मिल जाएँ दो
पानियों जैसे
वैयक्तिकता
और निजी अस्मिता के चरम विस्फोट के इस दौर में जो सामाजिक संस्था सर्वाधिक विचलित
हुई दिखाई देती है, वह है विवाह व्यवस्था. भारतीय समाज की नींव माने जाने वाले
परिवार के हिलने से इस समाज-सभ्यता की पूरी संरचना काँपने लग गई है. विदेशी आर्थिक
चकाचौंध इस खतरे को और बढ़ा देती है. ऐसे में साहित्य की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह
लोक को मंगलकारी श्रेयस्कर मार्ग पर चने के लिए प्रेरित और प्रवृत्त करे. इस
उदात्त विषय को अभिव्यक्त करने के लिए ऐसे साहित्यकार की आवश्यकता है जो भारतीय
परिवार-संस्कृति के उच्च आदर्शों और जीवनमूल्यों से अनुप्रेरित और अनुप्राणित हो. समकालीन
तेलुगु साहित्य के अग्रणी हस्ताक्षर डॉ. मसन चेन्नप्पा ऐसे ही उदारमना कवि हैं.
प्रस्तुत
काव्य
‘शुकोपनिषद’ में डॉ. मसन चेन्नप्पा ने आस्ट्रेलिया की अपनी साहित्यिक
यात्रा के बहाने, भारतीय साहित्य की शुक-संवाद की काव्यरूढि का सहारा लेकर भारतीय
विवाह पद्धति की व्याख्या करके, वहाँ जाकर एक दूसरे से अलग रह रहे पति-पत्नी के मन
में परिवार के प्रति निष्ठा की पुनर्स्थापना की संक्षिप्त सी गाथा लिखी है. मूलतः
इतिवृत्तात्मक और उपदेशात्मक कथन में रोचकता की सिद्धि के लिए कवि ने यह मनोरंजक
फैंटेसी गढ़ी है कि आस्ट्रेलिया में कवि को ऐसा तेलुगुभाषी शुक-शुकी युगल मिल जाता
है जो अपने पालक दंपति के एक दूसरे से अलग हो जाने के कारण आश्यहीन हो गया है.
संयोगवश वह दंपति कवि से मिलने और उसका व्याख्यान सुनने वालों में शामिल है. बस यह
बोध होते ही कवि भारतीय परिवार व्यवस्था और विवाह पद्धति के प्रतीकों की व्याख्या
करके उन पति-पत्नी के अहं को पिघलाने में सफलता प्राप्त कर लेता है. वे दोनों पुनः
मिल जाते हैं और लोक कथाओं के दंपतियों की सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं.
इस
प्रकार, इस सुखांत कथा-काव्य में यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय दृष्टिकोण
के अनुसार विवाह अथवा स्त्री-पुरुष संबंध कोई बंधन, समझौता या अनुबंध नहीं है,
बल्कि एक ऐसा संस्कार है जिसके माध्यम से स्त्री और पुरुष आदिम दैहिक आवेगों का
उदात्तीकरण करके मानसिक, आत्मिक, सामाजिक
और नैतिक धरातलों पर परस्पर समर्पण द्वारा समरसता की प्राप्ति हेतु इस प्रकार एक
दूसरे से मिलते हैं जिस प्रकार भिन्न दिशाओं से आने वाली जलधाराएँ एक दूसरे में
विलीन हो जाती हैं. पारस्परिक सम्मान और परिवार के प्रति साझा दायित्व उन्हें सदा
जोड़कर रखता है. अहं और वर्चस्व इस व्यवस्था के ऐसे शत्रु हैं जो किसी भी
हँसते-खेलते परिवार को तिनका-तिनका बिखरा सकते हैं. अतः पति-पत्नी को सत्ता के
संघर्ष जैसी स्थिति से बचकर बराबरी, साझेदारी और जिम्मेदारी के बलपर विवाह और
परिवार की रक्षा करनी होती है. कहना न होगा कि इस औदात्य की कमी होते जाने के कारण
ही आज परिवार विखंडित और विघटित हो रहे हैं. यह कृति पाठकों को परिवार से जुड़े उदार मूल्यों को
अपनाने और अपने मानस को संस्कारित करने की सत्प्रेरणा दे सकेगी, ऐसी आशा की जानी
चाहिए.
तेलुगु
के इस संक्षिप्त कथा-काव्य को हिंदी जगत के सम्मुख प्रस्तुत करने का स्तुत्य कार्य
वरिष्ठ हिंदी-तेलुगु-हिंदी काव्यानुवादक डॉ. एम. रंगय्या ने अत्यंत निष्ठापूर्वक
किया है. यह कृति मूल कवि और अनुवादक दोनों के लिए यशस्कारी हो, इसी शुभेच्छा के
साथ ...
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ऋषभदेव शर्मा
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