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सोमवार, 28 मई 2018

रहनुमा तो नहीं हो, साँप ही तो हो : पं. गोपाल प्रसाद व्यास

पुण्य तिथि 28 मई पर विशेष

रहनुमा तो नहीं हो, साँप ही तो हो : पं. गोपाल प्रसाद व्यास
- ऋषभ देव शर्मा

उन्होंने कक्षा सात की भी परीक्षा नहीं दी थी, लेकिन वे अलंकारशास्त्र, रससिद्धांत, नायिकाभेद और समस्त ललित कलाओं के विशेषज्ञ थे. उनका जन्म ब्रजमंडल के एक छोटे से गाँव में हुआ था, लेकिन उन्होंने समस्त हिंदी जगत को अपनी वाणी के प्रसाद से प्रमुदित किया. वे स्कूली शिक्षा को बीच में ही छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे, लेकिन महात्मा गांधी के निर्देश पर उन्होंने सक्रिय राजनीति से परहेज़ करते हुए रचनात्मक कार्यों और आंदोलन में अपने को झोंक दिया. दुनिया उन्हें लाल किले के कवि सम्मेलन के जनक के रूप में जानती है, लेकिन कम लोग यह जानते हैं कि वे केवल हास्य और व्यंग्य के ही अनन्य हस्ताक्षर नहीं थे, बल्कि वीर रस की ओजस्वी कविताओं के क्षेत्र में भी उन्हें बेजोड़ सफलता मिली थी.

ऐसे कविकुल शिरोमणि पंडित गोपाल प्रसाद व्यास का जन्म 13 फरवरी, 1915 को हुआ था और उन्होंने साहित्य की दीक्षा नवनीत चतुर्वेदी, कन्हैया लाल पोद्दार, वासुदेव शरण अग्रवाल और डॉ. सत्येंद्र जैसे अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों से ग्रहण की थी. वे साहित्य संदेश, दैनिक हिंदुस्तान, राजस्थान पत्रिका, सन्मार्ग और विकासशील भारत से संपादक के रूप में तो जुड़े ही थे; पर खास बात यह कि बाईस वर्ष की आयु से जो स्तंभ लेखन का कार्य आरंभ किया, उसे अत्यंत जागरूक पत्रकार के रूप में अपने अंतिम समय तक बखूबी निभाया.

हिंदी भाषा और साहित्य के लिए अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर देने वाले कवि गोपाल प्रसाद व्यास ने ब्रज साहित्य मंडल की ही स्थापना नहीं की, दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन और  श्री पुरुषोत्तम हिंदी भवन न्यास समिति की भी नींव रखी. इतना ही नहीं, होली के अवसर पर ‘मूर्ख महासम्मेलन’ की परंपरा को भी सरलता, सहजता, सरसता और जीवंतता के साक्षात अवतार गोपाल प्रसाद व्यास  ने ही जन्म दिया. आशय यह कि उन्होंने ही हिंदी में हास्य-व्यंग्य की लगभग सूखी धारा को पुनर्जीवित किया.

इसमें संदेह नहीं कि हास-परिहास से लेकर चुटीले व्यंग्य तक उनका कोई सानी नहीं. हिंदी हास्य कविता को पत्नी का आलंबन पहले पहल उन्होंने ही प्रदान किया. पत्नी ही क्या, ससुराल के अन्य सदस्यों साली सलहज और सास के बहाने भी उन्होंने अपने समय और समाज की अनेक दुखती रगों को कभी सहलाया, तो कभी चटकाया भी. साली क्या है रसगुल्ला है, पत्नी को परमेश्वर मानो, साला ही गरम मसाला है, सास नहीं भारतमाता है, पलकों पर किसे बिठाऊँ मैं, एजी कहूँ कि ओजी कहूँ, समधिन मेरी रसभीनी है और भाभीजी नमस्ते जैसी कविताओं के द्वारा वे हिंदीभाषी जनगण के कंठहार बन गए थे. हिंदी कवि सम्मेलन को उन्होंने शिष्ट हास्य द्वारा आम जनता तक पहुँचाने का बड़ा कार्य संपन्न किया.

इसी प्रकार उनकी व्यंग्य कविताओं में खासतौर से आराम करो, नई क्रांति, बोए गुलाब, साँप ही तो हो, सत्ता, सुकुमार गधे और सरकार कहते हैं तो आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी अपने रचनाकाल में रही होंगी. आइए, बानगी देखते चलें.
कुंभकर्णी दोपहरी मंदोदरी साँझ/ रात शूर्पणखा सी बेहया बाँझ/ मेघनाद छाया है/ दसों दिशा क्रुद्ध/ चाह रही बीस भुजा तापस से युद्ध / और तुम कहते हो/ सृजन को सँवारो/ कंटकित करीलों की आरती उतारो! (बोए गुलाब).
साँप,/ दो-दो जीभें होने पर भी/ भाषण नहीं देते?/ आदमी न होकर भी/ पेट के बल चलते हो./यार! हम तुम्हारे फूत्कार से नहीं डरते/ साँप ही तो हो,/भारत के रहनुमा तो नहीं हो! (साँप ही तो हो).
कमर में जो लटकती है उसे सलवार कहते हैं/ जो आपस में खटकती है उसे तलवार कहते हैं/ उजाले में भटकती है उसे हम तारिका कहते/ अँधेरे  में भटकती जो उसे सरकार कहते हैं! (सरकार कहते हैं).
लेकिन आज की पीढ़ी में बहुत कम हिंदीवालों को यह जानकारी होगी कि हास्य रसावतार गोपाल प्रसाद व्यास ने वीर रस से भरी ऐसी कविताएँ भी रची हैं जिन्हें सुनकर आज भी शरीर रोमांचित हो उठता है और मन में ओज भाव का संचार होता है. दरअसल उनका कवि-मन अपने कैशोर्य में सुभाष चंद्र बोस से सर्वाधिक प्रभावित था. उन्होंने सुभाष पर और  स्वतंत्रता संग्राम पर कई ओजस्वी कविताएँ लिखीं जिनमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस, नेताजी का तुलादान, खूनी हस्ताक्षर, हिंदुस्तान हमारा है, मुक्ति पर्व, प्रयाण गीत और शहीदों में तू नाम लिखा ले रे! जैसे मर्मस्पर्शी गीत शामिल हैं.

28 मई, 2005 को यह पार्थिव संसार छोड़ गए कवि गोपाल प्रसाद व्यास की कीर्ति-काया अजर-अमर है. उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें प्रणाम करते हुए ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ का यह अंश श्रद्धापूर्वक निवेदित है :

बाँधे जाते इंसान, कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं।/
 काया ज़रूर बाँधी जाती, बाँधे न इरादे जाते हैं।।/
 वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया।/
वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।।   (नेताजी सुभाष चंद्र बोस).

शुक्रवार, 25 मई 2018

रामकथा आधारित एनिमेशन ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ : एक अध्ययन


रामकथा आधारित एनिमेशन ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ : एक अध्ययन

ऋषभदेव शर्मा और कुमार लव


‘रामायण’, ‘महाभारत’ और ‘बृहत्कथा’ भारतीय वाङ्मय के ऐसे आकर-ग्रंथ हैं जिनकी कथाएँ अनेक रूपों में देसी लोकसाहित्य से लेकर विदेशी साहित्य तक में फैली हुई हैं. इनमें भी विशेष रूप से अपनी सरलता, पारदर्शिता, मूल्यनिष्ठता और मानवीय पुरुषार्थ केंद्रिकता के कारण रामकथा संभवतः सर्वाधिक वैविध्य के साथ देश-विदेश के नाना भाषा समुदायों में प्रचलित मिलती है. इस मूलतः पौराणिक- ऐतिहासिक कथा का ढाँचा कुछ इतना लचीला है कि एक जगह से दूसरी जगह जाते-जाते इसका पाठ लगातार बदलता रहता है. एक काल से दूसरे काल तक जाने पर तो और भी बदलाव हो जाते हैं. देश-काल के भेद से उत्पन्न पाठ भेदों के कारण प्रायः इसे मिथक की कोटि में भी गिन लिया जाता है लेकिन विभिन्न प्रकार के पुरातात्विक, भाषिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक साक्ष्य यह प्रमाणित करते हैं कि रामकथा मूलतः ऐतिहासिक है लेकिन उसके पात्र इतने अधिक लोकाभिराम हैं कि उसमें पुरावृत्त और लोकसाहित्य जैसी परिवर्तनीयता आ गई है. सहज रूप में लोकचित्त के अत्यंत निकट होने के कारण आज भी यह कथा नए-नए अवतार धारण करके रामत्व अथवा राम संस्कृति के मूल्यों को अधुनातन पीढ़ियों को सौंपने का काम कर रही है. 


