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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

(भूमिका : दो शब्द) भारतीय साहित्य का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य






भारतीय साहित्य का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य : विविध आयाम

भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि भारतीय साहित्य का निजी परिप्रेक्ष्य क्या और कैसा है. आज  विश्व साहित्य के माध्यम से और विश्व में जो समाज-सांस्कृतिक और राजनैतिक परिवर्तन हो रहे हैं, उनके प्रभाव को ग्रहण करके एक विश्व परिप्रेक्ष्य परिणत हो रहा है.  दूसरे देशों - यूरोपीय और खासकर के पश्चिम के - देशों में बहुत सजग चलन है कि जब कोई भी बड़ी घटना होती है, उसपर समाज वैज्ञानिक लेखन भी काफी संख्या में होता है और साहित्यिक लेखन भी. साथ ही,विश्व को प्रभावित करनेवाली इन घटनाओं के बारे में फ़िल्में भी बन जाती हैं.   इसका लाभ यह लगता है कि वहाँ के सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक कार्यकर्ता और लेखक लगभग-लगभग साथ रहकर एक विश्व परिदृश्य बनाते हैं जिसका असर संस्कृति पर भी होता है, पर्यटन पर भी होता है, रचनात्मक साहित्य पर भी होता है और विचार-विमर्श के आंदोलनों पर भी होता है. यह एक चलन है जिसे भले ही साहित्य की शाश्वत परंपरा की दृष्टि से उतना अच्छा न माना जाता हो या सवालों के घेरे में खड़ा किया जा सकता हो, लेकिन समसामयिकता की दृष्टि से यह चलन बहुत महत्व का है.   हिरोशिमा और नागासाकी की घटनाओं पर बहुत कुछ लिखा गया है.  उसके बाद भी जो युद्ध हुए हैं उनपर भी बहुत कुछ लिखा गया है.   अफ्रीकन देशों में जो उपनिवेशवाद चला है और उसके विरोध में जो क्रांतियाँ हुई हैं, उसपर भी बहुत सारा साहित्य रचा गया है. साथ ही, बदली हुई राजनीतिक प्रणालियों पर भी साहित्य रचा गया है. अर्थात पश्चिम में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो चारो तरफ से साहित्य का भी विश्व परिदृश्य बनाते हैं और अन्य क्षेत्रों का भी विश्व परिदृश्य बनाते हैं.  हम देखते हैं कि इस समसामयिक विश्व परिदृश्य का प्रभाव भारतीय फिल्मों पर तो पड़ता है और पड़ रहा है. भारतवर्ष में भी उनसे प्रेरणा लेकर यहाँ होनेवाली घटनाओं पर फ़िल्में बनाई जा रही हैं.   लेकिन साहित्य में यह चीज कहाँ है, यह देखा जाना  चाहिए. अतः यह विचारणीय है कि साहित्य का जो विश्व परिदृश्य विभिन्न कारकों से मिलकर बनता है, वह भारतीय साहित्य में किस रूप में आता है.   स्वाभाविक है कि ऐसा दो प्रकार से होता है. एक तो, घटनाओं के रूप में– अर्थात उन घटनाओं को सीधे-सीधे ग्रहण करके. दूसरे,  प्रवृत्तियों के रूप में– अर्थात विश्व परिदृश्य साहित्य और कला में जिन प्रवृत्तियों को जन्म देता है, उन प्रवृत्तियों को आत्मसात करके.  इस प्रकार, भारतीय साहित्य के निजी परिप्रेक्ष्य की व्याख्या के लिए यह देखना होगा कि इन वैश्विक परिवर्तनों, घटनाओं और प्रवृत्तियों को भारतीय साहित्य ने किस रूप में ग्रहण किया है या उसकी गति क्या है या उसकी दिशा क्या है. यह आवश्यक नहीं है कि हम यह घोषणा कर दें कि भारतीय साहित्य ने उन सबको ग्रहण कर लिया है.   ऐसा अगर कहेंगे तो यह एक प्रकार का झूठ हो जाएगा क्योंकि यह बात सामान्य प्रवृत्ति के रूप में या सामान्य आचरण के रूप में हमें दिखाई नहीं देती.  ऐसी कोई प्रवृत्ति भारतीय साहित्य में पनप रही है या नहीं, यह जानने के लिए भारतीय भाषाओँ के उन सभी लेखकों का आकलन करना पड़ेगा जो अधुनातन परिवर्तनों से जुड़े रहे हैं. 
इस निजी परिप्रेक्ष्य की समझ के बाद यह प्रश्न उठता है कि भारतीय साहित्य अपनी शक्तियों, प्रवृत्तियों और स्वभाव  के बल पर  विश्व साहित्य की, उसका दायरा बढ़ाने में, कहाँ तक सहायता कर रहा है.   इससे हमें भारतीय साहित्य के महत्व का, उसकी सामयिकता का और उसकी विश्वसनीयता का  पता चलेगा.   भारतीय साहित्य किस रूप में विश्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य को बढ़ाने में मदद कर रहा है, यह जानने के लिए हमें यह देखना होगा कि मदद किस रूप में की जा सकती थी.  यह मदद उन दिशाओं में की जा सकती थी जो दिशाएँ विश्व साहित्य में कमजोर हैं, या बिल्कुल नहीं हैं, या बहुत धीरे-धीरे विकसित हो रही हैं. जैसे, मनुष्यता का प्रश्न.
मनुष्यता की भारतीय अवधारणा भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का पहला आयाम है.  मनुष्यता की जो एक सार्वकालिक परिभाषा है वह भारतीय साहित्य और भारतीय दर्शन में मिलती है.   यह परिभाषा खासकर पश्चिमी देशों के साहित्य में हमें उस रूप में प्राप्त नहीं होती.   उसका कारण यह है कि मनुष्य की उत्पत्ति और विकास के बारे में जो भारतीय धारणाएँ हैं वे मूल सांस्कृतिक धारणाएँ हैं जो पश्चिम की या अन्य दूसरे देशों की धारणाओं से बहुत ज्यादा भिन्न है.   मनुष्य की जो भारतीय धारणा है वह एक साथ भौतिक, पारलौकिक, वैचारिक और सांस्कृतिक आयामों से मिलकर बनती है और साथ-साथ इसमें परंपरा जुड़ी हुई है.   यहाँ मनुष्य भी मनुष्यता की परंपरा को लेकर आता है, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है.   