भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि भारतीय साहित्य का निजी परिप्रेक्ष्य क्या और कैसा है. आज विश्व साहित्य के माध्यम से और विश्व में जो समाज-सांस्कृतिक और राजनैतिक परिवर्तन हो रहे हैं, उनके प्रभाव को ग्रहण करके एक विश्व परिप्रेक्ष्य परिणत हो रहा है. दूसरे देशों - यूरोपीय और खासकर के पश्चिम के - देशों में बहुत सजग चलन है कि जब कोई भी बड़ी घटना होती है, उसपर समाज वैज्ञानिक लेखन भी काफी संख्या में होता है और साहित्यिक लेखन भी. साथ ही,विश्व को प्रभावित करनेवाली इन घटनाओं के बारे में फ़िल्में भी बन जाती हैं. इसका लाभ यह लगता है कि वहाँ के सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक कार्यकर्ता और लेखक लगभग-लगभग साथ रहकर एक विश्व परिदृश्य बनाते हैं जिसका असर संस्कृति पर भी होता है, पर्यटन पर भी होता है, रचनात्मक साहित्य पर भी होता है और विचार-विमर्श के आंदोलनों पर भी होता है. यह एक चलन है जिसे भले ही साहित्य की शाश्वत परंपरा की दृष्टि से उतना अच्छा न माना जाता हो या सवालों के घेरे में खड़ा किया जा सकता हो, लेकिन समसामयिकता की दृष्टि से यह चलन बहुत महत्व का है. हिरोशिमा और नागासाकी की घटनाओं पर बहुत कुछ लिखा गया है. उसके बाद भी जो युद्ध हुए हैं उनपर भी बहुत कुछ लिखा गया है. अफ्रीकन देशों में जो उपनिवेशवाद चला है और उसके विरोध में जो क्रांतियाँ हुई हैं, उसपर भी बहुत सारा साहित्य रचा गया है. साथ ही, बदली हुई राजनीतिक प्रणालियों पर भी साहित्य रचा गया है. अर्थात पश्चिम में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो चारो तरफ से साहित्य का भी विश्व परिदृश्य बनाते हैं और अन्य क्षेत्रों का भी विश्व परिदृश्य बनाते हैं. हम देखते हैं कि इस समसामयिक विश्व परिदृश्य का प्रभाव भारतीय फिल्मों पर तो पड़ता है और पड़ रहा है. भारतवर्ष में भी उनसे प्रेरणा लेकर यहाँ होनेवाली घटनाओं पर फ़िल्में बनाई जा रही हैं. लेकिन साहित्य में यह चीज कहाँ है, यह देखा जाना चाहिए. अतः यह विचारणीय है कि साहित्य का जो विश्व परिदृश्य विभिन्न कारकों से मिलकर बनता है, वह भारतीय साहित्य में किस रूप में आता है. स्वाभाविक है कि ऐसा दो प्रकार से होता है. एक तो, घटनाओं के रूप में– अर्थात उन घटनाओं को सीधे-सीधे ग्रहण करके. दूसरे, प्रवृत्तियों के रूप में– अर्थात विश्व परिदृश्य साहित्य और कला में जिन प्रवृत्तियों को जन्म देता है, उन प्रवृत्तियों को आत्मसात करके. इस प्रकार, भारतीय साहित्य के निजी परिप्रेक्ष्य की व्याख्या के लिए यह देखना होगा कि इन वैश्विक परिवर्तनों, घटनाओं और प्रवृत्तियों को भारतीय साहित्य ने किस रूप में ग्रहण किया है या उसकी गति क्या है या उसकी दिशा क्या है. यह आवश्यक नहीं है कि हम यह घोषणा कर दें कि भारतीय साहित्य ने उन सबको ग्रहण कर लिया है. ऐसा अगर कहेंगे तो यह एक प्रकार का झूठ हो जाएगा क्योंकि यह बात सामान्य प्रवृत्ति के रूप में या सामान्य आचरण के रूप में हमें दिखाई नहीं देती. ऐसी कोई प्रवृत्ति भारतीय साहित्य में पनप रही है या नहीं, यह जानने के लिए भारतीय भाषाओँ के उन सभी लेखकों का आकलन करना पड़ेगा जो अधुनातन परिवर्तनों से जुड़े रहे हैं.