अपनी इस विश्वयात्रा में रामकथा ने यदि हजारों हजार वर्ष पहले विभिन्न लोककलाओं और माध्यमों का सहारा लिया तो क्रमशः मौखिक से लिखित साहित्य की ओर भी प्रस्थान किया. उसी समय से लिखित और मौखिक दोनों ही परंपराओं में रामकथा अनेक रूपों में मिलने लगती है. स्वयं संस्कृत में ही रामकथा के विभिन्न पात्रों के अवलोकन बिंदु से संचालित विविध पाठ मिलते हैं. यह इस कथा की लोकतांत्रिक प्रकृति ही है कि देश-दुनिना में राम संस्कृति साहित्य के अलावा बित्तिचित्रों, रेखांकनों, रंगचित्रों, मूर्तियों और स्मारकों के रूप में उपलब्ध होती है. इस लोकतांत्रिक प्रकृति के कारण ही इस कथा के मुख्य पात्रों के क्रियाकलापों पर प्रश्न उठाने की परंपरा भी आरंभ से ही चली आ रही है. कहने का आशय यह है कि रामकथा की विश्वयात्रा का एक आधार यदि इसमें निहित नैतिक मूल्य हैं तो दूसरा बड़ा आधार इसकी वह लोकतांत्रिक प्रकृति है जो इसे विभिन्न देश-काल तथा भाषा-समुदाय के अनुरूप ढल जाने देती है. यही कारण है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के वैश्विक विस्फोट के वर्तमान युग में भी यह कथा सिनेमा से लेकर सोशल मीडिया तक तथा कार्टून कथाओं से लेकर एनीमेशन फिल्मों तक के लिए सुग्राह्य और लोकप्रिय कथा है. इसके मोटिफ का इस्तेमाल करते हुए तो जाने कितनी कथाएँ विविध माध्यमों से रची जा चुकी हैं और निरंतर रची जा रही हैं, लेकिन एनिमेशन फिल्म जैसा माध्यम भी इससे अछूता नहीं है. एक ओर हनुमान जैसे पात्रों पर आधारित एनिमेशन विभिन्न टीवी चैनलों पर लोकप्रिय है और विभिन्न भाषाओँ में उनकी डबिंग की जा रही ही तो दूसरी ओर सीता के दृष्टिकोण से रचित एनिमेशन फिल्म ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ (2008) अमेरिका में रची जाकर रामत्व की विश्वयात्रा को नया आयाम देती देखी जा सकती है. 


लोक गायन की परंपरा से यह ज्ञात होता है कि वाल्मीकि द्वारा लेखबद्ध किए जाने से पहले ही राम और सीता की गाथा ऐतिहासिक वृत्ति की सीमाओं को लांघकर लोकगाथा और निजंधरी कथा का रूप धारण कर चुकी थी. तब से अब तक जब जब भी इसे लिखा गया, मंचित किया गया या किसी भी कला माध्यम द्वारा अंगीकृत किया गया तब तब इन नए पाठ रचने वालों ने मौलिक उद्भावनाओं के नाम पर इस कथा को कभी विकसित किया, तो कभी विकृत भी किया. लोकगाथा बन चुके चरित्रों और घटनाओं के साथ ऐसा होणा स्वाभाविक ही है क्योंकि जन-मन ऐसी गाथाओं की अपने मनोनुकूल व्याख्या और पुनर्रचना करने के लिए स्वतंत्र होता है. ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ पर भी यह बात लागू होती है. निर्देशक के अनुसार यह फिल्म सत्य और न्याय की गाथा के साथ-साथ समानता के अधिकार के लिए स्त्री की चीख भी है. इस कथन में रामकथा की वैश्विक प्रासंगिकता निहित है. 


‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ एक एनिमेटड फिल्म है. इसके बारे में रोचक तथ्य यह है कि निर्माता-निर्देशक ने इसे सर्जनात्मक सामान्य लाइसेंस (क्रिएटिव कॉमन्स लाइसेंस) के अंतर्गत सर्वसुलभ कराया है. अर्थात यह फिल्म इस फिल्म को कोई भी देखने के साथ-साथ संपादित, परिवर्तित और परिवर्धित कर सकता है. हाँ, यह बात उन कुछ गीतों पर लागू नहीं है जिनका मूल कॉपीराइट किसी दूसरे के पास है. निर्देशक नीना पेले ने इस फिल्म को ‘लोक’ को अर्पित करते हुए अपनी वेबसाइट पर लिखा है, “मैं ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ आपको सौंप रही हूँ. वैसे तो सारी संस्कृति की तरह यह पहले से ही आपकी है, लेकिन मैं इसका विधिवत उल्लेख कर रही हूँ. आप इसे मुक्त रूप से वितरित करें, कॉपी करें, शेयर करें, सहेज कर रखें और प्रदर्शित करें. यह गाथा साझा संस्कृति की विरासत है और उसीको समर्पित है.” वे आगे स्पष्ट करती हैं कि ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ को कॉपी करने, साझा करने, प्रकाशित करने, सहेजने, प्रदर्शित करने, प्रसारित करने या रीमिक्स करने के लिए किसी प्रकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं है. व्यावसायिक बुद्धि भले ही इस सब का मूल्य निर्धारित करने को कहती हो, लेकिन निर्माता की इच्छा यह है कि यह रचना हर उस व्यक्ति तक भी पहुँचे जो किसी भी प्रकार का भुगतान करने में असमर्थ है. उन्होंने अपने दर्शक पर, संस्कृति पर और स्वतंत्रता की भावना पर विशवास जताया है. इसे रामकथा को नए माध्यम द्वारा जन-जन तक पहुँचाने के लिए प्रौद्योगिकी के मुक्त/मुफ्त उपयोग का अच्छा उदहारण मानना चाहिए. 

फिल्मकार को इस बात का अंदाजा है कि जिस कहानी पर यह फिल्म बनाई जा रही है, उससे दर्शक पहले से किसी न किसी रूप में परिचित हैं. इसलिए उन्होंने चरित्रों को स्थापित करने या कथा के किसी एक विशिष्ट पाठ को प्रतिपादित करने के बजाय शुरू से ही इस बात पर ध्यान दिया है कि एन्नेटे हैंशा की आवाज में सीता की निजी अनुभूति की अभिव्यक्ति हो सके.

यह फिल्म चार कथात्मक इकाइयों में बँटी हुई है. पहली इकाई का संबंध आधुनिक कथा से है. यह कथा नीना पाले की है. नीना अपने पति और बिल्ली के साथ सैन फ्रांसिस्को में सुखपूर्वक रह रही है. तभी (2002) पति को भारत में नौकरी मिल जाती है और वह त्रिवेंद्रम चला जाता है. महीने भर में पति का बस एक फोन आता है. इस उपेक्षा से आजिज़ आकर वह भी पति के साथ रहने के लिए भारत आ जाती है. पति किसी प्रकार की प्रसन्नता नहीं दर्शाता और पत्नी के प्रति पूरी तरह उदासीन रहता है. इसी बीच अपनी कॉमिक फिल्म के सिलसिले में पत्नी को न्यूयॉर्क जाना पड़ता है. पीछे-पीछे पति के ईमेल के रूप में संबंध-विच्छेद की घोषणा आ जाती है. अपने खालीपन को भरने के लिए वह ‘रामायण’ पढ़ना शुरू करती है. दरअसल अमेरिका में रहने वाली नीना भारत आने पर ही रामकथा से परिचित हुई थीं. एन्नेटे हैंशा को सुनने के बाद उन्हें लगा कि सीता की और उनकी अपनी कहानी मैं कुछ ऐसी समानांतरता है जिसे किसी संगीत-रूपक का आधार बनाया जा सकता है. उन्होंने इस विषय को लेकर एक संगीत-वीडियो बनाने का निश्चय किया. फलस्वरूप, यह एनिमेशन फिल्म ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ अस्तित्व में आई.

इस कथावृत्त की दूसरी इकाई का संबंध सीधे-सीधे रामायण से है.यहाँ कथावाचक के रूप में हमारे सामने तीन छाया कठपुतलियाँ आती हैं. आप इन्हें भारतीय भी समझ सकते हैं औरचाहें तो इंडोनेशियन भी मान सकते हैं. इन छायापुतलियों के पास रामकथा की धुंधली-धुंधली यादें हैं जिनका निर्माण रामलीलाओं, टीवी सीरियलों और उन तमाम दूसरे-दूसरे पाठों के आधार पर हुआ है जिन्हें अलग-अलग माध्यमों में रामकथा के रूप में टुकड़े टुकड़े दास्तान की तरह अपनाया और पेश किया जाता है. एक खास बात इन तीनों छायापुतलियों की यह है कि ये पूरी तरह लोकतांत्रिक हैं. इन तीनों का अपना-अपना नजरिया है, मगर कट्टरता नहीं. तीनों को यह भली प्रकार मालूम है कि मेरे अलावा दूसरों का नजरिया भी ठीक हो सकता है. उन्हें कतई जरूरी नहीं लगता कि सबका सच एक जैसा हो. बल्कि वे यह मान कर चलती हैं कि हम तीनों ही सही हो सकती हैं. कहना न होगा कि यह बात शायद हिंदू जनजागृति समिति की समझ में नहीं आ सकी थी इसीलिए उन्होंने राम कथा पर आधारित और परंपरागत माध्यम के साथ-साथ आधुनिक प्रौद्योगिकी के सहारे नव मीडिया का उपयोग करते हुए रचे जा रहे रामचरित के नए पाठ को जन भावनाओं को ठेस पहुँचाने और तिरस्कार करने वाला मानकर इस पर प्रतिबंध की माँग (2009) की थी.

कथावृत्त की तीसरी इकाई के रूप में हमारे सामने सीधे-सीधे रामायण के विविध कांड आते हैं. इसके लिए फिल्मकार ने अठारहवीं शताब्दी की राजपूत पेंटिंग शैली का उपयोग किया है. दरअसल राजपूत पेंटिंग् शैली को महाकाव्य का चित्रांकन करने के लिए बहुत उपयोगी और उपयुक्त माना जाता है. पारंपरिक रूप से रामायण का चित्रांकन इस शैली में होता रहा है. आप जानते ही हैं कि राजपूत एक युद्धक जाति है और इसीलिए इस शैली में रामायण को एक ऐसे युद्ध-महाकाव्य के रूप में चित्रांकित किया जाता है जिसमें काव्यनायक युद्ध करता है और नायिका को पृथ्वी की भांति जीतने-हारने की ‘वस्तु’ माना जाता है; नायिका का हरण हो जाता है और नायक उसे खलनायक के चंगुल से निकालने के लिए भीषण युद्ध करता है, अपना नायकत्व स्थापित करता है.