समंदर पार के जो देश हैं उन देशों में जो मनुष्य की अवधारणा है उसका ज्यादा संबंध या तो ‘स्वतंत्रता’ शब्द से है या ‘मुक्ति’ शब्द से; क्योंकि उपनिवेशवाद वहीँ की उत्पत्ति है जिसने मनुष्य को भी उपनिवेशवादी ढंग से संबोधित किया. दूसरे, वहाँ जो सांस्कृतिक और धार्मिक धारणाएँ रही हैं उनमें मनुष्य को बहुत कम काम करना है, उसे बनानेवाले सारा काम कर देंगे.   मनुष्य को केवल शरण में जाना है.   एक और बात यह है कि उस मनुष्य को प्रारंभ से ही सिखाया जाता है कि उसके भौतिक जीवन में और सांस्कृतिक जीवन में एक फर्क है.   जब वह भौतिक होता है तो वह सांस्कृतिक कम होता है और जब वह सांस्कृतिक होता है तब भौतिक कम होता है.   वहाँ समाज, धर्म और राजनीति में अंधकार युग भी बहुत लंबा रहा है इसलिए उस अंधकार से मुक्ति की ललक बहुत ज्यादा दिखाई देती है.   उस अंधकार से उसे मुक्त होना है.   पश्चिम देशों में इस मुक्त होने की परिणति यह है कि वहाँ मनुष्य सब कुछ से मुक्त हो जाना चाहता है.   यहाँ तक कि उसे राष्ट्रीय सीमाओं से भी मुक्त हो जाना है. वहाँ की युवा पीढ़ी की एक बड़ी संख्या आज भी देखी जाती है जिसके भीतर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता बहुत कम दिखाई देती है.   वह कहीं भी जाकर रह सकता है, किसी भी भाषा में बात कर सकता है यानि उसका चयन महत्वपूर्ण है; उसकी जड़ें महत्वपूर्ण नहीं.   भारतवर्ष में मनुष्य होने के लिए जड़ें महत्वपूर्ण हैं.   जड़ों का महत्वपूर्ण होना एक अलग लाभदायक स्थिति होती है.   केवल चयन का महत्वपूर्ण होना एक दूसरी दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन वह तब नकारात्मक हो जाता है जब चयन करते समय मनुष्य  अपनी सीमा में चयन करने लगता है और दूसरों की सीमाओं को भूल जाता है.   वहाँ यह  हमें ज्यादा दिखाई देता है.  इसीलिए कपड़ों की तरह से अपने मित्रों को बदलना या शहरों को बदलना या देशों को बदलना पश्चिम के देशों में ज्यादा देखा जाता है.   भारत या एशिया के देशों में यह कम दिखाई देता है.   वहाँ इससे बहुत समस्या पैदा हो रही है.   इसका समाधान भारतीय साहित्य के पास है - मनुष्य की उस अवधारणा के रूप में जिसके विकास में उसने बहुत सारे पृष्ठों की सामग्री तैयार की है.   (रवींद्रनाथ ठाकुर : गोरा; अमृतराय : सहचिंतन; अज्ञेय : नदी के द्वीप; विष्णु प्रभाकर : अर्धनारीश्वर; बी वी कारंत : मुकज्जी). द्रष्टव्य है कि यह जो मनुष्य की भारतीय धारणा है, वे उसे किस रूप में ग्रहण कर रहे हैं या यह किस रूप में वहाँ  जा रही है.
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का दूसरा आयाम संस्कृति से संबंधित है. बहुत कुछ खोने के बाद भी सांस्कृतिक दृष्टि से शेष दुनिया को देने के लिए भारतवर्ष के पास बहुत कुछ है क्योंकि संस्कृति यहाँ धर्म से जुड़ी हुई है.   यह उस रूप में धर्म से नाभिनालबद्ध नहीं है जिस रूप में अन्य समाजों में या दूसरे देशों में दिखाई देती है.   उसकी नाभिनालबद्धता जीवन के साथ है.   यहाँ जीवन का अभिप्राय है- संस्कृति में विकासशील जीवन.   संस्कृति निरंतर स्वयं को संशोधित करते हुए विकासशील जीवन की दिशा में  बढ़ने के मार्ग तलाशती है.   इस मार्ग तलाशने में प्रयोगशीलता भी निहित है.   इससे समाज में गतिशीलता भी आती है और प्रगतिशील अथवा विकासशील मूल्य भी अपनी जगह बनाते हैं. (एलाङ्बम नीलकांत सिंह : पीप्स इनटू कल्चर; शिवप्रसाद सिंह : नीला चाँद; गजेंद्र कुमार मित्र : पांचजन्य; विश्वनाथ सत्यनारायण : सहस्रफण). संस्कृति की यह धारणा भी पश्चिम के विश्व परिदृश्य को विस्तार दे सकती है.   इस कार्य को भारतीय साहित्य कितना कर पाया है, यह देखने की बात है; लेकिन उसकी विश्वसनीयता जरूर है. 
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का तीसरा आयाम उसमें निहित लोकतांत्रिक चेतना से निर्मित है.  भारत में लोकतंत्र का जिस तरह से विकास हुआ है उसमें विरुद्धों का सामंजस्य एक महत्वपूर्ण चीज है.   तमाम सामंती प्रवृत्तियों के बावजूद, तमाम बाहुबली प्रवृत्तियों के बावजूद, तमाम गरीबी के बावजूद; अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति भी लोकतंत्र को त्यागना नहीं चाहता; उसी रास्ते पर आगे बढना चाहता है.  उसमें हिंसा या मारकाट के लिए जगह नहीं है पर विरोध के लिए जगह है और इस विरोध को सहन करने के लिए जगह है.   गरीब से गरीब आदमी भी या अनपढ़ से अनपढ़ आदमी भी इसे स्वीकार करता है.   भारतीय भाषाओं की कहानियों में या उपन्यासों में विरुद्धों के सह-अस्तित्व में विश्वास रखने वाला यह  आम आदमी हमें दिखाई देता है. (लमाबम कमल सिंह : ब्रजेंद्र का विवाह– कहानी, माधवी- उपन्यास; कुमारन आशान : चिंताविष्टा सीता). यह ऐसी चीज है जो दूसरे देशों को बहुत दूर तक शिक्षित कर सकती है.  अन्य देशों में, खासकर पश्चिम के देशों में, जहाँ ‘मतदान की स्वतंत्रता का लोकतंत्र’ महत्वपूर्ण है लेकिन मतदान के बाद जो सरकार बनेगी उसकी निष्ठा की चिंता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है.   जो विरुद्धों का सामंजस्य भारतीय लोकतंत्र में दिखाई देता है वह वहाँ  हमें बहुत कम दिखाई देता है.   हम इस बात को रोते हैं कि हमारे यहाँ अस्थिरता दिखाई देती है लेकिन गौर से देखें तो  अस्थिरता वहाँ  ज्यादा दिखाई देती है.   अगर वहाँ  किसी प्रधानमंत्री को कुर्सी हिलती हुई नजर आती है तो हमारे यहाँ से जल्दी वह वहाँ  चुनाव करा लेता है – जैसा जापान में हुआ.   