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बुधवार, 31 मई 2017

संतोष अलेक्स के कविता संग्रह 'हमारे बीच का मौन' की भूमिका

भूमिका
हल्की बूँदाबाँदी में चहल कदमी 
संतोष अलेक्स (1971) बहुभाषाविद अनुवादक और रचनाकार हैं. ‘हमारे बीच का मौन’ यों तो उनका दूसरा कविता संग्रह है, लेकिन यह उनकी तीसवीं प्रकाशित पुस्तक है. स्वभाव से विनम्र और मृदुभाषी संतोष निरंतर अनुवाद और सृजन में लगे रहते हैं. उनकी रचनात्मक गतिविधियों को देख-सुनकर प्रसन्नता होती है. यह देखकर अच्छा लगता है कि वे अपने लेखन को निरंतर परिमार्जित और परिष्कृत करने के प्रति सचेष्ट रहते हैं. विविध भाषाभाषी कवियों और अनुवादकों से वे लगातार संवाद बनाए रखते हैं. एक कवि के रूप में वे दैनंदिन साधारण जीवन की सहज सच्चाइयों के कवि हैं. साधारण जीवन का यथार्थ (स्लाइस ऑफ लाइफ) उनकी कविताओं का प्राण है.
संतोष अलेक्स की कविताओं से गुजरते हुए यह तो बहुत बार लगता है कि असंगत यथार्थ उन्हें विचलित करता है, लेकिन इस यथार्थ की उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में वाक् स्फीति और आक्रामकता नहीं है. वे चौंकाती तो हैं; लेकिन बहुत हौले से. जैसे आपको कोई थपथपाकर जगा रहा हो. यह चौंक शैली के स्तर पर तब घटित होती है जब कवि संभावित रीति का अतिक्रमण करता है. विपथन का यह सौंदर्य इस संग्रह की छोटी कविताओं की रेखांकित करने योग्य विशेषता है. वाक् स्फीति और वक्तव्य की अतिशयता से ये कविताएँ बच सकी हैं क्योंकि कवि अपने को सर्वज्ञ नहीं मानता और अपने पाठक की सहृदयता तथा समझदारी पर विश्वास रखता है. जब कोई रचनाकार खुद को अन्यों से विशिष्ट मान बैठता है और पाठकों की सहृदयता तथा समझदारी पर संदेह करने लगता है, तो वह सुधारक, नेता, उपदेशक और गुरु बनता चला जाता है, कवि नहीं रह जाता. इस अर्थ में संतोष खरे कवि हैं. वे पाठक को अंधा नहीं मानते, इसीलिए स्थितियों को केवल खोलकर उसके सामने रख देते हैं. यही कारण है कि उनकी काफी कविताएँ खुले अंत वाली कविताएँ हैं जो पाठक को निजी पाठ रचने की स्वतंत्रता देती हैं. ये कविताएँ स्वीकार की कविताएँ हैं; शिकायत से परे. इसीलिए इन्हें पढ़ना हल्की बूँदाबाँदी में चहलकदमी करने जैसा है.
साधारण स्थितियों की इन सतोगुणी कविताओं में कुछ स्थलों पर प्रेम और दांपत्य जीवन के कई सलोने चित्र ध्यान आकर्षित करते हैं. पति और पत्नी के बीच यदि गहरी आपसी समझ हो तो असहमतियों के बावजूद परिवार कलह से बचा रह सकता है. अगर कभी दोनों के बीच अबोला भी ठन जाए, तो एक-दूसरे के प्रति विश्वास इस संबंध को कटु नहीं होने देता. बस जरूरी है यह अहसास कि हमारे बीच का यह मौन स्थायी नहीं है और गुस्सा भी असली नहीं – “हमारे बीच का मौन/ बहुत खूबसूरत था/ तुम्हारा चुप होना/ महज खामोशी नहीं थी/ यह शायद नकली ठहराव था./ तुम्हें लगा कि मैं चिढ़ जाऊँगा/ तुम मेरी सबसे बड़ी सौगात हो/ बिल्कुल जीवन की तरह/ जैसे थोड़ा नमक/ थोड़ा पानी.” (हमारे बीच का मौन). ऐसी स्थिति में कभी अगर इतवार को किए जाने वाले कामों की लंबी लिस्ट के बावजूद पति शनिवार रात को देर तक पिक्चर देखे और इतवार को दोपहर चढ़े जागे तथा मासूमियत के साथ इसका सारा दोष वीडियो वाले पर थोप दे, तो पत्नी नाराज नहीं होती – “वह जोर जोर से हँस पड़ी/ मैं भी हँस पड़ा/ इस तरह बीता एक और इतवार.” (इतवार). दांपत्य शृंखला की तीनों कविताएँ भी इसी मिजाज की हैं. एक में ‘वे कुछ दिन कितने सुंदर थे’ वाला भाव है तो दूसरी में काम पर जाने वाले दंपति की यह विवशता व्यक्त हुई है कि वे शाम को खाने पर साथ नहीं बैठ सकते. इस कारण माँ का हृदय कथरी-सा बिछता है और बाबूजी रात भर जागते हैं. तीसरी कविता में दांपत्य कलह के बावजूद यह कसक व्यंजित हुई है कि कल तक जो हवा, मेघ और आसमान सुंदर और साझे थे, अब उनके हिस्से हो गए हैं और कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा. लेकिन यह कोई शिकायत नहीं है; न आरोप, न आक्षेप, न व्यंग्य. बस, एक स्थिति है जिसके बदलने की आख्याता को प्रतीक्षा है और आशा भी – “बादल के पीछे सूरज छिपता है/ रोशनी नहीं/ उम्मीद है पुनः/ तालमेल बिठाया जा सकता है.” (दांपत्य - 3).

