चुप रहूँ ... या बोल दूँ / प्रवीण प्रणव/ गीता प्रकाशन, हैदराबाद/ 2017/ 149 रुपए/ पेपरबैक : 136 पृष्ठ |
भूमिका
आपने कहा है तो मान जाता हूँ
चलिए हामी में सर हिलाता हूँ
दरिया मिलता है यूँ तो समंदर से
मैं अश्कों को पानी में मिलाता हूँ ...
ज़रा मुश्किल तो है पर बच्चों को
सूखी रोटी ख़्वाबों संग खिलाता हूँ
बहुत खुश हैं सब कारखाने गिन के
खेत ये सरसों के थे, मैं गिनाता हूँ
प्रवीण प्रणव अपनी इस नई काव्यकृति ‘चुप रहूँ.. या बोल दूँ’ के माध्यम से हमारे समय की बहुत सी चिंताओं के साथ-साथ व्यक्ति-मन की गहराइयों की खोज-खबर लेकर आ रहे हैं. इस कृति में मुख्य रूप से उन्होंने अपनी ग़ज़लों को शामिल किया है. साथ ही कुछ गीत और नज़्में भी हैं. हालाँकि वे इन विधाओं के परंपरागत अनुशासन का पूरी तरह पालन करने का कोई दावा नहीं करते, फिर भी इसमें शक की गुंजाइश नहीं है कि विभिन्न कव्यविधाओं के शिल्प पर उनकी अच्छी पकड़ है, और अगर कहीं वे कुछ तोड़-फोड़ करते दिखाई देते हैं तो उसका कारण अनुशासनहीनता नहीं बल्कि कथ्य को शिल्प से अधिक महत्त्व देने की ज़िद है.
प्रवीण प्रणव के कथ्य का बड़ा हिस्सा उस द्वंद्व ने घेर रखा है जो बड़ी सीमा तक आज के भारतीय युवा मानस का द्वंद्व है – चुप रहूँ या बोल दूँ! हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब बहुत बार ऐसी इच्छा होती है कि सब कुछ बोल दिया जाए, चीख कर बोल दिया जाए, खुलेआम बोल दिया जाए; लेकिन उसी क्षण यह भी बोध होता है कि बोलने का कोई अर्थ नहीं रह गया है क्योंकि उसका कोई प्रभाव होने वाला नहीं. यह द्वंद्व वैयक्तिक संदर्भ में भी उतना ही सच है जितना सामाजिक संदर्भों में. प्रवीण प्रणव का यह द्वंद्व शायद हर रचनाकार का द्वंद्व हुआ करता है. कभी किसी महाकवि को यह शिकायत होती है कि मैं बाँहें फैला-फैला कर लोगों को आगाह किए जा रहा हूँ और लोग हैं कि सुनते ही नहीं. किसी अन्य कवि को यह विश्वास व्यक्त करना पड़ता है कि अनंत काल और असीम पृथ्वी पर कभी तो कहीं तो कोई मेरा समानधर्मा होगा और मेरी बात समझेगा. किसी और कवि को लगता है कि कविता का प्रभाव होने में पूरा जीवन निकल सकता है तो किसी अन्य को यह संतोष रहता है मैंने तो अपना संदेश दे दिया चाहे वह जहाँ तक पहुँचे. अभिप्राय यह है कि प्रवीण प्रणव अपने रचनाकर्म की सार्थकता और कृतार्थता तलाश रहे हैं. यह तलाश ही किसी रचनाकार को सक्रिय रचनाधर्मी बनाती है और वह निजता के कोनों-अंतरों में झाँककर; और जगत की विसंगतियों को उभारकर भी; ‘आज’ से बेहतर एक ‘कल’ की रचना करना चाहता है. कहना न होगा कि प्रवीण आज के अंधेरों से जूझकर कल के लिए किरणें खोज लाने की कोशिश करने वाले कवि हैं.