इस निजी परिप्रेक्ष्य की समझ के बाद यह प्रश्न उठता है कि भारतीय साहित्य अपनी शक्तियों, प्रवृत्तियों और स्वभाव के बल पर विश्व साहित्य की, उसका दायरा बढ़ाने में, कहाँ तक सहायता कर रहा है. इससे हमें भारतीय साहित्य के महत्व का, उसकी सामयिकता का और उसकी विश्वसनीयता का पता चलेगा. भारतीय साहित्य किस रूप में विश्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य को बढ़ाने में मदद कर रहा है, यह जानने के लिए हमें यह देखना होगा कि मदद किस रूप में की जा सकती थी. यह मदद उन दिशाओं में की जा सकती थी जो दिशाएँ विश्व साहित्य में कमजोर हैं, या बिल्कुल नहीं हैं, या बहुत धीरे-धीरे विकसित हो रही हैं. जैसे, मनुष्यता का प्रश्न.
मनुष्यता की भारतीय अवधारणा भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का पहला आयाम है. मनुष्यता की जो एक सार्वकालिक परिभाषा है वह भारतीय साहित्य और भारतीय दर्शन में मिलती है. यह परिभाषा खासकर पश्चिमी देशों के साहित्य में हमें उस रूप में प्राप्त नहीं होती. उसका कारण यह है कि मनुष्य की उत्पत्ति और विकास के बारे में जो भारतीय धारणाएँ हैं वे मूल सांस्कृतिक धारणाएँ हैं जो पश्चिम की या अन्य दूसरे देशों की धारणाओं से बहुत ज्यादा भिन्न है. मनुष्य की जो भारतीय धारणा है वह एक साथ भौतिक, पारलौकिक, वैचारिक और सांस्कृतिक आयामों से मिलकर बनती है और साथ-साथ इसमें परंपरा जुड़ी हुई है. यहाँ मनुष्य भी मनुष्यता की परंपरा को लेकर आता है, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है. समंदर पार के जो देश हैं उन देशों में जो मनुष्य की अवधारणा है उसका ज्यादा संबंध या तो ‘स्वतंत्रता’ शब्द से है या ‘मुक्ति’ शब्द से; क्योंकि उपनिवेशवाद वहीँ की उत्पत्ति है जिसने मनुष्य को भी उपनिवेशवादी ढंग से संबोधित किया. दूसरे, वहाँ जो सांस्कृतिक और धार्मिक धारणाएँ रही हैं उनमें मनुष्य को बहुत कम काम करना है, उसे बनानेवाले सारा काम कर देंगे. मनुष्य को केवल शरण में जाना है. एक और बात यह है कि उस मनुष्य को प्रारंभ से ही सिखाया जाता है कि उसके भौतिक जीवन में और सांस्कृतिक जीवन में एक फर्क है. जब वह भौतिक होता है तो वह सांस्कृतिक कम होता है और जब वह सांस्कृतिक होता है तब भौतिक कम होता है. वहाँ समाज, धर्म और राजनीति में अंधकार युग भी बहुत लंबा रहा है इसलिए उस अंधकार से मुक्ति की ललक बहुत ज्यादा दिखाई देती है. उस अंधकार से उसे मुक्त होना है. पश्चिम देशों में इस मुक्त होने की परिणति यह है कि वहाँ मनुष्य सब कुछ से मुक्त हो जाना चाहता है. यहाँ तक कि उसे राष्ट्रीय सीमाओं से भी मुक्त हो जाना है. वहाँ की युवा पीढ़ी की एक बड़ी संख्या आज भी देखी जाती है जिसके भीतर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता बहुत कम दिखाई देती है. वह कहीं भी जाकर रह सकता है, किसी भी भाषा में बात कर सकता है यानि उसका चयन महत्वपूर्ण है; उसकी जड़ें महत्वपूर्ण नहीं. भारतवर्ष में मनुष्य होने के लिए जड़ें महत्वपूर्ण हैं. जड़ों का महत्वपूर्ण होना एक अलग लाभदायक स्थिति होती है. केवल चयन का महत्वपूर्ण होना एक दूसरी दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन वह तब नकारात्मक हो जाता है जब चयन करते समय मनुष्य अपनी सीमा में चयन करने लगता है और दूसरों की सीमाओं को भूल जाता है. वहाँ यह हमें ज्यादा दिखाई देता है. इसीलिए कपड़ों की तरह से अपने मित्रों को बदलना या शहरों को बदलना या देशों को बदलना पश्चिम के देशों में ज्यादा देखा जाता है. भारत या एशिया के देशों में यह कम दिखाई देता है. वहाँ इससे बहुत समस्या पैदा हो रही है. इसका समाधान भारतीय साहित्य के पास है - मनुष्य की उस अवधारणा के रूप में जिसके विकास में उसने बहुत सारे पृष्ठों की सामग्री तैयार की है. (रवींद्रनाथ ठाकुर : गोरा; अमृतराय : सहचिंतन; अज्ञेय : नदी के द्वीप; विष्णु प्रभाकर : अर्धनारीश्वर; बी वी कारंत : मुकज्जी). द्रष्टव्य है कि यह जो मनुष्य की भारतीय धारणा है, वे उसे किस रूप में ग्रहण कर रहे हैं या यह किस रूप में वहाँ जा रही है.
