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बुधवार, 2 अगस्त 2017

(भूमिका) वृद्धावस्था विमर्श और हिंदी कहानी



राजौरिया, शिवकुमार (2017). वृद्धावस्था विमर्श और हिंदी कहानी. भारत, नई दिल्ली : अद्वैत प्रकाशन.
आईएसबीएन : 978-93-82554-87-5. रु. 595/- 296 पृष्ठ. सजिल्द 

भूमिका 

विभिन्न हाशियाकृत समुदायों के मानवाधिकारों की चिंता के बीच इधर कुछ दशकों से विश्व भर में उत्तर आधुनिक संदर्भ में वृद्धों की समस्याएँ एकदम नए रूप में सामने आई हैं. परिवार की पहले जैसी संकल्पना तो अब भारत तक में नहीं बची है. यों, वृद्धों को अनुत्पादक (?) होते ही घर और समाज दोनों में ही हाशिये में फेंकना आम बात हो गई है. जबकि अब तक हाशिये में रखे गए समुदाय अब केंद्र पर बाकायदा काबिज़ हो रहे हैं, वृद्धों का हाशियाकरण किसी न किसी बहाने निरंतर जारी है. 58-60 साल की उम्र तक केंद्रीय भूमिका में रहने के बाद जब आदमी को वरिष्ठ नागरिक और सेवानिवृत्त होने के तमगों के साथ परिधि पर बाँध दिया जाता है तो शारीरिक समस्याओं से अधिक मानसिक समस्याएँ अपने जटिल रूपाकार में उस पर हमला करती हैं. इस अनुभवी समुदाय को आगे भी समाज के लिए उपयोगी बनाए रखने की चिंता, बदले हुए परिवेश में इसके मानवाधिकारों की स्वीकृति और इसके पुनर्वास के प्रश्न से ही वृद्धावस्था विमर्श की शुरूआत होती है. 

हिंदी कहानी में यों तो आरंभ से ही वृद्ध स्त्री-पुरुष पात्रों और उनकी समस्याओं को दिखाया जाता रहा है तथा वृद्धावस्था से जुडी असहाय मनोदैहिक दशाओं को काफी कारुणिक ढंग से उभारने वाली भी काफी कहानियाँ मिल जाती हैं. लेकिन ग्लोबल फिनोमिना के रूप में वृद्धावस्था विमर्श का विशेष और सचेत उभार पिछले लगभग बीस वर्षों की कहानी की निजी उपलब्धि है. डॉ. शिव कुमार राजौरिया ने इस दिशा में अत्यंत परिश्रमपूर्वक अनुसंधान करके अपने इस ग्रंथ ‘’वृद्धावस्था विमर्श और हिंदी कहानी’’ का प्रणयन किया है. इस विषय के प्रति उनकी गहरी अनुरक्ति और आसक्ति ने उन्हें स्वयं भी वृद्धों की जीवन दशा, मानसिकता और जिजीविषा पर केंद्रित कथा लेखन के लिए प्रेरित किया. अनुसंधान के दौरान उन्होंने ऐसी बीसियों कहानियाँ लिख कर वृद्धावस्था विमर्श को अपने लेखकीय सरोकार के रूप में रेखांकित करने में सफलता पाई है. 

यह ग्रंथ इस दृष्टि से अग्रणी अध्ययन माना जाएगा कि लेखक ने हिंदी में वृद्धावस्था विमर्श की विधिवत सैद्धांतिकी खड़ी की है. वृद्धों की दशा और समस्याओं को लेकर कुछेक छिटपुट पुस्तकों और ‘वागर्थ’ के विशेषांक के अलावा सुसंगठित रूप में इस विमर्श को पुष्ट करने वाली सामग्री के तौर पर उन्होंने सिमोन द बुआ की महाकाय कृति ‘ओल्ड एज’ को आधारभूत ग्रंथ के रूप में ग्रहण किया तथा उसके आलोक में वृद्धावस्था विमर्श के अपने आयाम निधारित किए. वृद्ध मनोविज्ञान और वृद्धावस्था विमर्श की दृष्टि से आगे अनुसंधान करने वालों के लिए इसीलिए यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा. 

डॉ. शिव कुमार राजौरिया ने आरंभिक कहानी से लेकर आज की कहानी तक से अपनी अध्येय सामग्री चुनी है और इस ग्रंथ को प्रामाणिकता प्रदान करने में सफलता पाई है. शरीर का क्षय कैसे मानसिक परिवर्तन का कारण बनता है, कैसे वरिष्ठ नागरिकों के प्रति घर और समाज का नजरिया बदलता है, कैसे बदलते मूल्यों के संदर्भ में अपने जीवनमूल्यों से बँधा वृद्ध व्यक्ति अप्रासंगिक होता जाता है, कैसे बढती हुई आयु के साथ आत्मनिर्भरता घट जाती है और परनिर्भरता कैसे कुंठा में बदलती है, कैसे असुरक्षा, आशंका, अनिश्चितता और अकेलेपन के भाव सारे व्यवहार को असामान्य बना देते हैं, कैसे स्मृतियों की जुगाली करता मनुष्य मृत्यु की ध्रुवता तथा जीने की इच्छा के तुमुल संघर्ष को दैहिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर झेलता है, युवा जगत द्वारा वृद्ध जगत की उपेक्षा कैसी समस्याओं को जन्म देती हैं और कैसे वृद्धों को सम्मानजनक जीवन का अधिकार प्राप्त हो सकता है – यह ग्रंथ हिंदी की वृद्धावस्था संदर्भित कहानियों को इन तमाम सवालों की कसौटी पर रखकर परखता है. इस प्रकार यह ग्रंथ वृद्धावस्था विमर्श के साहित्यिक समीक्षाधारों का निर्माण भी करता है और उनके अनुप्रयोग की प्रविधि भी दर्शाता है.

विश्वास किया जाना चाहिए कि वृद्धावस्था विमर्श के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, साहित्यिक और समाजभाषावैज्ञानिक आयामों को उद्घाटित करने वाले इस अंतरविद्यावर्ती अध्ययन का हिंदी जगत में व्यापक स्वागत होगा. इसके प्रकाशन के अवसर पर मैं लेखक और प्रकाशक को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ. 

इति विदा पुनर्मिलनाय ...

-ऋषभ देव शर्मा 
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद
आवास : 208 – ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स 
गणेश नगर, रामंतापुर, 
हैदराबाद -500013 (तेलंगाना) 
4 मई, 2017
हैदराबाद : 4 जुलाई,2017 : (बाएँ से) डॉ. शिवकुमार राजौरिया, डॉ. ऋषभ देव शर्मा एवं वुल्ली कृष्णा राव 

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