संयुक्त परिवार को विघटित हुए लंबा समय बीत गया. शहरीकरण और मशीनीकरण के दौर को पार करके भारतीय सभ्यता कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल और रोबोटिक्स के युग में आ गई है. इसके बावजूद हमारे गाँव और उनकी कुटुंब संस्कृति हमें बार-बार आवाज देती है. संतोष अलेक्स को भी यह आवाज सुनाई देती है. शहर के तुमुल कोलाहल में अपनी ओर बुलाती गाँव की गुहार! लेकिन कवि अतीतजीवी नहीं है. उसे मालूम है कि बीते हुए कल में अब नहीं लौटा जा सकता. इसीलिए संबंधों की उस ऊष्मा को वह अपनी कविताओं में पकड़ रखना चाहता है जो गाँव में थी और शहर में खोती जा रही है. बदली जीवन शैली में पिता गाँव में भी अकेले हैं और शहर में भी. पुत्र का उनके पास लौट आना अव्यावहारिक है, पर कवि लक्षित करता है कि गाँव में पड़ोसी सहज भाव से जिस तरह काम आ जाते हैं, शहर में उसी तरह सेवासुश्रूषा की व्यवस्था की जा सकती है. एकाकीपन का दंश तो दोनों जगह एक-सा है.

इस संग्रह की कई कविताएँ व्यक्तियों और स्थानों के चित्रों के रूप में हैं. संवेदना के रंगों से रँगे हुए ये चित्र बाह्य जगत और अंतर्जगत को जोड़ने वाली सर्जनात्मक कल्पना के सुंदर उदहारण हैं. स्थान देवता, समुद्र, मुंबई, दिल्ली, कश्मीर, पहलगाँव, एंडाडा, कन्याकुमारी और इम्फाल से संबंधित कविताएँ जहाँ कवि की स्थान चेतना से उद्भूत हैं, वहीं मनुष्यों की गतिविधियों और उनके जीवनमर्म के प्रति आत्मीयता को भुट्टा बेचती औरत, मछुआरे, कामवाली और उनको जाते देखना जैसी कविताओं में देखा जा सकता है.

