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- डॉ. सुपर्णा मुखर्जी, हैदराबाद
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`कथाकारों की दुनिया' [2017] डॉ. ऋषभदेव शर्मा [1957] की ओर से पाठकों को दिया गया एक और नायाब उपहार है. संपूर्ण पुस्तक 6 खंडों में विभक्त है. पहले दो खंडों में लेखक ने जहाँ हिंदी उपन्यासों और उपन्यासकारों की दुनिया की सैर कराई है, वहीं तीसरे और चौथे में वे अपने पाठक को कहानीकारों और लघुकथाकारों की दुनिया के कोनों-अंतरों से रूबरू कराते हैं. पाँचवाँ खंड तेलुगु तथा छठा खंड तमिल के कथाकारों की भोगी और सिरजी दुनिया से हमारा परिचय कराते हैं जो इस पुस्तक की प्रासंगिकता का विशिष्ट आयाम है. इस प्रकार, पहले 4 खंडों में हिंदी कथा साहित्य का तो परिशीलन-अनुशीलन किया ही गया है लेकिन अंतिम 2 खंडों में तेलुगु और तमिल कथाजगत का भी परिभ्रमण किया गया है. यही वह खास बात है जो इस पुस्तक को औरों की तुलना में खास बनाती है. हिंदी पाठक को तमिल के कहानी साहित्य के उद्भव और विकास के बारे में पढ़कर भारतीय साहित्य की मूलभूत चिंताओं का जैसा बोध इस पुस्तक का अंतिम आलेख द्वारा होता है, उससे हमारी साहित्यिक-आत्मा का विस्तार होता है. ऐसे प्रयास अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्येतिहास के संदर्भ में होने आवश्यक हैं.
प्रेमचंद का नाम किसने नहीं सुना है. प्रेमचंद का नाम लेते ही किसान जीवन की त्रासदी आँखों के सामने घूम जाती है, दरिद्र किसान की बेचारी पत्नी और अर्द्धनग्न बच्चों का चेहरा याद आता है. तो क्या केवल इसलिए प्रेमचंद का नाम अमर है? क्या इतना ही काफी है प्रेमचंद को प्रासंगिक मानने के लिये? निश्चय ही उत्तर है -`नहीं'. किसान जीवन के अलावा भी प्रेमचंद के पास कहने के लिये बहुत कुछ था. उन्होंने कहा भी है. लेखक हमें प्रेमचंद की दुनिया में विद्यमान स्त्री से मिलवाता है. प्रेमचंद की दुनिया में "नारी की सहिष्णुता का गुणगान किया गया है xxx जहाँ कहीं वे परंपरागत भारतीय नारी की पृथ्वीवादी इमेज से बाहर निकले हैं, वहाँ उन्होंने स्त्री द्वारा नीच पति की खुशामद न करने की दृढता भी प्रकट की है xxx प्रेमचंद की नारी दृष्टि को यदि एकसूत्र में बाँधना हो तो कहा जा सकता है कि प्रेमचंद की दुनिया में स्त्री न तो दासी है और न देवी, वियोगिनी है न प्रतियोगिनी; वह सबसे पहले सहचरी और माँ है."(शर्मा, ऋषभदेव. (2017). कथाकारों की दुनिया. भारत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन. पृ. 42).
`विवाह' संस्था भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अंतर्गत महत्वपूर्ण स्थान रखती है. बदलते परिवेश तथा प्राचीन परिवेश में भी `विवाह' को लेकर अनेक समस्याओं जैसे दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, बहुविवाह, विवाह विच्छेद आदि को देखा जा सकता है. लेकिन इन सब समस्याओं के बाद भी प्रेमचंद "विवाह को एक ऐसा समझौता और समर्पण मानते थे जिसके संपन्न हो जाने के बाद उससे मुक्त होना अनैतिक है." (वही. पृ. 40). लेखक के अनुसार ,"विवाह को वे (प्रेमचंद) समझौता अवश्य मानते हैं, परंतु यह भी कहते हैं कि पुरुष पर अवलंबित होने के कारण स्त्री को पराधीनता का दंश भोगना पड़ता है. `मंगलसूत्र' में संपत्ति पर कानूनी अधिकार न होने के कारण स्त्री की दुर्दशा का चित्रण किया गया है. इस उपन्यास की पुष्पा मुखर और प्रखर है. वह संपत्ति संबंधी गलत परंपरा पर चोट करते हुए कहती है-"अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूँ, तो तुम भी मेरे आश्रित हो. मैं तुम्हारे घर में जितना काम करती हूँ, उतना ही काम दूसरों के घर में करूँ तो अपना निर्वाह कर सकती हूँ या नहीं? बोलो. तब मैं जो कुछ कमाऊँगी वह मेरा होगा. यहाँ मैं चाहे प्राण भी दे दूँ पर मेरा किसी चीज़ पर अधिकार नहीं. तुम जब चाहो मुझे घर से निकाल सकते हो." (वही. पृ. 41).
