भारतीय संस्कृति भारतवर्ष में बसे हुए विभिन्न मानव समुदायों की हजारों वर्षों की उस साधना का परिणाम है जो उन्होंने जीवन को उत्कृष्ट, उदात्त और श्रेष्ठ बनाने के लिए की. मनुष्य को उसके आदिम स्तर से उठाकर दिव्यता से भर देने के लिए जुड़े जो प्रयास अलग-अलग देशकाल में संपन्न हुए, यह संस्कृति उन्हीं का संपुंजन है. इसे यों भी कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति मनुष्य के भीतर छिपी हुई उसकी दिव्यता को प्रकाशित करने के प्रयत्नों का सामूहिक नाम है. यह इतनी बहुआयामी है कि इसका कोई एक लक्षण निर्धारित नहीं किया जा सकता.
इसमें संदेह नहीं कि भारतवर्ष मनुष्यों का ऐसा महासमुद्र है जिसमें अनेक मानव समूह समय-समय पर आकर घुलते-मिलते गए हैं और इसकी सामासिक संस्कृति का निर्माण करते चले हैं. कई बार लोग यह कहते सुने जाते हैं कि भारत में ‘कई’ संस्कृतियाँ हैं. हम कहना चाहते हैं कि भारतीय संस्कृति तो ‘एक’ ही है, लेकिन उसका सृजन करने वाली सांस्कृतिक धाराएँ अनेक हैं. महासमुद्र में मिल जाने पर अलग-अलग नदियों की धाराओं की पहचान खोजना पानी पर नाम लिखने जैसा व्यर्थ प्रयास कहा जाएगा. इन विभिन्न धाराओं में जो ‘अविरोधी भाव’ है वही भारतीयता है, भारतीय संस्कृति का केंद्रीय मूल्य है. विरोधों को खोज-खोज कर रेखांकित करना संस्कृति की सामासिकता को विघटित करने जैसा है. “जंगल में जिस प्रकार लता, वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परिक सम्मिलन से अविरोधी स्थिति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कृति के द्वारा एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं.” (अग्रवाल, वासुदेवशरण. ‘राष्ट्र का स्वरूप’. पृथिवी पुत्र). सामूहिकता, सहअस्तित्व अथवा अविरोधी भाव की व्याख्या करते हुए डॉ. देवेंद्रनाथ शर्मा ने सही कहा है कि, “रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, उत्सव-त्योहार सब एक-एक हैं. एक कतार में खडा करा दिए जाएँ तो कहना असंभव होगा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान, कौन ब्राह्मण, कौन क्षत्रिय, कौन वैश्य, कौन शूद्र. बिना बताए बगल के गाँव का भी कोई व्यक्ति इसका अंतर नहीं समझ सकता. भारत से जो लोग विदेश जाते हैं वे सब के सब भारतीय समझे जाते हैं. ... हमारी न तो ब्राह्मण संस्कृति है, न क्षत्रिय संस्कृति, न लुहार संस्कृति, न सुनार संस्कृति, न बढ़ई संस्कृति, न जुलाहा संस्कृति. ये तो विभिन्न पेशों के वर्ग हैं. संस्कृति सबकी एक ही है और वह है भारतीय संस्कृति. रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार, रस्म-रिवाज प्रायः एक ही हैं.” (शर्मा, देवेंद्रनाथ. भाषा, धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता. निबंधश्री. पृ. 75-76).
