सत्तरोत्तर हिंदी कविता और समकालीन राष्ट्रीय चेतना
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ऋषभदेव शर्मा
निश्चित
भूभाग, जनसंख्या, सरकार और संप्रभुता राष्ट्र के मूल तत्व हैं. राजनीति-विचारकों ने
इन्हीं तत्वों की व्याख्या करते हुए ऐसे निश्चित भूभाग को राष्ट्र कहा है जिसमें
रहने वाली जनसंख्या एक विशिष्ट राजनैतिक समूह होने का बोध कराती है और जिसमें अंतिम
राजनैतिक निर्णय लेने की शक्ति तथा सवतंत्रता निहित होती है. उपर्युक्त सभी तत्वों
में जनता सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व है क्योंकि उसका संबंध राष्ट्र होने के लिए अनिवार्य
संस्कृति से है. यह जनता रीति-रिवाज, भाषा, सांस्कृतिक परंपरा आदि से परस्पर जुड़कर
एक इकाई का निर्माण करती है. इसी इकाई में राजनैतिक एकताबद्धता तथा सर्वोच्चता के
सूत्र पाए जाते हैं. मानक हिंदी कोश में निश्चित विशिष्ट क्षेत्र, एक भाषा,
रीति-रिवाज और राजनैतिक विचारधारा वाले जनसमूह को राष्ट्र के लिए अनिवार्य माना
गया है.[1] वहाँ भी जन-संस्कृति पर कोशकार
ने अधिक ध्यान दिया है. अतः असंदिग्ध रूप से यह माना जा सकता है कि राष्ट्र कुछ
निश्चित तत्वों का पूँजीभूत रूप है.[2] अलग-अलग रूप में इन तत्वों का
कोई महत्व नहीं है क्योंकि अलग-अलग रहकर ये तत्व किसी एक संस्कृति का निर्माण करने
में असमर्थ रहते हैं. उस अवस्था में सर्वोच्च राजनैतिक चेतना का भी कोई अर्थ नहीं
रह जाता. राष्ट्र एक सम्मिलित अर्थ का ही द्योतक है – पृथ्वी, उस पर बसने वाली
जनता, संस्कृति और राजनैतिक इच्छा-शक्ति.[3]
राष्ट्र
के लिए अनिवार्य तत्व सांस्कृतिक-राजनैतिक चेतना संपन्न जनता में अपने देश के
प्रति त्याग, प्रगति, सुरक्षा, प्रेम और सम्मान का जो भाव होता है, उसे राष्ट्रीय
चेतना कहा जाता है. यह एक सामूहिक भाव है, जो किसी राष्ट्र की जनता में सहयोग एवं
सहानुभूति जगाता है.[4]
अपने विकसित रूप में यही भाव ऐसा मूल्य हो जाता है, जो किसी जाति की अखंड
सांस्कृतिक दृष्टि का निर्माण करता है. यही दृष्टि राष्ट्रीय भाव का प्राण होती
है. मुख्य रूप से राष्ट्रीय चेतना परंपरा-गौरव से निर्मित होती है. जिसमें राह्स्त्र
का वर्तमान और भविष्य अपने-अपने आकार में झलकते हैं. इन्हीं से किसी राष्ट्र के
व्यक्तित्व का भी निर्माण होता है. वस्तुतः राष्ट्रीय चेतना एक धारा के समान होती
है, जो इतिहास के उत्स से जन्म ग्रहण करती है, वर्तमान उसकी संश्लिष्ट स्तर वाली
गति को आकार देता है और भविष्य की आशा उसे विशाल फलक में समा लेती है. इसलिए राष्ट्रीय
चेतना गर्वपूर्ण इतिहास को भविष्य में दुहराना चाहती है. यह प्रक्रिया राष्ट्रीयता,
राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रीय चेतना को उच्च से उच्चतर की ओर ले जाती है और इसी
क्रम में राष्ट्रीय चेतना संवेदनाप्रधान आंदोलन का रूप ग्रहण कर लेती है. यह राष्ट्रीय
व्यक्तित्व के निर्माण का एक आदर्श और भावुक कदम होता है. ‘इंसाइक्लोपीडिया ऑफ
सोशल साइंसेस’ में कहा गया है कि “राष्ट्रीयता एक ऐसी प्रकृति है जो मूल्यों के विशिष्टतागत
क्रम में राष्ट्रीय व्यक्तित्व को एक उच्च स्थान प्रदान करती है.”[5] राष्ट्र के वर्तमान से
राष्ट्रीयता का संबंध प्रायः असंतोषपूर्ण होता है, जबकि इतिहास और भविष्य से यही संबंध
गौरव भावना पर आधारित तथा आदर्श होता है. इसका कारण है वर्तमान का यथार्थ तथा उसकी
समस्याएँ. इतिहास, जिसके गौरवपूर्ण अंश को ही याद रखना मनुष्य का स्वभाव है, कभी भी
वर्तमान में नहीं ढल सकता. भविष्य भी जो अरूप और काल्पनिक तथा आदर्श संकल्पना में
जीवित है, वर्तमान में प्रकट नहीं हो सकता. वर्तमान में जो कुछ भी है, वह निर्मम और
कठोर है, उसे जितना भी पाना है, संघर्ष के बल पर ही पाना है. यह संघर्ष भी सरल नहीं
है क्योंकि इसमें सभी विरोधी शक्तियाँ एक मंच पर एकत्र हैं, जिनसे जूझना सहज नहीं
है. यह पूरी स्थिति असंतोष और आक्रोश पैदा करने वाली है. अतः राष्ट्र के वर्तमान
के संदर्भ में राष्ट्रीय चेतना समस्याओं और संघर्षों से टकराती हुई दिखाई देती है.
इस टकराहट का विलक्षण आभिजात्य यही है कि इसमें मनुष्य अपने व्यक्तिगत सम्मान और
शक्ति को राष्ट्रीय सम्मान और शक्ति से जोड़कर संघर्ष में कूद पड़ता है. इससे उसका
अपना आदर्श, ईमानदारी और सम्मान भी सुरक्षित रहते हैं तथा राष्ट्र के लिए भी वह
यही प्रयास करता है. इससे राष्ट्रीय चेतना नए रूप में पारिभाषित होती है. प्रसिद्ध
दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने इसे राष्ट्रीयता की महत्वपूर्ण प्रक्रिया माना है.[6]
किंतु
व्यक्तिगत आदर्श यदि किन्हीं विशेष परिस्थितियों में सही मार्ग का अनुसरण नहीं
करते और दुराग्रहों से युक्त हो जाते हैं, तो उनसे अंध राष्ट्रभक्ति या
सांप्रदायिक राष्ट्रीयता का निर्माण होता है. यह मूलतः विरोध पर आधारित होती है
तथा इसमें समय और स्थान की आवश्यकता के अनुसार इसके विकास-बिंदु निर्धारित नहीं
होते. कई बार यह सांप्रदायिक राष्ट्रीयता एक ही राष्ट्र जाति को परस्पर विरोधी
खंडों में बाँट देती है. प्रत्येक खंड अपने-अपने आदर्शों के अनुकूल राष्ट्र का निर्माण
करने का प्रयास करता है जिससे आतंरिक संकट को बढ़ावा मिलता है. सांप्रदायिक
राष्ट्रीयता में भौगोलिक सीमाओं का महत्व अपेक्षाकृत बढ़ जाता है. प्रगतिशील तत्वों
के लिए उसमें कोई स्थान नहीं रहता. स्वस्थ राष्ट्रीयता का उससे विरोध होता है
क्योंकि स्वस्थ राष्ट्रीयता व्यक्ति को दुराग्रही, धर्मांध या सांप्रदायिक बनाने
में विश्वास नहीं रखती, वह उसके व्यक्तित्व को विकाशील राष्ट्रीय संदर्भों में
ढालती है जिससे व्यक्ति अपने दुराग्रहों को त्याग कर राष्ट्र के लिए कुछ न कुछ करने
को तत्पर हो जाता है.[7]
कविता
और राष्ट्रीयता का अविच्छिन्न संबंध है. कविता जिस परंपरा से जीवन ग्रहण करती है,
वह किसी समाज और राष्ट्र की सांस्कृतिक परंपरा ही होती है. आज के इस विश्व-वातावरण
वाले काल में भी, जब सारी भौगोलिक दूरियाँ लघुतम हो गई है, विभिन्न राष्ट्रों की
संस्कृति अपने स्वतंत्र रूप को बनाए हुए हैं तथा अपनी कविता को सुरक्षित रखे हुए
है. राजनैतिक और आर्थिक यथार्थ ने यद्यपि सारे विश्व की कविता को कुछ सामान
विशेषताएँ प्रदान कर दी हैं, किंतु उनका मूल्यबोध उनकी पहचान को बनाए हुए हैं. इसका मूल कारण यह
है कि प्रत्येक देश ने हजारों वर्षों में जिस-जिस सांस्कृतिक स्वरूप को प्राप्त किया
है, उसे कुछ सौ वर्षों का वातावरण नष्ट नहीं कर सकता. दूसरे आध्यात्मिक मूल्य
अलग-अलग पहचान को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. कविता इस पहचान को
प्रस्तुत करने वाला सशक्त माध्यम है. इसीलिए कहा जाता है कि कविता की पृष्ठभूमि
में किसी जाति और राष्ट्र की संस्कृति का होना अनिवार्य है.[8]
समकालीन
हिंदी कविता में राष्ट्रीय चेतना के विशिष्ट स्वर विद्यमान है. उन्नीसवीं शताब्दी
के मध्य से भारतीय जनमानस में जिस राष्ट्रीय चेतना का विकास होना शुरू हुआ था तथा
बंग भंग (1905), होमरूल (1917), असयोग आंदोलन (1921), नमक सत्याग्रह (1930) और
भारत छोड़ो (1942) आदि जनआंदोलनों ने जिसे पुष्ट किया था, उसी का विकास इस काल की
कविता में मिलता है. इसी संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि समय-समय पर
स्वतंत्र भारत में होने वाले आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक परिवर्तन ने जिस राष्ट्रीय
सोच को विकसित किया और जो जन-चेतना का महत्वपूर्ण अंग बना, वह भी समकालीन हिंदी
कविता की राष्ट्रीय चेतना का अंग ही. इस विभिन्न स्तर वाली राष्ट्रीय चेतना को
निम्नांकित रूप में विश्लेषित किया जा सकता है.