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का दूसरा आयाम संस्कृति से संबंधित है. बहुत कुछ खोने के बाद भी सांस्कृतिक दृष्टि से शेष दुनिया को देने के लिए भारतवर्ष के पास बहुत कुछ है क्योंकि संस्कृति यहाँ धर्म से जुड़ी हुई है. यह उस रूप में धर्म से नाभिनालबद्ध नहीं है जिस रूप में अन्य समाजों में या दूसरे देशों में दिखाई देती है. उसकी नाभिनालबद्धता जीवन के साथ है. यहाँ जीवन का अभिप्राय है- संस्कृति में विकासशील जीवन. संस्कृति निरंतर स्वयं को संशोधित करते हुए विकासशील जीवन की दिशा में बढ़ने के मार्ग तलाशती है. इस मार्ग तलाशने में प्रयोगशीलता भी निहित है. इससे समाज में गतिशीलता भी आती है और प्रगतिशील अथवा विकासशील मूल्य भी अपनी जगह बनाते हैं. (एलाङ्बम नीलकांत सिंह : पीप्स इनटू कल्चर; शिवप्रसाद सिंह : नीला चाँद; गजेंद्र कुमार मित्र : पांचजन्य; विश्वनाथ सत्यनारायण : सहस्रफण). संस्कृति की यह धारणा भी पश्चिम के विश्व परिदृश्य को विस्तार दे सकती है. इस कार्य को भारतीय साहित्य कितना कर पाया है, यह देखने की बात है; लेकिन उसकी विश्वसनीयता जरूर है.
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का तीसरा आयाम उसमें निहित लोकतांत्रिक चेतना से निर्मित है. भारत में लोकतंत्र का जिस तरह से विकास हुआ है उसमें विरुद्धों का सामंजस्य एक महत्वपूर्ण चीज है. तमाम सामंती प्रवृत्तियों के बावजूद, तमाम बाहुबली प्रवृत्तियों के बावजूद, तमाम गरीबी के बावजूद; अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति भी लोकतंत्र को त्यागना नहीं चाहता; उसी रास्ते पर आगे बढना चाहता है. उसमें हिंसा या मारकाट के लिए जगह नहीं है पर विरोध के लिए जगह है और इस विरोध को सहन करने के लिए जगह है. गरीब से गरीब आदमी भी या अनपढ़ से अनपढ़ आदमी भी इसे स्वीकार करता है. भारतीय भाषाओं की कहानियों में या उपन्यासों में विरुद्धों के सह-अस्तित्व में विश्वास रखने वाला यह आम आदमी हमें दिखाई देता है. (लमाबम कमल सिंह : ब्रजेंद्र का विवाह– कहानी, माधवी- उपन्यास; कुमारन आशान : चिंताविष्टा सीता). यह ऐसी चीज है जो दूसरे देशों को बहुत दूर तक शिक्षित कर सकती है. अन्य देशों में, खासकर पश्चिम के देशों में, जहाँ ‘मतदान की स्वतंत्रता का लोकतंत्र’ महत्वपूर्ण है लेकिन मतदान के बाद जो सरकार बनेगी उसकी निष्ठा की चिंता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है. जो विरुद्धों का सामंजस्य भारतीय लोकतंत्र में दिखाई देता है वह वहाँ हमें बहुत कम दिखाई देता है. हम इस बात को रोते हैं कि हमारे यहाँ अस्थिरता दिखाई देती है लेकिन गौर से देखें तो अस्थिरता वहाँ ज्यादा दिखाई देती है. अगर वहाँ किसी प्रधानमंत्री को कुर्सी हिलती हुई नजर आती है तो हमारे यहाँ से जल्दी वह वहाँ चुनाव करा लेता है – जैसा जापान में हुआ. हमारे यहाँ जल्दी चुनाव कराते-कराते भी चार साल गुजर जाते हैं लेकिन वहाँ ऐसा नहीं होता. लोकतंत्र के प्रति ईमानदारी का जो प्रतिशत यहाँ बचा हुआ है वहाँ नहीं है. वहाँ जो नेता है वह भ्रष्टाचार करेगा और जिस दिन कुर्सी छोड़ेगा उसको स्वीकार कर लेगा कि ‘हाँ. मैंने किया’ और फिर लोग धीरे-धीरे भूल जाएँगे. सत्ता के खिलाफ जो चीजें चलती रहती हैं, वे बड़ी कम वहाँ दिखाई देती हैं. इस तरह की चीज हमारे यहाँ के साहित्य में अधिक है जो भारतीय लोकतंत्र की प्रवृत्तियों को दर्शाती है. यह कहाँ तक पश्चिम में या अन्य देशों में गई है, अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के निर्धारण के लिए यह देखना ज़रूरी है. इसमें साहित्येतर लेखन को भी जोड़ लें तो परिप्रेक्ष्य और व्यापक हो सकता है.
इस परिप्रेक्ष्य का चौथा आयाम जिजीविषा से संबंधित है. भारतीय साहित्य अपनी जिजीविषा के लिए बहुत प्रसिद्ध है. जिजीविषा उसका सबसे महत्वपूर्ण मूल्य है. यह एक ऐसा पक्ष है जो भारतीय साहित्य किसी को भी दे सकता है और इस विषय पर किसी को भी शिक्षित कर सकता है. प्रायः भ्रांतिवश यह माँ लिया जाता है कि जिजीविषा अस्तित्ववाद के ज़माने में विमर्श के स्तर पर पश्चिम से आई हुई चीज है. लेकिन हमारे यहाँ उपनिषदों और पुरानों में असंख्य ऐसी कथाएँ हैं जिनके पात्र अपने पिता को चुनौती देते हैं, अपने दादा को चुनौती देते हैं. अपने गाँव को चुनौती देते हैं, अपनी पूरी परंपरा को चुनौती देते हैं, अतः अगर हमारे पौराणिक या पारंपरिक साहित्य से जोड़कर देखें तो आज जिसे हम जिजीविषा कह रहे हैं उसके सूत्र हमें वहाँ मिलते हैं. इसके अतिरिक्त अगर आयातित जिजीविषा को थोड़ा सा ध्यान से देखें तो पता चलता है कि वह दवाबों से बचने की कोशिश है. युद्ध का परिणाम व्यक्ति को दबा रहा है, परंपराएँ दबा रही हैं, बड़े-बूढ़े दबा रहे हैं, पीढ़ियों का अंतराल दबा रहा है, सामाजिक रीति-रिवाज दबा रहे हैं और ये सब उसकी आजादी को नष्ट कर रहे हैं. व्यक्ति को इन सबका प्रतिरोध करना है. चूँकि ये बड़े हैं हम छोटे हैं तो हमें अपने छोटे पर गर्व करना है, उन्हें अपने बड़े पर गर्व होगा. हमारी जो लघुता है हमारा जो छोटापन है वह बेइज्जती की बात नहीं है, वह हमारे लिए गर्व करने की बात है क्योंकि हम ऐसे ही हैं. यह है पश्चिम वाली जिजीविषा. अगर हम अपने यहाँ वाली जिजीविषा को देखेंगे जिसके सूत्र उपनिषदों और पुराणों में निहित हैं, तो पता चलेगा कि अपने को बनाने, बनाए रखने और दूसरों के साथ जीने की एक महत्तम इच्छा ही भारतीय जिजीविषा है. (अज्ञेय : यह दीप अकेला; जगदीश गुप्त : गोपा-गौतम; भीष्म साहनी : माधवी, कबिरा खड़ा बजार में; कुँवर नारायण : नचिकेता, वाजिश्रवा के बहाने; जोराम यालाम नाबाम : साक्षी है पीपल). इस जिजीविषा में कहीं नकारात्मकता नहीं है. इसमें अस्वीकार है – जड़ता के प्रति अस्वीकार है, लेकिन नकारात्मकता कहीं नहीं है. इसमे स्वीकार ज्यादा है. यह सकारात्मकता है कि अपने को बनाए रखना है, नए रास्ते खोजने हैं, नई राहें तलाश करनी हैं, नई भाषा तलाश करनी है, नए ढंग से बोलना सीखना है, समय के साथ अपने को समायोजित करना सीखना है. यह जो सकारात्मकता हमारी जिजीविषा में है, इसमें कहीं भी थोपे जाने से बचने की मजबूरी नहीं है. यह मूल अंतर है पश्चिम की जिजीविषा में और हमारी जिजीविषा में. यह जिजीविषा सारी भारतीय भाषाओँ के साहित्य में दिखाई देती है. जिजीविषा का कम होते चले जाना आज एक ऐसी समस्या है जो दुनिया को बहुत परेशान कर रही है. यह समस्या बहुत खतरनाक बिंदु पर पहुँच गई है – इतने खतरनाक बिंदु पर कि पश्चिम में अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए दूसरे के अस्तित्व को मिटाने की मजबूरी स्वीकृति प्राप्त कर रही है. अभी कुछ पंद्रह-बीस वर्षों पहले जो राज्यों का विभाजन नए सिरे से किया गया है, उसका एक मान्य सिद्धांत ही है कि जो विकसित राज्य हैं उन्हें अपने विकास को बनाए रखने के लिए अविकसित राज्यों पर हमला करने का अधिकार है. यह क्या है? यह जिजीविषा का क्षरण है. लेकिन चौतरफा मृत्यु से घिरे होने के बावजूद भारत की जिजीविषा अक्षुण्ण है क्योंकि वह उपनिषदों-पुराणों और संस्कृति से जुड़ी हुई है. आपपर जो कुछ थोप दिया गया है और आपको दबा दिया गया है, अब आपको उसे तोड़कर बाहर निकलना है. यह एक मूलभूत अंतर है. देखना यह है कि भारतीय साहित्य में निहित जिजीविषा का यह मूल्य, जिसे आज तक भी अच्छे साहित्य की पहचान माना जाता है, विश्व साहित्य को किस रूप में मिल रहा है या नहीं मिल रहा है. नहीं मिल रहा है तो हमें यह खोजना होगा कि क्यों नहीं मिल पा रहा है.