हमारे यहाँ जल्दी चुनाव कराते-कराते भी चार साल गुजर जाते हैं लेकिन वहाँ  ऐसा नहीं होता.   लोकतंत्र के प्रति ईमानदारी का जो प्रतिशत यहाँ बचा हुआ है वहाँ नहीं है.   वहाँ  जो नेता है वह  भ्रष्टाचार करेगा और जिस दिन कुर्सी छोड़ेगा उसको स्वीकार कर लेगा कि ‘हाँ. मैंने किया’ और फिर लोग धीरे-धीरे भूल जाएँगे.  सत्ता के खिलाफ जो चीजें चलती रहती हैं, वे बड़ी कम वहाँ  दिखाई देती हैं.   इस तरह की चीज हमारे यहाँ के साहित्य में अधिक है जो भारतीय लोकतंत्र की प्रवृत्तियों को दर्शाती है.   यह कहाँ तक पश्चिम में या अन्य देशों में गई है, अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के निर्धारण के लिए यह  देखना ज़रूरी है.   इसमें साहित्येतर लेखन को भी जोड़ लें तो परिप्रेक्ष्य और व्यापक हो सकता है. 
इस परिप्रेक्ष्य का चौथा आयाम जिजीविषा से संबंधित है. भारतीय साहित्य अपनी जिजीविषा के लिए बहुत प्रसिद्ध है.   जिजीविषा उसका सबसे महत्वपूर्ण मूल्य है.   यह एक ऐसा पक्ष है जो भारतीय साहित्य किसी को भी दे सकता है और इस विषय पर किसी को भी शिक्षित कर सकता है. प्रायः भ्रांतिवश यह माँ लिया जाता है कि  जिजीविषा अस्तित्ववाद के ज़माने में विमर्श के स्तर पर पश्चिम  से आई हुई चीज है.   लेकिन हमारे यहाँ उपनिषदों और पुरानों में असंख्य ऐसी कथाएँ हैं जिनके पात्र अपने पिता को चुनौती देते हैं, अपने दादा को चुनौती देते हैं.   अपने गाँव को चुनौती देते हैं, अपनी पूरी परंपरा को चुनौती देते हैं, अतः अगर हमारे पौराणिक या पारंपरिक साहित्य से जोड़कर देखें तो आज जिसे हम जिजीविषा कह रहे हैं उसके सूत्र हमें वहाँ  मिलते हैं.   इसके अतिरिक्त अगर   आयातित जिजीविषा को थोड़ा सा ध्यान से देखें तो पता चलता है कि वह  दवाबों से बचने की कोशिश है.  युद्ध का परिणाम व्यक्ति को  दबा रहा  है, परंपराएँ दबा रही हैं, बड़े-बूढ़े दबा रहे हैं, पीढ़ियों का अंतराल दबा रहा है,  सामाजिक रीति-रिवाज दबा रहे हैं और ये सब उसकी आजादी को नष्ट कर रहे हैं.    व्यक्ति को इन सबका प्रतिरोध करना है.   चूँकि ये बड़े हैं हम छोटे हैं तो हमें अपने छोटे पर गर्व करना है, उन्हें अपने बड़े पर गर्व होगा.   हमारी जो लघुता है हमारा जो छोटापन है वह बेइज्जती की बात नहीं है, वह हमारे लिए गर्व करने की बात है क्योंकि हम ऐसे ही हैं.   यह  है  पश्चिम वाली जिजीविषा.   अगर हम अपने यहाँ वाली जिजीविषा को देखेंगे जिसके सूत्र उपनिषदों और पुराणों में निहित हैं, तो पता चलेगा कि  अपने को बनाने, बनाए रखने और दूसरों के साथ जीने की एक महत्तम इच्छा ही भारतीय जिजीविषा है. (अज्ञेय : यह दीप अकेला; जगदीश गुप्त : गोपा-गौतम; भीष्म साहनी : माधवी, कबिरा खड़ा बजार में; कुँवर नारायण : नचिकेता, वाजिश्रवा के बहाने; जोराम यालाम नाबाम : साक्षी है पीपल).   इस जिजीविषा में कहीं नकारात्मकता नहीं है.   इसमें अस्वीकार है – जड़ता के प्रति अस्वीकार है, लेकिन नकारात्मकता कहीं नहीं है.   इसमे स्वीकार ज्यादा है.   यह  सकारात्मकता है कि अपने को बनाए रखना है, नए रास्ते खोजने हैं, नई राहें  तलाश करनी हैं, नई भाषा तलाश करनी है, नए ढंग से बोलना सीखना है, समय के साथ अपने को समायोजित करना सीखना है.   यह जो सकारात्मकता हमारी जिजीविषा में है, इसमें कहीं भी थोपे जाने से बचने की मजबूरी नहीं है.   यह मूल अंतर है पश्चिम की जिजीविषा में और हमारी जिजीविषा में.   यह जिजीविषा सारी भारतीय भाषाओँ के साहित्य में दिखाई देती है.  जिजीविषा का कम होते चले जाना आज एक ऐसी समस्या  है जो दुनिया को बहुत परेशान कर रही है.  यह समस्या बहुत खतरनाक बिंदु पर पहुँच गई है – इतने खतरनाक बिंदु पर कि पश्चिम में अपने अस्तित्व को  बनाए रखने के लिए  दूसरे के अस्तित्व को मिटाने की मजबूरी स्वीकृति प्राप्त कर रही है.   अभी कुछ पंद्रह-बीस वर्षों पहले जो राज्यों का विभाजन नए सिरे से किया गया है, उसका एक मान्य सिद्धांत ही है कि जो विकसित राज्य हैं उन्हें अपने विकास को बनाए रखने के लिए अविकसित राज्यों पर हमला करने का अधिकार है.   यह क्या है? यह जिजीविषा का क्षरण है.   लेकिन चौतरफा मृत्यु से घिरे होने के बावजूद भारत की जिजीविषा अक्षुण्ण है  क्योंकि वह उपनिषदों-पुराणों और संस्कृति से जुड़ी हुई है.   आपपर जो कुछ थोप दिया गया है और आपको दबा दिया गया है, अब आपको उसे तोड़कर बाहर निकलना है.  यह एक मूलभूत अंतर है.  देखना यह है कि भारतीय साहित्य में निहित जिजीविषा का यह मूल्य, जिसे आज तक भी अच्छे साहित्य की पहचान माना जाता है, विश्व साहित्य को किस रूप में मिल रहा है या नहीं मिल रहा है.   नहीं मिल रहा है तो हमें यह खोजना होगा कि क्यों नहीं मिल पा रहा है.
भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय  परिप्रेक्ष्य  का एक गौण आयाम भी है – भारतीय साहित्य का भौगोलिक विस्तार. यह ठीक है कि आज विश्व भर में भारतीय साहित्य अपनी पहचान बनाने में लगा है और अनुवाद तथा अनुसृजन के माध्यम से उसका निरंतर प्रसार हो रहा है. लेकिन हमें याद रखना होगा कि विश्व भर में भारतीय साहित्य का प्रसार उसके विश्व परिप्रेक्ष्य को तय नहीं करता, बल्कि उसे तय करती हैं वे प्रवृत्तियाँ जिनका संबंध मनुष्यता, संस्कृति, लोकतंत्र और जिजीविषा जैसे भारतीय साहित्य में गुँथे मूल्यों से है.