संतोष अलेक्स की संवेदना को समझने के लिए उनकी बच्चों पर केंद्रित कविताएँ भी बड़े काम की हैं. ये बच्चे जहाँ एक ओर शीला नगर में लोक जीवन के पूरे यथार्थ के साथ उपस्थित हैं, वहीं अपंग बच्चे के सपनों की अपनी दुनिया है. कवि को इस बात का मलाल है कि आज के बच्चे मोबाइल की दुनिया में कैद हो गए हैं और उन सब रोमांचकारी अनुभवों से वंचित हैं जिनसे कल के बच्चे की दुनिया बनती थी – बेर तोड़कर खाना, कागज़ की नाव बनाना, अध्यापक से नजर चुराकर गोटी खेलना और गोला खाते-खाते यूनिफार्म गीली करना.    
   
अंत में, इतना ही कि संतोष अलेक्स की ये कविताएँ मनुष्य और उसके परिवेश के संबंधों और उनके बदलावों तथा संभावनाओं की कविताएँ हैं. यह भी कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं ये कस्बाई कवि मानस की सहज अभिव्यक्तियाँ हैं. यह कस्बाई कवि मानस किसी महानगर में जाना तभी तक पसंद करता है जब तक वहाँ कोई अपना हो, दोस्त हो. वरना – “मित्र के अभाव में/ दिल्ली पहुँचना/ घर पहुँचना है/ माँ की अनुपस्थिति में,/ दुश्मनों द्वारा तबाह खेतों में पहुँचना है/ पालने में उपेक्षित बच्चे के पास पहुँचना है./ हो सकता है कि/ मैं दुबारा कभी दिल्ली न जाऊँ.” (दिल्ली).

मुझे विश्वास है कि केरल के समुद्र की ओर से आ रही कविता की इस बौछार से हिंदी जगत उत्फुल्ल होगा और इस कवि पर अपने प्रेम की वर्षा करेगा.

30 मई, 2017                                                                                         - ऋषभ देव शर्मा   
                             [पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद]
आवास : 208 -ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
             गणेश नगर, रामंतापुर,
             हैदराबाद - 500013.
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सोमवार, 22 मई 2017

(संपादकीय) सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोहं रामवल्लभां

लंबी सांस्कृतिक परंपरा से प्राप्त किसी कथा को महाकाव्य का आधार बनाते समय रचनाकार के समक्ष अनेक विकल्प हो सकते हैं. तब तो और भी अधिक जब वह कथा लोक और शास्त्र में अनेकानेक भिन्न-भिन्न पाठों के रूप में विद्यमान रामकथा हो. बाबा तुलसी ने स्वविवेक के बल पर इन पाठों के समांतर ‘मानस’ का पाठ-निर्माण किया है. हो सकता है कि पूर्वपाठों में अति महत्वपूर्ण समझा गया कोई प्रसंग कवि को न रुचे, तो उसे उसकी चर्चा न करने की स्वतंत्रता है. यह स्वतंत्रता ही नई कृति को मौलिक बनाती है. इस संदर्भ में एक रोचक प्रसंग सीता के जन्म से संबंधित है. वाल्मीकि रामायण में स्वयं विदेह जनक ऋषि विश्वामित्र के समक्ष स्पष्ट करते हैं कि खेत में हल चलाने पर उन्हें शिशु सीता की प्राप्ति हुई. अन्य भी अनेक कथाएँ सीता-जन्म के संबंध में प्रचलित हैं. लेकिन तुलसी बाबा मानस में इस प्रसंग का कोई उल्लेख नहीं करते. यहाँ सीता भूमिपुत्री के रूप में नहीं, बल्कि जानकी और वैदेही अर्थात विदेहराज जनक की पुत्री के रूप में वर्णित हैं और उनकी माता का नाम सुनयना है. जन्म किन परिस्थितियों में हुआ, इसका उल्लेख न करते हुए कवि ने उनके जन्म के कारण को भगवन राम के अवतार के हेतु के साथ स्वाभाविक रूप से जोड़ दिया है. नारद के शाप को चरितार्थ करने और पृथ्वी का भार हरने के लिए महाविष्णु सपरिकर अवतार लेते हैं, तो महालक्ष्मी को तो अवतरित होना ही है! 

मानस के आरंभ में ही बाबा तुलसी ध्यान दिलाते हैं कि कोई सीता को लौकिक स्त्री समझकर उनके आचरण को वाद-विवाद-प्रवाद-अपवाद का विषय न बनाए क्योंकि वे तो स्वयं इस चराचर जगत का उद्भव, स्थिति और संहार करने वाली महाशक्ति हैं; वे समस्त क्लेशों को नष्ट करने वाली तथा सर्वमंगला हैं; वे संपूर्ण कारणों के कारणस्वरूप राम की प्रिया हैं. यही कारण है कि पुष्पवाटिका में कंकन-किंकिनि-नूपुर-धुनि सुनकर राम भले ही चकित हों कि संयम का अभ्यासी मन सीता की ओर क्यों खिंच रहा है, सीता के मन में ऐसा कोई प्रश्न नहीं उठता. वे तो राम का आना सुनते ही दर्शन को आतुर हो उठती हैं और मन में पुरातन-प्रीति जगने से रोमांचित हो उठती हैं. नारद का शाप उन्हें याद आ जाता है और अपना व राम का शाश्वत रिश्ता भी! 

ऐसी महाशक्ति सीता की तुलना बाबा स्वयं लक्ष्मी से भी करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि समुद्रतनया होने के कारण लक्ष्मी के तो विष और वारुणी जैसे खतरनाक भाई-बहन हैं. हाँ, अगर समुद्र छवि के अमृत से लबालब भरा हो और परमरूपमय कच्छपावतार पर धरकर रसराज शृंगार रूपी मंदराचल की मथानी को शोभा की रस्सी से लपेटकर कामदेव अपने दोनों हाथों से उसे मथे, तो सुख और सौंदर्य के जिस स्रोत का जन्म होगा , मेरी सीता मैया उससे कहीं अधिक सुखसौंदर्यमयी हैं; रूपवती हैं, गुणवती हैं, जगज्जननी हैं!

22 मई, 2017                                                                                                          - ऋषभ देव शर्मा 

शनिवार, 20 मई 2017

(भूमिका) रामकिशोर उपाध्याय की काव्यकृति 'दीवार में आले'

भूमिका 


रामकिशोर उपाध्याय अपने इस कविता संग्रह ‘दीवार में आले’ के माध्यम से एक ऐसे सुपरिचित संवेदनशील कवि के रूप में अपनी पहचान को गहराते हुए सामने आते हैं जिसके निकट वैयक्तिक और निजी अनुभूतियाँ भी तभी सार्थक और व्याख्येय हैं जब वे किसी सामान्य और सामाजिक अनुभव के यथार्थ से जुड़कर व्यापक संदर्भ प्राप्त करती हैं. साधारण प्रतीत होने वाली दैनंदिन घटनाओं के माध्यम से सहृदय के मानस को झकझोरने और कचोटने के अद्भुत सामर्थ्य से संपन्न ये कविताएँ अपनी सादगी से भी पाठक को मुग्ध कर जाती हैं. सरोकार की यह व्यापकता और अभिव्यक्ति की यह व्यंजकता कवि रामकिशोर उपाध्याय ने लोक जीवन के सहज सामीप्य से र्जित की है. यह संग्रह उनकी लोकप्राण रचनाधर्मिता को बखूबी रेखांकित करता है. यही नई शती के कवियों के बीच उनकी निजी और मौलिक छवि का आधार है. 