इस कथावृत्त की चौथी इकाई का निर्माण सीता की आत्माभिव्यक्ति पर आधारित संगीतमय प्रस्तुति से हुआ है. यह सीता पुराणों वाली सीता नहीं है. या कहें कि मध्यकाल की सीता नहीं है. यह तो आज की वह सीता है जो राम की छाया और अनुगामिनी मात्र नहीं बल्कि ऐसी स्वतंत्र चेतना संपन्न स्त्री है जो अपने साथ किए जा रहे तमाम तरह के लैंगिक भेदभाव और वस्तुकरण की परंपरा की आलोचना कर सकती है; उस पर अपना निर्णय सुना सकती है, विरोध दर्ज करा सकती है. यह सीता जहाँ आनंद से परिपूर्ण है, वहाँ अपने आनंद को नृत्य के माध्यम से व्यक्त करती है और जहाँ पीड़ा और क्रोध से तपती है, वहाँ करुणा और उग्रता को भी छिपाती नहीं है. वह अपनी कारुणिक परिस्थितियों के प्रति पूरी तरह सचेत है और इस बात का भी उसे पूरा ख्याल है कि उसे इस विश्व की सर्वाधिक पवित्र स्त्री और सतीत्व के आदर्श के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है. इस एनिमेशन फिल्म की सीता बड़ी सीमा तक मैक्स फ्लीशर की एनिमेटेड कार्टून पात्र बेट्टी बूप के समान है जो अपनी कहानी खुद बयान करती है. यह कहानी नीना की कहानी के समानांतर चलती है जिन्होंने खुद अपनी कहानी के आधार पर इस एनिमेशन की रचना की है.

आधुनिक मीडिया और प्रौद्योगिकी की सहायता से रचित रामकथा के इस नए पाठ में जो बात सर्वाधिक आकर्षित करती है वह है सीता का सर्वथा नए संदर्भ में प्रतिष्ठापन. पारंपरिक सभी पाठों में सीता की महानता शूर्पणखा, अहल्या, ताड़का, कैकेयी और अन्य स्त्री पात्रों के बरक्स रची जाती रही है. लेकिन इस नए पाठ में सीता को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण अन्याय का शिकार होते हुए दिखाया गया है. इस कारुणिक दशा के बावजूद वह विलाप नहीं करती बल्कि अपने सम्मान का प्रश्न उपस्थित होने पर स्वाभिमान पूर्वक स्वयं राम का परित्याग कर देती है. यहाँ सीता महावृतांत का प्रस्तुतीकरण करने वाली छायापुतलियों के साथ एकाकार हो जाती है और दर्शकों को सावधान करती है कि किस तरह महान कथावृत्त रचे जाते रहे हैं और किस तरह उनकी पात्र परिकल्पना हमारे साधारणीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करती रही है. इस नए पाठ में राम-लक्ष्मण के चरित्र का प्रक्षालन किया गया है और शूर्पणखा के अंग-भंग की शर्मनाक घटना को छोड़ दिया गया है. यहाँ रावण बदले के लिए नहीं बल्कि शूर्पणखा के चालाकी भरे उकसावे में आकर सीता-हरण पर आमादा होता है. इसी प्रकार स्वर्ण-मृग पर सीता ही नहीं, स्वयं राम भी मुग्ध होते हैं और अपनी प्रिया को उपहार देने के लिए उसका शिकार करने निकलते हैं.

रामकथा का यह नया पाठ इस मामले में भी नया है कि फिल्मकार ने रावण को समस्त बुराइयों के प्रतीक के रूप में अंकित नहीं किया है. नीना के रावण में एक ही बुराई है और वह है कि उसने शूर्पणखा के उकसाने पर सीता का अपहरण किया वरना तो रावण एक महान विद्वान, तपस्वी और अपनी आँतों से वीणा बजा सकने वाला सिद्धहस्त संगीतकार है. इस फिल्म को देखकर दर्शक को लगता है कि रावण कोई मोगेंबो जैसा अपराधी चरित्र नहीं है बल्कि हमारे अपने पूर्वग्रहों ने उसकी वैसे खलनायक वाली छवि बना रखी है. लेकिन यह भी ध्यान आकर्षित करने वाला तथ्य है कि भले ही रावण ने कभी भी सीता का स्पर्श तक नकिया हो तो भी यहाँ उसकी इस कारण से कोई प्रशंसा नहीं की गई. स्त्री विमर्श की दृष्टि से तो रावण और राम दोनों ही सीता के वस्तुकरण के अपराधी हैं; एक ने उनका अपहरण किया तो दूसरे ने मिथ्या आरोप लगाकर निर्वासित किया.

विश्व भर के दर्शकों के लिए निर्मित किए गए रामकथा के इस पुनर्पाठ की केंद्रीय घटना सीता की अग्नि परीक्षा है. जब सीता को पता चलता है कि राम तो अपने क्षात्रधर्म का पालन करते हुए अपने पुरुष पुरुषत्व को प्रमाणित करने के लिए युद्ध कर रहे थे और उनके समक्ष सीता के लिए अपनी पवित्रता अग्निपरीक्षा द्वारा प्रमाणित करना आवश्यक था, तो वह अपमान की अग्नि से दहकने लगती हैं और अग्निपरीक्षा देकर अपनी पवित्रता प्रमाणित करती हैं. इसके बावजूद उन्हें किसी धोबी के कथन के बहाने धोखे से निर्वासित कर दिया जाता है. बाद में, फिर से पवित्रता का प्रमाण माँगा जाता है. ये दोनों ही अवसर स्त्रीत्व के चरम अपमान के अवसर हैं. इनसे जुडी सीता की मनोदशा को ‘एन्नेटे हैंशा’ की दर्दभरी आवाज में ‘मीन टू मी’ गीत में मर्मस्पर्शी अभिव्यंजना प्राप्त हुई है .यहाँ वेक्टर ग्राफिक एनीमेशन की अद्यतन तकनीक का प्रयोग प्रौद्योगिकी के रचनात्मक संयोजन का सुंदर उदाहरण है. इसके अलावा यह घटना नीना के अपने विवाह-विच्छेद की घटना के साथ बिंब-प्रतिबिंब भाव से इस तरह जोड़ दी गई है कि युगों पूर्व की सीता और आज की नीना एक साथ आकर दर्शक के सामने खड़ी हो जाती हैं. इस हृदय विदारक क्षण को रीना शाह ने अपने उग्र नृत्य द्वारा इस तरह साकार किया है कि तिरस्कृत, निर्वासित और परित्यक्त स्त्री की आंतरिक वेदना की आग दर्शक सहज ही महसूस कर पाता है. आश्चर्य नहीं कि रामकथा का यह स्त्री पाठ सीता द्वारा राम के परित्याग के रूप में अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता है. सीता राम को त्याग देती हैं और अपनी माता पृथ्वी की गोद में चली जाती हैं. इसके बाद एक स्वप्न दृश्य है जिसमें लिंगभेद जनित भूमिकाएँ बदल जाती हैं और भगवान विष्णु शेषशय्या पर विराजमान लक्ष्मी के पाँव दबाते नज़र आते हैं. 


निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि कंप्यूटर ग्राफिक्स और फ़्लैश एनीमेशन की अधुनातन प्रौद्योगिकी के सहारे निर्मित नीना पाले की यह फिल्म- 

- रामकथा में निहित स्त्री-पुरुष संबंधों के तनाव को सामने लाती है. (शायद ये तनाव ही परंपरागत सीता को छाया-सीता बनने के लिए मजबूर करते रहे हैं.) 
- रामकथा के लोकतांत्रिक चरित्र को उभारती है और ध्यान दिलाती है कि जन-जन द्वारा अंगीकार की गई इस गाथा को किसी एक जड़ फ्रेम में बाँधना इसकी हत्या करने जैसा है. (इस प्रकार यहाँ आधुनिक हठवादियों के आक्षेपों के औचित्य पर सवाल उठाया गया है.) 
- कथा सुनाने वाली तीन छायापुतलियों के बहाने सीता की पवित्रता के संबंध में अलग-अलग मत-वादों को सामने लाती है तथा नीना और सीता के बिंब-प्रतिबिंब भाव से अंकन द्वारा यह विश्वास दिलाने का प्रयास करती है कि एक स्वाभिमानी स्त्री के रूप में सीता ने पातिव्रत्य के प्रमाण की माँग के समय कैसा अनुभव किया होगा. 
- स्त्री-प्रश्नों के अलावा सत्य और न्याय के भी शाश्वत प्रश्नों पर सोचने के लिए अपने ग्लोबल दर्शक समुदाय को प्रेरित करती है और राम संस्कृति की विश्वयात्रा को आगे बढाती है.

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 http://blog.ninapaley.com/2013/01/18/ahimsa-sita-sings-the-blues-now-cc-0-public-domain/

Director Nina Paley's long synopsis from the press section at SitaSingstheBlues.com, retrieved May 4, 2008

https://openglam.org/2013/01/19/sitas-free-landmark-copyleft-animated-film-is-now-licensed-cc0/

Ekadashi, Chaitra Shuddha. Hindus, Strongly Protest against movie denigrating Devi Sita!Hindu Janajagruti Samiti. April 5, 2009

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· ऋषभदेव शर्मा, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद (तेलंगाना), भारत
 · कुमार लव, हेड, कस्टमर सक्सेस, सविशा, गोरेगाँव-पूर्व, मुंबई-400063 (महाराष्ट्र), भारत. 