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का एक गौण आयाम भी है – भारतीय साहित्य का भौगोलिक विस्तार. यह ठीक है कि आज विश्व भर में भारतीय साहित्य अपनी पहचान बनाने में लगा है और अनुवाद तथा अनुसृजन के माध्यम से उसका निरंतर प्रसार हो रहा है. लेकिन हमें याद रखना होगा कि विश्व भर में भारतीय साहित्य का प्रसार उसके विश्व परिप्रेक्ष्य को तय नहीं करता, बल्कि उसे तय करती हैं वे प्रवृत्तियाँ जिनका संबंध मनुष्यता, संस्कृति, लोकतंत्र और जिजीविषा जैसे भारतीय साहित्य में गुँथे मूल्यों से है.
- ऋषभदेव शर्मा
इस निजी परिप्रेक्ष्य की समझ के बाद यह प्रश्न उठता है कि भारतीय साहित्य अपनी शक्तियों, प्रवृत्तियों और स्वभाव के बल पर विश्व साहित्य की, उसका दायरा बढ़ाने में, कहाँ तक सहायता कर रहा है. इससे हमें भारतीय साहित्य के महत्व का, उसकी सामयिकता का और उसकी विश्वसनीयता का पता चलेगा. भारतीय साहित्य किस रूप में विश्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य को बढ़ाने में मदद कर रहा है, यह जानने के लिए हमें यह देखना होगा कि मदद किस रूप में की जा सकती थी. यह मदद उन दिशाओं में की जा सकती थी जो दिशाएँ विश्व साहित्य में कमजोर हैं, या बिल्कुल नहीं हैं, या बहुत धीरे-धीरे विकसित हो रही हैं. जैसे, मनुष्यता का प्रश्न.
मनुष्यता की भारतीय अवधारणा भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का पहला आयाम है. मनुष्यता की जो एक सार्वकालिक परिभाषा है वह भारतीय साहित्य और भारतीय दर्शन में मिलती है. यह परिभाषा खासकर पश्चिमी देशों के साहित्य में हमें उस रूप में प्राप्त नहीं होती. उसका कारण यह है कि मनुष्य की उत्पत्ति और विकास के बारे में जो भारतीय धारणाएँ हैं वे मूल सांस्कृतिक धारणाएँ हैं जो पश्चिम की या अन्य दूसरे देशों की धारणाओं से बहुत ज्यादा भिन्न है. मनुष्य की जो भारतीय धारणा है वह एक साथ भौतिक, पारलौकिक, वैचारिक और सांस्कृतिक आयामों से मिलकर बनती है और साथ-साथ इसमें परंपरा जुड़ी हुई है. यहाँ मनुष्य भी मनुष्यता की परंपरा को लेकर आता है, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है. समंदर पार के जो देश हैं उन देशों में जो मनुष्य की अवधारणा है उसका ज्यादा संबंध या तो ‘स्वतंत्रता’ शब्द से है या ‘मुक्ति’ शब्द से; क्योंकि उपनिवेशवाद वहीँ की उत्पत्ति है जिसने मनुष्य को भी उपनिवेशवादी ढंग से संबोधित किया. दूसरे, वहाँ जो सांस्कृतिक और धार्मिक धारणाएँ रही हैं उनमें मनुष्य को बहुत कम काम करना है, उसे बनानेवाले सारा काम कर देंगे. मनुष्य को केवल शरण में जाना है. एक और बात यह है कि उस मनुष्य को प्रारंभ से ही सिखाया जाता है कि उसके भौतिक जीवन में और सांस्कृतिक जीवन में एक फर्क है. जब वह भौतिक होता है तो वह सांस्कृतिक कम होता है और जब वह सांस्कृतिक होता है तब भौतिक कम होता है. वहाँ समाज, धर्म और राजनीति में