परंपरागत
राष्ट्रीय मूल्य
राष्ट्र
के प्रति भावात्मक समर्पण, उसके गौरवशाली अतीत का गान, इतिहास के प्रेरक प्रसंगों
से राष्ट्र प्रेम की प्रेरणा, राष्ट्रीय वीरों के प्रति श्रद्धा-पूजा का भाव,
उत्सर्ग राष्ट्र के भौगोलिक सौंदर्य का चित्रण आदि राष्ट्रीय चेतना के परंपरागत
मूल्य हैं. इनके पीछे सनातन सांस्कृतिक भावनाजन्य दृष्टि होती है और कवि उसी के
प्रकाश में अपनी राष्ट्रीय भावना को कविता में ढालता है. देश की धरती कवि को अपने
प्राणों से भी प्यारी हो जाती है क्योंकि उसी में उसने जन्म लिया है, उसी की हवा
में प्राण ग्रहण किए हैं और उसी मिट्टी की सौंधी गंध ने उसे जीवन की शक्ति दी है. राष्ट्र
के प्रति प्रेम का यह आदर्श भाव-जननी जन्म-भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी-की प्राचीन
परंपरा से प्रेरित है. सत्तरोत्तर काल की कविताओँ में महान राष्ट्र की महान परपराओं
के प्रति नतमस्तक होने के भाव विद्यमान है. भव्य सनातन परिपाटी और सोना उगलने वाली
मिट्टी वाली भारत जननी पर कवि बार-बार बलि जाता है तथा उसे और भी अधिक उन्नत बनाने
का व्रत लेता है – मुझे देश की धरती प्यारी./ श्वास-श्वास मेरी बलिहारी./ जीवन
इससे, गीतं इससे/ जीवन का हर उपक्रम इससे/ इससे चुन्हुंदिशी है उजियारा/ जिसने
शांति संदेश परसारा/ भव्य सनातन है परिपाटी/ स्वर्ण उगलती इसकी माटी/ इस पर
बलि-बलि जाएँगे हम/ उन्नत इसे बनाएँगे हम/ खिले खेत अरु क्यारी-क्यारी./ मुझे देश
की धरती प्यारी.[9]
भारत
की प्राकृतिक सुषमा और हिमालय से कवि को विशेष प्रेम है. हिमालय क्योंकि भारत की आध्यात्मिक
परंपरा के रूप में प्रतिष्ठित है, इसलिए वह कवि को अपनी ओर विशेष रूप से आकृष्ट
करता है. इसी के साथ हिमालय और उसकी पर्वत श्रेणियाँ सदैव बाहरी आक्रमणों से भारत
की रक्षा करती हैं. अतः कवि हिमालय को रक्षक के रूप में भी सम्मान प्रदान करता है.[10]
कोई
भी देश अपनी स्वतंत्रता अपने बीरों के बल पर ही सुरक्षित रख पाता है. वीर सैनिक अपना
सब कुछ देश पर न्यौछावर कर देते हैं और अपने प्राण हथेली पर लिए हुए सीमाओं की
रक्षा करते हैं. जब सीमाएँ सुरक्षित होती है, तो राष्ट्र निश्चित होकर विकास के
मार्ग पर आगे बढ़ता है. राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा का भार भी वीर सैनिक ही
उठाते हैं. इसलिए सारा देश अपने वीरों के सामने नतमस्तक होता है – देश के ओ वीर सैनिक,
देश का तुमको नमन./ तुम्हारी भक्ति भी हो, भावना हो साधना/ प्रेरणा के पात्र हो
मनहर हमारी ज्योत्स्ना/ देश के तुम प्राण-जीवन, सद्विचारों के वासन./ देश के ओ वीर
सैनिक, देश का तुमको नमन.[11]
वीर
सैनिकों की ही भाँति राष्ट्र अपने क्रांतिकारीयों के सामने भी प्रणत है. भारत की स्वतंत्रता
की नींव में क्रांतिकारियों का रक्त ही गतिमान है. भगत सिंह, सुभाष, बिस्मिल,
चंद्रशेखर, ऊधम सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी तथा श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे
क्रांतिकारी न हुए होते, तो भारत इतनी सरलता से स्वतंत्र नहीं हुआ होता. इन्होने
सारे देश को राजनैतिक स्वतंत्रता से परिचित कराया तथा दासता की शृंखलाएँ खंड-खंड
करने के लिए हँसते-हँसते प्राण गँवा दिए. यह देश भी उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता.
कवि जब भी राष्ट्र को जगाना चाहता है, तभी वह क्रांतिकारी शहीदों के जीवन इतिहास
से जागृति का दीप प्रज्वलित करता है.[12]
वीर
कभी भी मृत्यु से भय नहीं खाते और न वे बलिदान से कभी पीछे हटते हैं, उनका एक ही
लक्ष्य होता है विजय पाना क्योंकि विजय पाकर ही वे वसुंधरा को सुरक्षित करते हैं. दूसरी
ओर यदि विजय यात्रा में उनके प्राण चले जाते हैं तो मोक्ष उनका स्वागत करता है. सन
70 के बाद का कवि एक साथ हँसते-हँसते जीने और हँसते-हँसते मरने का आह्वान करता है.
वीरों के लिए तो जीवन और मृत्यु के बीच दूरी ही नहीं रहती.[13] इसका कारण यह है कि वीर हमेशा
स्वधर्म और स्वदेश के लिए जीते हैं. उनका बलिदान राष्ट्रीय संस्कृति के लिए महाभिमान
का एक अमूल्य अंग होता है. वीरों का रक्त समस्त राष्ट्र की शिराओं में स्वाभिमान
का संचार करता है और उनका जीवन संपूर्ण जाति को जीने की ऊर्जा देता है. इस ऊर्जा में
राष्ट्र का गौरवशाली इतिहास अपने पूरे तेज के साथ जीवित हो उठता है. कवि पूरी
सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा के लिए बार-बार वीरों की ओर देखता है और उनसे उठने का
आह्वान करता है – वीरों! स्वधर्म के लिए उठो/ निर्भय स्वदेश के लिए उठो/ आतंकित है
रे कर्मभूमि/ संस्कृति स्वदेश के लिए उठो.[14]
किसी
भी राष्ट्र का भविष्य उसके जवानों के कंधों पर टिका होता है, इसीलिए उन्हें ही
राष्ट्र की वास्तविक संपत्ति माना जाता है. कोई राष्ट्र अपनी विकास यात्रा किस रूप
में तय करेगा और प्रगति के किन मूल्यों को प्राप्त करेगा, इसका निर्धारण जवान पीढ़ी
के हाथ में होता है. यही पीढ़ी सीमा पर भी लड़ती है और जन-स्वतंत्रता पर हमला करने
वाली विरोधी शक्तियों का मुकाबला भी करती है. इसीलिए इसे राष्ट्रनिर्मात्री पीढ़ी
कहा जाता है. कविता में इस पीढ़ी को पूर्ण मनोयोग के साथ चित्रित किया गया है तथा
शक्ति के मुख्य केंद्र के रूप में मान्यता प्रदान की गई है. जवान जब बढ़ता है तो
राष्ट्र के प्रत्येक शत्रु की धज्जियाँ उड़ जाती हैं, जब वह गरजता है तो सिंह का
स्वर भी उससे अधिक गौरवशाली प्रतीत नहीं होता.[15]
1970
के पश्चात हिंदी कविता में राष्ट्रीय चेतना के जो परंपरागत मूल्य विकसित हुए हैं,
उन्होंने राष्ट्र प्रेम को नया अर्थ दिया है. इस काल की कविता ने स्वतंत्रता के
बाद की विभिन्न विरोधी परिस्थितियों के प्रकाश में यह स्थापना की है कि संपूर्ण
भारतीय संस्कृति के भीतर जो लघु धाराएँ बह रही है, उन्हें समंजित करना तथा प्रेम के
जल से सींचना अनिवार्य है ताकि ये धाराएँ एक बिंदु पर संगमित होकर राष्ट्रीय प्रेम
का तीर्थ बन जाएँ. कवि ने अकबर शिवाजी और गुरु गोबिंद सिंह को तीन अलग लघु
संस्कृतिधाराओं के प्रतिनिधि के रूप में देखा है तथा यह माना है कि इन तीनों की
रक्ताभ धाराएँ कई युग दूर बहकर प्रेम का संगम बन गई है.[16] वस्तुतः यह राष्ट्रीयता का
नया पक्ष है, जो अनेकता में एकता के सिद्धांत को स्वातंत्र्योत्तर भारत के वर्गीय
समन्वय से जोड़कर प्रस्तुत करता है. इसके पीछे कवि की उन शक्तियों से लड़ने की
साहसपूर्ण प्रवृत्ति है, जो भारत को जातियों, वर्गों और धर्मों के आधार पर लड़ाकर
बाँटना चाहती है.
राष्ट्रीयता
के नए मूल्यों में एक मूल्य वह है जो भारत राष्ट्र की काल-दृष्टि को स्पष्ट करता
है. यह एक सिद्ध सत्य है कि भारत अपने आप में अखंड परंपरा का द्योतक है. इतिहास और
काल की मार इस परंपरा को छिन्न-भिन्न नहीं कर पाई है. काल दृष्टि की यह अखंड
परंपरा आध्यात्मिक मूलों से निर्मित होने के कारण आस्तिक है, इसलिए अपराजेय है.
नकली सभ्यता, आर्थिक विपन्नता, युद्ध का तनाव और विज्ञान की चकाचौंध उसकी सीमाओं में
प्रवेश नहीं कर सकते. कवि देश के जन-जन की आँखों में इसी गौरवशाली कालजयी दृष्टि
के दरशन करता है. इसीलिए जब उसके सामने आधुनिक भारत की विवश और विपन्न जनता के
चित्र आते हैं, तो कवि का मन विषादयुक्त हो जाता है. वह अपनी पूरी चेतना से घोषणा करता
है कि पुते हुए गालों और दर्पण से चुराई हुई मुस्कान वाली दृष्टि उसके प्यारे भारत
की दृष्टि नहीं हो सकती. उसके भारत की दृष्टि तो कितने ही काल-सागरों के पार तैर आने
वाली दृष्टि है. इस दृष्टि में श्रम की महत्ता है, जलद की सरसता है, मैले चाँद की
मोहकता है और कोमल पुष्प का सौंदर्य है – उसने/ झुकी कमर सीधी की/ माथे से पसीने
पोंछा/ डालिया हाथ में छोड़ी/ और उड़ी धुल के बादल के/ बीच में से झलमलाते/ जाड़ों की
अमावस में से/ मैले चाँद-चेहरे सकुचाते/ में टंकी थकी पलकें/ उठाई-/ और कितने काल-सागरों
के पार तैर आईं/ मेरे देश की आँखें...[17]
इन
पंक्तियों में परंपरागत राष्ट्रीय मूल्य अत्यंत कलात्मक ढंग से यथार्थ-जीवी हो गए
हैं. इस काल में जहाँ राष्ट्रीय कविता में यथार्थ जीवन से जुड़ाव का आग्रह बढ़ा है,
वहीं परंपरागत आदर्श ने भी नया रूप ग्रहण किया है.