                           - ऋषभदेव शर्मा




हिंदी साहित्य : विश्व परिप्रेक्ष्य

 हिंदी साहित्य के विश्व परिप्रेक्ष्य को हमें हिंदी की आज की स्थिति के सापेक्ष  विवेचित करना होगा. इसमें संदेह नहीं कि आज हिंदी  का विस्तार पूरी दुनिया में है. बहुत सारे देशों में, विश्वविद्यालयों में, हिंदी पढ़ी-पढाई जाती है. हिंदी में लिखने वाले भारतीय और भारतेतर लोग दुनिया भर में फैले हुए हैं. यह एक पक्ष है जिसका संबंध ‘भाषा’ से है. लेकिन जब हम हिंदी ‘साहित्य’ की बात करते हैं तो दृष्टिकोण थोडा भिन्न होगा. दरअसल हमें हिंदी साहित्य के  विश्व परिप्रेक्ष्य को विश्व और भारत के आधुनिक संदर्भों  को ध्यान में रखकर समझने की ज़रूरत है.
सबसे पहले तो यही देखना होगा कि हिंदी साहित्य  में विश्व की सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक क्रांतियों के लिए कितनी जगह है क्योंकि हिंदी का जो अपना मूल चरित्र है वह मूलतः समाज-सांस्कृतिक चेतना प्रधान है; कम से कम अंग्रेजी की तरह से राजनैतिक चरित्र उसका प्रधान चरित्र नहीं है या उपनिवेशवादी चरित्र उसमें प्रधान नहीं है. उसमें समाज-सांस्कृतिक चैतन्य और समाज-सांस्कृतिक सरोकार ही प्रधान है. इसका कारण यह है कि हिंदी में सबसे अधिक शब्द-संपदा या परंपरा भले ही संस्कृत स्रोतों (वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पुराण) से आई, लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि सारी भारतीय भाषाओँ, भारतीय समाज के सभी रूपों और भारत के विभिन्न भौगोलिक स्थानों में जो कुछ घटता है वहाँ से हिंदी ने अपने स्वरूप को गढ़ने के सूत्र ग्रहण किए. आज जो हिंदी साहित्य है वह विभिन्न भारतीय भाषा-समाजों  को स्रोत के रूप में ग्रहण करता है और फिर अपना चरित्र बनाता है. यही उसका उपयोगी और महत्वपूर्ण चरित्र है. क्योंकि जितनी भी भारतीय भाषाएँ हैं वे पहले भाषाई दुनिया की दृष्टि से समाज-सांस्कृतिक परिघटनाएँ हैं, उसके बाद कुछ और. यही कारण है कि हिंदी का चरित्र समाज-सांस्कृतिक अधिक है, राजनैतिक कम.  इस दृष्टि से हमें देखना होगा कि दुनिया भर की जिन घटनाओं से विश्व परिप्रेक्ष्य बनता है, उनके आधार पर हिंदी में दुनिया भर की समाज-सांस्कृतिक और  समाज-धार्मिक क्रांतियों के लिए कितनी जगह है. इस दृष्टिकोण से देखने पर हमें पता चलता है कि आधुनिक काल की हिंदी में गद्य और पद्य की दोनों विधाओं में विश्व की क्रांतियों के बारे में, विश्व की सामाजिक संरचना के बारे में और विश्व की सांस्कृतिक घटनाओं के बारे में पर्याप्त सामग्री है. इतना ही नहीं, यह भी कि दुनिया के समाज जिन कारणों से बदले हैं, उन अलग-अलग कारणों की व्याख्या भी हिंदी में हो रही है.  कम से कम आधुनिक काल में यह प्रवृत्ति भारतेंदु से शुरू हो जाती है और द्विवेदी जी में बढ़ती है, शुक्ल जी में पकती है और जो परवर्ती लेखक आते हैं उनमें और आगे बढती है. मैथिलीशरण गुप्त की भी उसमें निश्चित भूमिका है. विश्व परिप्रेक्ष्य से घटनाओं को लेकर अपने साहित्य में रखना और उसके आधार पर रचना करना. चाहे वह अमेरिकी क्रांति रही हो, फ़्रांसीसी क्रांति रही हो, इंग्लैंड की क्रांति रही हो, चाहे दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया की क्रांति रही हो जो परवर्ती काल में घटित हुई; हिंदी साहित्य ने उन सबसे प्रभाव ग्रहण किए. एक यह चीज महत्वपूर्ण है.
इसके साथ ही हमें हिंदी साहित्य के उस निजी परिप्रेक्ष्य का अवलोकन करना होगा जो उसे विश्व की सीमा में ले जाता है, उसपर हमें ध्यान देना चाहिए. विश्व की अधिकांश भाषाओँ से हिंदी में अनुवाद के माध्यम से सामग्री आती रही है और अभी भी आ रही है.  कुछ भाषाएँ तो ऐसी हैं जिनमें कुछ विधाएँ अनुवाद के माध्यम से ही शुरू हुईं और उनसे हिंदी ने प्रेरणा ग्रहण की. इस आधार पर दुनिया की बहुत सारी भाषाओँ का साहित्य हमारे यहाँ आता रहा है. अनुवाद के माध्यम से हिंदी के परिप्रेक्ष्य को बढ़ाने का एक प्रमाण यह है कि साहित्यिक मूल्यांकन के संदर्भ में यह प्रश्न विचारणीय माना जाता है कि हिंदी के लिए अंग्रेजी उपन्यास ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या फ़्रांसीसी और रूसी उपन्यास? जब इन तीनों भाषाओँ के उपन्यासों का हिंदी साहित्य से संबंध हम जोड़ते हैं या उस परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य को देखते हैं तो पता चलता है कि हिंदी ने कम से कम उपन्यास की दृष्टि से (और कथा साहित्य की दृष्टि से) जो मूल्य रूस और फ़्रांस से ग्रहण किए हैं, वे मूल्य अंग्रेजी से ग्रहण नहीं किए हैं. कारण कि अंग्रेजी में वे मूल्य रहे ही नहीं. जैसे एक खास अंतर अंग्रेज़ी, रूसी और फ़्रांसीसी उपन्यासों में है कि अंग्रेज़ी उपन्यास क्लब कल्चर का उपन्यास है. उसका पूरा कथा साहित्य केंद्रीय दृष्टि से व्यक्तिगत संबंधों के विश्लेषण का साहित्य है, या अस्तित्व के साथ खड़े हुए प्रश्नों का साहित्य है, या व्यक्तिगत स्वाधीनता की रक्षा में बहुत सारे तर्क करने का साहित्य है. इस प्रकार वह साहित्य एकदम सिमट जाता है. स्मरणीय है कि व्यक्तिगत स्वाधीनता और मुक्ति एवं इसके साथ-साथ आभिजात्य और सामान्य के भेद और अंतर्विरोध औपनिवेशिक प्रभाव के कारण सारे उपनिवेशों में प्रमुखता प्राप्त कर चुके थे, इसलिए उपनिवेश के लोगों को ऐसा लगता रहा कि जो अंग्रेजी में लिखा जा रहा है वही महत्वपूर्ण है और वही हमारा दिशा-निर्देश कर सकता है.  इससे बड़ी सावधानी से जो भाषाएँ बचीं, उनमें मराठी और हिंदी जैसी भारतीय भाषाओँ का स्थान महत्वपूर्ण है. अन्य भाषाएँ भी होंगी लेकिन यहाँ हम हिंदी की बात कर रहे हैं. अतः हिंदी उपन्यासों को अगर शुरुआत से देखें तो पता चलता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना उनके केंद्र में है. यह अलग बात है कि उनका कथानक सशक्त है या नहीं. लेकिन उनके लिखने का जो उद्देश्य है वह समाज को बचाना मुख्य रूप से रहा है; जो इंग्लैंड का स्वभाव नहीं था, फ़्रांस का स्वभाव था और रूस का स्वभाव था . इसका अर्थ यह है कि हिंदी ने अपने विश्व परिप्रेक्ष्य को सायास और बहुत सावधानी के साथ जोड़ा है फ़्रांस और रूस के साथ. यही कारण है कि उन भाषाओँ में जो लेखक रहे हैं, हिंदी लेखकों ने उनका अनुवाद भी किया है, उनका अनुकरण भी किया है. अभिप्राय यह है कि एक विश्व परिप्रेक्ष्य वह है जो उपनिवेशप्रधान देशों से मिलकर बनता है और  एक विश्व परिप्रेक्ष्य वह है जो ऐसे देशों के साहित्य से मिलकर हमारे साहित्य में बनता है जो समाजार्थिक प्रश्नों पर ज्यादा गहराई से सोचते रहे हैं या जो भूख से,  अपराधों से, सामाजिक बुराइयों से मनुष्य की मुक्ति के बारे में ज्यादा सोचते रहे हैं. यह कहना उचित होगा कि एक प्रकार से अभिजात विचार और उनसे प्रेरित जो विलासिता की प्रवृत्ति होती है, उससे मुक्ति की चिंता इन भाषाओँ के साथ है. हिंदी ने अपने आपको इनके साथ जोड़ा है.