इस समस्त सांस्कृतिक वैभव को सुरक्षित रखने और संवर्द्धित रूप में अगली पीढ़ियों को सौंपने की जिम्मेदारी प्रत्येक ‘वर्तमान’ की होती है. कहना यह भी होगा कि आज इस समेकित विरासत के विभक्त होकर बिखर जाने का ख़तरा हमारे सामने है. इसीलिए सांस्कृतिक दृष्टि से हमारे समय की सबसे पहली चुनौती इस संस्कृति के स्वरूप को बनाए रखने की है. आवश्यकता इस बात की है कि “देश के विभिन्न अंगों को अलग-अलग लीकों में पड़कर विच्छिन्न हो जाने से बचाने के लिए प्रयत्न किया जाए. सदियों से साथ रहने वाले समाज क्रमशः एक-दूसरे से इतना परे हट जाएँ कि जब एक-दूसरे की ओर देखें तब उनकी आँखों में सख्य का आलोक न हो, जिज्ञासा अथवा कौतूहल का आकर्षण भी न हो, केवल घनीभूत अपरिचय और उपेक्षा एक पत्थर की दीवार की तरह बीच में खड़ी हो जाय – यह किसी भी देश के लिए स्वयं एक भारी ट्रेजेडी है.” (अज्ञेय, पुराण और संस्कृत, निबंधश्री, पृ. 68). इस ट्रेजेडी की रचना उन तत्वों ने की है जिनकी सत्ता देश को बिखेरे रखकर ही बनी रह पाती है. ऐसी शक्तियाँ हमारी उपलब्धियों को भी हमारी न्यूनताओं के रूप में देखाती-दिखाती हैं तथा हमारी परंपराओं, मिथकों, पुराणों और इतिहास की विकृत व्याख्याएँ करके देशवासियों को एक-दूसरे के विरुद्ध खडा कर देती है. संप्रदाय, भाषा, जाति, दल, नस्ल और विचारधारा पर आधारित इन कट्टरवादी और पृथकतावादी ताकतों को पहचाने और निष्प्रभावी बनाए बिना भारतीय संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन नहीं हो सकता.
वर्तमान में संपूर्ण विश्व इस भय से ग्रसित है कि जाने कब पृथ्वीवासियों को उपलब्ध सारे प्राकृतिक संसाधन समाप्त हो जाएँ. खतरा इतना बढ़ गया है कि शुद्ध हवा और पानी भी क्रमशः लुप्त होने के कगार पर हैं. भविष्य की चिंता करने वाले तो यहाँ तक सलाह देने लगे हैं कि मनुष्यों को शीघ्र ही पृथ्वी को छोड़कर कहीं और बसेरा ढूँढ़ लेना चाहिए. इसका अर्थ है कि उन्हें यह लगता है कि धरती पर मानव अस्तित्व विरोधी परिस्थितियाँ इतनी विकट हो चुकी हैं कि उनका कोई इलाज नहीं किया जा सकता. यह स्थिति मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को बिगाड़ने के कारण पैदा हुई है. पाश्चात्य देशों की संस्कृतियाँ यह मानती हैं कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी है और प्रकृति की रचना मनुष्य के लिए हुई है. यही कारण है कि इन संस्कृतियों की प्रेरणा से मनुष्य ने प्रकृति का क्रूरतापूर्वक दोहन और शोषण किया है तथा हवा और पानी तक का संकट खुद पैदा किया है. इस संकट का समाधान भारतीय संस्कृति के पास है. हमारी संस्कृति में प्रकृति को पूज्य माना गया है. मनुष्य उसका स्वामी नहीं, बल्कि वह मनुष्य की माता है. माता और संतान के संबंध का यह भाव यदि आज के मनुष्य के भीतर पैदा किया जा सके तो जितना कुछ बिगड़ा है उसे सुधारा जा सकता है. बात केवल इतनी ही नहीं है, बल्कि यह सारा का सारा जीवन मूल्य और नैतिकता की भिन्नता का मामला है.
भारतीय मूल्य दृष्टि जीवन के दो मुख्य लक्ष्य मानती है – अभ्युदय (prosperity) और निःश्रेयस (liberation). अभ्युदय से जुड़े हैं धर्म, अर्थ और काम; तथा निःश्रेयस से जुड़ा है मोक्ष. ये चारों जीवन मूल्य या पुरुषार्थ परस्पर निर्भर हैं. धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन करते हुए, अर्थ अर्थात भौतिक सुख साधन अर्जित करना और कामनाओं को इस प्रकार पूर्ण करना कि यह सारी प्रक्रिया धर्मसम्मत बनी रहे, अभ्युदय का नैतिक आधार है. इसके साथ ही भोग में त्याग की वृत्ति बने रहना लोक कल्याण की प्रेरणा देता है. ऐसा व्यक्ति या ऐसा समाज ही तृप्ति की एक सीमा पर पहुँचकर अपने समस्त अर्जित को लोक के लिए अर्पित कर सकता है. इस विसर्जन से ही मोक्ष की भूमिका तैयार होती है. भारतीय अर्थशास्त्र का सार यह है कि उत्पादन का मोक्ष उपभोग में नहीं, दान में है. इसी सूत्र को आज भी यह विश्व अपना ले तो बाजारवाद की तमाम विकृतियों पर विजय प्राप्त करके ‘कुटुंब भाव’ की प्रतिष्ठा की जा सकती है. अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति आज की दुनिया को साहचर्य, सामूहिकता और सहअस्तित्व को संभव बनाने वाला ‘कुटुंब भाव’ सौगात के रूप में दे सकती है. ‘कुटुंब भाव’ से हमारा अभिप्राय है, अपने हित से पहले विश्व परिवार के अन्य सदस्यों के हित की चिंता करना.
भारतीय संस्कृति की परंपरा बहुत पुरानी है. तरह-तरह के आक्रमणों के कारण इस परंपरा का काफी हिस्सा क्षत-विक्षत और नष्ट हो गया. फिर भी, लोक संपदा के रूप में जितना कुछ बचा है वह भी कम नहीं है. उसे सहेजने तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की कसौटी पर परखने और उसे नया जीवन देने की बड़ी आवश्यकता है. ज्योतिष, योग, चिकित्सा, ललित कला, कृषि, प्रबंधन, राजनय, शिक्षा, वास्तु, मौसम विज्ञान आदि अनेक जीवनोपयोगी ज्ञान क्षेत्रों में भारत ने जो कुछ अर्जित किया, वह शास्त्र और लोक दोनों में फैला पड़ा है. इसे समेटा और सहेजा न गया तो यह नष्ट हो सकता है. इसलिए आज के संस्कृतिकर्मी के समक्ष इस सारी संपदा को संरक्षित करने की बहुत बड़ी चुनौती उपस्थित है, क्योंकि इस संपदा से ही हमारे सांस्कृतिक वैभव का निर्माण होता है.
यहाँ भाषा और साहित्य की चर्चा करना भी आवश्यक है, क्योंकि किसी भी राष्ट्र की संस्कृति साहित्य और भाषा द्वारा ही संभालकर भावी पीढ़ियों को हस्तांतरित की जाती है. किसी एक साहित्यिक कृति का खो जाना या विकृत हो जाना संस्कृति के किसी पक्ष का खो जाना या विकृत हो जाना है. इसी प्रकार किसी एक मातृभाषा का लुप्त हो जाना भी उसके साथ जुड़ी हुई समूची सांस्कृतिक विरासत का लुप्त हो जाना है. नित नएपन की झोंक में यदि हम अपने साहित्य को विकृत करते हैं या भाषा के एक भी प्रतीक को मर जाने देते हैं, शब्दों को प्रचलन के बाहर चला जाने देते हैं, साहित्यिक धाराओं को लुप्त हो जाने देते हैं तो वस्तुतः हम संस्कृति की हत्या कर रहे होते हैं. अतः आवश्यकता इस बात की है कि हजारों मातृभाषाओं और जनभाषाओं से लेकर अनेक क्लासिक भाषाओं तक की विराट भाषिक और साहित्यिक संपत्ति को हम सँभालकर रखें, उसे समझें और समझाएँ तथा उसमें निहित उच्च मानवीय मूल्यों और उदात्त भारतीय संस्कृति को विश्व के समक्ष रखें.
अंततः, यह कहना भी जरूरी है कि हम अपने इस सांस्कृतिक वैभव को प्रदर्शित करके न तो किसी को चमत्कृत करना चाहते हैं, न आतंकित. हम यह भी नहीं कहना चाहते कि कोई अन्य संस्कृति या संस्कृतियाँ हमारी संस्कृति से कमतर हैं. हम तो बस अपने सांस्कृतिक गौरव को महसूस करना चाहते हैं – बराबरी के साथ. हमारे इस सांस्कृतिक गौरव का आधार हमारी वह जीवनदृष्टि है जो किसी के साथ भी मेरा-तेरा जैसा भेदभाव नहीं करती. सबमें एक जैसी दिव्यता के दर्शन करती है और संपूर्ण पृथ्वी को अपना परिवार तथा सारे ब्रह्मांड को अपना घर मानती है – ‘यत्र विश्वं भवत्येक नीडम्.’
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद/
आवास : 208 -ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
गणेश नगर, रामंतापुर,
हैदराबाद - 500013.
मोबाइल : 08121435033
व्हाट्सएप्प : 08074742572.