परंपरागत
राष्ट्रीयता के नए मूल्यों की अगली कड़ी के रूप में दूसरे स्वतंत्र राष्ट्रों के
प्रति सम्मान और प्रेरणा का भाव उल्लेखनीय है. बंगलादेश भारत के सहयोग से अस्तित्व
में आया, यदि भारत चाहता तो उसे अपने अधिकार में ले सकता था. किंतु मानवीय
स्वतंत्रता का पक्षधर होने के नाते उसने ऐसा नहीं किया बल्कि प्रत्येक प्रकार से सहायता
करके उसे स्वाभिमानी राष्ट्र-इकाई के रूप में खड़ा किया. कवि ने अपनी राष्ट्रीयता की
सीमाओं को विकसित करते हुए बंगला देश का स्वागत किया तथा कभी किसी के आगे झुकने की
कामना की. कवि ने स्पष्ट कहा कि हे बंगला देश तू अब स्वयं अपना नियंता और उद्धारक
होगा, कभी किसी के आगे घुटने नहीं टेकेगा और सदैव मुक्त राष्ट्र बनकर चमकेगा – अब
है मुझको पूरी आशा/ तू अपना उद्धार करेगा/ बैरी का संहार करेगा/ नहीं किसी के हाथ
बिकेगा/ मुक्त राष्ट्र होकर चमकेगा/ दिन का सूरज/ और रात का चाँद बनेगा/ नई जवानी
फतह करेगा.[18]
समकालीन
हिंदी कविता के इस रूप में परंपरागत राष्ट्रीय
मूल्यों को एकदम नया और व्यापक अर्थ प्रदान किया गया है. इससे राष्ट्रीय भावना
अपने सांस्कृतिक-ऐतिहासिक आदर्श को विश्वकल्याण और मानव-सुख से जोड़कर भी अपना मूल
रूप बनाए रखती है. इसी से यह सत्य पुष्ट होता है कि इस काल की कविता ने सांस्कृतिक
राष्ट्रीयता को अंतरराष्ट्रीयता से सफलतापूर्वक जोड़ा है तथा नए आदर्श का निर्माण
किया है. यह नया आदर्श कवि की दृष्टि में नई ज्योति है. अब गणतंत्र दिवस पर कवि युद्धास्त्रों
की बात नहीं करता, बल्कि इस दिवस को विकास, सहानुभूति और प्रगति की नई ज्योति से
संवारने की बात करता है.[19] तभी भारत राष्ट्र की सनातन
परंपरा को नए युग से जोड़कर आगे बढ़ाया जा सकता है.
राष्ट्रीय संकट
की ओर संकेत
राष्ट्र
की वर्तमान स्थिति का चित्रण करने के पीछे कवि के दो उद्देश्य होते हैं – राष्ट्रीय
जीवन के विकास में बाधा उत्पन्न वाले तत्वों की ओर संकेत तथा नीतियों के
पुनर्मूल्यांकन और सुधार की आवश्यकता का प्रतिपादन. राष्ट्रीय चेतना संपन्न कवि
भविष्य के आदर्श राष्ट्र को प्राप्त करने के लिए वर्तमान के संकटों से जूझता है और
उनके यथार्थ रूप को जनता के सामने प्रस्तुत करता है. इसी बिंदु पर कविता की राजनैतिक
चेतना और राष्ट्रीय चेतना भिन्न हो जाती है. राजनैतिक चेतना का मूल उद्देश्य
व्यवस्था परिवर्तन होता है और राष्ट्रीय चेतना का मूल उद्देश्य जन-मूल्यों के
सांस्कृतिक स्वरूप का गठन.
समकालीन
हिंदी कविता में उपर्युक्त उद्देश्य के अंतर्गत व्यापक मात्रा में काव्य रचना कर्म
संपन्न हुआ है क्योंकि विभिन्न परिस्थितियों के दबाव के परिणामस्वरूप इस युग में
व्यापक स्तर मूल्यहीनता आई है. उस राष्ट्रीय चरित्र का लगातार ह्रास हुआ है जो
किसी राष्ट्र की रीढ़ होता है. राष्ट्र के नाम पर राज-भक्ति की परंपरा इतने छद्म रूप
में विकसित हुई कि राज और राष्ट्र समानार्थी लगाने लगे. परिणामस्वरूप राज-चरित्र के
सभी दोष राष्ट्र चरित्र में घुलमिल गए. इस प्रकार से राष्ट्र राज में विलीन हो
गया. इसके कारण राष्ट्र का पौरुष बौना हुआ, आचरण भ्रष्ट हुआ, राष्ट्रीय मनोबल
क्षीण हुआ.[20]
कालांतर में यह क्षीणता संपूर्ण राष्ट्रीय जीवन की क्षीणता बन गई. धीरे-धीरे हमने देखा
कि इस देश के हाथ से कोई महत्वपूर्ण चीज उसी तरह फिसलती जा रही है जैसे बंद मुट्ठी
से सूखा रेत फिसल जाता है और जब मुट्ठी खोली जाती है तो खालीपन के अलावा कुछ दिखाई
नहीं देता. कविता में इस स्थिति को व्यापक स्तर पर अभिव्यक्ति मिली है.[21]
राजनैतिक
दिशा हीनता ने सारे देश को उसके सही रास्ते से हटा दिया. भारत की जनता ने अपने लिए
जिस प्रणाली का चुनाव किया था, वह गणतंत्र के भीतर से होती हुई ऐसे तंत्र की ओर दौड़
गई जिसका कोई रूप नहीं था. इसका परिणाम यह हुआ कि शोषक संस्थाओं ने राष्ट्र की
जीवन प्रणाली को अपने-अपने निहित स्वार्थों के अनुकूल दिशा देने का षड्यंत्र चलाया
और उसमें वे सफल रही. इससे जिस अंधकार का सृजन हुआ, वह समस्त राहों को अपने में विलीन
करने वाला सिद्ध हुआ.[22] जब तक जनता अंधकार के
षड्यंत्र को समझे और उसके विरुद्ध कार्यवाही करे, तब तक बहुत देर हो चुकी थी
क्योंकि उस समय तक लोगों के बिकने का सिलसिला शुरू हो चुका था. यह कल्पना करके कवि
का मन क्षोभ से भर उठता है कि बिकने के बिंदु तक पहुँचने से पूर्व की यात्रा कितनी
काली, कितनी चालाकी भरी और कितनी भयावह रही हूगी. जब हम बिकने पर विचार करते है तो
लगता है कि कुछ गिने हुए चेहरेदार लोगों ने इस देश के रक्त को पानी में बदल दिया
और वह भी तथाकथित सम्मान, सुविधा और अधिकार संपन्नता के नाम पर सामान्य जनता के
साथ किए गए इस छल में बौद्धिक, कलाकार, कवि सभी वर्गों के लोग शामिल हैं – उसने
इशारे से कहा :/ इन सबको सम्मान बाँटो/ हम सबको/ सिरोपे दिए गए/ जिनके नीचे/ नए चेहरे
भी टंके थे./ उसने नमस्कार का इशारा किया/ हम विदा करके/ बाहर निकाल दिए गए.[23]
किंतु
समाज की अगुआई करने वाले तथा तथाकथित विचारक-वर्गों के साथ ही इस देश की सामान्य जनता
भी अपने अनिश्चित भविष्य और राष्ट्रीय मूल्यहीनता के लिए उत्तरदायी है. यह एक
स्वतंत्र ऐतिहासिक-राजनैतिक शोध का विषय है कि किस प्रकार इस देश की जनता को अपने
ही बारे में सोचने की प्रवृत्ति से काट दिया गया. किंतु यह प्रत्यक्ष है कि जनता
विस्मृति की दुष्प्रवृत्ति से ग्रस्त हो गई. उसने अपनी जिम्मेदारी समर्थन और जयघोष
तक सीमित कर ली, शेष अधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ दूसरे लोगों को सौंप दी और निश्चिंत
हो गई. स्वतंत्र भारत की जनता ने अपने भीतर व्यवस्थापकों के ऊपर प्रभावशाली अंकुश
का प्रयोग करने की प्रवृत्ति का विकास नहीं किया.[24] इसी का यह परिणाम हुआ कि सवतंत्रता
का कोई अर्थ नहीं रह गया. इसी से राष्ट्र में अनेक अव्यवस्थाओं ने जन्म लिया.[25] राष्ट्रीय चेतना संपन्न कविताओं
में इस ओर व्यापक संकेत किए गए हैं. अनेक रचनाओं में राष्ट्रीय संकट की ओर संकेत करते
हुए कहा गया है – लगता है/ हिंद के आसमान में/ सूरज पर भी लागो होंगे/ “आपातकालीन
स्थिति वाले आर्डिनेंस”/ लगता है/ हिंदी के आसमान में/ अब सूरज सहमकर उगेगा.[26]
यहाँ
सूरज इस देश की जनता की जिजीविषा का प्रतीक बनकर आया है जो सत्तरोत्तर काल की
कविता के चिंतन के मूल बिंदुओं में से एक है.
इस
देश में आपात-काल में जो कुछ हुआ, वह केवल एक राजनैतिक घटना मात्र नहीं था, बल्कि उसका
मूल और परिणाम हमारे सामाजिक तथा नैतिक मूल्यों से जुड़ा हुआ था. इसके दर्शन हमें
उस काल में भी हुए थे और उसके बाद भी यह सिलसिला सामने आता रहा.[27] कुछ विशिष्ट शक्तियों ने एक मंच
पर एकत्र होकर स्वार्थपरता का विरोध करने वाले छोटे से छोटे स्वर को शांत करने में
अपना पूरा बल प्रयोग किया. यह वैचारिक स्वतंत्रता को समाप्त करके संपूर्ण समाज और
राष्ट्र को एक ही दिशा में हाँक ले जाने की कोशिश थी.[28] इस कोशिश ने कविता को ही
नहीं, संगीत और चित्रकला तक को प्रभावित किया. शासक संस्थाओं द्वारा ऐसा कोई भी माध्यम
अपने प्रभाव क्षेत्र से बाहर नहीं रहने दिया गया जो उनके लिए ख़तरा सिद्ध हो सकता
था. उन्होंने उन सभी का प्रयोग अपने पक्ष में जनता को ढोने और अपनी बात को सही सिद्ध
करवाने के लिए किया. निःसंदेह इससे इस शताब्दी के सबसे भयंकर राष्ट्रीय संकट का
श्रीगणेश हुआ. अतिशीघ्र ही यह संकट अनेक रूप धरकर प्रकट होने लगा और जन-संस्कृति खंड-खंड
होने के कगार पर आ गई. कविता में इस राष्ट्रीय संकट को सशक्त अभिव्यक्ति दी गई है.