पिछले लगभग पचास वर्षों में हिंदी में उन देशों की भाषाओँ का साहित्य बहुत तेजी से आया है जो देश हाशिए पर रहे हैं. उदाहरण के लिए – म्यांमार. म्यांमार के तीस से भी अधिक उपन्यासों का अनुवाद बर्मी से हिंदी में हुआ है.  इनमें संयुक्त राष्ट्र के तीसरे महासचिव यू थांट का उपन्यास ‘काला सोना’ भी शामिल है. बहुत बड़ी संख्या में कविताएँ आई हैं. जिन्हें तीसरी दुनिया के देश कहकर अपमानित किया जाता है और जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं उन देशों की कविताओं का अनुवाद बहुत बड़ी मात्रा में हुआ है. उन देशों में जो मुक्ति अभियान चलाने वाले लेखक रहे हैं उनका साहित्य बड़ी तेजी से आया है. उनके लेखकों के परिचय बहुत तेजी से आए हैं.  इसके साथ-साथ उपनिवेशों में भी जो अपने बल पर खड़े हो गए हैं – मॉरीशस जैसे देश, उनका साहित्य चाहे वह हिंदी में लिखा जा रहा हो या अंग्रेज़ी, फ्रेंच या चीनी भाषा में, मूल रूप में या अनूदित होकर हिंदी में आया है. कहने का अर्थ यह है कि केवल यूरोप और दूसरे बड़े व बहुत जाने-पहचाने देश ही नहीं, वे देश जो हमारे बहुत कम जाने-पहचाने हैं और जिनमें राजनैतिक दृष्टि से हमारी रुचि बहुत कम रही है (अब धीरे-धीरे बढ़ रही है) या जिनके इतिहास से हमारा बहुत कम परिचय रहा है, अनुवाद के माध्यम से हिंदी साहित्य में उनका साहित्य पहुँच चुका है और इसने निश्चित रूप से हिंदी में क्रांति का एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य तैयार  किया है.  अर्थात अगर अफ्रीका के या लैटिन अमरीका के किसी देश में अत्याचार होता है और कोई लेखक उसका विरोध करना चाहता है तो हिंदी में वह अपनी प्रतिक्रिया लिख सकता है.  इसके बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं. इस प्रकार, हिंदी अपने मूल समाज-सांस्कृतिक चरित्र से जुड़ते हुए, उसका विकास करते हुए विश्व की भाषाओँ के समाज-सांस्कृतिक चरित्र को ग्रहण करके अपना विस्तार कर रही है. यह उसके वैश्विक परिदृश्य को और अधिक विस्तारित करने के प्रति प्रतिबद्धता का सूचक है, जो बहुत आशाजनक है.
अगला महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इधर जो परिवर्तन हो रहे हैं चाहे वे बाजारवाद से संबंधित हों अथवा  युद्धों का विस्तार या उस विस्तार को रोकने की कोशिशों के रूप में विभिन्न देशों के नए सिरे से पारिभाषित हो रहे रिश्तों से जुड़े हों, चाहे विभिन्न देशों में चलने वाले आंदोलनों और लोकतांत्रिक मूल्यों की चिंताओं से संबंधित हों – उन वैश्विक परिवर्तनों को आधार बनाकर हिंदी में भी लिखा जा रहा है. उदाहरण के लिए, वैश्वीकरण पर हिंदी में स्तरीय साहित्य उपलब्ध है - उसके इतिहास पर भी, उसके कारणों और  प्रभावों-दुष्प्रभावों पर भी. यह उसके सावधान भाषा होने का या सावधान साहित्य होने का प्रमाण है.  इसी प्रकार उपनिवेशवाद, नव उपनिवेशवाद और उत्तर उपनिवेशवाद को लेकर जो नई धारणाएँ सामने आ रही हैं, उनपर दो दृष्टियों से काम हिंदी में हो रहा है. एक तो उनके चरित्र पर पुस्तकें लिखी जा रही हैं और दूसरे  नव उपनिवेशवाद और उत्तर उपनिवेशवाद की पारिभाषिक शब्दावली की व्याख्या हिंदी में लिखी जा रही है. जो हिंदी साहित्य में समालोचना का हिस्सा बन रही है. यह काम भविष्य में हिंदी को समृद्ध करने वाला काम है क्योंकि जिन खतरों के खिलाफ दूसरे देशों की भाषाओँ में विचार किया जा रहा है, लोग लिख रहे हैं, बात कर रहे हैं; वे खतरे हमारे यहाँ न हों इसकी पूर्व तैयारी हिंदी में है या उस दिशा में लोग काम कर रहे हैं, कोशिश कर रहे हैं.  इससे निश्चित रूप से हिंदी का वैश्विक परिप्रेक्ष्य बढ़ता है.
वैश्विक परिदृश्य को ग्रहण कर लेना ही पर्याप्त नहीं है. वैश्विक परिदृश्य को निरंतर माँजते जाना और उसके  वास्तविक स्वरूप का क्षरण न हो इसके प्रति सावधान रहना और वैश्विक परिदृश्य की भ्रामक  परिभाषाओं से बचना भी  बहुत ज़रूरी है. हिंदी में इसके प्रति अभी सावधानी कम है. हिंदी साहित्य इसके प्रति अभी धीरे-धीरे सावधान हो रहा है. खतरा यह है कि अगर वैश्विक परिदृश्य को परंपरागत ढंग से परिभाषाओं में बाँध दें तो वह रूढि बन जाएगी जबकि वैश्विक परिदृश्य निरंतर परिवर्तनशील प्रक्रिया का परिणाम होना चाहिए और यह निरंतर परिवर्तनशील प्रक्रिया विकासशील प्रक्रिया होनी चाहिए. दरअसल, जिसे हम वैश्विक परिदृश्य कह रहे हैं वह कोई चित्र नहीं है; वह एक स्थिति है और उस स्थिति में एक ओर जहाँ भौतिक चीजें शामिल हैं जो चल-फिर नहीं सकतीं और उससे अधिक चलने-फिरने वाला मनुष्य शामिल है, वहीं उससे भी ज्यादा दुनिया भर के सामाजिक और राजनैतिक वर्ग शामिल हैं जो निरंतर बदल रहे हैं, जिनकी रुचियाँ निरंतर बदल रही हैं, जिनके नए-नए अंतर्विरोध लगातार सामने आ रहे हैं, जिनके स्वभाव में लगातार बदलाव हो रहा है, जिनकी ग्रहणशीलता में लगातार बदलाव हो रहा है – यह सब जीवित मानव समूहों की बात है, जीवित सामाजिक वर्गों की बात है और इनको किसी निश्चित परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता. जब हम इन सबसे जुड़ी स्थितियों का निर्वचन करते हैं तो हमें जड़ वस्तुओं या जड़ संसाधनों के साथ-साथ जीवित संसाधनों का भी निर्वचन करना होगा; और ज्यादा सावधानी से करना होगा. यह सावधानी हिंदी साहित्य में पूरी तरह से नहीं दिखाई दे रही है. जो हिंदी के चिंतक हैं या हिंदी की चिंता करनेवाले लोग  हैं या हिंदी को दिशा देने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने वाले लोग हैं, उन्हें यह ध्यान देना होगा कि इस दिशा में हिंदी दूसरी भाषाओँ से पिछडनी नहीं चाहिए.
हिंदी का चरित्र मूलतः समाज-सांस्कृतिक चरित्र है और इसकी समाज-सांस्कृतिकता दूसरे देशों से आयातित समाज-सांस्कृतिकता नहीं है बल्कि यह अपनी भाषाओँ से अपने देश की स्थितियों से, अपने देश के सामाजिक विकास से, अपने देश के सभ्यतागत विकास से, अपने देश के परंपरागत ज्ञान की बड़ी बृहत परंपराओं से ग्रहण की हुई समाज-सांस्कृतिकता है, इसलिए हिंदी साहित्य वैश्विक परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में जो चीज ग्रहण कर रहा है वह अपनी समाज-सांस्कृतिकता के परिप्रेक्ष्य में ही ग्रहण कर रहा है. अन्य जो लोग हैं जिन्हें  वैश्विक परिदृश्य को समझना है उन्हें भी हिंदी की समाज-सांस्कृतिक विशेषताओं को समझना जरूरी है अन्यथा वैश्विक परिदृश्य की उनकी समझ अधूरी ही रहेगी. यह ठीक उसी प्रकार से है जिस प्रकार से हिंदी के लोगों को यदि वैश्विक परिदृश्य को समझना है तो बाहर के देशों में जो कुछ वैश्विक परिप्रेक्ष्य है, हमें भी उसे समझना होगा. चाहे हम उस भाषा को सीखकर समझें, चाहे अनुवाद के माध्यम से समझें. जो दूसरे देशों की भाषाओँ का साहित्य है वह हिंदी भाषा के साहित्य से बहुत कुछ ले सकता है क्योंकि समाज-राजनैतिक दृष्टि से आज भारतवर्ष जिस दशा में पहुँच गया है, वह ऐसी स्थिति है जहाँ कोई भी देश भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता. प्रत्येक देश के लिए ज़रूरी है कि वह भारत को समझे, तभी वह भारत से प्रगाढ़ संबंध भी बना सकता है और उसका मुकाबला भी कर सकता है. इन दोनो बातों को समझने के लिए या इन दोनों मोर्चों पर अपनी भूमिका निर्धारित करने के लिए लगभग सभी देशों को और वहाँ की भाषाओँ को जाननेवाले लोगों को हिंदी साहित्य के निकट आना ही चाहिए और उन्हें आना होगा.  आज हिंदी साहित्य की स्थिति यह है कि अगर भारत को समेकित रूप में जानना है तो हम हिंदी साहित्य पढकर ही जान  सकते हैं.  भारत के विभिन्न अंचलों को समझने के लिए वहाँ की भाषाओँ को और वहाँ के साहित्य को समझना अनिवार्य है.  लेकिन समग्र रूप से अगर एक ही जगह पर भारत को समझना है, तो फिर हमें हिंदी साहित्य का अध्ययन करना होगा और बाहर से जिसे भी भारत को समझना है उसे हिंदी साहित्य को समझने की आवश्यकता को महसूस करना होगा. जब तक भारत की अलग समाज-सांस्कृतिक पहचान रहेगी, तब तक हिंदी साहित्य की आवश्यकता विश्व अन्य समाजों को रहेगी.