"`कथाकारों की दुनिया' के लेखक की मान्यता है कि एक दुनिया कथाकार को मिलती है, जिस पर उसका कोई वश नहीं होता और एक दुनिया वह रचता है, जिस पर उसका शासन चलता है."(देवराज, दो शब्द. शर्मा, ऋषभदेव. (2017). कथाकारों की दुनिया. भारत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन. पृ.V). इसके अनुरूप कथाकारों के निजी परिवेश के साथ-साथ लेखक ने कथाकारों के द्वारा रचित दुनिया के कोने-कोने को खंगाला है. उदाहरण के लिए, यह पुस्तक हमें पात्रों के मनोविश्लेषण के बहाने जैनेंद्र जैसे कथाकार की दुनिया से भी भली भाँति परिचित कराती है.
विवाह जब भारतीय समाज का इतना महत्वपूर्ण अंग है फिर उसे लेकर इतनी समस्यओं को क्यों देखा जाता है? इस प्रश्न का उत्तर तेलुगु उपन्यासकार कानेटि कृष्णमूर्ति `मीनन' के तेलुगु उपन्यास `क्रतु' में मिलेगा. "इस उपन्यास में यह तथ्य भी उभरकर सामने आता है कि विज्ञान की दुनिया पर भावनाओं की दुनिया की नैतिकता लागू नहीं होती. परंतु जब स्त्री-पुरुष संबंधों से लेकर शिशु जन्म तक में विज्ञान का हस्तक्षेप होता है तो वैयक्तिक जीवन से लेकर सामाजिक मर्यादाओं तक की चूलें हिल जाती हैं."(शर्मा, ऋषभदेव. (2017). कथाकारों की दुनिया. भारत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन पृ.363). साथ ही, इस महत्वपूर्ण जानकारी को हिंदी जगत तक पहुँचाने का श्रेय डॉ. ऋषभदेव शर्मा और उनकी पुस्तक ‘कथाकारों की दुनिया’ को जाता है कि "आत्मप्रचार से दूर रहकर निरंतर साहित्य सेवा में रत रहे कथाकार मीनन के इस पर्याप्त चर्चित तेलुगु उपन्यास का हिंदी में जी.परमेश्वर ने अत्यंत मनोयोगपूर्वक अनुवाद किया है." (वही. पृ. 364).
`काम' भावना मनुष्य की आदिम भावना है. यह मनुष्य की व्यक्तिगत आवश्यकता होने के साथ-साथ संसार के विकास चक्र को बढाने के लिए सामाजिक आवश्यकता भी है. लेकिन यही भावना अनैतिक रूप धारण कर ले तो एड्स किसी भी व्यक्ति के जीवन को `इमारत के खंडहर' का रूप प्रदान कर सकता है. तेलुगु कथाकार सैयद सलीम के उपन्यास `नई इमारत के खंडहर' के विवेचन के रूप में लेखक ने हिंदी पाठकों की दुनिया को एक उत्कृष्ट उपहार प्रदान किया है.
जीवन कब किस मोड़ पर घूमे यह तो किसी को नहीं पता. ऐसे में बदलते समय के परिदृश्य में मनुष्य की कुछ अतृप्त आकांक्षाएँ-वासनाएँ क्या हमेशा ही नाजायज और टुच्ची कहला सकती है. ‘कथाकारों की दुनिया’ कहती है - `नहीं'. स्त्री-पुरुष दोस्त हो सकते हैं, विवाहेतर संबंध भी पवित्र हो सकता है. असल में परिस्थितियों की जाँच-पड़ताल करना आवश्यक है और उससे भी अधिक आवश्यक है किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन न करना. अनामिका के उपन्यासों में यह बात पाई जाती है. "लेखिका ने विवाहेतर संबंधों को सदा हेय और घृणित मानने की पुरुषवादी मानसिकता का भी प्रत्याख्यान किया है."(वही. पृ. 96). ‘अवांतर कथा’ की नायिका वसुंधरा के वैयक्तिक मतामत को इस संदर्भ में देखा जा सकता है-"आसक्ति हमेशा टुच्ची हो, जरूरी तो नहीं. उदात्त और परिष्कृत, गंभीर और व्यापक प्रेम इतना नायाब तो नहीं. फिर लोगों को विश्वास करते इतनी देर क्यों लग जाती है कि स्त्री और पुरुष का संबंध विवाह के पार भी शुभ और सच्चा हो सकता है."(वही. पृ. 96).