कवि ने विनाश की उस दूती को जनता के सामने प्रस्तुत किया है जो बुर्ज-बुर्ज पर बैठी
हुई है.[29] इसी दूती के कारन देश में
होने वाली क्रांतियाँ अर्थहीन हो गई हैं.[30] इसी दूती के कारण राज्य के नाम
पर राष्ट्र को भुलाने के षड्यंत्र किए गए हैं और दिग्भ्रमित शक्तिस्रोत पर आधारित आतंकवादी
मूल्य वर्तमान भारतीय जीवन का अनिवार्य अंग बन गए हैं.[31]
सत्तारोत्तर कविता में राष्ट्रीय संकट का संकेत करते हुए आर्थिक संकट को विशेष रूप से उभारा
गया है. संपूर्ण सवतंत्रता-संग्राम के पीछे जहाँ राजनैतिक दासता से छुटकारे का भाव
था, वहीं आर्थिक समृद्धि और आर्थिक साधनों के समान-वितरण के लक्ष्य की प्राप्ति का
उद्देश्य भी था. स्वतंत्रता के बाद यह आशा की गई थी कि सामान्य जनता के आर्थिक विकास
को ध्यान में रखा जाएगा. इस प्रकार की अनेक घोषणाएँ भी की गई थीं. साथ ही सर्वोदय और
अंत्योदय जैसे आर्थिक आर्चारित्रों वाले आंदोलनों की गूँज भी बीच-बीच में सुनाई
पड़ती रही, किंतु देश की भूख का आकार लगातार बढ़ता गया. कविता ने इस स्थिति को यथार्थ-भोग
के आधार पर चित्रित किया है. उसमें साफ-साफ कहा गया है कि अगर आदमी खाने को मुहताज
है, तो स्वतंत्रता का क्या अर्थ है – जिसके मारे सब दुखी थे, सबके मन पर भार था/
आज उस परतंत्रता से भी निकाल आ ही गया./ हम स्वतंत्र कहाँ अगर खाने को भी मुहताज
हैं/ एक जठरानल में समझो सबका काल आ ही गया.[32]
आधुनिक
भारत की आर्थिक संरचना उसके संवैधानिक लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है – यदि बात इतनी ही
होती तो किसी हद तक काम चल सकता था, किंतु यह आर्थिक संरचना व्यक्ति के पूरे
भविष्य से जुड़ी हुई है. यह बहुत सरल बात है कि जिसे भरपेट भोजन न मिला ही, उसके
सामने धर्म, नीति, कर्तव्य-निष्ठा, ईमानदारी और राष्ट्रीयता की बात बेमानी है.[33] यहाँ आकर देश का आर्थिक संकट
पूरी जातीय संस्कृति की गिरावट का कारण बन जाता है. हमारे समाज में आज यही हो भी
रहा है. एक ओर अर्थ सामाजिक प्रतिष्ठा के मानदंड निर्धारित कर रहा है, दूसरी ओर
भूख के सवालों का उत्तर लापता है. पहली श्रेणी का आदमी आर्थिक साधनों पर एकाधिकार जमाने
के लिए देश का सौदा करने में भी नहीं हिचक रहा है और दूसरी श्रेणी का आदमी भूख के
निदान के लिए अपने को बेचने के सिवा दूसरा उअपाय नहीं खोज पा रहा है. खोजे भी
कैसे, उसके पास तो अभी आज के खाने के लिए भी कुछ नहीं है.[34] कवि इस स्थिति से बहुत अधिक खीझ
गया है. जिस देश में अधिकांश जनसंख्या गरीबी-रेखा से नीचे है, बंधुआ मजदूरी प्रथा प्रचलित
है, बाल श्रमिकों का अनधिकृत माध्यमों द्वारा शोषण होता है, ठेला खींचते हुए सारी
जवान पीढ़ी की कमर झुक जाती है, वह देश भी यदि स्वतंत्र होने का दावा करे तो इसे
उपहास की ही संज्ञा दी जाएगी. कवि ने तो ऐसे देश की आजादी को ही धिक्कार दिया है –
धिकार है/ इस आजादी को/ जहाँ बहुत बड़ी आबादी को/ मिलता सुख और चैन नहीं./ दिन में काम/
आराम/ सारी रैन नहीं./ यहाँ/ भूखा बचपन पालिश करता/ ठेला खींचे कमर झुकी.[35]
वस्तुतः
आर्थिक संकट ने राष्ट्रीय स्तर पर जिस मानसिक तनाव को जन्म दिया है, वही इस प्रकार
की कविताओं की पृष्ठभूमि में है. व्यक्ति इस मानसिक तनाव से इतना घिर गया है कि वह
अपने निकट के वातावरण से भी आँख नहीं मिलाना चाहता. आर्थिक विपन्नता ने उसके भीतर आत्महीनता
के त्रासदायी बोध को पनपाया है.[36] इस बोध ने जहाँ उसे आत्मगोपन का
शिकार बनाया है, वही उसके भीतर विद्रोही को भी जन्म दिया है. यह तय करना बाकी है
कि निर्धनता की प्रतिक्रिया में जन्मा हुआ यह विद्रोह राष्ट्रीय हित में है या
नहीं, क्योंकि किसान-मजदूर आंदोलन और नक्सलबाड़ी संघर्ष के पीछे कारण समान हैं
किंतु दो अलग-अलग चेहरों वाली घटनाओं को जन्म देने वाले हैं. अंततः देश के सामने चिंता
ही खड़ी होती है. समकालीन हिंदी कविता ने देश के वर्तमान की इस चिंता में गंभीर
भागीदारी की है. उसने साफ-साफ चेताया है कि वातावरण कंपा देने वाली चीख से भर जाने
वाला है.[37] इसका कारण यह है कि कुछ लोग
पेट से ही पागल होकर आ रहे हैं और वे जब फायर करेंगे तो मात्र पक्षी नहीं मरेंगे.[38] ऐसी कविता में उस सशस्त्र
संघर्ष की ओर संकेत है जो आर्थिक कारणों से जन्म ले रहा है.
समकालीन
हिंदी कविता वर्तमान के साक्षात्कार की कविता है. उसमें राष्ट्र के उस वातावरण को
चित्रित किया गया है जो संपूर्ण विश्वास की स्थिति का प्रतिनिधि है. परिस्थितियों
से जूझते और उनसे समझौता करते हुए तथा भौतिक सुविधाएँ पाते और आदर्श खोते हुए हम
जिस दशा में पहुँच गए हैं, वह वास्तविक सफलता की दशा नहीं है. एक ऐसा शून्य सबके मस्तिष्क
में घर कर बैठा है, जो अत्यधिक शोर से भरा हुआ है और किसी भी आवाज को नहीं सुनने
देता. यहाँ तक कि आत्मा की आवाज भी किसी असमर्थ लंगड़े व्यक्ति की तरह हो गई है, सब
कुछ उसकी पहुँच से बाहर हो गया है क्योंकि लोग उसे महत्व ही नहीं देना चाहते – नींद
में ऊँघते हुए देश और गाफिल बने हुए अनंत शहरों में/ एक लंगड़ा आदमी घूमता है हताश
... आँखें लटक जाती है/ छोड़कर वृत्त, खो जाते हैं खयालों के जंगल, बजती रहती है/
कहीं दूर एक सितार की धुन .... चींखते हैं लोग, सुनते/ नहीं हैं वे अल्लारखा का
तबला या शिप्ले का गिटार.[39]
इस
काल की कविताओं में दृष्टिबोध के अंतर पर भी चिंता व्यक्त की गई है. यह तत्व
मूल्यों का निर्माता होता है. यही कारण हैं कि परिवर्तित दृष्टिबोध ने परिवर्तित मूल्यों
का गठन किया है. यहाँ यह कह देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि दृष्टिबोध में गुणात्मक
परिवर्तन व्यक्ति और राष्ट्र के हित में होता है क्योंकि इसका संबंध प्रगतिशील
मान्यताओं के स्वीकार से होता है. किंतु जब परिवर्तन गुणात्मक न होकर प्रतिक्रया
पर आधारित होता है, तो वह अहितकर होता है. ऐसा परिवर्तन परंपरागत मूल्यों को खंडित
करने में विश्वास रखता है और प्रायः आवेश से खाद-पानी ग्रहण करता है. यही आगे चलकर
व्यक्ति को सही विरोध से काटकर नपुंसक बना देता है. 1970 के बाद की कविता इस ओर
पर्याप्त संकेत करती है – बुद्ध की आँख से खून चू रहा था/ नगर के मुख्य चौरस्ते
पर/ शोक प्रस्ताव पारित हुए/ हिजड़ों ने भाषण दिए/ लिंग बोध पर/ वेश्याओं ने
कविताएँ पढ़ी/ आत्मशोध पर.[40]
जहाँ
बुद्ध की आँख से चूता हुआ खून उसी अखंड सांस्कृतिक परंपरा के खंडित होने की कहानी
कह रहा है. जिसे इतिहास ने अनेक बलिदान देकर संवारा था. पर दुःख कातरता, मानव
सेवा, जातीय गौरव और स्वाभिमान इससे प्रेरणा पाते थे, लेकिन आत्म केंद्रित दृष्टि बोध
ने सारे संदर्भ ही उलट दिए. कवि इस स्थिति को स्वाभाविक सहज या अनिवार्य कहकर
पचाने का साहस नहीं जुटा पाया, बल्कि उसने अपनी रचनाओं में इसके विरुद्ध मोर्चा
खोला. उसने उन सब लोगों के चेहरे उतारे जो राष्ट्रीयता और अहिंसा का राग अलापते
हैं किंतु कर्म हिंसा और राष्ट्र दोह के करते हैं. कवि की दृष्टि से ऐसे लोगों का
मन, वचन और कर्म कुछ भी स्वच्छ नहीं है. उनका न अहिंसा में एकनिष्ठ विश्वास है और
न वे हिंसा को अपनाने की ही घोषणा कर सकते हैं. ऐसे लोग किसी को भी धोखा दे सकते
हैं और किसी की भी जय बोल सकते हैं.[41] वर्तमान में हमारा देश ऐसे
लोगों के कारन ही अनेक खतरों का सामना कर रहा है. ये लोग न केवल देश के भीतर अस्थिरता
पैदा कर रहे हैं, बल्कि विश्व मंच पर भी भारत की प्रतिष्ठा को घुन की तरह नष्ट कर
रहे हैं. कवि ने अपनी विश्लेषण शक्ति के बल पर राष्ट्रीय संकट के इस बिंदु को कविता
कविताओं में चित्रित किया है. प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने राष्ट्रीय संकट
पर सटीक टिप्पणी करते हुए कहा है – देश के भीतर दहन और दाह है/ अंतरराष्ट्रीय स्तर
पर/ वाह-वाह है![42]
राष्ट्र
निर्माण का आह्वान
राष्ट्र
की संकट पूर्ण स्थिति का विश्लेषण करके आठवें-नावें दशक की कविता ने देश के
प्रत्येक नागरिक के मन में राष्ट्र-निर्माण की भावना जगाने का प्रयास किया है. यह
कविता भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और उसके सचेत होने की शर्त भी. वर्तमान का विश्लेषण
करके कविता ने सारे देश के नागरिकों को वास्तविकता से परिचित कराया है ताकि उसे ही
आधार मानकर भविष्य के राष्ट्र का स्वरूप तय किया जा सके.