गुरुवार, 24 मई 2018

प्रवासी हिंदी कवियों की संवेदना : सरोकार के धरातल


प्रवासी हिंदी कवियों की संवेदना : सरोकार के धरातल
- ऋषभ देव शर्मा

हिंदी कविता का फलक आज पूरी तरह से अक्षेत्रीय हो चुका है. हिंदी के साहित्य-जगत में अब कभी सूरज डूबता नहीं है. कक्षाओं में भले ही यह पढ़ाया जाता हो कि हिंदी अमुक-अमुक सीमित भू-खंड की भाषा है, परंतु उसका प्रसार अब समस्त भूमंडल तक है. हिंदी कविता का यदि एक आयाम क्षेत्रीय है तो उसका दूसरा आयाम अखिल भारतीय है. तीसरा आयाम उन देशों के रचनाकारों द्वारा निर्मित है जहाँ हिंदी भाषी जन उपनिवेशकाल में या तो स्वयं जा बसे या ले जाकर बसा दिए गए तथा चौथा आयाम उस पीढ़ी द्वारा निर्मित है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के आसपास यूरोप तथा अन्य महाद्वीपों में जा बसी. हिंदी कविता का आज एक पाँचवाँ आयाम और है जिसका संबंध उन कवियों से है जो किसी भी प्रकार भारतीय मूल के नहीं, लेकिन जिन्होंने हिंदी को सीखा ही नहीं अपनी अभिव्यक्ति की भाषा भी बनाया है. हिंदी कविता के बृहत्तर इतिहास में हिंदी-भूगोल के बाहर के समस्त रचनाकारों का लेखा-जोखा और मूल्यांकन होना अभी शेष है. प्रस्तुत आलेख में हम अपनी दृष्टि इनमें से तीसरे और चौथे आयाम पर फोकस करेंगे.
भारत के बाहर आज सारी दुनिया में भारतवंशी फैले हुए हैं. इनके हिंदी रचनाकर्म को आज प्रवासी हिंदी साहित्य के रूप में जाना जाता है. यदि अन्य विधाओं को छोड़ भी दें और केवल प्रवासी रचनाकारों की हिंदी कविता पर ही ध्यान दें, तो पता चलता है कि ऐसे कवियों की संख्या सैकड़ों में है. यहाँ हम स्थालीपुलाक न्याय से केवल कुछ कवियों की चुनिंदा कविताओं के अनुशीलन द्वारा उनके मुख्य सरोकारों को रेखांकित करने का प्रयास करेंगे.     
1. 
अभिमन्यु अनत (1937) को यों तो मारीशस का हिंदी-कथा-सम्राट माना जाता है, लेकिन सही अर्थ में प्रवासी हिंदी कविता के भी वे शीर्षस्थ हस्ताक्षर हैं. उनके पूर्वज ब्रिटिश शासन काल में भारत से मारीशस ले जाए गए थे. अभिमन्यु अनत का जन्म मारीशस (त्रियोले) में ही हुआ. उन्होंने हिंदी कविता को एक नया संस्कार दिया जिसका निर्माण मारीशस के जीवनानुभव और भारतभूमि के लिए तड़प की अभिक्रिया से हुआ है. वे सही अर्थ में आम आदमी की भावनाओं को व्यक्त करने वाले कवि हैं तथा शोषण, दमन, अत्याचार और क्रूरता के विरुद्ध विद्रोह को दर्ज करते हैं. वर्गभेद को उन्होंने नजदीक से देखा और भोगा है तथा साथ ही व्यवस्था की चालबाजियों को भी वे खूब समझते हैं  “जिस दिन सूरज को/ मजदूरों की ओर से गवाही देनी थी/ उस दिन सुबह नहीं हुई/ सुना गया कि/ मालिक के यहाँ की पार्टी में/ सूरज ने ज्यादा पी ली थी.” (अनत, अभिमन्यु). उन्हें मजदूरों की यह नियति स्वीकार नहीं है कि वे दो जून रोटी के लिए मालिक के सामने घुटने टेकें या हाथ पसारें  “तुमने आदमी को खाली पेट दिया/ ठीक किया/ पर एक प्रश्न है रे नियति/ खाली पेटवालों को/ तुमने घुटने क्यों दिए?/ फैलानेवाला हाथ क्यों दिया? (अनत, अभिमन्यु. खाली पेट). इसीलिए उन्हें यह स्थिति अत्यंत विडंबनापूर्ण प्रतीत होती है कि “पसीने की कीमत/ जब इतनी महँगी होती है/ तो मजदूर उसे इतने सस्ते क्यों बेच देता है?” (अनत, अभिमन्यु. कविता का प्रश्न).
मारीशस में बसे भारतवंशियों के सामूहिक अचेतन में वे स्मृतियाँ आज भी संचित हैं जिनका संबंध भारत भूमि से उन्हें जबरन एक वीरान द्वीप पर लाकर छोड़ दिए जाने से है और जिनमें वह सारी संघर्षगाथा सुरक्षित है कि कैसे खून-पसीना सचमुच एक करके इन भारतवंशियों ने जिजीविषा की उत्तरजीविता प्रमाणित की. वे जिए क्योंकि उन्होंने संघर्ष किया. वे बचे क्योंकि वे सर्वोतम थे. लेकिन यह जीवन संघर्ष सदा-सदा के लिए सामूहिक स्मृति में दर्ज हो गया. अभिमन्यु अनत इसे अभिव्यक्त करने वाले सबसे प्रखर वक्ता हैं  “आज अचानक/ हिंद महासागर की लहरों से तैर कर आई/ गंगा की स्वर-लहरी को सुन/ फिर याद आ गया मुझे वह काला इतिहास/ उसका बिसारा हुआ वह अनजानआप्रवासी./ देश के अंधे इतिहास ने न तो उसे देखा था/ न तो गूँगे इतिहास ने कभी सुनाई उसकी पूरी कहानी हमें/ न ही बहरे इतिहास ने सुना था/ उसके चीत्कारों को/ जिसकी इस माटी पर बही थी/ पहली बूँद पसीने की/ जिसने चट्टानों के बीच हरियाली उगाई थी/ नंगी पीठों पर सहकर बाँसों की/ बौछार बहा-बहाकर लाल पसीना/ वह पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा/ जो मेरा भी अपना था, तेरा भी अपना.” (अनत, अभिमन्यु. वह अनजान आप्रवासी). यहाँ यह भी कहना उचित होगा कि कवि अभिमन्यु अनत का सौंदर्यबोध अत्यंत प्रशस्त है, लेकिन उनकी काव्य भंगिमा पूरी तरह एंटी-रोमांटिक है. इसका कारण भी उस मनोविज्ञान में ही निहित है जिसका गठन शोषण और विद्रोह के घात-प्रतिघात से होता है. कवि को समुद्र सुंदर लगता है, उसके किनारे की रेत भी सुंदर लगती है, मछुआरों के बच्चों की खाली मुस्कानें भी सुंदर लगती हैं, युवतियों के उरोज और जंघाएँ भी सुंदर लगती हैं; लेकिन कवि का मन इस इंद्रधनुष में नहीं रम पाता, क्योंकि उसे मनचलों की पिपासित आँखें, भिखारी का फैला हुआ हाथ, अमेरिकी पर्यटक की जेब में अकुलाते हरे-भरे डालर और उन डालरों के लिए बिकती हुई साँवली वेश्या से निर्मित परिदृश्य अश्लील और लज्जाजनक लगता है. इतना अश्लील और लज्जाजनक कि “उन्हें कराहते छोड़ झागों में/ नारंगी क्षितिज से/ भाग गया सूरज.” (अनत, अभिमन्यु. इंद्रधनुष का देश). यह सांस्कृतिक फाँक अभिमन्यु अनत सहित और भी तमाम प्रवासी कवियों को बेचैन करती है और वे इसे स्वर भी देते हैं, लेकिन सबके स्वर में अभिमन्यु अनत जैसी तल्ख़ी नहीं है  “मेरे अपने भीतर/ आज फिर खौल उठा है गुलमोहर/ और मैं/ अपने हाथों को एक बार फिर/ लाल करना चाह रहा हूँ / उस मूर्तिकार और उस कवि के खून से/ जो शाही खजाने से/ बना रहे हैं/ उस भेड़िये की मूर्ति/ और लिख रहे हैं उस पर एक दूसरा पृथ्वी रासो.” (अनत, अभिमन्यु. गुलमोहर खौल उठा).       
2.