- ऋषभदेव शर्मा 


सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

(भूमिका) राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा



शर्मा, हरीश कुमार. (2016), राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा. इलाहाबाद : साहित्य भंडार 

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश :24 फरवरी, 2018 : पुस्तक के लेखक प्रोफेसर हरीश कुमार शर्मा ने इसके भूमिका-लेखक डॉ. ऋषभदेव शर्मा को 'राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा' की प्रति भेंट की।


भूमिका 

तमाम तरह की उत्तरोत्तर आधुनिकताओं से आक्रांत आज का आदमी स्मृतिलोप से भरे समय में जीने के लिए विवश है. इतिहास उसके हाथ से छूटा जा रहा है और सूचनाओं का अम्बार उसके बोध की धार को वर्तमान के उस बिंदु तक समेटे दे रहा है जिसके पार जाने की दृष्टि धुंधलाने लगी है. ऐसे में किसी लेखक या चिन्तक का राष्ट्रीय स्मृति, संस्कृति और भाषा जैसे विषयों पर सोचना या लिखना जाति को जड़हीनता के खतरे से बचाने के प्रयत्न के रूप में देखा जाना चाहिए. डॉ. हरीश कुमार शर्मा की यह कृति ऐसा ही सार्थक और प्रासंगिक प्रयत्न है. इस पूरे प्रयत्न के केंद्र में राष्ट्रीय अस्मिता की बहुवचनीय चेतना आरम्भ से अंत तक सक्रिय दिखाई देती है जो लेखक के व्यक्तित्व का भी अनिवार्य हिस्सा है.