आज
जब परिस्थितियाँ देश को खंड-खंड करने में लगी हैं, तब राष्ट्रीय दायित्व का प्रश्न
उठ खड़ा होता है. किसी भी दशा में देश को संकटों से घिरा हुआ नहीं रहने दिया जा
सकता. किंतु उसके लिए प्रत्येक पर पग सजग होना पड़ेगा कविता ने इसे स्वीकार किया
है. कवि ने माना है कि यह समय विशृंखलता से भरा हुआ है और राष्ट्र सेवियों का
दायित्व उन्हें ललकार रहा है. इतना ही नहीं दूर क्षितिज से करुणार्द्र भाव से
‘कोई’ है जो पुकार-पुकार कर बुला रहा है. यह ‘कोई’ राष्ट्र ही है जिसे कवि ने देखा
है और जिसकी भावना को रचना में अभिव्यक्ति दी है – विशृंखलता से भरा समय आया, भाई/
पग-पग पर है दायित्व तुम्हें ललकार रहा/ दीनता और कारण्य भाव स्वर में भरकर/ है
दूर क्षितिज से तुम्हें कोयो पुकार रहा.[43]
कविता
ने व्यक्ति को देश के एकदम निकट ले जाने की कोशिश की है क्योंकि उसकी निकटता
प्राप्त किए बिना निर्माण की संभावनाएँ क्षीण हो जाती हैं. प्रेम और नगर देश के दो
अलग-अलग हिस्से हैं, इनके बीच की यात्रा की दिशा गाँव से नगर की ओर रहती है, नगर
से गाँव की ओर नहीं. इस रूप में गाँव निर्माण की मूल इकाई बन जाता है. अतः
राष्ट्र-निर्माण के लिए गाँव को समझना और उसके जीवन को पहचानना अनिवार्य है. कविता
ने इस पहचान का माध्यम बनना चाहा है. रेलवे पोस्टर की बात करता हुआ कवि जुड़े में
फूल खोंसते औरत की बात तो करता है, किंतु इस बड़े सवाल के साथ कि गाँव को बोझ लिए
जा रहे आदमी की आकृति वहाँ खड़ी हो जाती है. कवि उस आदमी में वास्तविक भारत आँकता
है. दायित्वबोध की यह प्रभावशाली दिशा है.[44] कोई भी क्रांति इसी व्यक्ति और
उसके गाँव से शुरू होती है. राष्ट्र-निर्माण की क्रांति ऊपर से ओढ़ी नहीं जा सकती.
इस क्रांति में जिसे नष्ट होना है, उसकी जड़ें भी यहीं है और जो कुछ बनना है, उसका
आधार भी यहीं है. अन्याय और न्याय इसी धरती के हिस्से हैं. इसलिए कोई भी आवाज यही
से उठनी सार्थक है. समकालीन हिंदी कविता ने इसे अच्छी तरह अनुभव किया है. कवि
स्पष्ट शब्दों में कहता है – अन्याय को हम न्याय बना करके रहेंगे/ धरती से
जोर-जुल्म मिटा करके रहेंगे/ लेकर मशाल निकले हैं अपने पड़ाव से/ आवाज आ रही है
सुनो गाँव-गाँव से.[45]
कवि
ने राष्ट्र-निर्माण को यथार्थ आधार देने के लिए उन शक्तियों की ओर से सावधान रहने
को कहा है जो देश की वर्तमान अव्यवस्था के लिए उत्तरदायी हैं. देश की इस अव्यवस्था
के लिए अवसरवाद, स्वार्थ परायणता और संकीर्णता जिम्मेदार हैं. इन्हीं के कारण यह
देश वर्गों में बंट गया है तथा अस्थिरताके कगार पर पहुँच गया है.[46] देश के भविष्य के लिए इनसे लड़ना
पहली आवश्यकता है. यदि इन्हें समाप्त नहेने किया जाएगा, तो हमेशा संकट ही बना
रहेगा. इसी कारण कविता ने इस पूरी प्रवृत्ति को ही समाप्त करने की बात कही है – लोगों!
भविष्य में जीने वाले लोगों!!/ सोच लो./ अगर उसकी ताकत अभी भी कामयाब हो जाती है/
तो आगे भी ऐसा ही होता रहेगा./ बहते हुए बाजार की अंधेरी किसी गली में/ घसीटकर/
क्या हम इस बदमाश को खत्म/ नहीं कर सकते हैं?[47]
कविता
इस अवसर को खोना नहीं चाहती. यदि इस समय भूल हो गई, तो परिस्थिति हमेशा के लिए हाथ
से निकल जाएगी. आंतरिक शक्ति संगठन के साथ हमारे देश पर बाहरी शक्तियों का जो दबाव
पड़ रहा है, वह इतना जटिल और गंभीर है कि राष्ट्र विरोधी शक्तियाँ क्षणमात्र में ही
सब कुछ नष्ट कर सकती हैं. विश्व युद्ध का नया वातावरण और स्वातंत्र्योत्तर युग का मूल्यह्रास
राक्षसी रूप ग्रहण कर चुका है. ऐसे समय में भी सचेत न होना अपने राष्ट्र को अपने हाथ
से खो देना है. यह अपने भविष्य को अंधकारपूर्ण कर लेना भी है. इस काल की अनेक
कविताएँ ऐसी हैं जो मनुष्य के अंतर को झकझोरती है और उसे खतरों के प्रति सचेत करती
हैं – आज हम सो जाएँगे यदि तान कर चादर/ रोज ओढ़े जाएँगे फिर मन कर चादर.[48]
जो
इस समय राष्ट्र-निर्माण के लिए जूझेंगे, वही भविष्य में सम्मान पाएँगे. जो अपने केंद्र
से चिपके रहेंगे, वे कायर कहे जाएँगे. देश कयारों का नहीं होता, वीरों का होता है.
धरती को अपना कहने का अधिकार बहादुरों के पास संरक्षित होता है. कविता ने सारे देश
के लोगों को ऐसी प्रेरणा देकर राष्ट्राभिमुख बनाया है. कविता का यह प्रयास पूरे
देश की मानसिकता के निर्माण का प्रयास है. कविता का मूल कर्तव्य भी यही है. मानसिकता
का निर्माण किए बिना देश नहीं बनाया जा सकता क्योंकि उस दशा में राष्ट्रीय मूल्यों
के प्रति सार्थक प्रतिबद्धता पैदा नहीं की जा सकती. अतः कविता ने मूल प्रेरणा यह
दी है कि जो लोग अपना घर छोड़कर, अपने जीवन का मोह छोड़कर तथा अपने स्वार्थ छोड़कर
अंधेरों से लड़ेंगे, वे ही भविष्य के निर्माता कहलाएँगे और उन्हें ही आदरसूचक संबोधनों
से प्रतिष्ठित किया जाएगा – जो घरों को छोड़कर अब अंधेरों से लड़ेंगे/ बे बनेंगे
बाहुबलि, महावीर होंगे एक दिन.[49]
त्याग
और बलिदान जैसे परंपरागत मूल्य राष्ट्र-निर्माण की पहली सीढ़ी हैं. मनुष्य जिस देश
में रहता है वह उसका अंश होता है और देश के लिए प्रत्येक प्रकार के कष्ट उठाना
उसका कर्तव्य बनता है.[50] त्याग, तपस्या और श्रेष्ठ चरित्र
से व्यक्ति अपने देश को महान बनाता है. यदि व्यक्ति में ये गुण नहीं हैं, तो
भौगोलिक और भौतिक उपलब्धियाँ देश नहीं बना पातीं. कविता इस मान्यता की स्थापना करती
है कि कोई भी देश नागरिकों के चरित्र बल और शस्त्र बल के बिना जीवित नहीं रह सकता.
शस्त्र बल आतंरिक शक्ति तथा सीमाओं की रक्षा का भार वाहन करता है और चरित्र बल
राष्ट्रीय संस्कृति को अभिवृद्ध करता है. राष्ट्र निर्माण के लिए इन दोनों का होना
महत्वपूर्ण है – कोई भी देश/ पनप नहीं सकता/ मात्र -/ बाग-बगीचों और फव्वारों से/ अथवा/
राजनीति के खोखले नारों से./ देश पनपता है/ त्याग से/ आचार से/ विचार से/ और सुरक्षा
हेतु राखी कटार से.[51]
इन
सब तत्वों से महत्वपूर्ण हगे राष्ट्र-निर्माण का उत्साह. उत्साह ही वह तत्व है जो
प्रत्येक व्यक्ति को कर्म में लीन करता है. उठास पाकर जो व्यक्ति जहाँ है वहीं
अपना कर्तव्य पूर्ण करने में जुट पाता है. इसीसे राष्ट्र मजबूत होता है. यही यह
कहना भी आवश्यक है कि उत्साह इस भावना को भे जन्म देता है कि सैनिक, किसान, मजदूर,
लेखक, चित्रकार आदि सभी अपना-अपना राष्ट्रीय दायित्वपूर्ण निष्ठा और समर्पित भावना
के साथ निभाएँ ताकि किसी भी क्षेत्र में राष्ट्र का विकास बाधित न हो. सच्ची राष्ट्रीय
चेतना के अंतर्गत सैनिक का गर्जन और किसान का फसल गीत समान महत्वपूर्ण है. राष्ट्र
के लिए मजदूर भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना वैज्ञानिक. समान महत्व का यह बोध
कविता की नई राष्ट्रीय चेतना का प्राण है, जिसमें कृषक अत्यंत गर्व के साथ कहता है
– हरे खेत खलिहान/ सदा रस भरी जवानी/ पुजारी धरती माँ के -/ हम कृषक भाई कहलाते/
माटी को शीश चढ़ाते/ मुस्कराते हँसते गाते/ धरती पर धान उगाते.[52]
कविता
की रुचि का यह परिवर्तन राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ कविता का भी नया मूल्य है जो स्वतंत्रता-काल
के प्रारंभिक समय में अंकुरित होकर समकालीन हिंदी कविता में पुष्पित हुआ है. कविता
से राष्ट्र को नए रूप से जोसने का यह प्रयास स्वतंत्र भारत की कविता की महत्वपूर्ण
विशेषता है. इससे कविता की राष्ट्रीय चेतना रूढ़ चिंतन से मुक्ति की ओर बढ़ी है. अब
कविता में व्यक्ति की यह भावना साफ-साफ अभिव्यक्त होने लगी है कि नई चेतना आ रही
है और स्वदेश-भक्ति की नई लहर आ रही है. कवि यह कामना करता है कि व्यक्ति राष्ट्र
के संदेश को सुने[53]
और इतिहास के नए निर्माण में जुट जाए. यह नया निर्माण नफरत की दीवारों का विनाश
करके संपन्न होगा, देश का वातावारण ऐसा बनेगा जिसमें नई सभ्यता का सूरज चमकेगा,
उल्लास महकेगा, प्रेम का संदेश प्रत्येक व्यक्ति के मन में गूँजेगा और नई संस्कृति
नए गौरव के साथ फले फूलेगी.[54]
समकालीन
हिंदी कविता की राष्ट्रीय चेतना का एक महत्वपूर्ण बिंदु है – संघर्ष की मुद्रा. निर्माण
के लिए जिस उत्साह की आवश्यकता होती है, उसकी सुरक्षा के लिए उससे भी अधिक संघर्ष
धर्मी तेवर अनिवार्य होता है. स्वतंत्रता संघर्ष में जन-आंदोलनों में प्रचलित गीतों
में यह तेवर दिखाई देता था, जिससे राष्ट्र-भक्तों को संघर्ष की प्रेरणा मिलती थी. स्वतंत्रता
के बाद यह तेवर बदल गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि कविता में नए मूल्यों की वापसी के
साथ संघर्ष मुद्रा भी पुनर्प्रतिष्ठित हुईं. निश्चय ही ऐसा होने के ठोस ऐतिहासिक कारण
हैं. उनमें सबसे ज्वलंत यह है कि इस देश की संस्कृति को उन लोगों के हाथों नष्ट
होते हुए नहीं देखा जा सकता जो येन-केन- प्रकारेण राष्ट्र के भाग्य निर्णायक बन
बैठे हैं. यदि यह भूल हो गई तो राष्ट्रभक्त राष्ट्र को सँवारते रहेंगे और दूसरे लोग
अपने हित में उसे नष्ट करते रहेंगे. कविता इस देश के साथ ऐसा नहीं होने देना
चाहती. वह उस राष्ट्र रूपी वृक्ष को नहीं कटने देगी, जिसे इस देश की जनता ने बड़े परिश्रम
और संकल्प से बड़ा किया है – मरेंगे और मारेंगे मगर कटने नहीं देंगे/ कि बिरवा देश
का हमने बड़े मन से लगाया है.[55]
इस
प्रकार राष्ट्र-निर्माण के तीन महत्वपूर्ण पक्ष समीक्ष्य काल की कविता में
विद्यमान है – (1) निर्माण के मार्ग में आने वाली विरोधी शक्तियों का निषेध, (2)
निर्माण की संकल्पना, नए राष्ट्र के आधार तत्व तथा राष्ट्र के निर्माण में विभिन्न
वर्गों की भागीदारी तथा (3) नव-निर्माण का सुरक्षा का संकल्प. तीनों ही पक्षों को
व्यक्त करने वाली कविताएँ विपुल मात्रा में उपलब्ध हैं. साथ ही, यह भी शुभ का
लक्षण है कि छोटे-छोटे नगरों में निवास करने वाले कवियों का एक ऐसा बड़ा वर्ग तैयार
हुआ है, जो राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पित रचनाओं को पूर्ण मनोयोग से सामने ला
रहा है. छोटी-छोटी व्यक्तिगत और संस्थागत पत्रिकाओं में ऐसी रचनाएँ विपुल मात्रा
में देखी जा सकती है.
अंधराष्ट्रभक्ति
का विरोध
अंधराष्ट्रभक्ति
अविवेक और आवेश पर आधारित होती है. यह व्यक्ति के मन में राष्ट्र के प्रति उन्माद
की स्थिति का वह प्रेम है जो प्रायः निराशाजन्य या युद्ध की परिस्थितियों में पैदा
होता है. इसमें व्यक्ति अपने वर्तमान से पलायन करते हुए देखा जाता है और अपने
पलायन को छिपाने के लिए वह अविश्वसनीय प्राचीन गौरव से चिपका रहता है. अंध
राष्ट्र-भक्ति की यह विशेषता होती है कि ऊपर से देखने पर वह राष्ट्र के प्रति असीम
प्रेम को प्रतिबिंबित करती है, किंतु वह प्रेम निष्क्रिय होता है. वह या तो युद्ध काल
में जन्म लेता है या गुलामी के दिनों में उमड़ता है. सामान्य रूप से इसे ही
राष्ट्रीय चेतना भी समझ लिया जाता है, जबकि मौलिक रूप से यह राष्ट्रीय चेतना से बहुत दूर
होता है. इसके परिणामस्वरूप घृणा और युद्ध होते हैं. इसीलिए रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने
इसे पशु-धर्म घोषित करते हुए कहा है कि “युद्ध और राष्ट्रीय दोनों के दोनों रजनीति
है. जब एक देश किसी दूसरे देश पर अधिकार जमाता है, तब गुलाम देश के लोगों में शासक
देश के विरुद्ध घृणा का ज्वर उमड़ता है. घृणा के इसी ज्वार में राष्ट्रीयता उत्पन्न
होती है. राष्ट्रीयता लगभग पशु-धर्म है.”[56]
यहाँ
‘राष्ट्रीयता’ शब्द का प्रयोग अंधराष्ट्रीयता के संदर्भ में किया गया है. वह पशु-धर्म
की जननी भी होती है. स्वस्थ राष्ट्रीयता इससे कलंकित होती है. वह शांति और युद्ध
दोनों कालों में पनपती है, किंतु कभी भी युद्ध का समर्थन नहीं करती. हां, जब
राष्ट्र की संप्रभुता को खतरा पैदा हो जाता है, तब युद्ध को अनिवार्य बुराई के रूप
में स्वीकार करके उसे हथियारों का समर्थन करना पड़ता है. यहीं स्वस्थ राष्ट्रीयता
और अंध राष्ट्र भक्ति के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खिंच जाती है.
अंधराष्ट्रभक्ति
राष्ट्रीय विकास के लिए घातक है क्योंकि यही व्यक्ति को उसके भविष्य और वर्तमान से
पूर्णतः काटकर अतीतजीवी बनाती है. राष्ट्र के बीते हुए समय के विषय में अतिशयोक्तिपूर्ण
कल्पनाएँ करना इसकी पहली पहचान होती है. स्त्तरोत्तर कविता ऐसी अंध राष्ट्र भक्ति को
स्वीकार नहीं करती. देश ने अतीत जीवी होने का जो परिणाम भोगा है, उसे कविता ने
पहचाना है, इसलिए जनकवि नागार्जुन अपनी एक कविता में कहते हैं – सारी दुनिया को हम
ढोल पीट-पीट कर बतलाते हैं/ हमारे पूर्वज महान थे, वरेण्य थे हमारे पूर्वज/ वे
नहाते थे दूध की नदियों में/ उनका युग हमारे इतिहास का स्वर्ण युग था.../ दुनिया हमसे
पूछतीं है,/ तो अब तुम भीख माँगते हो?/ क्यों तुमने कोटि-कोटि जनों को अछूत बना रखा
है?[57]
अंधराष्ट्रभक्ति
एक प्रकार की सांप्रदायिकता ही है क्योंकि जिस प्रकार सांप्रदायिकता सीमित वर्गीय
हितों पर आधारित होती है, उसी प्रकार अंधराष्ट्रभक्ति भी सीमित स्वार्थों पर
आधारित होती है. कविता ऐसी भावना को बढ़ावा नहीं देना चाहती. वह तो उस राष्ट्रीयता
का समर्थन करती है, जिसका आधार सहयोग एकता, कर्तव्य-परायणता तथा अनुशासनप्रियता जैसे
तत्व होते हैं.[58]
जो लोग मात्र विरोध पर आधारित राष्ट्र प्रेम के हामी होते हैं, कवि उनका विरोध
करता है और उनके प्रेम को जन्मांध राष्ट्र प्रेम कहकर संबोधित करता है.[59] कवि ने इस सीमा तक आकर विराम
नहीं ले लिया है, बल्कि वह अंधराष्ट्र भक्ति के पीछे छिपे हुए स्वार्थ को भी देखता
है. इतिहास इस बात का साक्षी है कि अंधराष्ट्र भक्त कभी भी राष्ट्र के वर्तमान
संकट को परिस्थितियों के यथार्थ विश्लेषण के आधार पर हल नहीं करते, बल्कि कुछ अवैज्ञानिक
ढंग से गढ़े हुए आदर्शों के प्रकाश में उसे देखते हैं और उसकी भयावहता को बढ़ाते
हैं. इसके पीछे उनका उद्देश्य मुख्यतः अपने अंधविश्वासों को स्थापित करना होता है.
एक प्रकार से राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर वे अपनी सुरक्षा के उपाय खोजते हैं,
उनका राष्ट्र प्रेम उसी समय अधिक जोर मारता है जब उनके अपने स्वार्थ पूरे नहीं
होते. कविता ने ऐसे पाखंडपूर्ण राष्ट्र प्रेम की निंदा की है. उसने व्यंग्य पूर्वक
स्पष्ट कहा है – रोना और भूख के लिए/ निरा पागल पन है/ देश प्रेम मेरे लिए/ अपनी
सुरक्षा का/ सर्वोत्तम साधन है.[60]
युग
पुरुष गांधी की मृत्यु मुख्य रूप से अंधराष्ट्रभक्ति का ही घिनौना रूप थी. पूरे
के पूरे देश को सीमित स्वरूप वाले रूढ़ आदर्श के साँचे में ढालने की अविवेकपूर्ण
इच्छा ही उसके पीछे थी. अंधराष्ट्र भक्ति का इससे घिनौना उदहारण शायद ही किसी इतिहास
में मिले. समीक्ष्य काल की कविता में इसके रहस्य को खोला गया है.[61] जो व्यक्ति सिर्फ अपने
व्यक्तिगत विश्वास के पीछे पूरे देश को बाँधना चाहता है और किसी भी दशा में ईमानदार
आदमी नहीं बनना चाहता, उसकी उपयोगिता शून्य है. वह देश के लिए कोई महत्व नहीं
रखता, इसलिए उसे किसी प्रकार भी प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए. विशेष रूप से
आधुनिक युग में जब विश्व युद्ध और विज्ञापन ने सभी परंपरागत रूढ़ियों को खंडित कर दिया
है, तो फिर अंध राष्ट्र भक्ति का समर्थन ही क्यों किया जाए? उसे तो राष्ट्र के हित
में सबके पहले तिलांजलि दे देनी चाहिए. समकालीन हिंदी कविता ने अपने दायित्व का
निर्वाह करते हुए अंध राष्ट्र भक्ति को निरस्त किया है. उसने इसे रूढ़ि मानते हुए
उस पूरी मानसिकता को ही अस्वीकृत कर दिया है जिसमें दुराग्रह पूर्ण अंध राष्ट्र भक्ति
पनपती है. कविता का तर्क यह है कि अंध राष्ट्रीयता वाला व्यक्ति संकल्प और परिश्रम
से भागता है तथा ईमानदार नहीं होते, जबकि इन बातों का सबसे अधिक नाटक करता है.