अंधकार युग भी बहुत लंबा रहा है इसलिए उस अंधकार से मुक्ति की ललक बहुत ज्यादा दिखाई देती है. उस अंधकार से उसे मुक्त होना है. पश्चिम देशों में इस मुक्त होने की परिणति यह है कि वहाँ मनुष्य सब कुछ से मुक्त हो जाना चाहता है. यहाँ तक कि उसे राष्ट्रीय सीमाओं से भी मुक्त हो जाना है. वहाँ की युवा पीढ़ी की एक बड़ी संख्या आज भी देखी जाती है जिसके भीतर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता बहुत कम दिखाई देती है. वह कहीं भी जाकर रह सकता है, किसी भी भाषा में बात कर सकता है यानि उसका चयन महत्वपूर्ण है; उसकी जड़ें महत्वपूर्ण नहीं. भारतवर्ष में मनुष्य होने के लिए जड़ें महत्वपूर्ण हैं. जड़ों का महत्वपूर्ण होना एक अलग लाभदायक स्थिति होती है. केवल चयन का महत्वपूर्ण होना एक दूसरी दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन वह तब नकारात्मक हो जाता है जब चयन करते समय मनुष्य अपनी सीमा में चयन करने लगता है और दूसरों की सीमाओं को भूल जाता है. वहाँ यह हमें ज्यादा दिखाई देता है. इसीलिए कपड़ों की तरह से अपने मित्रों को बदलना या शहरों को बदलना या देशों को बदलना पश्चिम के देशों में ज्यादा देखा जाता है. भारत या एशिया के देशों में यह कम दिखाई देता है. वहाँ इससे बहुत समस्या पैदा हो रही है. इसका समाधान भारतीय साहित्य के पास है - मनुष्य की उस अवधारणा के रूप में जिसके विकास में उसने बहुत सारे पृष्ठों की सामग्री तैयार की है. (रवींद्रनाथ ठाकुर : गोरा; अमृतराय : सहचिंतन; अज्ञेय : नदी के द्वीप; विष्णु प्रभाकर : अर्धनारीश्वर; बी वी कारंत : मुकज्जी). द्रष्टव्य है कि यह जो मनुष्य की भारतीय धारणा है, वे उसे किस रूप में ग्रहण कर रहे हैं या यह किस रूप में वहाँ जा रही है.
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का दूसरा आयाम संस्कृति से संबंधित है. बहुत कुछ खोने के बाद भी सांस्कृतिक दृष्टि से शेष दुनिया को देने के लिए भारतवर्ष के पास बहुत कुछ है क्योंकि संस्कृति यहाँ धर्म से जुड़ी हुई है. यह उस रूप में धर्म से नाभिनालबद्ध नहीं है जिस रूप में अन्य समाजों में या दूसरे देशों में दिखाई देती है. उसकी नाभिनालबद्धता जीवन के साथ है. यहाँ जीवन का अभिप्राय है- संस्कृति में विकासशील जीवन. संस्कृति निरंतर स्वयं को संशोधित करते हुए विकासशील जीवन की दिशा में बढ़ने के मार्ग तलाशती है. इस मार्ग तलाशने में प्रयोगशीलता भी निहित है. इससे समाज में गतिशीलता भी आती है और प्रगतिशील अथवा विकासशील मूल्य भी अपनी जगह बनाते हैं. (एलाङ्बम नीलकांत सिंह : पीप्स इनटू कल्चर; शिवप्रसाद सिंह : नीला चाँद; गजेंद्र कुमार मित्र : पांचजन्य; विश्वनाथ सत्यनारायण : सहस्रफण). संस्कृति की यह धारणा भी पश्चिम के विश्व परिदृश्य को विस्तार दे सकती है. इस कार्य को भारतीय साहित्य कितना कर पाया है, यह देखने की बात है; लेकिन उसकी विश्वसनीयता जरूर है.