डॉ. हरीश कुमार शर्मा कई दशक से पूर्वोत्तर भारत में रहकर भाषा और संस्कृति के लिए कार्य कर रहे हैं. वे उन विरल बौद्धिकों में हैं जो स्मृति को मनुष्य की सबसे बड़ी संपदा मानते हैं तथा अपने लेखन में बराबर भारत और भारतीयता के सूत्रों को पहचानने पर जोर देते हैं. उनकी इस कृति का प्रवर्तन बिंदु भी इसी दृष्टि से संबलित है. इसीलिए यह कृति किसी पारंपरिक एकात्मता और समरसता की लफ्फाजी न करके अपने पाठक से यह अपेक्षा करती है कि हम विविधताओं को भी देखें, समझें और उनका सम्मान करें. कहना न होगा कि लेखक की यह लोकतांत्रिक दृष्टि देश, समाज, समय और संस्कृति को जातीय स्मृति की सतत प्रवाहित और परिवर्तनशील धारा की निष्पत्ति के रूप में देखती-दिखाती है. यह दृष्टि इन निष्पत्तियों को भाषा के माध्यम से प्राप्त ही नहीं करती बल्कि यह भी देख पाती है कि हमारी भाषाएँ हमारी संस्कृति का प्रतिरूप हैं – भाषा में तो संस्कृति है ही, भाषा की अपनी संस्कृति भी है. अभिप्राय यह है कि जब हम भारतीय संस्कृति अथवा भारतीयता की पहचान करने निकलते हैं तो इसका सबसे प्रामाणिक और जीवंत रास्ता हमारी भाषाओं से होकर जाता है – तभी तो हिय का शूल मिटाने की रामबाण औषध निज भाषा उन्नति है! परन्तु इस कृति ने उन्नति से आगे बढ़कर उत्तमता पर बार बार ज़ोर दिया गया है क्योंकि लेखक की राय में उन्नति सभ्यता का वाचक है तो उत्तमता संस्कृति का निर्देशक बिंदु. यही कारण है कि इस कृति में राष्टीय स्मृति के निकष पर ग्रहण और त्याग के विवेक को विकसित करने पर बल दिया गया है. यह कृति इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें भारत की भाषिक संस्कृति और उसमें निहित सामासिकता को भावुकता से बचते हुए ऐसे सामाजिक यथार्थ के रूप में विवेचित किया गया है जिसमें तमाम तरह की विषमरूपता के लिए सम्मानजनक स्थान उपलब्ध है.


संस्कृति का जीवंत वाहक होने के कारण भाषा विषयक चिंतन इस पूरी कृति में अंतर्धारा के रूप में परिव्याप्त है. लेखक ने हिंदी को भारत की पहचान माना है और तर्कपूर्वक यह स्थापित किया है कि अपनी केन्द्रापसारी प्रकृति के कारण हिंदी क्षेत्रीयताओं का अतिक्क्रमण करने वाली अक्षेत्रीय भाषा है और उसके वैश्विक प्रसार में सारे भारत ने योगदान किया है अतः हिंदीभाषी और हिंदीतरभाषी जैसा वर्गीकरण आज के सन्दर्भ में निरर्थक हो गया है. 


भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति की व्याख्या करते हुए यह कृति इस देश के सामाजिक ढाँचे के साथ इसके धार्मिक-आध्यात्मिक वैशिष्ट्य को भी रेखांकित करती है. लेखक ने एकाधिक स्थलों पर स्पष्ट किया है कि धर्म और संस्कृति हमारे निकट रिलीजन और कल्चर मात्र नहीं हैं बल्कि समग्र विश्व को धारण करने वाले मूल्यों और अस्तित्व को औदात्य प्रदान करने वाली साधनाओं के प्रतीक हैं. लोकरक्षण और मनुष्यता का हित यहाँ सारे मत-वादों से ऊपर निर्विवाद कर्म है तथा परहित सर्वोपरि धर्म. महत्तर उद्देश्य के लिए अपरिहार्य हो जाने पर युद्ध और हिंसा भी वरेण्य हैं. साथ ही लेखक का यह भी मत है कि यह सारी वैचारिक और व्यावहारिक मूल्य संपदा हमारी भाषाओं में सुरक्षित है अतः हमें भाषाओँ को संप्रेषण के माध्यम से अधिक अपनी जातीय अस्मिता का द्योतक मानकर उनके संरक्षण-संवर्धन के उपाय करने चाहिए. आज जबकि ‘भूमंडीकरण’ के दौर में बाज़ार दीगर ढेरों चीज़ों की तरह भाषाओँ को भी खा रहा है, बेहद ज़रूरी है कि अपने दैनंदिन व्यवहारों में हम अपनी बोली-बानी को बचाकर रखें. इसी के साथ लोकसाहित्य के संरक्षण की जिम्मेदारियां भी जुडी हुई हैं. विमर्शों के नाम पर लोक के पिछडेपन को बचाना और लोकभाषा व लोकसाहित्य को बचाना दो अलग बातें हैं. लोक को प्रगति की मुख्य धारा से जोड़ने और उसकी सांस्कृतिक संपदा को सहेजने का दोहरा अभियान त्याग और ग्रहण के, पहले उल्लिखित, विवेक के बिना संभव नहीं. डॉ. हरीश कुमार शर्मा ने स्थापित किया है कि यह विवेक गीता से लेकर गांधी तक से, यानी राष्ट्रीय स्मृति से, प्राप्त किया जा सकता है वरना तो हमें स्वयं विस्मृति के अँधेरे में गुम होने के लिए तैयार रहना चाहिए.


स्मृतिभ्रंश से बचने के लिए यह भी ज़रूरी है कि हमारी जो जातीय स्मृति हमारी विभिन्न मातृभाषाओं और उनके मौखिक साहित्य में सुरक्षित है, हम उन्हें नष्ट होने से पहले सहेजना शुरू कर दें. हाशिए पर रहे समाजों-समुदायों की यह लोक संपदा उन्नति के क्रम में विस्थापित हो रही है अतः इसके उत्तमांश के प्रति जागरूक हुए बिना काम चलने वाला नहीं है. यह कृति हमसे ऐसी ही जागरूकता की मांग करती है. इस दृष्टि से इस कृति का अरुणाचल प्रदेश की स्मृति, संस्कृति और भाषा सम्बन्धी भाग बेहद बेहद प्रासंगिक है. हमारी इस प्रकार की लोक अस्मिताएं ही तो मिलकर अमूर्त भारतीय अस्मिता को मूर्तिमंत बनाती हैं. डॉ. हरीश कुमार शर्मा इस क्षेत्रीय अस्मिता को सम्पूर्ण भारतीय अस्मिता के व्यापक सन्दर्भ में ही व्याख्यायित करते हैं. यह कृति हमें भारत के इस अतिशय सुन्दर लोक के जीवन, प्राकृतिक वैभव, जनजातीय वैशिष्ट्य, भाषा और संस्कृति की संपदा और इन सबके साथ नत्थी समस्याओं से एक साथ रूबरू कराती है – कुछ इस तरह कि पाठक के मन में सहज आत्मीयता जागती है. निस्संदेह यह लेखक के अरुणाचल प्रदेश की मिट्टी से गहरे जुडाव का फलागम है.


संस्कृति विमर्श के बहाने भाषा, साहित्य, राष्ट्रीयता और लोक विषयक व्यापक और खुली चर्चा के कारण यह कृति पढ़ने, गुनने और सहेजने योग्य बन गई है. साथ ही इसमें भी संदेह नहीं कि आदमी और आदमी के बीच दीवारें खड़ी करने के इस विषम दौर में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं के सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व के विचार को समर्पित यह कृति भारत के निजीपन को समझने के लिए बेहद महत्वपूर्ण पठनीय सामग्री है.


लेखक और प्रकाशक को हार्दिक शुभकामनाएँ!