जूझ और खोज की मनोवृति के कारण कवि प्रवीण प्रणव में एक ख़ास तरह की प्रश्नाकुलता दीखती है. वे जब यह पूछते हैं कि मैं खामोशी ओढ़े रहूँ या सारे रहस्यों पर से परदे उठा दूँ, तो लोकतंत्र का नाटक कर रही तानाशाही व्यवस्थाओं के बीच अभिव्यक्ति के संकट को बहुत सहज ढंग से व्यक्त कर देते हैं. यह न समझा जाए कि कवि किसी असमंजस में है या उसे कर्तव्य-अकर्तव्य की पहचान नहीं. दरअसल उसके प्रश्न लाक्षणिक रूप में उत्तर भी हैं. कवि जब प्रश्न करता है कि बच्चों को राजा-रानी की कपोलकल्पनाएँ दूँ अथवा यह बताऊँ कि भविष्य किस कदर धुंधला है, तो हमें समझ जाना चाहिए कि वह कल्पना के ऊपर यथार्थ को तरजीह देने वाला कवि है. जनता सीधे जवाब माँगती है और राजनीति गोलमोल जवाबों को प्राथमिकता देती है, इस द्वंद्व से हमें कवि का व्यंग्य समझ लेना चाहिए कि वह जनता का पक्षकार है, सत्ता का चाटुकार नहीं. दहशत और मासूमियत के बीच वह शिशुसुलभ सरलता को संभव बनाने वाला रचनाकार बनना चाहता है – नन्हें बच्चे हैं सिहरे हुए, बेचैनी हवाओं में है घुली हुई / काश कहीं से मासूमियत लाके, फिजाओं में मैं घोल दूँ. यह कवि की इच्छा भी है, संकल्प भी और कृतार्थता भी. इस कविता संग्रह की प्रथम रचना में अभिव्यक्त यह शिव-संकल्प वस्तुतः संपूर्ण कृति में परिव्याप्त है – पाठक इसे स्वयं महसूस करेंगे.
कवि प्रवीण प्रणव राजनैतिक दुरभिसंधियों में घिरे जन-गण-मन की पीड़ा को अनेक प्रश्नों, उद्बोधनों, प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से रूपायित करते हैं. यद्यपि वे स्वयं सौंदर्य के चितेरे हैं, फिर भी उन्हें विश्वास है कि केवल सौंदर्य को देखना सचाई को आधा देखना है, पूरी सचाई को देखे बिना उस विद्रूपता का अंकन नहीं किया जा सकता जो किसी भी कलाकार के समक्ष चुनौती खड़ी किया करती है. यही कारण है कि कवि प्रवीण प्रणव बार-बार अँधेरे और मौत के इलाके में भी अपने पाठक को ले जाते है. इस इलाके में भूख, बेकारी और विनाश का ऐसा तांडव है कि साल भर की मेहनत के बावजूद कपास उगाने वाला किसान फाँसी की रस्सी तक के लिए तरस जाता है – अब मुट्ठी भर फसल हाथ में लिए सोचता है/ तन ढकने को कपड़ा तो बन न सकेगा इससे/ इतने में तो फाँसी की रस्सी भी न बनेगी/ एक और साल जीना पड़ेगा अब ठीक से मरने के लिए.
‘ग़मे दौराँ’ तक ही महदूद नहीं है प्रवीण प्रणव की कविता की दुनिया. ‘ग़मे जानाँ’ को भी उन्होंने शिद्दत्त से, और बखूबी, बयान किया है. मीलों चले थे साथ हम, अब तन्हाइयों का सफ़र है ये/ दर्द से रिश्ता तेरा-मेरा एक सरीखा लगता है/ वो मुझसे दूर रहता तो शायद बावफ़ा रहता/ शब भर तेरी आँखों में सहर दिखता रहा मुझको/ गाँव के घर ने मुझे बड़ी हसरतों से पाला था/ हमसफ़र है कि नहीं खुलके बता तो दे/ कभी सोचा न था कि इश्क में ये दिन भी आएगा/ खामोश रह जाने की सज़ा ही पाई है तूने चकोर/ चाँद ने किया है वादा लौट के फिर आने का/ हँसता हूँ कि आइना टूटा हुआ न लगे/ कुछ तो राबता रख मुझसे, मोहब्बत न सही कुछ और सही / मैं पढ़ लूँ आखिरी कलाम फिर तुम चले जाना – जैसी अभिव्यक्तियाँ कवि की गहन निजी अनुभूतियों का पता देती हैं.
‘चुप रहूँ.. या बोल दूँ’ के प्रकाशन पर मैं कवि प्रवीण प्रणव को हार्दिक बधाई देता हूँ और शुभकामना करता हूँ कि यह कृति उन्हें शुभ्र यश का भागी बनाए!
28.2.2017. - ऋषभदेव शर्मा
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