इस संग्रह में प्रस्तुत कुल 52 कविताओं में से अधिकतर में कवि ने समकालीन भारतीय जनमानस की चिंताओं को लाग-लपेट के बिना अभिव्यक्ति प्रदान की है. धार्मिक, सांप्रदायिक , क्षेत्रीय और भाषायी आग्रहों के तुमुल कोलाहल में ये कविताएँ धर्म-संप्रदाय से परे हवा और नदी की तरह मनुष्य से मन की बात करती हैं. इनकी जीवनी शक्ति लोकजीवन के प्रति इनकी आसक्ति में निहित है जो संग्रह की शीर्षक कविता से भी संक्षेप में, किंतु भली भांति, व्यक्त हुई है. रचनाकार के स्मृतिलोक में विलुप्तप्राय लोक की स्मृतियाँ आज भी दर्ज हैं जिनके सहारे वह विडंबना और विवशता का ऐसा पाठ रचता है कि पाठक एक ख़ास तरह की कसक और चुभन महसूस करता है. यह अनुभूति तब और भी गहराती जब इसका संबंध पाठक की चेतना में पहले से विद्यमान किसी व्यापक लोकानुभूति, पौराणिक प्रसंग या मिथक से जुड़ जाता है. अभिव्यक्ति की यह तकनीक ही रामकिशोर उपाध्याय की कविताओं की व्यंजन शक्ति को बढाती है. यथा – 

भुरभुरी यादों की 
चिकनी दोमट मिट्टी से 
खुद ही दीपक बनाकर 
अपनी आँखों की ज्योति से....
अपनी निद्रा के घी से ...... 
हर रोज रात में आलों को प्रकाशित करता 
काश ! आज मेरे घर की दीवारों में आले होते .... | 

वस्तुतः कवि रामकिशोर उपाध्याय उन स्थलों पर सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करते हैं जहाँ वे कविता के चालू मुहावरे के पार जाकर देशजता और तद्भवता में अपनी काव्यभाषा की तलाश करते हैं. इस तलाश ने उन्हें लोक से नाभिनालबद्ध अनेक प्रभावी उपमान, रूपक,प्रतीक और बिंब प्रदान किए हैं. कुछ मिश्रित उदाहरण देखते हुए आइए इस कविता संग्रह के लोकधर्मी पाठ का विहंगावलोकन करते चलें : उबल-उबल कर आलू हो गया सारा जिस्म/ जब गर्म हवा छू गई उर्मियाँ तो सिंक गया ज़हन/ बैल की जोट/ गूँगी बिंदी/ पर इनकी आँखें चीखती हैं दर्द से, जब इनको निचोड़ा जाता है/ समय की कुक्षी में पल रहे भविष्य के बच्चे/ अवनि की बड़ी सी चादर हो, किसी पीर की दरगाह पर जैसे क्षितिज तक फैली/ कभी नंगे पाँव दौडती, गायों के खुरों से मिट्टी उड़ाती/ झील में पड़ी काई को कंकड़ से नहीं हटाया गया, कहीं बेवजह लहरों की नींद न टूट जाए / लाल लाल लावा, नीला नीला अंबर, दौडती रगें, नई चिकनी कोंपलें/ पानीदार नदी/ खुश हो पराग बिखेरता पुष्प/ आसमानी छतरी/ तितलियों के पंखों पर बैठकर आते शब्द/ अटरिया पर बैठा सावन/ और बूँदें ऐसे गिराते, जैसे किसी की खुश्क आँखों से टपकती हों यादें/ मन के सूखे तवे पर छू छू करके नाचते हे सूखे सावन/ जलते अलाव, टाट की बोरी के टुकड़े/ बरखा झमझमाकर गीत गा गई. इस तरह के तमाम प्रयोग इस कवि के सरोकार की व्यापकता के साथ ही अनुभूतियों की गहराई और अभिव्यक्ति की ताजगी का विश्वास दिलाते हैं और संकेत भी करते हैं कि कवि रामकिशोर उपाध्याय की अपनी ज़मीन यही है – इसी में उन्हें अपनी भावी रचनाओं की फसलें उगानी चाहिए.