ब्रिटेन में बसे हुए डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव (1935) कैंब्रिज विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे हैं. उन्होंने कविता, यात्रावृत्त, डायरी और नाटक जैसी विभिन्न विधाओं में बहुत काम किया है. डॉ. सत्येंद्र की कविता में नई पहचान के साथ उभरता भारत उपस्थित है; ‘सर विंस्टन चर्चिल मेरी माँ को जानते थे’ उनकी एक ऐसी ही कविता है. इस कविता में कवि याद करता है कि ब्रिटिश साम्राज्य काल में भारत या तो अंग्रेजों के लिए विलासिता और लूट का स्रोत था; या फिर दमन और अत्याचार का पात्र. उस काल में ब्रिटेन सर्वशक्तिमान था और अंग्रेजों ने अपनी सुख-सुविधा के लिए हिमालय की गोद को काट-तराश कर मसूरी शहर बसाया था जो विंस्टन चर्चिल को एडिनबरा की याद दिलाता था. कवि ने इस कविता में सीधे-सीधे विंस्टन चर्चिल को संबोधित किया है और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान घटित उस प्रसंग की याद दिलाई है जब महात्मा गांधी के आह्वान पर सत्याग्रह करती हुई कुछ महिलाएँ अंग्रेज सैनिकों के दस्ते को आने-जाने से रोकने के लिए रास्ते पर पंक्तियों में लेट गई थीं. कविता उस समय ओज गुण की ऊँचाई पर पहुँचती है जब स्वतंत्र भारत के युवा नागरिक के रूप में आख्याता चर्चिल के पूर्व आवास पर पहुँचता है. करुणा, गौरव, राष्ट्रीयता और स्वाभिमान जैसे भाव एक साथ जागने लगते हैं जब आख्याता बताता है कि अंग्रेज़ सिपाहियों का रास्ता रोकने के लिए सड़क पर लेटने वाली उन भारतीय महिलाओं में स्वयं आख्याता की माँ भी थी जो गर्भवती थी और किसी भी क्षण शिशु को जन्म दे सकती थी. कवि के इस स्वर में चुनौती भी है  “सर विंस्टन आप मेरी माँ को जानते हैं/ वह भी एक सात महीने के बच्चे का पेट फुलाए/ मेरे पिता का आशीष लेकर/ मसूरी के उसी रास्ते पर लेट गई थी,/ जहाँ से फौजियों के दस्तों को लौटना पड़ा था / मैं उसी माँ के पेट से जन्मा उसका बेटा हूँ/ और मेरा नाम सत्येंद्र है/ और मैं आपसे यह कहने आया हूँ/ कि मैं अब इंग्लैंड में आ गया हूँ.” (श्रीवास्तव, सत्येंद्र. सर विंस्टन चर्चिल मेरी माँ को जानते थे.)
सत्येंद्र श्रीवास्तव मानवीय संबंधों और संवेदनाओं के विघटन के प्रति भी चिंतित दिखाई देते हैं. इन्हें आज का समय किसी निरंतर घटित होती हुई ग्रीक ट्रैजडी जैसा प्रतीत होता है. इसे व्यक्त करने के लिए कवि ने प्रभावशाली बिंबों का विधान किया है. दृष्टियों में बीते हुए कल की बाढ़ होना, बाढ़ में ऐसे दिलों का बहना जो जड़ों से अलग हो चुके हैं, स्याह क्षितिजों की अरथियों पर किरणों की लाशें पड़ी होना, खामोशियों का फैलना, पीड़ा का हर इंच दरकना जैसे बिंब समर्थ काव्यभाषा का निर्माण करते हैं और कवि यह सूक्ति रचता है  “प्यार है अपशब्द जग के कोश में.” (श्रीवास्तव, सत्येंद्र. यह घड़ी.)  दरअसल, बिंब रचना में कवि सत्येंद्र बहुत दक्ष हैं. इसके लिए वे तुक का तो प्रयोग करते ही हैं, द्वंद्वात्मक समांतरता का भी प्रभावी उपयोग करते हैं. जैसे  “रात आधी/ सो रहे कुछ लोग पुल के पास/ साथ कुछ रंगीन चेहरे/ माँगते सहवास.” (श्रीवास्तव, सत्येंद्र. लंदन के चेरिंग क्रास के लोग  शब्द चित्रों में). यहाँ  यह भी द्रष्टव्य है कि कवि के सरोकार एकदेशीय न रहकर क्रमशः वैश्विक होते जाते हैं. प्रवास में अपना मूल आवास तमाम निजी संस्कारों के साथ याद जरूर आता है, लेकिन शब्दों में उतरते वक्त वह स्थानीयता से मुक्त साधारणीकरण को संभव बनाता है. जब कवि गोलियाँ चलने, लोगों के मरने, अखबारी दाँव पेंच के पन्ने भरने, लड़ते गिरते जन के मर मिटने के शब्दचित्र बाँधकर इस परिणति को व्यक्त करता है कि ‘अब लगता राजनीति से/ कब्रें ढकते हैं’ (वही), तो इससे उसका प्रवास की धरती से स्थापित हो चुका रिश्ता भी व्यंजित होता है.   
3.
दिव्या माथुर संवेदनात्मक स्तर पर भारत की जमीन से गहरे जुड़ी हुई कवयित्री हैं. उन्हें समकालीन आर्थिक और राजनैतिक गतिविधियों की भी अच्छी समझ है. यही कारण है कि वे प्रगति के रूप में आ रही ‘अगति’ और ‘दुर्गति’ को देख और दिखा पाती हैं. टर्मिनेटर बीज केवल एक ऐसा उत्पाद ही नहीं है जिससे उगने वाली फसल बीज के रूप में परिणत नहीं हो पाती, बल्कि एक प्रतीक भी है - नए सृजन की संभावना को नष्ट करने के षड्यंत्र का. पुरानी फसल के बीजों को सुरक्षित रखना कई तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक संबंध का आधार था. टर्मिनेटर बीज उस संबंध को भी टर्मिनेट कर देगा और ऋण-आधारित ऐसी सभ्यता को बढ़ावा देगा जिसमें गाँव बिकेंगे और किसान आत्महत्या कर लेंगे  “सुना है/ किसान अब अपने बीज नहीं बो सकते/ न ही वे बाँट सकते हैं अपने ही जाए बीज/ अपनों को./ सुना है/ बैंक तैयार हैं कर्ज देने को बीज/ जिनकी फसलें होंगी रंगीन और पुष्ट/ पर बेस्वाद और फुसफुसी.” (माथुर, दिव्या. तरक्की पर भारत.)
दिव्या माथुर की कविता ‘रंग दे बसंती चोला’ यद्यपि बड़ी सीमा तक इतिवृत्तात्मक प्रतीत होती है तथापि उसमें निहित सरदार भगतसिंह और उनकी माँ के वार्तालाप का द्विभाषिक (हिंदी और पंजाबी) प्रोक्ति गठन, भारतीय लोकजीवन और लोकमानस की जीवंत उपस्थिति, हिंसा और अहिंसा का द्वंद्व और अंग्रेजों के प्रति टिप्पणी उसे उल्लेखनीय रचना बनाने के लिए काफी हैं. ढोलक, समूह नृत्य, हल्दी की  रस्म, तेल चुआने की रस्म, फेरे लेने की रस्म, अक्षत छिड़कना, टीका करना और मंत्र फूँकना जैसे प्रयोग जहाँ प्रवासी कवयित्री की भारतीय लोकसंपृक्ति के द्योतक हैं, वहीँ भगतसिंह की माँ का यह कथन स्वतंत्रता आंदोलन के पूरे परिवेश की अगुवाई करता दिखाई देता है  “गोरों दा दीन-ईमान नहीं/ तोपाँ ते तैन्नु देंगे उड़ा.” (माथुर, दिव्या. रंग दे बसंती चोला).
4
ज़ेबा रशीद का काव्य संस्कार बड़ी सीमा तक उर्दू की इश्किया शायरी से बना प्रतीत होता है. प्रेम काव्य की परंपरागत काव्यभाषा और भावुकता की मुद्रा उनकी कविता में देखी जा सकती है. खत, गुलाब, आँसू, दिल, दवा, सुकून, दर्द, ख्वाहिश, ख़्वाब, दुश्मन और खंजर जैसी शब्दावली ज़ेबा की कविता में संवेदनाओं का एक ऐसा ताना-बाना बुनती है जिसकी उदास सी रंगत पाठक को अपनी सी लगती है  “मैंने खत भेजा तो/ जवाब में/ सूखा गुलाब आया है/ हमने आँखों में/ सजा लिए आँसू/ खूब जवाब आया है/ सुकूने दिल की दवा/ माँगी तो/ दर्द बेहिसाब आया है./ ख्वाहिशें मुस्करा कर/ कहती हैं/ खाली ख़्वाब आया है.” (रशीद, ज़ेबा. जवाब).  
प्रेम का ज़ेबा रशीद का अपना फ़लसफ़ा है. वे नहीं कहतीं कि प्रेमपात्र को सर्वगुणसंपन्न और चमत्कारी व्यक्तित्व वाला ही होना चाहिए, लेकिन इतना अवश्य मानती हैं कि प्रेम में विकल्पहीन अनन्यता हो  “ख़्वाब मेरे हैं/ मगर ध्यान तेरा है.” (रशीद, ज़ेबा. चाहतें). यह प्रेम ही अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित शत्रुओं के बीच निःशस्त्र खड़े रहने की ताकत देता है  “यूँ तो दुश्मन है/ सारा ज़माना मेरा/ मेरे हाथों में भी/ खंजर हो/ यह जरूरी तो नहीं.” (वही). यहाँ तक आते-आते निजी प्रेम विश्वप्रेम में बदल जाता है.
जीवन और जगत की कटु सच्चाइयाँ भी ज़ेबा रशीद की कविताओं का एक मुख्य सरोकार हैं. जीवन के तल्ख़ अनुभवों को वे कभी-कभी तो इतने सामान्य ढंग से बयान करती हैं कि बाल कविताओं जैसे तुक और लय सामने आने लगते हैं. (रशीद, ज़ेबा. सच्चाइयाँ). भारतीय मानस कहीं भी रहे रिश्तों की गरमाहट खोजता है. ज़ेबा को भी इसीलिए यह बहुत नागवार गुजरता है कि अब मतलब के बाजार में तेरा-मेरा रिश्ता गुम है, हर दिल में लालच है, दौलत चाहे कितनी मिल जाए, आदमी का दिल ख्वाहिशों का जंगल है. (रशीद, ज़ेबा. बदलता मौसम). अभिप्राय यह है कि मानवीय मूल्यों का विघटन तथा बाजारवाद का प्रसार कवयित्री को विचलित करता है.
5.
डॉ. मृदुल कीर्ति की कविताएँ अमरीका में रह रहे भारतीय व्यक्ति की जीवन मूल्यों और अध्यात्म के मुख्य सरोकार से प्रेरित कविताएँ हैं. उन्होंने आध्यात्मिक जीवन-सत्य को काव्यवस्तु बनाया है, जिसकी अभिव्यंजना का वैशिष्ट्य लोकतत्व और मिथकीय प्रसंगों के सर्जनात्मक उपयोग में निहित है. लोकभाषा को भी उन्होंने सहेजकर रखा है. तुलसी-दीप चौबारे में बारो, आरती का स्वर उचारो, कुंठा बुहारो, गाओ प्रभाती, उदित रवि को जल चढ़ा दो, मन को अर्जुन सा बनाकर तीव्र गति सा तीर मारो, उदित रवि को सिर नवा लो, प्रकृति को गुरुवर बना लो, आरती उतारो (कीर्ति, मृदुल. अब उठो कुंठा बुहारो) जैसे प्रयोग रचनाकार के इसी लोक लगाव की सूचना देते हैं. इनकी कविताओं में समांतरता (तप्त भूमि/ तृषित मन/ तप्त तन. एक मन/ एक चित्त/ एक टक. तुम्हारी तपन/ तुम्हारी आसक्ति/ तुम्हारी प्यास/ तुम्हारी तृष्णा), विपथन (‘मृगतृष्णा’ शीर्षक कविता में पानी को देखती दृष्टि का अंततः ऐसी जगह पहुँचना जहाँ ‘ज़मीन तक गीली नहीं’), प्रश्न (कहाँ? क्या तुम? कहाँ तक जाएगी? कब तक भागोगे?), संबोध्यता (सुनो, हे नाथ!), सूक्ति गठन (अतृप्त सदा उदास रहता है/ और उदास व्यक्ति कभी शांत नहीं हो सकता/ और शांत कभी उदास नहीं हो सकता. रत्नों से प्यास नहीं बुझती. बूँद तृप्तिगर्भा है.) जैसे शैलीय उपकरणों का सहज समावेश अभिव्यक्ति को आकर्षण तत्व से संयुक्त करता है.
मृदुल कीर्ति की ‘बूँद और सागर’ जैसी रचनाओं में अभिव्यंजित सौंदर्यबोध (ऊपर व्योम के आँगन में कुलाँचे/ भरते घन शावक./ मेरे सामने के पेड़ के कोमल पात पर/ एक बूँद का गिरना/  मोती सा चमकना) और जीवन दर्शन (अपने रूप गुण पर आसक्त/ गर्वीले सागर की लहरें/ एक बूँद का अस्तित्व न सह सकीं/ ठीक ही है किसी की सत्ता कोई सहता नहीं/ क्योंकि अहं तो सागर से भी बड़ा है/ एक बूँद और मिटाने को विशाल लहरें) इस बात का भी प्रमाण हैं कि भौगोलिक संदर्भ के बदल जाने से रचना के विश्वजनीन सरोकार नहीं बदल जाते. साथ ही, ‘दिवाली’ जैसी बाल कविताएँ यह प्रमाणित करती हैं कि विदेश में बैठकर देश कुछ अधिक ही याद आता है, अपने पर्व-उत्सवों के साथ. रचनाकार इन पर्व-त्योहारों में पुरखों के वरदान और अपनों से पहचान की खोज करता है  “पुरखों का वरदान दिवाली/ अपनों से पहचान दिवाली/ XXX/ अपनों से जब दूर हों बैठे/ लगती है सुनसान दिवाली/ मधुर क्षणों की अनुभूति ये/ कविता का उनवान दिवाली.” (कीर्ति, मृदुल. दिवाली).
6.
अनूप भार्गव का कवि व्यक्तित्व गणित, इंजीनियरिंग तथा विभिन्न देशों और भाषाओं के साहित्य के आस्वाद से निर्मित है. सोशल मीडिया को कवियों के परस्पर संवाद का कारगर मंच बनाने में उन्हें बड़ी सफलता मिली है. उनके निकट कविता उत्कट जीवनानुभव की सहज अभिव्यक्ति है  “न तो साहित्य का बड़ा ज्ञाता हूँ,/ न ही कविता की/ भाषा को जानता हूँ,/ लेकिन फिर भी मैं कवि हूँ,/ क्योंकि जिंदगी के चंद/ भोगे हुए तथ्यों/ और सुखद अनुभूतियों को,/ बिना तोड़े मरोड़े,/ ज्यों की त्यों/ कह देना भर जानता हूँ.” (भार्गव, अनूप. प्रारंभ). उनकी नजर भारत की राजनैतिक गतिविधियों पर बराबर रहती है. उनके भीतर का कवि राजनैतिक मूल्यों के क्षरण से दुखी होता है. 2 अक्टूबर, 1978 को जब दो राजनैतिक दलों के बीच राजघाट पर इस बात को लेकर झगड़ा हुआ कि महात्मा गांधी की समाधि को पहले कौन धोएगा और लाठी, पत्थर तथा गोलियों के साथ अहिंसा के पुजारी की समाधि पर हिंसा का नंगा खेल खेला गया तो आहत कवि-मन चीत्कार कर उठा  “बापू/ देखो आज हम/ तुम्हारी समाधि धोने आए हैं./ ये बात अलग है कि साथ में/ लाठी, पत्थर और आँसू गैस के खिलौने लाए हैं,/ लेकिन सच सच बताएँ बापू,/ ये समाधि को धोना वोना/ तो बेकार की बात है,/ अरे हम तो इस युग के नाथू राम गोडसे हैं/ जो अपना अपना अधूरा काम करने आए हैं/ शरीर से तो तुम्हें कब का मार चुके/ आज तुम्हारी आत्मा तमाम करने आए हैं.” (भार्गव, अनूप. दूसरी हत्या).
अनूप भार्गव की कविताओं का वैशिष्ट्य उनकी कथन भंगिमा में निहित है. वे प्रायः छोटी कविताएँ लिखते हैं, जिन्हें ‘पंच’ अविस्मरणीय बना देता है. उनका नायक नायिका को यह मानने के लिए बाध्य करता है कि वह कल रात सपने आई थी, “वरना/ सुबह सुबह/ मेरी आँखों की नमी का मतलब/ और क्या हो सकता है?” अन्यत्र नायक नायिका से सवेरे उठकर ज़माने को ज़रा सी रोशनी देने के लिए कहता है. हद तो यह कि “देखो/ सूरज खुद/ तुम्हारी खिड़की पर/ तुमसे रोशनी माँगने आया है.” यह अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा उस मध्यकालीन परंपरा की याद दिलाती है जिसमें प्रकृति का सारा सौंदर्य नायिका की जूठन हुआ करता था. अनूप भार्गव के यहाँ अगर सूरज नायिका से प्रकाश माँग रहा है तो यह कहीं न कहीं चंदबरदाई के उस सौंदर्यबोध का नया संस्करण है जिसमें माना जाता था कि चंद्रमा स्वयं अल्पवयस्क पद्मावती के समीप आकर अमृत ग्रहण करता है  ‘बाल वैस ससि ता समीप अमृत रस पिन्निय.’ अनूप भार्गव की यह नायिका तब कालिदास की शकुंतला प्रतीत होती है जब लज्जा का अनुभाव पाँव के अँगूठे से जमीन कुरेदने के माध्यम से प्रकट होता है  “सुनो,/ अब अपनी नज़रें उठाओ/ और पाँव के अँगूठे से/ जमीन को कुरेदना बंद करो/ मैं समझ गया पगली/ लेकिन कोई ऐसे भी/ अपने दिल की बात/ कहता है?” (भार्गव, अनूप. सुनो...).
प्रशस्त राजनैतिक चेतना के बावजूद अनूप भार्गव मूलतः प्रणय और सौंदर्य के कवि हैं. प्रेम की देशकाल सापेक्ष चाहे जितनी परिभाषाएँ और व्याख्याएँ की जाती रहें, अपने उत्कृष्ट रूप में वह आत्मदान और आत्मविस्तार को संभव बनाने वाला उदात्त भाव है जिसमें अपने अस्तित्व को शून्य करके अनंत की उपलब्धि की जाती है  “सुनो,/ तुम जानती हो/ मेरा अस्तित्व/ तुम से शुरू होकर/ तुम पर खत्म होता है/ फिर बता सकोगी/ मुझे मेरा विस्तार/ अनंत सा क्यों लगता है?” (वही).
7.
भारत (अमृतसर, पंजाब) में जन्मी और नॉर्वे, जर्मनी, थाईलैंड तथा ब्रिटेन के बाद अब अमरीका में बसी कवयित्री डॉ. कविता वाचक्नवी (1963) खांटी देसी संस्कार वाली कवयित्री हैं  गाँव घर द्वारे इसे प्यारे लगें/ आज भी ‘कविता’ हुई शहरी नहीं! उनकी कविता एक बड़ा सरोकार स्त्री विमर्श से संबंधित है. वे परिवेश और कवि मानस के तादात्म्य को साहित्य सृजन की अनिवार्य शर्त मानती हैं. वे एक ऐसे लोक को अपनी रचनाओं में प्रत्यक्ष करती हैं “जो संसार के लिए कल्पना लोक हो सकता है लेकिन ‘मैं’ के लिए वह प्रत्यक्ष संसार होता है; (अनुमान, संभावना अथवा कल्पना द्वारा रचा नहीं.) ...जहाँ विलाप के अनुभव ‘व्याप्त अनुभव’ बनकर कालिदास के समक्ष पेड़ों और पौधों और पक्षियों के विलाप को मूर्त कर देते हैं; अथवा जब सच में धरती पीड़ित स्त्री के विविध सहनशील रूपों को बिंबायित करती है.” (वाचक्नवी, कविता (2005). मैं चल तो दूँ. सिकंदराबाद : सुमन प्रकाशन. पृ. 8). यह धरती, स्त्री भी, किसी एक भूखंड से बँधी हुई नहीं है. देशकाल की सीमाओं से परे ये दोनों ही शोषण और दोहन की शिकार हैं. पुरुषवादी व्यवस्थाओं के स्त्री सरोकार के पाखंड पर कवयित्री चोट करती है  “पृथ्वी की परिभाषा/ मेट दो,/ कहीं आकाश में बादल नहीं घुमड़ते/ किसी आकाश में जल के छींटे अवशिष्ट नहीं./ पाखंड हैं फुहारें/ और/ ‘एलर्जी/ है नीलांचल को/ गंध से,/ इसीलिए/ वह नहीं बरसा सकता/ नेह का मेह.” (वाचक्नवी, कविता. तत्र... गंधवती पृथिवी).
कविता वाचक्नवी के स्त्री विमर्श संबंधी दृष्टिकोण को समझने के लिए ‘हाशिए उलाँघती औरत’ शृंखला के ‘प्रवासी कहानियाँ खंड’ (2014) के उनके संपादकीय को देखना चाहिए. वे बताती हैं कि विदेश में भारत से आई हुई पीढ़ी की महिलाओं का जीवन दर्शन वहाँ जन्मी, पली, बढ़ी भारतीय मूल की स्त्रियों से अलग होता है, किंतु देह को लकर उनके विचार अभी भी भारतीय विचारों से मेल खाते हैं. उनके अनुसार भारत से विदेश जाने वाली स्त्रियाँ बहुधा कई प्रकार के सांस्कृतिक द्वंद्वों का सामना करती हैं और देह उनके व्यक्तित्व को अपराध बोध से भर, कुंठित करती रहती है. उनका यह दृढ़ मत है कि स्त्री की देह, उसकी शुचिता, उसका पर्दे में रहना जिस समाज में जितना बड़ा मूल्य है, उस समाज में स्त्री देह पर सर्वाधिक आक्रमण होते हैं. सर्वाधिक ढकी हुई देहों वाले समाजों में ही स्त्री की देह सर्वाधिक बर्बरता झेलती है, उसी का सर्वाधिक शोषण होता है. जिन देशों में देह इन अर्थों में मूल्य नहीं है, वहाँ देह स्त्री को तो अकुंठ करती ही है, पुरुषों द्वारा शोषण का अनुपात भी बहुत कमतर करती है. इन कारणों के चलते व्यक्तित्व में कुंठा और अपराधबोध का अनुपात कम होता है जो व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है. (द्रष्टव्य : हाशिया उलाँघती औरत (प्रवासी कहानियाँ खंड), 28 मार्च, 2014, संपादकीय).
कहना यह है कि कविता वाचक्नवी के काव्य सरोकार वस्तुतः बहुआयामी परिवेश और गहन निजी अनुभूतियों के गुणनफल की उपलब्धि है. उनमें धरती और स्त्री के बहाने सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सरोकारों का संपुंजन है. उदाहरणार्थ उनकी अलग-अलग कविताओं की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं  “माँ की तुलसी माला/ पिरोनी बची है/ यों छोड़ जाना/ संभव नहीं मेरे लिए/ और/ अनुमति तो ली ही नहीं  पिता से/ दुखते घुटनों चल/ घाट तक कैसे जाएँगे  वे?” (वाचक्नवी, कविता. मैं चल तो दूँ...). “पूस माघ की ठंडी रातें/ ‘मौसी’ के गले हाथ/ सब याद है मुझे.” (मैं कुछ नहीं भूली). “युद्ध/ तुम्हारे युद्ध/ धर्म, भाषा व क्षेत्र के/ आकांक्षा, प्रभुत्व, लालसा/ अधिकारों की त्राहि-त्राहि.” (युद्ध). “मैं पृथ्वी का/ आनेवाला कल सम्हालती/ डटी हुई हूँ” (युद्ध : बच्चे और माँ). “इस सुगंधहीन/ आधी फसल से/ भरता नहीं/ मेरा जी/ और/ नंगे हो गए हैं/ मेरे पेड़ भी....” (आधी फसल). “राग का रवि/ शिखर पर जब/ चमकता है/ मूर्ति, छाया/ मिल परस्पर/ देर उतनी/ एक लगते.” (पुरुष सूक्त). “बचा कर रखना/ थोड़ी आग/ कि आग देने मुझे/ कोई नहीं आएगा जब/ तब दे सको/ एक चिंगारी भर/ मेरी पिपासा के पुनरागमन के लिए.” (नैनम् दहति पावकः). “अपनी राजशाही में शांति, सुख के लिए/ तुम/ फिर दोगे/ प्रेम को निर्वासन/ और तुम फिर सुनाओगे/ अपनी दिग्विजय की कहानियाँ/ अपने अश्वमेध की पूर्णाहुति के चारण.” (उत्तरकांड). “छोड़ दो गउएँ/ मूक प्राणी हैं.../ कुछ न कहेंगी/ हकाल ले जाओ भले, किंतु मैं/ रोकती हूँ तुम्हारा मार्ग,/ ठहरो...!!/ प्रश्न तो सुनो, याज्ञवल्क्य!!!” (गार्गी उवाच). ये तमाम उद्धरण यह प्रमाणित करने के लिए काफी हैं कि कविता वाचक्नवी के काव्य संस्कार का निर्माण गहरी लोक संपृक्ति और सांस्कृतिक मिथक बोध से हुआ है तथा उनके सरोकार की परिधि वैयक्तिक वेदना से लेकर विश्व वेदना तक परिव्याप्त है.   
8.
हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती और उर्दू में समान अधिकार से लिखने वाली कवयित्री अंजना संधीर (1960) ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुजराती कविताओं का हिंदी में अनुवाद (आँख ये धन्य है) भी किया है. उन्होंने अपने अमरीका प्रवास के अनुभवों को अत्यंत प्रभावी ढंग से काव्यात्मक अभिव्यंजना प्रदान की है. इस दृष्टि से उनकी कृति ‘अमरीका हड्डियों में जम जाता है’ विशिष्ट है. ‘अमरीका हड्डियों में जम जाता है’ जैसी कई कविताओं में डॉ. अंजना ने उस सांस्कृतिक झटके को बखूबी प्रतिबिंबित किया है जो अमरीका पहुँचने पर भारतीयों द्वारा शिद्दत से महसूस किया जाता है. वे दोनों देशों की सांस्कृतिक भिन्नता को भली प्रकार संप्रेषित करती है. बाजारवाद के लाख आक्रमण के बावजूद भारतीय मानस में आज भी कुटुंब संस्कृति किसी न किसी रूप में जीवित रहती है. इसीलिए जब वह अमरीका की बाजार संस्कृति के बीच पहुँचता है तो उसे अमरीका और उसका बाजारवाद क्रमशः अपने भीतर पैठता और बैठता महसूस होता है. कवयित्री ने इस प्रक्रिया को कुछ क्रियाओं के समानांतर प्रयोग द्वारा व्यक्त किया है  “अमरीका धीरे धीरे साँसों में उतरने लगता है/ और अमरीका धीरे धीरे स्वाद में बसने लगता है/ धीरे धीरे हड्डियों में उतरने लगता है अमरीका/ अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में समा जाता है/ अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है.” (संधीर, अंजना. अमरीका हड्डियों में जम जाता है). यहाँ साँसों में उतरने, स्वाद में बसने, हड्डियों में उतरने, हड्डियों में समा जाने और हड्डियों में जम जाने की क्रमिकता उस गति और गहराई को महसूस कराती है जिसे कोई प्रवासी झेलता है. लेकिन जैसा कि कहा जाता है, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’  भारतीय संस्कार मिटाए नहीं मिटते. कवयित्री सावधान करती है  “अमरीका जब साँसों में बसने लगे,/ तुम उड़ने लगो, तो सात समुंदर पार/ अपनों के चेहरे याद रखना./ जब स्वाद में बसने लगे अमरीका,/ तब अपने घर के खाने और माँ की रसोई याद करना./ सुविधाओं में असुविधाएँ याद रखना./ यहीं से जाग जाना.../ संस्कृति की मशाल जलाए रखना/ अमरीका को हड्डियों में मत बसने देना./ अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है.” (वही). दरअसल, अमरीका भारत जैसे देशों के नागरिकों के लिए किसी नागलोक जैसे मायावी आकर्षण से भरा देश है जिसकी असलियत वही जानता है जिसने उसे देखा है. इस तथाकथित जन्नत की एक हकीकत यह भी है कि दुनिया भर के ‘दागी’ लोग यहाँ आकर ‘प्रतिष्ठित’ बन जाते हैं. ऐसे दोगले चरित्र वाले लोग अपनी विलासिता की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत और उसके आसपास के मुल्कों की लड़कियों से ब्याह रचाने का ढोंग करते हैं क्योंकि अमरीका की तो कोई लड़की अपने मानवाधिकारों की हत्या होने नहीं देगी  “बंद करो इन दागदार लोगों को अपनी कमसिन लड़कियाँ देना/ चौबीसों घंटे जो यहाँ पिसती हैं/ समय से पहले बूढ़ी हो जाती हैं/ तुम्हारे घर भी आती हैं/ सौगातें लाती हैं/ लेकिन खुद खाली-खाली रहती हैं/ कुछ दिन हँसती हैं,/ बोलती हैं/ और वापस चली आती हैं/ अमरीका में ब्याहने की कीमत अदा करने!” (संधीर, अंजना. अमरीका में ब्याहने की कीमत अदा करने).
अंजना संधीर की दृष्टि उन प्रवासियों पर भी गई है जिनके पूर्वज उपनिवेशकाल में जबरदस्ती दक्षिण अफ्रीका, मारीशस, गयाना, सूरीनाम और फिजी जैसे देशों में ले जाए गए थे. इन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपने भीतर भारतीयता को बचाकर रखा है. इनकी नई पीढ़ियाँ भारत के गाँवों में अपनी जड़ें मानती हैं और भारत आना चाहती हैं. कवयित्री ने गयाना की लड़कियों के बहाने प्रवासियों के इस मनोभाव को सुंदर अभिव्यक्ति प्रदान की है  “संस्कृत और अंग्रेजी के बीच बचाए हुए हैं अपनी संस्कृति./ सजाती हैं आरती के थाल, पहनती हैं भारतीय पोशाकें तीज-त्योहारों पर./ पकाती हैं भारतीय खाने, परोसती हैं अतिथियों को/ पढ़ती रहती हैं अपनी बिछुड़ी संस्कृति के बारे में.” (संधीर, अंजना. वे चाहती हैं लौटना).      
9.
मूलतः संस्कृत साहित्य की अध्येता डॉ. पूर्णिमा वर्मन (1955) संयुक्त अरब अमीरात के शारजाह नगर से ‘अभिव्यक्ति’ और ‘अनुभूति’ जैसी साहित्यिक ई-पत्रिकाओं का संपादन करती हैं. जलरंगों, रंगमंच और संगीत के क्षेत्र में भी वे दखल रखती हैं. कवयित्री के तौर पर नवगीत उनकी प्रिय विधा है, लेकिन उन्होंने अन्य विधाओं में भी खूब लेखन किया है. समकालीन वैश्विक सरोकारों से लेकर स्थानीयबोध तक की रंगत उनकी रचनाओं में देखी जा सकती है. एक सजग नागरिक के नाते वे यह मानती हैं कि आतंकवाद असंतोष की कंदराओं में लावे की तरह उबलता है और असंख्य निर्दोष लोगों के प्राण ले लेता है. वे इसकी जड़ में सत्तावाद, अव्यवस्था, असमानता और दमन को देखती हैं. साथ ही यह भी कि निरंतर उपेक्षा द्वारा व्यवस्थाएँ असंतोष को आतंकवाद के रूप में पकने का अवसर प्रदान करती हैं. ऐसी व्यवस्था के चरित्र को उन्होंने धृतराष्ट्र के मिथक द्वारा सटीक अभिव्यक्ति दी है  “बरसों-बरसों-बरसों/ कोई इसे देखना नहीं चाहता/ सब आँखें बंद रखना चाहते हैं/ धृतराष्ट्र की तरह/ जब तक/ यह फूटता नहीं/ वज्रास्त्र की तरह/ आकाश से...” (वर्मन, पूर्णिमा. आतंकवाद).
पूर्णिमा वर्मन की कविताओं में लोक और भारतीय मन अनेकविध प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से ध्वनित होता है. फागुन, कोयल, घाटी, चिड़िया, दीप, घर और बिंदी उनकी कविता में प्रयुक्त शब्द ही नहीं हैं, बल्कि ये सब मिलकर उस पैराडाइम का निर्माण करते हैं जिसके केंद्र में भारतीय स्त्री है. पूर्णिमा यह नहीं मानतीं कि स्त्री हाशिए पर कैद और उपेक्षित है. इसके विपरीत वे स्त्री को इतिहास बनाने वाला मानती हैं क्योंकि वह उन तिथियों की तरह है जो खास होने के कारण ही हाशिए पर लिखी जाती हैं. (वर्मन, पूर्णिमा. हाशिए पर). इस स्त्री में परिवर्तन का इतना सामर्थ्य है कि “किसी को पता नहीं चला/ समय के साथ/ औरत हो गई कितनी ऊँची/ कि अपनी ही बिंदी अपनी ही हँसुली/ आसमान पर टाँग/ अपनी राह खोज ली उसने/ खोज ली अपनी शांति./ लोग नहीं जानते/ जो दूसरों के लिए खटने वाले/ अपना भी कर सकते हैं कायापलट!” (वर्मन, पूर्णिमा. आसमान पर बिंदी). कवयित्री ग्लोबव्यापी मूल्य विघटन से चिंतित है. उसे लगता है कि शहरों की मारामारी में सारे मूल्य बिला गए. अधिक भीड़ और कम अवसरों के बीच कोहनियाँ जगह बनाती रहीं और घुटने बोल गए. (वर्मन, पूर्णिमा. सारे मोल गए). लेकिन रिश्ते-नातों को लाभ और लोभ की बलिवेदी पर उत्सर्ग होते देखकर भी कवयित्री का आशावादी मन अपने सकारात्मक सोच को छोड़ नहीं पाता और प्रकृति, लोक, मिथक तथा अध्यात्म के सहारे स्वयं को इस प्रकार प्रकट करता है  “हवा में घुल रहा विश्वास/ कोई साथ में है/ धूप के दोने/ दुपहरी भेजती है/ छाँह सुख की/ रोटियाँ सी सेंकती है/ उड़ रही डालें/ महक को छोड़ती उच्छ्वास/ कोई साथ में है/ बादलों की ओढ़नी/ मन ओढ़ता है/ एक घुँघरू/ चूड़ियों में बोलता है/ नाद अनहद का छिपाए/ मोक्ष का विन्यास/ कोई साथ में है.” (वर्मन, पूर्णिमा. हवा में घुल रहा विश्वास).
10.
बाथ (ब्रिटेन) में रह रहे मोहन राणा (1964) जीवन के सूक्ष्म अनुभवों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों के कवि हैं. सच की निरंतर खोज करती अपनी कविताओं में वे एक ओर तो उत्कट मनोभावों को सहज आवेग के साथ फूटने देते हैं तथा दूसरी ओर बाजारवाद के प्रतिरोध को संयमित स्वर भी प्रदान करते हैं. उनकी कविताएँ इस दृष्टि से भी विशिष्ट मानी जा सकती हैं कि उनमें विचारधारा सतह पर तैरती नहीं मिलती बल्कि प्रतीयमान अर्थ के रूप में प्रस्फुटित होती हैं. उन्हें यथार्थ जगत भी आभासी जगत जैसा प्रतीत होता है जिसमें अलग-अलग खिड़की खोलने से अलग-अलग दृश्य दिखाई देते हैं. लगता है जैसे निरंतर मुक्ति की खोज चल रही है. निरंतर इसलिए कि ठहरते ही गिरने का डर है. (खोज). मोहन राणा की छोटी-छोटी कविताओं में द्वंद्व, तनाव, विडंबना, एकरसता, एकरूपता, ऊब, भंगुरता, छटपटाहट और ईश्वर की तलाश सघनता के साथ व्यक्त हुई है. मिथक और विज्ञान दोनों के संदर्भ इनकी काव्यभाषा को अलग व्यक्तित्व प्रदान करते हैं. मोहन राणा को हिंदी कवि की इस बेचारगी का भी अहसास है कि आर्थिक अभाव उसे कभी बूढ़ा और रिटायर होने की इजाजत नहीं देते. इसीलिए इस कवि की ईश्वर से अपील है कि “हिंदी का लेखक कभी बूढ़ा न हो/ अस्वस्थ न हो/ उसे माँग न करनी पड़े इलाज के पैसों/ के लिए/ रहने के लिए एक घर के लिए/ बच्चों की पढ़ाई के लिए/ उसके जीवन में कोई जरूरतें ही ना हों.” (राणा, मोहन. ईश्वर).        
11.
कवि और भी हैं; बहुत सारे. कविताएँ भी और हैं; बहुत सारी. पर, आज इतना ही. हाँ, यह कहना जरूरी है कि मानवीय सरोकारों की दृष्टि से यदि, ‘नर लोक से किन्नर लोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है’ (डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी), तो यह स्वाभाविक ही है कि प्रवासी हिंदी कविता के मुख्य सरोकार बड़ी सीमा तक वही हैं जो भारत में लिखी जा रही हिंदी कविता के हैं. यही कारण है कि अलग-अलग देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों द्वारा रची जा रही हिंदी कविता में सामाजिक न्याय, मानव अधिकार, जीवन मूल्य, सांस्कृतिक बोध, इतिहास बोध, लोकतत्व, प्रेम और सौंदर्य समान रूप से मुख्य कथ्य बनते दिखाई देते हैं. हाँ, कवियों के निजी व्यक्तित्व और परिस्थिति भेद के कारण उनकी अभिव्यक्ति-पद्धति में अवश्य भिन्नता और विविधता दिखाई देती है. इस प्रकार, व्यापक सरोकारों की समानता और कथन-भंगिमा की निजता से उत्पन्न विविधता द्वारा प्रवासी रचनाकार हिंदी कविता जगत को निरंतर समृद्ध कर रहे हैं.     
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद/
आवास : 208 -, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
             गणेश नगर, रामंतापुर,
          हैदराबाद - 500013.
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