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का तीसरा आयाम उसमें निहित लोकतांत्रिक चेतना से निर्मित है. भारत में लोकतंत्र का जिस तरह से विकास हुआ है उसमें विरुद्धों का सामंजस्य एक महत्वपूर्ण चीज है. तमाम सामंती प्रवृत्तियों के बावजूद, तमाम बाहुबली प्रवृत्तियों के बावजूद, तमाम गरीबी के बावजूद; अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति भी लोकतंत्र को त्यागना नहीं चाहता; उसी रास्ते पर आगे बढना चाहता है. उसमें हिंसा या मारकाट के लिए जगह नहीं है पर विरोध के लिए जगह है और इस विरोध को सहन करने के लिए जगह है. गरीब से गरीब आदमी भी या अनपढ़ से अनपढ़ आदमी भी इसे स्वीकार करता है. भारतीय भाषाओं की कहानियों में या उपन्यासों में विरुद्धों के सह-अस्तित्व में विश्वास रखने वाला यह आम आदमी हमें दिखाई देता है. (लमाबम कमल सिंह : ब्रजेंद्र का विवाह– कहानी, माधवी- उपन्यास; कुमारन आशान : चिंताविष्टा सीता). यह ऐसी चीज है जो दूसरे देशों को बहुत दूर तक शिक्षित कर सकती है. अन्य देशों में, खासकर पश्चिम के देशों में, जहाँ ‘मतदान की स्वतंत्रता का लोकतंत्र’ महत्वपूर्ण है लेकिन मतदान के बाद जो सरकार बनेगी उसकी निष्ठा की चिंता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है. जो विरुद्धों का सामंजस्य भारतीय लोकतंत्र में दिखाई देता है वह वहाँ हमें बहुत कम दिखाई देता है. हम इस बात को रोते हैं कि हमारे यहाँ अस्थिरता दिखाई देती है लेकिन गौर से देखें तो अस्थिरता वहाँ ज्यादा दिखाई देती है. अगर वहाँ किसी प्रधानमंत्री को कुर्सी हिलती हुई नजर आती है तो हमारे यहाँ से जल्दी वह वहाँ चुनाव करा लेता है – जैसा जापान में हुआ. हमारे यहाँ जल्दी चुनाव कराते-कराते भी चार साल गुजर जाते हैं लेकिन वहाँ ऐसा नहीं होता. लोकतंत्र के प्रति ईमानदारी का जो प्रतिशत यहाँ बचा हुआ है वहाँ नहीं है. वहाँ जो नेता है वह भ्रष्टाचार करेगा और जिस दिन कुर्सी छोड़ेगा उसको स्वीकार कर लेगा कि ‘हाँ. मैंने किया’ और फिर लोग धीरे-धीरे भूल जाएँगे. सत्ता के खिलाफ जो चीजें चलती रहती हैं, वे बड़ी कम वहाँ दिखाई देती हैं. इस तरह की चीज हमारे यहाँ के साहित्य में अधिक है जो भारतीय लोकतंत्र की प्रवृत्तियों को दर्शाती है. यह कहाँ तक पश्चिम में या अन्य देशों में गई है, अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के निर्धारण के लिए यह देखना ज़रूरी है. इसमें साहित्येतर लेखन को भी जोड़ लें तो परिप्रेक्ष्य और व्यापक हो सकता है.
इस परिप्रेक्ष्य का चौथा आयाम जिजीविषा से संबंधित है. भारतीय साहित्य अपनी जिजीविषा के लिए बहुत प्रसिद्ध है. जिजीविषा उसका सबसे महत्वपूर्ण मूल्य है. यह एक ऐसा पक्ष है जो भारतीय साहित्य किसी को भी दे सकता है और इस विषय पर किसी को भी शिक्षित कर सकता है. प्रायः भ्रांतिवश यह माँ लिया जाता है कि जिजीविषा अस्तित्ववाद के ज़माने में विमर्श के स्तर पर पश्चिम से आई हुई चीज है. लेकिन हमारे यहाँ उपनिषदों और पुरानों में असंख्य ऐसी कथाएँ हैं जिनके पात्र अपने पिता को चुनौती देते हैं, अपने दादा को चुनौती देते हैं. अपने गाँव को चुनौती देते हैं, अपनी पूरी परंपरा को चुनौती देते हैं, अतः अगर हमारे पौराणिक या पारंपरिक साहित्य से जोड़कर देखें तो आज जिसे हम जिजीविषा कह रहे हैं उसके सूत्र हमें वहाँ मिलते हैं. इसके अतिरिक्त अगर आयातित जिजीविषा को थोड़ा सा ध्यान से देखें तो पता चलता है कि वह दवाबों से बचने की कोशिश है. युद्ध का परिणाम