हिन्दी कविता का इतिहास कम से कम एक हजार वर्ष या उससे कुछ
अधिक पुराना है| वर्त्तमान समय में यह प्रश्न बार-बार उठाया जाता है कि विज्ञान और
प्रौद्योगिकी के तेज चाल वाले जमाने में कविता के लिए कहाँ जगह बची है? जीवन इतना
अधिक गद्यमय हो गया है कि स्वयं कविता में भी गद्य
भर गया है| ऐसी स्थिति में कविता रचने, पढ़ने और पढ़ाने की
क्या जरूरत है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए डा.ऋषभदेव शर्मा और डा.पूर्णिमा
शर्मा की सद्यःप्रकाशित पुस्तक ‘कविता के पक्ष में’ (2016) को पढ़ा जाए तो निराश नहीं होना पड़ेगा | यह प्रश्न इस समीक्षा
पुस्तक के केंद्र में है कि 'कविता की आवश्यकता किसी समाज को क्यों होती
है?' अथवा 'कविता का धर्म और प्रयोजन क्या है?' लेखकद्वय ने हिन्दी की सहस्रवर्षी काव्ययात्रा
का अनुशीलन करके यह बताया है कि कविता का चरम प्रयोजन मनुष्य और मनुष्यता की रक्षा
करना है | वे कविता को मनुष्यता की सुरक्षा चट्टान मानते हैं| ‘कविता के पक्ष में’
शीर्षक विवेच्य पुस्तक का केन्द्रीय विचार हिन्दी कविता के इसी जीवनकेन्द्रित, जन-पक्षधर
और मूल्यनिष्ठ स्वरूप की पहचान कराना प्रतीत होता है |
376 पृष्ठों वाले इस ग्रन्थ की सामग्री को दस खंडों में
ऐतिहासिक क्रम में प्रस्तुत किया गया है|
पहले खंड ‘गगन मंडल में ऊँधा कुआँ’ में
आदिकाल के चार कवियों गोरखनाथ,चंदरबरदाई, अमीर खुसरो और विद्यापति के हवाले से यह
दर्शाया गया है कि हिन्दी कविता का आरम्भ सामाजिक-राजनैतिक चेतना और लौकिक व
पारलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति की प्रबलता से हुआ|
‘सुरसरि सम
सब कहँ हित होई’ शीर्षक दूसरे खंड में भक्तिकाल के प्रमुख कवियों की चर्चा है जिनमें
कबीर, नानक, जायसी, सूरदास, तुलसीदास, मीरा और रहीम शामिल हैं| यहाँ यह दर्शाया
गया है कि हिन्दी कवियों का भक्ति काव्य एक समाज-सापेक्ष आन्दोलन खड़ा करता है और
खंडित होते हुए समाज की रक्षा के लिए धर्म और अध्यात्म का प्रयोग करता है|
तीसरा खंड
‘ज्यों नावक के तीर’ बहुत छोटा सा है| इसमें रीतिकाल के शीर्षस्थ कवि बिहारी के साथ संत-सिपाही कवि गुरु गोविन्द
सिंह शामिल हैं| गुरु गोविन्द सिंह के ‘चंडी चरित्र’ की चर्चा इस खंड को वास्तव
में विशिष्ट बनाती है|
चौथे खंड ‘हम
कौन थे क्या हो गए हैं’ मैं भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त और बालकृष्ण शर्मा नवीन शामिल
है| अर्थात भारतेंदु युग और दुवेदी युग की कविता के साथ राष्ट्रीय सांस्कृतिक
काव्यधाराकी विवेचना, नवजागरण और स्वाधीनता आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में की गई है|
पुस्तक का पाँचवाँ
खंड है ‘बीती विभावरी जाग री’| यहाँ चार प्रमुख छायावादी साहित्यकारों के साथ-साथ
उत्तरछायावाद काल के बच्चन जी उपस्थित हैं| इन कवियों की सांस्कृतिक चेतना और
मानवतावादी विश्वदृष्टि इस खंड में उभरती है|
‘कलम देश की
बड़ी शक्ति है’ शीर्षक छठे खंड में दिनकर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जैसे प्रगतिवादी कवियों की युगीन चेतना पर प्रकाश डाला गया है|
नई कविता पर
केन्द्रित सांतवे खंड का शीर्षक है ‘भेद खोलेगी बात ही’| इस खंड में शमशेर, अज्ञेय,
मुक्तिबोध, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह के कविकर्म की
विस्तृत विवेचना करते हुए इसमें आधुनिक बोध और नए मनुष्य की परिकल्पना को उजागर
किया गया है|
आठवां खंड राजकमल
चौधरी, धूमिल श्रीकांत वर्मा और दुष्यंत कुमार पर केन्द्रित है| ‘भाषा में आदमी
होने की तमीज’ शीर्षक यह खंड समकालीन कविता के विद्रोही राजनैतिक प्रस्थान की
पड़ताल करता है|
‘आपसे क्या कुछ
छिपाएँ’ शीर्षक नौंवें खंड में राजेश जोशी, देवराज और अरुण कमल जैसे पिछली शताब्दी
के अंतिम दो दशकों में उभरे तीन कवियों की कविता की मीमांसा की गई है जिन्होंने
समकालीन चेतना को जन-पक्ष में अभिव्यक्त किया है|
पुस्तक का
अंतिम (दसवाँ) खंड है ‘हम भी मुँह में ज़बान रखते है’| इस खंड में हिन्दी की
विमर्शीय कविता के चार नए लोकतांत्रिक केन्द्रों से सम्बन्धित विवेचन शामिल है| जगदीश
सुधाकर जहाँ कस्बाई जनविमर्श का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं अनामिका स्त्रीविमर्श,
ओमप्रकाश वाल्मीकि दलितविमर्श और निर्मला पुत्तुल
आदिवासी विमर्श के प्रतिनिधि रचनाकार हैं|
इस प्रकार विवेच्य
ग्रन्थ में हिन्दी के गुरु गोरखनाथ से लेकर निर्मला पूतुल तक की कविता के साक्ष्य के
सहारे ‘कविता के पक्ष में’ एक जीवंत बहस को साकार रूप दिया गया है| हिन्दी कविता
के अध्येताओं के लिए यह ग्रन्थ अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा|
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‘कविता के पक्ष में’ / ऋषभदेव शर्मा और पूर्णिमा शर्मा / तक्षशिला प्रकाशन,
अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली–110002 / प्रथम संस्करण–2016 / 750 रुपए / 376 पृष्ठ (सजिल्द)
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समीक्षक : डॉ. अर्पणा दीप्ति
वासवी स्क्वायर, बी- 506,स्ट्रीट नं.
82, वेंकटेश्वर एन्क्लेव के पास,
वेनल गड्डा, सुचित्रा जंक्शन, हैदराबाद – 110 064 (तेलंगाना)
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