रामकिशोर की कविताओं का एक और मार्मिक पाठ ग्रामीण जन की असुविधाग्रस्त जीवनी से रचा गया है. इस पाठ में एक ओर भारतीय लोकतंत्र की विफलता से उत्पन्न पीड़ा शामिल है तो दूसरी ओर परिवर्तन के प्रति अंतिम विश्वास रखने वाली वह जिजीविषा है जिसके बल पर इस देश का साधारण आदमी खुद को आत्महत्या से बचाता है. इस संग्रह में अनेक सथालों पर अलग–अलग प्रकार से कवि ने बाढ़ के संदर्भ जुटाए हैं. बाढ़ कहीं न कहीं कवि के भीतर भी है. इस अंतर्बाह्य बाढ़ के साथ पर्यावरण विमर्श से लेकर आदिवासी विमर्श तक के वे तमाम मुद्दे जुड़े हुए हैं जो प्रगति और विकास के नाम पर विनाश और विस्थापन की समस्याओं को उपजाकर लोक और प्रकृति को ही नष्ट नहीं कर रहे है, पृथ्वीग्रह और मनुष्यजाति के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं. ऐसे संदर्भ स्थानीयता का अतिक्रमण करके इन कविताओं को वैश्विक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं. इस पाठ में जन की यातना को कवि कभी प्रश्नों के माध्यम से व्यक्त करता है तो कभी कथात्मकता, संवाद और चित्रनिर्माण की तकनीकों का सहारा लेता है. लोकसमाज की सरलता और भद्रसमाज की धूर्तता को कवि समांतरता द्वारा उभारता है तो दरिद्रता और संपन्नता के द्वंद्व को विडंबना और विसंगति के सहारे व्यक्त करता है. परिवर्तन की आकांक्षा को सतत जिलाए रखने में इस यातना-पाठ का मर्म निहित है – 

अफ़सोस है कि मैं बकरी नही हूँ 
इस मुल्क की प्रजा हूँ 
अब देखना हैं कि यह बाड़ा 
मुझे कब तक रोक कर रखता है..
आखिर वो सुबह कभी तो आएगी ...... |

यहाँ यह भी कहना ज़रूरी लग रहा है कि रामकिशोर केवल लोकवेदना के ही गायक नहीं हैं, प्रेम और सौंदर्य के भी चितेरे हैं. उन्होंने प्रेम की पीर को भी समान शिद्दत से उकेरा है. उपमानों की एक माला देखते चलें- 

छोटे से वृक्ष की लंबी छाया हो 
ताल में खिला कँवल हो 
सूर्य की किरणों में दिखा चंद्रमा हो 
मोहक चांदनी में खिली तेज धूप हो 
साहित्यिक अभिव्यक्ति से परे 
लालित्य का अनुपम भंडार हो 
किसी विशेषण से अधिक विशेष 
अलभ्य सौदर्य को चिढाता शृंगार हो 
क्या फर्क पड़ता है ...............तुम क्या हो! 

बहुत कुछ है अभी कहने को. अभी तो बात शुरू ही की है मैंने. लेकिन,बाकी बातें फिर कभी विस्तार से.

... आज तो ‘दीवार में आले’ की अपनी पसंद की इस कविता के साथ आपसे विदा लूँगा कि- 

दर्द में बिलकुल न झुके
आस में तनकर खड़े
विश्वास में चुप-चुप दिखे
क्या तुम कभी पिता थे .................

*
भार से झुककर चले
धैर्य में डटकर खड़े
प्यार में पल- पल बहे
क्या तुम कभी माँ थे ........................

*
धूप में सीधे खड़े
साँझ को नीचे झुके
वर्षा में टप-टप झरे
तुम क्या कभी वटवृक्ष थे ....................

‘’दीवार में आले’’ के प्रकाशन पर कवि रामकिशोर उपाध्याय को समस्त शुभकामनाएँ! 

4 नवंबर, 2016                                                                                                            . – ऋषभ देव शर्मा
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद.
# 08074742572/ 08121435033.

शुक्रवार, 12 मई 2017

काणे भगत की स्त्री चेतना

काणे भगत जी का ओजपूर्ण प्रवचन चल रहा था - स्त्री मोह है, स्त्री माया है, स्त्री नरक का द्वार है।
अचानक चपला जी उठीं और झूमती-झामती जाकर काणे भगत जी की गोद में गिर पड़ीं।
काणे भगत जी का सुर बदल गया - स्त्री शक्ति है और शक्ति के बिना तो शिव भी अधूरे रहते हैं!

पहली पंक्ति में बैठा रिसर्चर तोताराम हक्का-बक्का देखता रह गया। [26/4/2017]