भूमिका
हल्की बूँदाबाँदी में चहल कदमी
संतोष अलेक्स (1971) बहुभाषाविद अनुवादक
और रचनाकार हैं. ‘हमारे बीच का मौन’ यों तो उनका दूसरा कविता संग्रह है, लेकिन यह
उनकी तीसवीं प्रकाशित पुस्तक है. स्वभाव से विनम्र और मृदुभाषी संतोष निरंतर अनुवाद
और सृजन में लगे रहते हैं. उनकी रचनात्मक गतिविधियों को देख-सुनकर प्रसन्नता होती
है. यह देखकर अच्छा लगता है कि वे अपने लेखन को निरंतर परिमार्जित और परिष्कृत
करने के प्रति सचेष्ट रहते हैं. विविध भाषाभाषी कवियों और अनुवादकों से वे लगातार
संवाद बनाए रखते हैं. एक कवि के रूप में वे दैनंदिन साधारण जीवन की सहज सच्चाइयों के
कवि हैं. साधारण जीवन का यथार्थ (स्लाइस ऑफ लाइफ) उनकी कविताओं का प्राण है.
संतोष अलेक्स की कविताओं से गुजरते हुए यह
तो बहुत बार लगता है कि असंगत यथार्थ उन्हें विचलित करता है, लेकिन इस यथार्थ की उनकी
काव्यात्मक अभिव्यक्ति में वाक् स्फीति और आक्रामकता नहीं है. वे चौंकाती तो हैं;
लेकिन बहुत हौले से. जैसे आपको कोई थपथपाकर जगा रहा हो. यह चौंक शैली के स्तर पर तब
घटित होती है जब कवि संभावित रीति का अतिक्रमण करता है. विपथन का यह सौंदर्य इस
संग्रह की छोटी कविताओं की रेखांकित करने योग्य विशेषता है. वाक् स्फीति और वक्तव्य
की अतिशयता से ये कविताएँ बच सकी हैं क्योंकि कवि अपने को सर्वज्ञ नहीं मानता और
अपने पाठक की सहृदयता तथा समझदारी पर विश्वास रखता है. जब कोई रचनाकार खुद को अन्यों
से विशिष्ट मान बैठता है और पाठकों की सहृदयता तथा समझदारी पर संदेह करने लगता है,
तो वह सुधारक, नेता, उपदेशक और गुरु बनता चला जाता है, कवि नहीं रह जाता. इस अर्थ
में संतोष खरे कवि हैं. वे पाठक को अंधा नहीं मानते, इसीलिए स्थितियों को केवल
खोलकर उसके सामने रख देते हैं. यही कारण है कि उनकी काफी कविताएँ खुले अंत वाली
कविताएँ हैं जो पाठक को निजी पाठ रचने की स्वतंत्रता देती हैं. ये कविताएँ स्वीकार
की कविताएँ हैं; शिकायत से परे. इसीलिए इन्हें पढ़ना हल्की बूँदाबाँदी में चहलकदमी
करने जैसा है.
साधारण
स्थितियों की इन सतोगुणी कविताओं में कुछ स्थलों पर प्रेम और दांपत्य जीवन के कई
सलोने चित्र ध्यान आकर्षित करते हैं. पति और पत्नी के बीच यदि गहरी आपसी समझ हो तो
असहमतियों के बावजूद परिवार कलह से बचा रह सकता है. अगर कभी दोनों के बीच अबोला भी
ठन जाए, तो एक-दूसरे के प्रति विश्वास इस संबंध को कटु नहीं होने देता. बस जरूरी
है यह अहसास कि हमारे बीच का यह मौन स्थायी नहीं है और गुस्सा भी असली नहीं –
“हमारे बीच का मौन/ बहुत खूबसूरत था/ तुम्हारा चुप होना/ महज खामोशी नहीं थी/ यह
शायद नकली ठहराव था./ तुम्हें लगा कि मैं चिढ़ जाऊँगा/ तुम मेरी सबसे बड़ी सौगात हो/
बिल्कुल जीवन की तरह/ जैसे थोड़ा नमक/ थोड़ा पानी.” (हमारे बीच का मौन). ऐसी स्थिति
में कभी अगर इतवार को किए जाने वाले कामों की लंबी लिस्ट के बावजूद पति शनिवार रात
को देर तक पिक्चर देखे और इतवार को दोपहर चढ़े जागे तथा मासूमियत के साथ इसका सारा
दोष वीडियो वाले पर थोप दे, तो पत्नी नाराज नहीं होती – “वह जोर जोर से हँस पड़ी/
मैं भी हँस पड़ा/ इस तरह बीता एक और इतवार.” (इतवार). दांपत्य शृंखला की तीनों
कविताएँ भी इसी मिजाज की हैं. एक में ‘वे कुछ दिन कितने सुंदर थे’ वाला भाव है तो
दूसरी में काम पर जाने वाले दंपति की यह विवशता व्यक्त हुई है कि वे शाम को खाने
पर साथ नहीं बैठ सकते. इस कारण माँ का हृदय कथरी-सा बिछता है और बाबूजी रात भर
जागते हैं. तीसरी कविता में दांपत्य कलह के बावजूद यह कसक व्यंजित हुई है कि कल तक
जो हवा, मेघ और आसमान सुंदर और साझे थे, अब उनके हिस्से हो गए हैं और कुछ भी पहले
जैसा नहीं रहा. लेकिन यह कोई शिकायत नहीं है; न आरोप, न आक्षेप, न व्यंग्य. बस, एक
स्थिति है जिसके बदलने की आख्याता को प्रतीक्षा है और आशा भी – “बादल के पीछे सूरज
छिपता है/ रोशनी नहीं/ उम्मीद है पुनः/ तालमेल बिठाया जा सकता है.” (दांपत्य - 3).