`कथाकारों की दुनिया' ने बहुत स्पष्ट रूप में इस सच्चाई को सबके सामने रखा है कि "इक्कीसवीं सदी की स्त्री अपने अधिकारों और अपनी अस्मिता की चाह को सुदृढ बनाने के लिये तत्पर है. समान शैक्षिक अवसर और समान आर्थिक स्वावंबन के अपने अधिकार के लिए वह समाज, घर और परिवार से टकराने में पीछे नहीं हट रही है." (वही. पृ.93). लेकिन ‘’इसका अर्थ यही नहीं कि उसे पुरुषविहीन दुनिया चाहिए. नहीं, उसे ऐसी शोषणविहीन, सुंदर और समन्वित दुनिया चाहिए जिसमें स्त्री-पु रुष का भेदभाव न हो."(वही. पृ. 93).
आज के `कथाकारों की दुनिया' में हर एक विषय को लेकर विमर्श की एक परंपरा निकल पड़ी है. यह विमर्श प्रायः नारेबाज़ी, आरोप-प्रत्यारोप को लेकर ही शुरू होता है. लेकिन डॉ. शर्मा ने अपनी पुस्तक में कहीं भी नारेबाजी करनेवालों या विमर्श के नाम पर ख्याली पुलाव बनानेवालों को स्थान नहीं दिया है. उन्होंने लीक से हटकर बिना फतवेबाजी के निराला की रचना `कुल्लीभाट' को समलैंगिक विमर्श के संदर्भ में स्थापित किया है. "सोलह साल की अवस्था में निराला गौने के बाद पत्नी को लिवा लाने ससुराल गए तो डलमऊ स्टेशन पर उतरते ही इक्का-मालिक कुल्ली से उनकी मुलाकात हुई और सास की नसीहत के बावजूद दोनों में शीघ्र घनिष्ठता हो गई. कुल्ली यौन विकृति का शिकार था. उसने एकांत में निराला के प्रति अपने आकर्षण को व्यक्त भी किया."(वही. पृ. 115). डॉ. शर्मा बताते हैं कि सन् 1939 में रचित लघु उपन्यास ‘कुल्लीभाट’ आत्मकथा और संस्मरण के रंग में रँगा हुआ है. उनके अनुसार `कुल्लीभाट' हिंदी में किन्नर विमर्श अथवा समलैंगिक विमर्श की आहट बहुत शांत तरीके से सुनानेवाला उपन्यास है.
ये तो केवल कुछ विशेष झलकियाँ हैं. लेकिन यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं कि "कथाकारों की दुनिया' ग्रंथ साहित्य के शोधकर्ताओं के लिए अकादमिक महत्व का तो है ही, साथ ही अध्येताओं के लिये यह हिंदी कथा-साहित्य के अनछुए पहलुओं की ओर गैर-पारंपरिक विचारदृष्टि विकसित करने में सहायक सिद्ध होगा." (वेंकटेश्वर, एम.. अभिमत. शर्मा, ऋषभदेव. (2017). कथाकारों की दुनिया. भारत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन. पृ.VII).
392 पृष्ठोंवाली डॉ. शर्मा की इस पुस्तक `कथाकारों की दुनिया' में तमिल कहानी के उद्भव और विकासयात्रा की जानकारी भी प्रदान की गई है तथा तेलुगु की कथाकृतियों की भी विवेचना की गई है,. यह इस पुस्तक की अपनी एक निजी विशेषता है जिससे इसकी उपादेयता और संग्रहणीयता बढ़ गई है.
पुस्तक का नाम : कथाकारों की दुनिया
लेखक : ऋषभदेव शर्मा
प्रथम संस्करण : 2017
मूल्य : रु.800/-
पृष्ठ : 392 (सजिल्द)
प्रकाशक : तक्षशिला प्रकाशन,
दरियागंज, नई दिल्ली – 110002.