवासी झेलता है. लेकिन जैसा कि कहा जाता है, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ – भारतीय संस्कार मिटाए नहीं मिटते. कवयित्री सावधान करती है – “अमरीका जब साँसों में बसने लगे,/ तुम उड़ने लगो, तो सात समुंदर पार/ अपनों के चेहरे याद रखना./ जब स्वाद में बसने लगे अमरीका,/ तब अपने घर के खाने और माँ की रसोई याद करना./ सुविधाओं में असुविधाएँ याद रखना./ यहीं से जाग जाना.../ संस्कृति की मशाल जलाए रखना/ अमरीका को हड्डियों में मत बसने देना./ अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है.” (वही). दरअसल, अमरीका भारत जैसे देशों के नागरिकों के लिए किसी नागलोक जैसे मायावी आकर्षण से भरा देश है जिसकी असलियत वही जानता है जिसने उसे देखा है. इस तथाकथित जन्नत की एक हकीकत यह भी है कि दुनिया भर के ‘दागी’ लोग यहाँ आकर ‘प्रतिष्ठित’ बन जाते हैं. ऐसे दोगले चरित्र वाले लोग अपनी विलासिता की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत और उसके आसपास के मुल्कों की लड़कियों से ब्याह रचाने का ढोंग करते हैं क्योंकि अमरीका की तो कोई लड़की अपने मानवाधिकारों की हत्या होने नहीं देगी – “बंद करो इन दागदार लोगों को अपनी कमसिन लड़कियाँ देना/ चौबीसों घंटे जो यहाँ पिसती हैं/ समय से पहले बूढ़ी हो जाती हैं/ तुम्हारे घर भी आती हैं/ सौगातें लाती हैं/ लेकिन खुद खाली-खाली रहती हैं/ कुछ दिन हँसती हैं,/ बोलती हैं/ और वापस चली आती हैं/ अमरीका में ब्याहने की कीमत अदा करने!” (संधीर, अंजना. अमरीका में ब्याहने की कीमत अदा करने).
अंजना संधीर की दृष्टि उन प्रवासियों पर भी गई है जिनके पूर्वज उपनिवेशकाल में जबरदस्ती दक्षिण अफ्रीका, मारीशस, गयाना, सूरीनाम और फिजी जैसे देशों में ले जाए गए थे. इन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपने भीतर भारतीयता को बचाकर रखा है. इनकी नई पीढ़ियाँ भारत के गाँवों में अपनी जड़ें मानती हैं और भारत आना चाहती हैं. कवयित्री ने गयाना की लड़कियों के बहाने प्रवासियों के इस मनोभाव को सुंदर अभिव्यक्ति प्रदान की है – “संस्कृत और अंग्रेजी के बीच बचाए हुए हैं अपनी संस्कृति./ सजाती हैं आरती के थाल, पहनती हैं भारतीय पोशाकें तीज-त्योहारों पर./ पकाती हैं भारतीय खाने, परोसती हैं अतिथियों को/ पढ़ती रहती हैं अपनी बिछुड़ी संस्कृति के बारे में.” (संधीर, अंजना. वे चाहती हैं लौटना).
9.
मूलतः संस्कृत साहित्य की अध्येता डॉ. पूर्णिमा वर्मन (1955) संयुक्त अरब अमीरात के शारजाह नगर से ‘अभिव्यक्ति’ और ‘अनुभूति’ जैसी साहित्यिक ई-पत्रिकाओं का संपादन करती हैं. जलरंगों, रंगमंच और संगीत के क्षेत्र में भी वे दखल रखती हैं. कवयित्री के तौर पर नवगीत उनकी प्रिय विधा है, लेकिन उन्होंने अन्य विधाओं में भी खूब लेखन किया है. समकालीन वैश्विक सरोकारों से लेकर स्थानीयबोध तक की रंगत उनकी रचनाओं में देखी जा सकती है. एक सजग नागरिक के नाते वे यह मानती हैं कि आतंकवाद असंतोष की कंदराओं में लावे की तरह उबलता है और असंख्य निर्दोष लोगों के प्राण ले लेता है. वे इसकी जड़ में सत्तावाद, अव्यवस्था, असमानता और दमन को देखती हैं. साथ ही यह भी कि निरंतर उपेक्षा द्वारा व्यवस्थाएँ असंतोष को आतंकवाद के रूप में पकने का अवसर प्रदान करती हैं. ऐसी व्यवस्था के चरित्र को उन्होंने धृतराष्ट्र के मिथक द्वारा सटीक अभिव्यक्ति दी है – “बरसों-बरसों-बरसों/ कोई इसे देखना नहीं चाहता/ सब आँखें बंद रखना चाहते हैं/ धृतराष्ट्र की तरह/ जब तक/ यह फूटता नहीं/ वज्रास्त्र की तरह/ आकाश से...” (वर्मन, पूर्णिमा. आतंकवाद).