संयुक्त
परिवार को विघटित हुए लंबा समय बीत गया. शहरीकरण और मशीनीकरण के दौर को पार करके भारतीय
सभ्यता कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल और रोबोटिक्स के युग में आ गई है. इसके बावजूद हमारे
गाँव और उनकी कुटुंब संस्कृति हमें बार-बार आवाज देती है. संतोष अलेक्स को भी यह
आवाज सुनाई देती है. शहर के तुमुल कोलाहल में अपनी ओर बुलाती गाँव की गुहार! लेकिन
कवि अतीतजीवी नहीं है. उसे मालूम है कि बीते हुए कल में अब नहीं लौटा जा सकता. इसीलिए
संबंधों की उस ऊष्मा को वह अपनी कविताओं में पकड़ रखना चाहता है जो गाँव में थी और
शहर में खोती जा रही है. बदली जीवन शैली में पिता गाँव में भी अकेले हैं और शहर
में भी. पुत्र का उनके पास लौट आना अव्यावहारिक है, पर कवि लक्षित करता है कि गाँव
में पड़ोसी सहज भाव से जिस तरह काम आ जाते हैं, शहर में उसी तरह सेवासुश्रूषा की
व्यवस्था की जा सकती है. एकाकीपन का दंश तो दोनों जगह एक-सा है.
इस
संग्रह की कई कविताएँ व्यक्तियों और स्थानों के चित्रों के रूप में हैं. संवेदना
के रंगों से रँगे हुए ये चित्र बाह्य जगत और अंतर्जगत को जोड़ने वाली सर्जनात्मक
कल्पना के सुंदर उदहारण हैं. स्थान देवता, समुद्र, मुंबई, दिल्ली, कश्मीर,
पहलगाँव, एंडाडा, कन्याकुमारी और इम्फाल से संबंधित कविताएँ जहाँ कवि की स्थान
चेतना से उद्भूत हैं, वहीं मनुष्यों की गतिविधियों और उनके जीवनमर्म के प्रति आत्मीयता
को भुट्टा बेचती औरत, मछुआरे, कामवाली और उनको जाते देखना जैसी कविताओं में देखा
जा सकता है.
संतोष
अलेक्स की संवेदना को समझने के लिए उनकी बच्चों पर केंद्रित कविताएँ भी बड़े काम की
हैं. ये बच्चे जहाँ एक ओर शीला नगर में लोक जीवन के पूरे यथार्थ के साथ उपस्थित
हैं, वहीं अपंग बच्चे के सपनों की अपनी दुनिया है. कवि को इस बात का मलाल है कि आज
के बच्चे मोबाइल की दुनिया में कैद हो गए हैं और उन सब रोमांचकारी अनुभवों से
वंचित हैं जिनसे कल के बच्चे की दुनिया बनती थी – बेर तोड़कर खाना, कागज़ की नाव
बनाना, अध्यापक से नजर चुराकर गोटी खेलना और गोला खाते-खाते यूनिफार्म गीली करना.
अंत
में, इतना ही कि संतोष अलेक्स की ये कविताएँ मनुष्य और उसके परिवेश के संबंधों और
उनके बदलावों तथा संभावनाओं की कविताएँ हैं. यह भी कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं ये
कस्बाई कवि मानस की सहज अभिव्यक्तियाँ हैं. यह कस्बाई कवि मानस किसी महानगर में
जाना तभी तक पसंद करता है जब तक वहाँ कोई अपना हो, दोस्त हो. वरना – “मित्र के
अभाव में/ दिल्ली पहुँचना/ घर पहुँचना है/ माँ की अनुपस्थिति में,/ दुश्मनों द्वारा
तबाह खेतों में पहुँचना है/ पालने में उपेक्षित बच्चे के पास पहुँचना है./ हो सकता
है कि/ मैं दुबारा कभी दिल्ली न जाऊँ.” (दिल्ली).
मुझे
विश्वास है कि केरल के समुद्र की ओर से आ रही कविता की इस बौछार से हिंदी जगत उत्फुल्ल
होगा और इस कवि पर अपने प्रेम की वर्षा करेगा.
30 मई,
2017 -
ऋषभ देव शर्मा
[पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और
शोध संस्थान,
दक्षिण भारत
हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद]
आवास : 208 -ए,
सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
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रामंतापुर,
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