व्यक्ति को दबा रहा है, परंपराएँ दबा रही हैं, बड़े-बूढ़े दबा रहे हैं, पीढ़ियों का अंतराल दबा रहा है, सामाजिक रीति-रिवाज दबा रहे हैं और ये सब उसकी आजादी को नष्ट कर रहे हैं. व्यक्ति को इन सबका प्रतिरोध करना है. चूँकि ये बड़े हैं हम छोटे हैं तो हमें अपने छोटे पर गर्व करना है, उन्हें अपने बड़े पर गर्व होगा. हमारी जो लघुता है हमारा जो छोटापन है वह बेइज्जती की बात नहीं है, वह हमारे लिए गर्व करने की बात है क्योंकि हम ऐसे ही हैं. यह है पश्चिम वाली जिजीविषा. अगर हम अपने यहाँ वाली जिजीविषा को देखेंगे जिसके सूत्र उपनिषदों और पुराणों में निहित हैं, तो पता चलेगा कि अपने को बनाने, बनाए रखने और दूसरों के साथ जीने की एक महत्तम इच्छा ही भारतीय जिजीविषा है. (अज्ञेय : यह दीप अकेला; जगदीश गुप्त : गोपा-गौतम; भीष्म साहनी : माधवी, कबिरा खड़ा बजार में; कुँवर नारायण : नचिकेता, वाजिश्रवा के बहाने; जोराम यालाम नाबाम : साक्षी है पीपल). इस जिजीविषा में कहीं नकारात्मकता नहीं है. इसमें अस्वीकार है – जड़ता के प्रति अस्वीकार है, लेकिन नकारात्मकता कहीं नहीं है. इसमे स्वीकार ज्यादा है. यह सकारात्मकता है कि अपने को बनाए रखना है, नए रास्ते खोजने हैं, नई राहें तलाश करनी हैं, नई भाषा तलाश करनी है, नए ढंग से बोलना सीखना है, समय के साथ अपने को समायोजित करना सीखना है. यह जो सकारात्मकता हमारी जिजीविषा में है, इसमें कहीं भी थोपे जाने से बचने की मजबूरी नहीं है. यह मूल अंतर है पश्चिम की जिजीविषा में और हमारी जिजीविषा में. यह जिजीविषा सारी भारतीय भाषाओँ के साहित्य में दिखाई देती है. जिजीविषा का कम होते चले जाना आज एक ऐसी समस्या है जो दुनिया को बहुत परेशान कर रही है. यह समस्या बहुत खतरनाक बिंदु पर पहुँच गई है – इतने खतरनाक बिंदु पर कि पश्चिम में अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए दूसरे के अस्तित्व को मिटाने की मजबूरी स्वीकृति प्राप्त कर रही है. अभी कुछ पंद्रह-बीस वर्षों पहले जो राज्यों का विभाजन नए सिरे से किया गया है, उसका एक मान्य सिद्धांत ही है कि जो विकसित राज्य हैं उन्हें अपने विकास को बनाए रखने के लिए अविकसित राज्यों पर हमला करने का अधिकार है. यह क्या है? यह जिजीविषा का क्षरण है. लेकिन चौतरफा मृत्यु से घिरे होने के बावजूद भारत की जिजीविषा अक्षुण्ण है क्योंकि वह उपनिषदों-पुराणों और संस्कृति से जुड़ी हुई है. आपपर जो कुछ थोप दिया गया है और आपको दबा दिया गया है, अब आपको उसे तोड़कर बाहर निकलना है. यह एक मूलभूत अंतर है. देखना यह है कि भारतीय साहित्य में निहित जिजीविषा का यह मूल्य, जिसे आज तक भी अच्छे साहित्य की पहचान माना जाता है, विश्व साहित्य को किस रूप में मिल रहा है या नहीं मिल रहा है. नहीं मिल रहा है तो हमें यह खोजना होगा कि क्यों नहीं मिल पा रहा है.
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का एक गौण आयाम भी है – भारतीय साहित्य का भौगोलिक विस्तार. यह ठीक है कि आज विश्व भर में भारतीय साहित्य अपनी पहचान बनाने में लगा है और अनुवाद तथा अनुसृजन के माध्यम से उसका निरंतर प्रसार हो रहा है. लेकिन हमें याद रखना होगा कि विश्व भर में भारतीय साहित्य का प्रसार उसके विश्व परिप्रेक्ष्य को तय नहीं करता, बल्कि उसे तय करती हैं वे प्रवृत्तियाँ जिनका संबंध मनुष्यता, संस्कृति, लोकतंत्र और जिजीविषा जैसे भारतीय साहित्य में गुँथे मूल्यों से है.
- ऋषभदेव शर्मा
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