पूर्णिमा वर्मन की कविताओं में लोक और भारतीय मन अनेकविध प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से ध्वनित होता है. फागुन, कोयल, घाटी, चिड़िया, दीप, घर और बिंदी उनकी कविता में प्रयुक्त शब्द ही नहीं हैं, बल्कि ये सब मिलकर उस पैराडाइम का निर्माण करते हैं जिसके केंद्र में भारतीय स्त्री है. पूर्णिमा यह नहीं मानतीं कि स्त्री हाशिए पर कैद और उपेक्षित है. इसके विपरीत वे स्त्री को इतिहास बनाने वाला मानती हैं क्योंकि वह उन तिथियों की तरह है जो खास होने के कारण ही हाशिए पर लिखी जाती हैं. (वर्मन, पूर्णिमा. हाशिए पर). इस स्त्री में परिवर्तन का इतना सामर्थ्य है कि “किसी को पता नहीं चला/ समय के साथ/ औरत हो गई कितनी ऊँची/ कि अपनी ही बिंदी अपनी ही हँसुली/ आसमान पर टाँग/ अपनी राह खोज ली उसने/ खोज ली अपनी शांति./ लोग नहीं जानते/ जो दूसरों के लिए खटने वाले/ अपना भी कर सकते हैं कायापलट!” (वर्मन, पूर्णिमा. आसमान पर बिंदी). कवयित्री ग्लोबव्यापी मूल्य विघटन से चिंतित है. उसे लगता है कि शहरों की मारामारी में सारे मूल्य बिला गए. अधिक भीड़ और कम अवसरों के बीच कोहनियाँ जगह बनाती रहीं और घुटने बोल गए. (वर्मन, पूर्णिमा. सारे मोल गए). लेकिन रिश्ते-नातों को लाभ और लोभ की बलिवेदी पर उत्सर्ग होते देखकर भी कवयित्री का आशावादी मन अपने सकारात्मक सोच को छोड़ नहीं पाता और प्रकृति, लोक, मिथक तथा अध्यात्म के सहारे स्वयं को इस प्रकार प्रकट करता है – “हवा में घुल रहा विश्वास/ कोई साथ में है/ धूप के दोने/ दुपहरी भेजती है/ छाँह सुख की/ रोटियाँ सी सेंकती है/ उड़ रही डालें/ महक को छोड़ती उच्छ्वास/ कोई साथ में है/ बादलों की ओढ़नी/ मन ओढ़ता है/ एक घुँघरू/ चूड़ियों में बोलता है/ नाद अनहद का छिपाए/ मोक्ष का विन्यास/ कोई साथ में है.” (वर्मन, पूर्णिमा. हवा में घुल रहा विश्वास).
10.
बाथ (ब्रिटेन) में रह रहे मोहन राणा (1964) जीवन के सूक्ष्म अनुभवों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों के कवि हैं. सच की निरंतर खोज करती अपनी कविताओं में वे एक ओर तो उत्कट मनोभावों को सहज आवेग के साथ फूटने देते हैं तथा दूसरी ओर बाजारवाद के प्रतिरोध को संयमित स्वर भी प्रदान करते हैं. उनकी कविताएँ इस दृष्टि से भी विशिष्ट मानी जा सकती हैं कि उनमें विचारधारा सतह पर तैरती नहीं मिलती बल्कि प्रतीयमान अर्थ के रूप में प्रस्फुटित होती हैं. उन्हें यथार्थ जगत भी आभासी जगत जैसा प्रतीत होता है जिसमें अलग-अलग खिड़की खोलने से अलग-अलग दृश्य दिखाई देते हैं. लगता है जैसे निरंतर मुक्ति की खोज चल रही है. निरंतर इसलिए कि ठहरते ही गिरने का डर है. (खोज). मोहन राणा की छोटी-छोटी कविताओं में द्वंद्व, तनाव, विडंबना, एकरसता, एकरूपता, ऊब, भंगुरता, छटपटाहट और ईश्वर की तलाश सघनता के साथ व्यक्त हुई है. मिथक और विज्ञान दोनों के संदर्भ इनकी काव्यभाषा को अलग व्यक्तित्व प्रदान करते हैं. मोहन राणा को हिंदी कवि की इस बेचारगी का भी अहसास है कि आर्थिक अभाव उसे कभी बूढ़ा और रिटायर होने की इजाजत नहीं देते. इसीलिए इस कवि की ईश्वर से अपील है कि “हिंदी का लेखक कभी बूढ़ा न हो/ अस्वस्थ न हो/ उसे माँग न करनी पड़े इलाज के पैसों/ के लिए/ रहने के लिए एक घर के लिए/ बच्चों की पढ़ाई के लिए/ उसके जीवन में कोई जरूरतें ही ना हों.” (राणा, मोहन. ईश्वर).
11.
कवि और भी हैं; बहुत सारे. कविताएँ भी और हैं; बहुत सारी. पर, आज इतना ही. हाँ, यह कहना जरूरी है कि मानवीय सरोकारों की दृष्टि से यदि, ‘नर लोक से किन्नर लोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है’ (डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी), तो यह स्वाभाविक ही है कि प्रवासी हिंदी कविता के मुख्य सरोकार बड़ी सीमा तक वही हैं जो भारत में लिखी जा रही हिंदी कविता के हैं. यही कारण है कि अलग-अलग देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों द्वारा रची जा रही हिंदी कविता में सामाजिक न्याय, मानव अधिकार, जीवन मूल्य, सांस्कृतिक बोध, इतिहास बोध, लोकतत्व, प्रेम और सौंदर्य समान रूप से मुख्य कथ्य बनते दिखाई देते हैं. हाँ, कवियों के निजी व्यक्तित्व और परिस्थिति भेद के कारण उनकी अभिव्यक्ति-पद्धति में अवश्य भिन्नता और विविधता दिखाई देती है. इस प्रकार, व्यापक सरोकारों की समानता और कथन-भंगिमा की निजता से उत्पन्न विविधता द्वारा प्रवासी रचनाकार हिंदी कविता जगत को निरंतर समृद्ध कर रहे हैं.
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद/
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गणेश नगर, रामंतापुर,
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