इसीलिए ऐसा व्यक्ति अंततः संकट का वाहक है और जब देश की तख्तों की आवश्यकता हो तो पेड़ों
की जगह ऐसे आदमियों को कटवा दिया जाए.[62]
समीक्ष्यकाल
की कविता अंधराष्ट्रभक्ति के स्थान पर विवेकपूर्ण सृजनधर्मी राष्ट्रीयता के स्वरूप
की व्याख्या करती है. व्यक्ति की राष्ट्रीय चेतना की मुख्य शर्त यह है कि व्यक्ति पहले
अपने देश के यथार्थ से जुड़े, उसका विश्लेषण करे और समस्याओं के प्रति सही
दृष्टिकोण अपनाए. अपनी जमीन से कटकर या मिट्टी की उपेक्षा करके कभी भी राष्ट्र
भक्त नहीं हुआ जा सकता.[63] राष्ट्र भक्त होने का लक्षण
है – देश के दुःख में दुखी होना और उसके विकास में प्रसन्नता अनुभव करना. इतना अही
नहीं, दुःख को सुख में बदलने के लिए प्रयास करना. इसके लिए विवेकपूर्ण अभिव्यक्ति अनिवार्य
है. कविता ऐसे राष्ट्रीय चेतना संपन्न व्यक्ति की तलाश करती है, जो वही कहे और करे
जिसे राष्ट्र के लिए उपयुक्त समझे, राष्ट्र के हृदय से अपनी संवेदनाएँ जोड़े और समय
आने पर अपना सब कुछ राष्ट्र के लिए समर्पित कर दे – हाँ देश के दुःख से दुखी रहता हूँ/
उसी के प्रति/ उसी को समर्पित रहता हूँ/ काव्य में अभिव्यक्ति करता हूँ/ देश के
हित में जिसे उपयुक्त समझता हूँ/ देश में अच्छा होते देखकर प्रसन्न होता हूँ/ बुरा
होते देखकर अवसन्न होता हूँ.[64]
कविता
ने अपनी इस खोज में दो तरह के लोग पाए हैं. एक वे जो अवतार हैं और आकाश से उअतर
रहे हैं, दूसरे वे जो चुपचाप खड़े हैं नमस्कार की मुद्रा में स्पंदनहीन! दोनों ही
तरफ के लोग सही राष्ट्र भक्त नहीं हैं क्योंकि दोनों अपने लिए व्यस्त हैं.[65] समकालीन हिंदी कविता ने पहली
बार ऐसे लोगों के चरित्र को आपात अभिव्यक्ति दी है जिससे स्वस्थ राष्ट्रीय मूल्यों
के विकास में सहायता मिली है. इन दशकों की कविता में इतिहास की भव्यता के साथ-साथ
उसके सामंती विलास के रहस्य को तथा जौहर करती हुई महान नारियों के साथ-साथ बच्चों
के सिर आंसुओं से भिगोती हुई विधाओं के युवा-विलाप के मूल्य को भी पहचाना है. इस
पहचान के आधार पर उसने अतीत के प्रति भीवर्तमानोन्मुखी दृष्टि का विकास किया है –
इतिहास में इतना खून है, इतनी घृणा/ कि यह पृथ्वी सौ-सौ बार डूब जाए!!/ प्रिय
नागरिक!/ इतिहास के बहाने एक कवि आपसे/ आपके वर्तमान की बात करना चाहता है.[66]
कविता
का आह्वान राष्ट्र-निर्माण के लिए है. कवि ने पारस्परिक सौहार्द और पारस्परिक प्रेम
के गीतों को प्राथमिकता दी है. इसका कारण वे परिस्थितियाँ और नीतियाँ हैं, जिनका साक्षात्कार
समीक्ष्यकाल की राजनैतिक घटनाओं में हुआ है. इस काल में इतिहास ने एकता और समन्वय
की आवश्यकता का प्रतिपादन जितने बल के साथ किया, उतना स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास
में पहले कभी नहीं हुआ था. सराष्ट्र की अखंडता को बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाना आवश्यक
भी था. कविता ने इतिहास की इस आवश्यकता को पूरी निष्ठा के साथ शब्दों में बाँधकर
प्रस्तुत कर दिया है. उसने प्रेम और समन्वय का संदेश दिया है, ताकि संकट की तेज
आँधियों से राष्ट्रोन्नति के दीपक को ख़तरा न पैदा हो जाए – तुह्मारे गीत हम गाएँ,
हमारे गीत तुम गाओ./ न दो अपमान की भाषा, करो कुछ प्यार की बातें./ जगत में गीत बन
जाएँ, हमारे प्यार की रातें./ बुझें दीपक, मिटें हम तुम, न ऐसी आँधियाँ लाओ./
बुलाते श्वास हैं तुमको, चले आओ, चले आओ.[67]
1970
के बाद की हिंदी कविता ने राष्ट्रीय चेतना के जिन विभिन्न पक्षों को हमारे सामने
रखा है, उनसे विकास मार्ग पर बढ़ता हुआ प्रगतिशील राष्ट्र सामने आता है. इस काल की
राष्ट्रीय चेतना के विषय में कहा जा सकता है कि –
- राष्ट्रीय चेतना वह मूल्य दृष्टि है जो विवेक, सृजन और संकल्प को जन्म देती है, जिससे राष्ट्र की अस्मिता का निर्माण होता है.
- राष्ट्रीय चेतना केवल एक भाव मात्र नहीं है, बल्कि वह इतिहास से भविष्य तक की सांस्कृतिक यात्रा के सजग अनुभव का नाम है. यह अनुभव तीनों कालों की संपूर्णता में व्याप्त है, इसे अलग-अलग काल-खंडों में विभाजित नहीं किए जा सकता.
- गौरवबोध राष्ट्रीय चेतना का अभिन्न अंग है, किंतु तभी जब वह मनुष्य को राष्ट्राभिमुख होने की प्रेरणा दे और उसकी संकल्प-संवेदना को जगाए रखे.
- निषेध और स्वीकार राष्ट्रीय चेतना के दो तटबंध हैं. निषेध उनका जो राष्ट्र की नींव को कमजोर करते हैं और स्वीकार उनका जो राष्ट्र की नींव के पत्थर बनते हैं. यह सत्य विचार, तकनीक और देश के नागरिकों पर समान रूप से लागू होता है.
- संकीर्ण राष्ट्रवाद स्वस्थ राष्ट्रीय चेतना के अंतर्गत नहीं आता. वह उसे बाधित ही करता है क्योंकि उससे व्यक्ति में अहम्मन्यता, शत्रुता, विद्वेष और अकर्मण्यता का समावेश होता है.
- राष्ट्रीय चेतना किसी भी दशा में व्यक्ति को अंतरराष्ट्रीय चेतना से नहीं काटती, बल्कि सही रूप में जोड़ती है. व्यक्ति जितना ही राष्ट्रीय चेतना संपन्न होगा, उतना ही दूसरे राष्ट्रों के एजनता को प्रेम करेगा और उनकी संप्रभुता का सम्मान करेगा ताकि बदले में वे भी ऐसा ही करें. इस तरह राष्ट्रीय चेतना के भीतर से होकर ही अंतरराष्ट्रीय चेतना तक पहुँचा सकता है.
पिछले
अनुभवों से सीख लेकर कविता ने नई प्रगतिशील राष्ट्रीय चेतना को संगठित किया है. अब
कुछ सीमित विश्वासों का नामा देश नहीं रह गया है और न भौतिक बल के समर्थन में ही देश
बस्ता है. अब तो देश वहाँ है, जहाँ प्रेम है और जहाँ संवेदनापूर्ण अनुबह्व हैं –
ग्राम, नगर या कुछ लोगों का नाम नहीं होता है देश/ संसद, सड़कों, आयोगों का नाम
नहीं होता है देश./ देश नहीं होता है केवल सीमाओं के घिरा मकान/ देश नहीं होता है
कोई सजी हुई ऊंची दूकान/ देश नहीं क्लब, जिसमें बैठे करते रहे सदा हम मौज/ देश
नहीं केवल बंदूकें, देश नहीं होता है फ़ौज/ जहाँ प्रेम के दीपक जलते, वही हुआ करता
है देश./ जहाँ इरादे नहीं बदलते, वही हुआ करता है देश.[68] समकालीन कविता की यह राष्ट्रीय
चेतना अपने में विलक्षण एवं नवीन है. इसमें राष्ट्रीय जागरण लाने की पूरी क्षमताएँ
विद्यमान हैं.
[1] किसी निश्चित
क्षेत्र में रहने वाले लोग जिनकी एक भाषा, एक से रीति-रिवाज तथा एक ही विचारधारा
होती है. (नेशन) किसी एक शासन में रहने वाले सब लोगों का समूह. – रामचंद्र वर्मा,
मानक
हिंदी कोश, पृ. 505
[2] भूमि अर्थात
भौगोलिक एकता : जन अर्थात जनगण की राजनैतिक एकता एवं जन-संस्कृति अर्थात
सांस्कृतिक एकता. तीनों के समुच्चय का नाम राष्ट्र है. – धा. सुधींद्र,
हिंदी
कविता में युगांतर, पृ. 43
[3] राष्ट्र का
सम्मिलित अर्थ है – पृथ्वी, उस पर बसने वाली जनता और जन-संस्कृति. जब ये तीनों स्वर एक सूत्र में
मिलते हैं, तभी राष्ट्र का जन्म होता है. – डॉ. विभुराम मिश्र, राष्ट्रीयता और
हिंदी नाटक, पृ. 4
[4] यह [राष्ट्रीयता]
एक सामूहिक भाव है, एक प्रकार की साहचर्य की भावना है तथा पारस्परिक सहानुभूति है, जो स्वदेश विशेष से
संबंधित रहती है. – प्रो. होलकूम्ब, फाउंडेशन ऑफ मार्डन कामनवेल्थ, पृ. 133
[6] राष्ट्रीयता का
अर्थ तो यह है कि हम अपनी आत्मा की, सामान तथा ईमानदारी की, यथाशक्ति रक्षा
करें और समस्याओं को सुलझाने में अपने व्यक्तिगत ढंग को बनाए रखें. – डॉ. राधाकृष्णन,
आधुनिक
निबंध, पृ. 150
[7] देश अथवा राष्ट्र
को अपनी जन्मभूमि मानकर अपने को उसका एक अंग मानना और उसके लिए कुछ न कुछ करने को
तत्पर होना ही राष्ट्रीयता है. – नरेश चंद चतुर्वेदी एवं डॉ. उपेंद्र,
राष्ट्रीय
कविताएँ (भूमिका), पृ. 17
[8] प्रत्येक कविता के
पीछे एक कवि होना चाहिए और प्रत्येक कवि के पीछे एक जाति, एक परिवेश, एक राष्ट्र और एक
संस्कृति का होना आवश्यक है. – डॉ. बेजनाथ सिंहल, नई कविता : मूल्य
मीमांसा, पृ. 290
[10] पूर्वारणि मरकत की
धरणी/ नभ, नीलम की उत्तर अरणी/ ऋतसित हीरकाग्नी तुम उद्गत/ यज्ञ युप से बाहु उठाए. –
डॉ.
रमाकांत पाठक, पूर्णिमा, पृ. 28
[12] आज फिर विश्वास
जागे/ देश का इतिहास जागे/ हाँ वही इतिहास जिसमें/ भगतसिंह सुभाष जागे. – ताराचंद पाल ‘बेकल’, मुक्तांगन, पृ. 43
[13] मरना तो निश्चित है
सबको, मरने से डरो/ हँसते-हँसते जियो साथियो, हँसते-हँसते मारो. –
रघुवीर
शरण ‘मित्र’, परिक्रमा, पृ. 50
[15] शक्ति के उफान/ देश
के जवान! जब बढ़ें तो शत्रु की धज्जियाँ उड़ें/ जब चढ़ें तो मौत की बरोनियाँ चढ़ें/ गरजते
रहें सदा जो सिंह के समान
[16] पृष्ठ ये मेरे/
जहाँ अकबर, शिवाजी और/ गुरु गोबिंद की रक्ताभ धाराएँ/ कई युग दूर बहकर/ प्रेम का
असंगम बनाती हैं. – रामावतार त्यागी, गुलाब और बबूल वन, पृ. 93
[19] आज दिवस गणतंत्र
देश की/ आशाओं का सुमन सजीला/ आओ लें सौगंध लगन की/ नई ज्योति से इसे सँवारे. –
ताराचंद
पाल ‘बेकल’, मुक्तांगन, पृ. 35
[20] दुर्बल राष्ट्र चरित्र
मनोबल हीन-क्षीण/ संघर्ष प्रेणता हुए एक के तीन/ तीन./ बत्तीस वर्ष प्रमाण जरायम
रूप धरे/ निर्भय होकर बना रहा काले कबरे/ पौरुष बौना हुआ, कमल खिल मुरझाए/ आचरणों
की भ्रष्ट नदी में उपनाए/ साहस कुंठा ग्रस्त अस्त्र आजादी का/ देख रहा है देश
दृश्य बरबादी का. – ‘शील’, कर्म्वाची शब्द हैं ये, पृ. 15.
[21] और में भी शायद इतना
ही जानता हूँ कि/ मेरे देश में सब कुछ होता है – गर्मी, बरसात, सर्दी – मौसम बदलते
हैं.../ मेरे देश में सब कुछ आता है/ बाढ़, भूकंप, महामारी और शरणार्थी/ बाहर से
अनाज भी/ फिर भी हर बार कोई चीज हमारे हाथ से निकल जाती है/ और हम तारीख बढ़ाते
हुए/ अपने होसलों की बड़ाई करते हैं. – विजय, निषेध, पृ. 59.
[22] खोज रहे हैं जगह/ बेंत
घुमाते कुछ लोग कहते हैं/ सड़क पर मत करना सुबह/ सड़क के कोठे पर/ गणतंत्र बाबू का
चल रहा है प्यार/ सड़क के कोठे पर/ बड़े-बड़े पंजे ले रहे हैं डकार/ सड़क के कोठे से
निकलने को/ सनेही बरसों से/ खोज रहा है द्वार. – रवींद्र भारती, जड़ों की आखिरी पकड़
तक, पृ. 30.
[23] अज्ञेय, नया
प्रतीक, जून 1977, पृ. 25-26
[24] इस दश के लोग राजा
चुन लेने के बाद ‘सरकार बनाने के बाद’ एक किस्म की बेफिक्री अपना लेते हैं.
राजतिलक, ‘शपथ ग्रहण’ के बाद भीड़ अपने गाँवों को लौट जाती हैं – तुम अपना काम करो,
हम अपना. – नवनीत गर्ग, कंचन कावेरी, नवंबर 1981, पृ. 8
[25] आम आदमी हो गए अनुशासित/
सिर पर लिए/ संसद और संविधान/ एक ही चाल और चरित्र से. – केदारनाथ अग्रवाल, कहें
केदार खरी-खरी, पृ. 189.
[26] नागार्जुन, खिचड़ी
विप्लव देखा हमने, पृ. 27
[27] आपात स्थति के बाद
भारतीय राजनैतिक रंगमंच पर जो अचानक परिवर्तन आया, उससे हमारे समाज में उत्पन्न
हुआ नैतिक भ्रष्टाचार सामने आ गया. – मुहम्मद यूनुस, एक कहानी मेरी भी, पृ. 270.
[28] लो, किस उत्तर के लिए/
अब तुम्हारी जिज्ञासा तक खत्म कर दी गई थी. – ऋतुराज, अबेकस, पृ. 38.
[29] हर बुर्ज पर बैठी
हुई दूती विनाश की/ तनने दो यूँ गुलेल अब, हर इक मचान की. – ऋ. दे. शर्मा, तेवरी, पृ.
103.
[30] कैसा अभी इन्कलाब
हो देता नहीं सुकून/ कुएँ से हम निकलकर खायी में जा पड़ें. – वेदप्रकाश अमिताभ, हिंदी
गजल -3, पृ. 12.
[31] राज्य के नाम राष्ट्र
को भुलाने के प्रयत्न किए जा आरहे हैं. लोग यह भूल जाते हैं कि राज्य की रचना
राष्ट्र की व्यवस्था करने के लिए की जाती है. – प्रो. राजेंद्र सिंह, पांचजन्य
(चिंतक अंक), 13 अप्रैल, 1986, पृ. 43.
[32] त्रिलोचन, गुलाब और
बुलबुल, पृ. 98.
[33] बिना रोटियाँ
व्यर्थ है, देश भक्ति का पाठ/ यों तो भूखे भजन भी, होता नहीं ‘तुषार’. – महावीर
तुषार, कुंदनशील (तेवरी अंक – 1), जुलाई 1982, पृ. 37.
[34] हरिया/ आज रात के
लिए/ तेरे पास क्या बचा है?/ हरिया/ क्या आज तुझे भूख नहीं/ तू कुछ बोलता क्यों
नहीं/ हरिया? – शरद बिल्लौरे, तय तो टीयही हुआ था, पृ. 64.
[35] जगदीश सुधाकर,
कुंदनशील, अप्रैल 1984, पृ. 9.
[36] खूँटी पर टंगे हुए
कुर्ते को मत निहार/ बेमतलब मत सोच/ चल. अपना काम कर/ फटी हुई बाँह से/ देश की
गरीबी का/ का मतलब. – धूमिल, कल सुनना मुझे, पृ. 64.
[37] जनता के मन में जो
जंगल है/ बिना पक्षियों का/ उसमें कुछ ही देर बाद/ चीख की एक लहर फैलने वाली है. –
लीलाधर जगूड़ी, रात अब भी मौजूद है, पृ. 85.
[38] कि देश में कुछ
लोग/ पेट से ही पागल होकर आ रहे हैं/ लेकिन ये जब फायर करेंगे/ तो यह तय है कि इस
बार कौए नहीं मरेंगे. – लीलाधर जगूड़ी, बची हुई पृथ्वी, पृ. 114.
[39] जगदीश सुधाकर,
निषेध, पृ. 21.
[40] धूमिल, कल सुनना
मुझे, पृ. 29.
[41] जी हाँ, हम धोखेबाज
हैं/ जी हाँ, हम ठग हैं ... झुट्ठे हैं/ न अहिंसा में हमारा विश्वास है/ न हिंसा
में हमारा विश्वास है/ मन, वचन, कर्म... हमारा कुछ भी स्वच्छ नहीं है/ हम किसी की
भी ‘जय’ बोल सकते हैं/ हम किसी को भी धोखे में दाल सकते हैं. – नागार्जुन, खिचड़ी
विप्लव देखा हमने, पृ. 108.
[42] केदारनाथ अग्रवाल, बोले
बोल अबोल, पृ. 38.
[43] देवेंद्र कुमार
‘देव’, सुकवि विनोद, फरवरी-मार्च 1983, पृ. 11.
[44] तुमने भारत को पोस्टरों
में देखा है/ एक साँवली औरत/ घने जूड़े में/ बड़ा सा फूल खोंस रही है/ एक देसी कमल
पोखर से बच्चे के एतारह/ उझक रहा है/ एक आदमी गाँव को बोझ लिए मच्कता जा रहा है/
वहाँ कभी/ तुमने भारत देखा है? – विजेंद्र, ये आकृतियाँ तुम्हारी, पृ. 44.
[45] सर्वेश्वर दयाल
सक्सेना, कोई मेरे साथ चले, पृ. 112.
[46] अवसरवाद और स्वार्थ
परायणता ने सिद्धांतों को मात दी. बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक समुदायों में उपस्थित
दुष्प्रवृत्तियों तथा संकीर्णता के साथ लगातार समझौता करने से और उनके सामने घुटने
टेकने से मुल्क अस्थिरता तथा विघटन के कगार पर आ पहुँचा है. – मधुलिमये, नवभारत
टाइम्स, 11 जुलाई, 1986, पृ. 4.
[47] ऋतुराज, अबेकस, पृ.
44.
[48] देवराज, तेवरी, पृ.
55.
[49] वृ. पा. शौरमी,
संवाद (तेवरी विशेषांक), पृ. 9.
[50] प्रत्येक व्यक्ति
राष्ट्र का एक अंश है और उस राष्ट्र की सेवा के लिए उसे धनधान्य से समृद्ध बनाने
के लिए, उसके प्रत्येक नागरिक को सुखी और संपन्न बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को
सब प्रकार के त्याग और कष्ट को स्वीकार करना चाहिए. – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी,
हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, पृ. 257.
[51] जगदीश चंद्र ‘जीत’,
सर्वप्रिय, अगस्त 82, पृ. 26.
[52] सरला भटनागर,
नौजवान देश के, पृ. 88.
[53] हों सफल प्रत्येक पल/
राष्ट्र कार्य में अटल/ चेतना नवीन हो/ हर कोई प्रवीण हो/ वक्ष तान-तान कर/ वायु
के समान स्वर/ जय कहें स्वदेश की/ देश के संदेश की. – ताराचंद पाल ‘बेकल’, मुक्ताकाश,
पृ. 11.
[54] एक दुनिया हो नई इंसान
की तहजीब की/ एक दुनिया हो नई ईमान की उल्लास की/ एक दुनिया हो मुहब्बत के नए माहौल
की/ हो झलक जिसमें नए निर्माण के इतिहास को. – ताराचंद पाल ‘बेकल’, मुक्तांगन, पृ.
87.
[55] देवरा, तेवरी, पृ.
56.
[56] रामधारी सिंह
‘दिनकर;’, शुद्ध कविता की खोज, पृ. 215.
[57] नागार्जुन,
खिचड़ी विप्लव देखह हमने, पृ. 70-71.
[58] राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता
में मौलिक अंतर है. सांप्रदायिकता का जन्म वेभिन्य, विरोध तथा संघर्ष की स्थितियों
में होता है, पर राष्ट्रीयता जन-समुदाय के सहयोग, एकता अनुशासनप्रियता जैसी
भावनाओं से विकसित हुई है. – डॉ. विभुराम मिश्र, राष्ट्रीयता और हिंदी नाटक, पृ.
15.
[59] जन्मांध हो गया है/
हमारा राष्ट्र प्रेम/ अव्यवस्था की रेत में/ छोड़ दिया गया है/ झुलसने के लिए. – विनीता
निर्झर, ये तारे, पृ. 14.
[60] धूमिल, कल सुनना
मुझे, पृ. 14.
[61] राष्ट्रपिता को
प्यार के संदर्श में/ गोलियाँ दगते देखा/ झुलसते देखा/ राष्ट्रपतियों को. – वेद
प्रकाश ‘बटुक’, एक बूँद और, पृ. 39.
[62] देश को/ यदि तख्तों
की आवश्यकता हो/ तो उसे चाहिए/ कि वह/ पेड़ों की जगह/ ऐसे आदमियों को कटवाए. –
अब्दुल बिस्मिल्लाह, छोटे बुतों का बयान, पृ. 72.
[63] आप मिट्टी से जुड़ेंगे,
तब भला होगा/ आज यह सबको बताएँ, आप अपने हैं. – देवराज, तेवरी, पृ. 31.
[64] केदारनाथ अग्रवाल,
बोले बोल अबोल, पृ. 139.
[65] खाली मनीआर्डर लेकर
अवतार आकाश से उतर/ रहे हैं. उन्हें सेवाएँ/ चाहिए सारे देश की/ लोग हैं कि चुचाप
खड़े हैं. – सौमित्र मोहन, लुकमान अली तथा अन्य कविताएँ, पृ. 23.
[66] कुमार अंबुज, इतिहास
में, उन्नयन, अप्रैल 1991, पृ. 72.
[67] रघुवीर शरण
‘मित्र’, परिक्रमा, पृ. 79.
-
ऋषभदेव शर्मा
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
आवास : 208 A, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स
गणेश नगर, रामंतपुर
हैदराबाद – 500013
मोबाइल – 08121435033
ईमेल : rishabhadeosharma@yahoo.com
1 टिप्पणी:
आज इस आलेख को आखिरकार पढ़ ही लिया । जितनी प्रशंसा की जाए कम है। मन कर रहा है इसे अनुकरण के लिए संभाल लिया जाए । धन्यवाद!
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