प्रेम बना रहे!!
-ऋषभदेव शर्मा
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14 सितंबर,2014: हिंदी दिवस 

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

अद्यतन तेलुगु कविता संग्रह ‘नया साल’ की भूमिका

नया साल (हिंदी में अनूदित तेलुगु कविताएँ)/
 संपादक : मामिडि हरिकृष्ण/
अनुवादक : गुड्ला परमेश्वर द्विवागीश/ 2017/  
250 रूपए  
भाषा सांस्कृतिक शाखा, तेलंगाना सरकार, कला भवन, रवींद्र भारती, हैदराबाद/
 

 ‘कोत्त सालू’ या ‘नया साल’ तेलंगाना के 59 कवियों की कविताओं का संकलन है. ये कविताएँ मूलतः तेलुगु में रचित हैं और अनुवादक जी.परमेश्वर ‘द्विवागीश’ ने इनका हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत किया है. यह कविता संकलन इस कारण ऐतिहासिक महत्व रखता है कि 2014 में तेलंगाना राज्य के निर्माण के बाद ‘मन्मथ’ नामक ‘उगादि’ (तेलुगु नववर्ष) के अवसर पर, नवगठित राज्य के प्रथम उगादि उत्सव के संदर्भ में तेलंगाना राज्य के तेलुगु कवियों ने एक मंच पर काव्यपाठ किया और जहाँ एक तरफ अपनी कविताओं के द्वारा उस लंबे संघर्ष को याद किया जिसके परिणामस्वरूप अंततः तेलंगाना की जनता को अपना न्यायसंगत राज्य-अधिकार प्राप्त हुआ, वहीँ दूसरी तरफ उन समस्त चुनौतियों को भी शब्दबद्ध किया जो इस नए राज्य के सम्मुख भविष्य की व्यवस्था के मार्ग में खड़ी हुई दिखाई दे रही हैं.
यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक होगा कि मनुष्य ने अपनी विकासयात्रा में जो भी कुछ प्राप्त किया है, उसमें भाषा और लिपि के आविष्कार का बड़ा महत्व है. इनके माध्यम से ही मनुष्य अपनी भावनाओं को व्यक्त कर पाता है और सही अर्थों में संवादधर्मी समाज की संभावनाओं को साकार कर पाता है. ‘नया साल’ शीर्षक यह आयोजन भी संवादधर्मी समाज के निर्माण की दिशा में युगों-युगों से चले आते मानवीय प्रयास की एक नई कड़ी है. इसमें संदेह नहीं कि तेलंगाना शासन ने इस प्रकार के आयोजन के माध्यम से जहाँ साहित्य और संस्कृति के प्रति अपनी पक्षधरता को व्यक्त किया है, वहीं अपनी लोकसंपदा और जनभाषा के प्रति आत्मीयता और गौरव को भी व्यक्त किया है. यहाँ संकलित सभी कवि किसी न किसी रूप में तेलंगाना की अस्मिता के लिए अपनी कविता को समर्पित करने वाले कवि हैं और यही वह बड़ा कारण है जो इस संकलन को भारतीय कविता के रूप में प्रतिष्ठित कराने के लिए काफी है.
तेलुगु साहित्य की लंबी परंपरा में तेलंगाना के साहित्य का अपना खास और अलग तेवर रहा है. इस खास और अलग तेवर को जनपक्षधरता एवं लोकसंपृक्ति के रूप में रेखांकित किया जा सकता है. तेलंगाना के आदिकवि पालकुरुकि सोमनाथ ने तेलुगु काव्य की क्लासिक परंपरा के समानांतर देशज परंपरा की नींव रखी थी. आगे चलकर जनभाषा के उन्नायकों ने इसे अलग पहचान दी. पोतना से लेकर कालोजी, दाशरथि और सिनारे तक के काव्य के अवलोकन से यह कहा जा सकता है कि वस्तु और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से तेलंगाना की तेलुगु कविता अपनी अलग पहचान रखती रही है. इस पहचान का आधार वास्तव में इस भूखंड की आम जनता के अस्तित्व के संघर्ष, स्वाभिमान की भावना और आंदोलन की प्रकृति से निर्मित दिखाई देता है. विशेष रूप से बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में यहाँ की जनता ने अलग तेलंगाना राज्य के लिए जो संघर्ष किया, उसे वाणी प्रदान करके यहाँ की तेलुगु कविता सही अर्थ में जन-कविता बन गई.
बलिदान के लंबे इतिहास के मार्ग पर चलकर तेलंगाना राज्य के निर्माण की परिस्थितियाँ उपस्थित हुईं, तो संघर्ष अपने आप में स्मरणीय गाथा बन गया. नवगठन से जुडी चुनौतियों और अपनी अस्मिता को रेखांकित कर पाने की सफलता के उत्साह ने अद्यतन कविता को अत्यंत विस्तीर्ण फलक प्रदान किया है. इस संकलन की कविताएँ विशेष रूप से ‘विश्व कविता दिवस’ के साथ जुड जाने के कारण और भी विशिष्ट बन गई हैं. इस समग्र काव्य-आयोजन को संभव बनाने में इसके अत्यंत  समर्थ संपादक मामिडि हरिकृष्णा के साथ परामर्श मंडल के सदस्यों के रचनात्मक सहयोग का बड़ा हाथ है जिनमें डॉ. नंदिनी सिद्धा रेड्डी, डॉ. मसन चेन्नप्पा, डॉ. अम्मंगि वेणुगोपाल, डॉ. नालेश्वरम शंकरम, जूपाका सुभद्रा और अयिनंपूडि श्रीलक्ष्मी जैसे समर्थ हस्ताक्षर सम्मिलित हैं.
‘नया साल’ की कविताएँ एक ओर तो आम आदमी की अदम्य जिजीविषा को व्यक्त करती हैं तथा दूसरी ओर तेलंगाना के जनजीवन की लोक-सांस्कृतिक विशेषताओं को उभारकर सामने लाती हैं. ये कविताएँ उस आशा, विश्वास और स्वर्णिम भविष्य को भी रूपायित करती हैं जिसके लिए इस नए राज्य का स्वप्न देखा गया था.
इस अत्यंत महत्वपूर्ण काव्य-आयोजन को हिंदी में लाने का काम करके अनुवादक गुड्ला परमेश्वर द्विवागीश ने वास्तव में सांस्कृतिक सेतु निर्माण के लिए अपनी ज़िम्मेदारी निभाने का प्रमाण दिया है. वे तेलुगु और हिंदी दोनों भाषाओँ पर अच्छा अधिकार रखते हैं तथा दोनों के साहित्य की गतिविधियों के निरंतर संपर्क में रहते हैं. अपने व्यापक अनुभव और अध्ययन के द्वारा उन्होंने काव्य-संस्कार अर्जित किया है. अतः विश्वास किया जाना चाहिए कि उनके द्वारा किया गया अनुवाद प्रामाणिक तथा मूल काव्य की आत्मा की रक्षा करने वाला होगा. मुझे पूरा विश्वास है कि हिंदी जगत ‘नया साल’ का अत्यंत आत्मीयता और उदारता के साथ स्वागत करेगा. ... और हिंदी में भी ऐसे काव्य-आयोजनों की शृंखला चले; यह भी कामना है.
तेलंगाना के कवियों की सौंदर्य चेतना और सामाजिक पक्षधरता को समझने के लिए यह कविता  संकलन हिंदी पाठकों के समक्ष एक नया द्वार खोलेगा; इसमें संदेह नहीं.

विश्व मातृभाषा दिवस                                                  - ऋषभदेव शर्मा
21 फ़रवरी, 2017                                                 पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष
                                                         उच्च शिक्षा और शोध संस्थान  
                                                 दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद