फ़ॉलोअर

सोमवार, 22 मई 2017

(संपादकीय) सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोहं रामवल्लभां

लंबी सांस्कृतिक परंपरा से प्राप्त किसी कथा को महाकाव्य का आधार बनाते समय रचनाकार के समक्ष अनेक विकल्प हो सकते हैं. तब तो और भी अधिक जब वह कथा लोक और शास्त्र में अनेकानेक भिन्न-भिन्न पाठों के रूप में विद्यमान रामकथा हो. बाबा तुलसी ने स्वविवेक के बल पर इन पाठों के समांतर ‘मानस’ का पाठ-निर्माण किया है. हो सकता है कि पूर्वपाठों में अति महत्वपूर्ण समझा गया कोई प्रसंग कवि को न रुचे, तो उसे उसकी चर्चा न करने की स्वतंत्रता है. यह स्वतंत्रता ही नई कृति को मौलिक बनाती है. इस संदर्भ में एक रोचक प्रसंग सीता के जन्म से संबंधित है. वाल्मीकि रामायण में स्वयं विदेह जनक ऋषि विश्वामित्र के समक्ष स्पष्ट करते हैं कि खेत में हल चलाने पर उन्हें शिशु सीता की प्राप्ति हुई. अन्य भी अनेक कथाएँ सीता-जन्म के संबंध में प्रचलित हैं. लेकिन तुलसी बाबा मानस में इस प्रसंग का कोई उल्लेख नहीं करते. यहाँ सीता भूमिपुत्री के रूप में नहीं, बल्कि जानकी और वैदेही अर्थात विदेहराज जनक की पुत्री के रूप में वर्णित हैं और उनकी माता का नाम सुनयना है. जन्म किन परिस्थितियों में हुआ, इसका उल्लेख न करते हुए कवि ने उनके जन्म के कारण को भगवन राम के अवतार के हेतु के साथ स्वाभाविक रूप से जोड़ दिया है. नारद के शाप को चरितार्थ करने और पृथ्वी का भार हरने के लिए महाविष्णु सपरिकर अवतार लेते हैं, तो महालक्ष्मी को तो अवतरित होना ही है! 

मानस के आरंभ में ही बाबा तुलसी ध्यान दिलाते हैं कि कोई सीता को लौकिक स्त्री समझकर उनके आचरण को वाद-विवाद-प्रवाद-अपवाद का विषय न बनाए क्योंकि वे तो स्वयं इस चराचर जगत का उद्भव, स्थिति और संहार करने वाली महाशक्ति हैं; वे समस्त क्लेशों को नष्ट करने वाली तथा सर्वमंगला हैं; वे संपूर्ण कारणों के कारणस्वरूप राम की प्रिया हैं. यही कारण है कि पुष्पवाटिका में कंकन-किंकिनि-नूपुर-धुनि सुनकर राम भले ही चकित हों कि संयम का अभ्यासी मन सीता की ओर क्यों खिंच रहा है, सीता के मन में ऐसा कोई प्रश्न नहीं उठता. वे तो राम का आना सुनते ही दर्शन को आतुर हो उठती हैं और मन में पुरातन-प्रीति जगने से रोमांचित हो उठती हैं. नारद का शाप उन्हें याद आ जाता है और अपना व राम का शाश्वत रिश्ता भी! 

ऐसी महाशक्ति सीता की तुलना बाबा स्वयं लक्ष्मी से भी करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि समुद्रतनया होने के कारण लक्ष्मी के तो विष और वारुणी जैसे खतरनाक भाई-बहन हैं. हाँ, अगर समुद्र छवि के अमृत से लबालब भरा हो और परमरूपमय कच्छपावतार पर धरकर रसराज शृंगार रूपी मंदराचल की मथानी को शोभा की रस्सी से लपेटकर कामदेव अपने दोनों हाथों से उसे मथे, तो सुख और सौंदर्य के जिस स्रोत का जन्म होगा , मेरी सीता मैया उससे कहीं अधिक सुखसौंदर्यमयी हैं; रूपवती हैं, गुणवती हैं, जगज्जननी हैं!

22 मई, 2017                                                                                                          - ऋषभ देव शर्मा 

कोई टिप्पणी नहीं: