शर्मा, हरीश कुमार. (2016), राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा. इलाहाबाद : साहित्य भंडार
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राजीव गांधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश :24 फरवरी, 2018 : पुस्तक के लेखक प्रोफेसर हरीश कुमार शर्मा ने इसके भूमिका-लेखक डॉ. ऋषभदेव शर्मा को 'राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा' की प्रति भेंट की। |
भूमिका
तमाम तरह की उत्तरोत्तर आधुनिकताओं से आक्रांत आज का आदमी स्मृतिलोप से भरे समय में जीने के लिए विवश है. इतिहास उसके हाथ से छूटा जा रहा है और सूचनाओं का अम्बार उसके बोध की धार को वर्तमान के उस बिंदु तक समेटे दे रहा है जिसके पार जाने की दृष्टि धुंधलाने लगी है. ऐसे में किसी लेखक या चिन्तक का राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा जैसे विषयों पर सोचना या लिखना जाति को जड़हीनता के खतरे से बचाने के प्रयत्न के रूप में देखा जाना चाहिए. डॉ. हरीश कुमार शर्मा की यह कृति ऐसा ही सार्थक और प्रासंगिक प्रयत्न है. इस पूरे प्रयत्न के केंद्र में राष्ट्रीय अस्मिता की बहुवचनीय चेतना आरम्भ से अंत तक सक्रिय दिखाई देती है जो लेखक के व्यक्तित्व का भी अनिवार्य हिस्सा है.
डॉ. हरीश कुमार शर्मा कई दशक से पूर्वोत्तर भारत में रहकर भाषा और संस्कृति के लिए कार्य कर रहे हैं. वे उन विरल बौद्धिकों में हैं जो स्मृति को मनुष्य की सबसे बड़ी संपदा मानते हैं तथा अपने लेखन में बराबर भारत और भारतीयता के सूत्रों को पहचानने पर जोर देते हैं. उनकी इस कृति का प्रवर्तन बिंदु भी इसी दृष्टि से संबलित है. इसीलिए यह कृति किसी पारंपरिक एकात्मता और समरसता की लफ्फाजी न करके अपने पाठक से यह अपेक्षा करती है कि हम विविधताओं को भी देखें, समझें और उनका सम्मान करें. कहना न होगा कि लेखक की यह लोकतांत्रिक दृष्टि देश, समाज, समय और संस्कृति को जातीय स्मृति की सतत प्रवाहित और परिवर्तनशील धारा की निष्पत्ति के रूप में देखती-दिखाती है. यह दृष्टि इन निष्पत्तियों को भाषा के माध्यम से प्राप्त ही नहीं करती बल्कि यह भी देख पाती है कि हमारी भाषाएँ हमारी संस्कृति का प्रतिरूप हैं – भाषा में तो संस्कृति है ही, भाषा की अपनी संस्कृति भी है. अभिप्राय यह है कि जब हम भारतीय संस्कृति अथवा भारतीयता की पहचान करने निकलते हैं तो इसका सबसे प्रामाणिक और जीवंत रास्ता हमारी भाषाओं से होकर जाता है – तभी तो हिय का शूल मिटाने की रामबाण औषध निज भाषा उन्नति है! परन्तु इस कृति ने उन्नति से आगे बढ़कर उत्तमता पर बार बार ज़ोर दिया गया है क्योंकि लेखक की राय में उन्नति सभ्यता का वाचक है तो उत्तमता संस्कृति का निर्देशक बिंदु. यही कारण है कि इस कृति में राष्टीय स्मृति के निकष पर ग्रहण और त्याग के विवेक को विकसित करने पर बल दिया गया है. यह कृति इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें भारत की भाषिक संस्कृति और उसमें निहित सामासिकता को भावुकता से बचते हुए ऐसे सामाजिक यथार्थ के रूप में विवेचित किया गया है जिसमें तमाम तरह की विषमरूपता के लिए सम्मानजनक स्थान उपलब्ध है.
संस्कृति का जीवंत वाहक होने के कारण भाषा विषयक चिंतन इस पूरी कृति में अंतर्धारा के रूप में परिव्याप्त है. लेखक ने हिंदी को भारत की पहचान माना है और तर्कपूर्वक यह स्थापित किया है कि अपनी केन्द्रापसारी प्रकृति के कारण हिंदी क्षेत्रीयताओं का अतिक्क्रमण करने वाली अक्षेत्रीय भाषा है और उसके वैश्विक प्रसार में सारे भारत ने योगदान किया है अतः हिंदीभाषी और हिंदीतरभाषी जैसा वर्गीकरण आज के सन्दर्भ में निरर्थक हो गया है.
भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति की व्याख्या करते हुए यह कृति इस देश के सामाजिक ढाँचे के साथ इसके धार्मिक-आध्यात्मिक वैशिष्ट्य को भी रेखांकित करती है. लेखक ने एकाधिक स्थलों पर स्पष्ट किया है कि धर्म और संस्कृति हमारे निकट रिलीजन और कल्चर मात्र नहीं हैं बल्कि समग्र विश्व को धारण करने वाले मूल्यों और अस्तित्व को औदात्य प्रदान करने वाली साधनाओं के प्रतीक हैं. लोकरक्षण और मनुष्यता का हित यहाँ सारे मत-वादों से ऊपर निर्विवाद कर्म है तथा परहित सर्वोपरि धर्म. महत्तर उद्देश्य के लिए अपरिहार्य हो जाने पर युद्ध और हिंसा भी वरेण्य हैं. साथ ही लेखक का यह भी मत है कि यह सारी वैचारिक और व्यावहारिक मूल्य संपदा हमारी भाषाओं में सुरक्षित है अतः हमें भाषाओँ को संप्रेषण के माध्यम से अधिक अपनी जातीय अस्मिता का द्योतक मानकर उनके संरक्षण-संवर्धन के उपाय करने चाहिए. आज जबकि ‘भूमंडीकरण’ के दौर में बाज़ार दीगर ढेरों चीज़ों की तरह भाषाओँ को भी खा रहा है, बेहद ज़रूरी है कि अपने दैनंदिन व्यवहारों में हम अपनी बोली-बानी को बचाकर रखें. इसी के साथ लोकसाहित्य के संरक्षण की जिम्मेदारियां भी जुडी हुई हैं. विमर्शों के नाम पर लोक के पिछडेपन को बचाना और लोकभाषा व लोकसाहित्य को बचाना दो अलग बातें हैं. लोक को प्रगति की मुख्य धारा से जोड़ने और उसकी सांस्कृतिक संपदा को सहेजने का दोहरा अभियान त्याग और ग्रहण के, पहले उल्लिखित, विवेक के बिना संभव नहीं. डॉ. हरीश कुमार शर्मा ने स्थापित किया है कि यह विवेक गीता से लेकर गांधी तक से, यानी राष्ट्रीय स्मृति से, प्राप्त किया जा सकता है वरना तो हमें स्वयं विस्मृति के अँधेरे में गुम होने के लिए तैयार रहना चाहिए.
स्मृतिभ्रंश से बचने के लिए यह भी ज़रूरी है कि हमारी जो जातीय स्मृति हमारी विभिन्न मातृभाषाओं और उनके मौखिक साहित्य में सुरक्षित है, हम उन्हें नष्ट होने से पहले सहेजना शुरू कर दें. हाशिए पर रहे समाजों-समुदायों की यह लोक संपदा उन्नति के क्रम में विस्थापित हो रही है अतः इसके उत्तमांश के प्रति जागरूक हुए बिना काम चलने वाला नहीं है. यह कृति हमसे ऐसी ही जागरूकता की मांग करती है. इस दृष्टि से इस कृति का अरुणाचल प्रदेश की स्मृति, संस्कृति और भाषा सम्बन्धी भाग बेहद बेहद प्रासंगिक है. हमारी इस प्रकार की लोक अस्मिताएं ही तो मिलकर अमूर्त भारतीय अस्मिता को मूर्तिमंत बनाती हैं. डॉ. हरीश कुमार शर्मा इस क्षेत्रीय अस्मिता को सम्पूर्ण भारतीय अस्मिता के व्यापक सन्दर्भ में ही व्याख्यायित करते हैं. यह कृति हमें भारत के इस अतिशय सुन्दर लोक के जीवन, प्राकृतिक वैभव, जनजातीय वैशिष्ट्य, भाषा और संस्कृति की संपदा और इन सबके साथ नत्थी समस्याओं से एक साथ रूबरू कराती है – कुछ इस तरह कि पाठक के मन में सहज आत्मीयता जागती है. निस्संदेह यह लेखक के अरुणाचल प्रदेश की मिट्टी से गहरे जुडाव का फलागम है.
संस्कृति विमर्श के बहाने भाषा, साहित्य, राष्ट्रीयता और लोक विषयक व्यापक और खुली चर्चा के कारण यह कृति पढ़ने, गुनने और सहेजने योग्य बन गई है. साथ ही इसमें भी संदेह नहीं कि आदमी और आदमी के बीच दीवारें खड़ी करने के इस विषम दौर में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं के सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व के विचार को समर्पित यह कृति भारत के निजीपन को समझने के लिए बेहद महत्वपूर्ण पठनीय सामग्री है.
लेखक और प्रकाशक को हार्दिक शुभकामनाएँ!
प्रेम बना रहे!!
-ऋषभदेव शर्मा
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14 सितंबर,2014: हिंदी दिवस
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