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शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

[पुस्तक] 'कविता के पक्ष में' : अनुक्रमणिका

कविता के पक्ष में 
ऋषभदेव शर्मा और पूर्णिमा शर्मा
आईएसबीएन - 9788179652596
2016

तक्षशिला प्रकाशन,
98 ए, हिंदी पार्क, दरियागंज,
नई दिल्ली - 110002
376 पृष्ठ, सजिल्द
750 रुपए
अनुक्रम

भूमिका 

खंड 1 
गगन मंडल में ऊँधा कूवा 

1. ऐसे मन लै जोगी खेलै : गोरखनाथ 
2. गोरी रत्तउ तुव धरा तूं गोरी अनुरत्त : चंदबरदायी 
3. चु मन तूतिए-हिंदम : अमीर खुसरो 
4. देख-देख राधा रूप अपार : विद्यापति 

खंड 2 
सुरसरि सम सब कहँ हित होई 

1. कहत कबीर सुनो भई साधो! : कबीर 
2. यह तो घर है प्रेम का : कबीर 
3. हम न मरैं मरिहै संसारा : कबीर 
4. खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराइआ : नानक 
5. नयन जो देखा कँवल भा : जायसी 
6. प्रेम बंध्यो संसार प्रेम परमारथ पैये : सूरदास 
7. सूरदास प्रभु राधामाधव ब्रज बिहार नित नई नई : सूरदास 
8. मातु-पिता जग जाइ तज्यौ : तुलसीदास 
9. बैर न कर काहू सन कोई : तुलसीदास 
10. रामहि केवल प्रेमु पिआरा : तुलसीदास 
11. नहिं दरिद्र सम दुःख जग माहीं : तुलसीदास 
12. मीराँ की हरि पीर मिटे जब वैद साँवरिया होय : मीराँ 
13. यारो, यारी छोड़िए, वे रहीम अब नाहिं : रहीम 

खंड 3  
ज्यों नावक के तीर 

1. भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सों बात : बिहारी 
2. न डरौं अरि सौं जब जाइ लरौं : गोबिंद सिंह 

खंड 4 
हम कौन थे, क्या हो गए हैं 

1. पै धन बिदेश चलि जात : भारतेंदु 
2. कवियो! उठो अब तो अहो : मैथिलीशरण गुप्त 
3. कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ : बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ 

खंड 5 
बीती विभावरी जाग री

1. हिमाद्रि तुंग शृंग से : जयशंकर प्रसाद 
2. यह विश्व कर्म रंगस्थल है : जयशंकर प्रसाद 
3. नित्य नूतनता का आनंद : जयशंकर प्रसाद 
4. रँग गई पग-पग धन्य धरा : निराला 
5. वियोगी होगा पहला कवि : सुमित्रानंदन पंत 
6. बालिका मेरी मनोरम मित्र थी : सुमित्रानंदन पंत 
7. ऐसा पक्षी जिसमें हो संपूर्ण संतुलन : पंत 
8. छाया सरस वसंत विपिन में : महादेवी वर्मा 
9. यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है : बच्चन 
10. पीड़ा में आनंद जिसे हो : बच्चन 

खंड 6  
कलम देश की बड़ी शक्ति है 

1. होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो : दिनकर 
2. मानवों का मन गले पिघले अनल की धार है : दिनकर 
3. मेरी भी आभा है इसमें : नागार्जुन 
4. काश, मैं भी फूलता, मेरे भाई अनार : केदारनाथ अग्रवाल 
5. भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है : त्रिलोचन 
6. मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है : शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ 

खंड 7 
भेद खोलेगी बात ही 

1. लेकिन बहुत सादा सांवलापन : शमशेर 
2. दुःख सबको माँजता है : अज्ञेय 
3. तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब : मुक्तिबोध 
4. केवल थोड़ी-सी हरकत ज़रूरी है : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 
5. जान बूझकर चीखना होगा ज़िंदा रहने के लिए : रघुवीर सहाय 
6. माटी को हक दो : केदारनाथ सिंह 

खंड 8 
भाषा में आदमी होने की तमीज़ 

1. मैं कबीरदास नहीं, दासों का दास कवि हूँ : राजकमल चौधरी 
2. और विपक्ष में सिर्फ कविता है : धूमिल 
3. लिखने का मतलब है नरक से गुज़रना : श्रीकांत वर्मा 
4. मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ : दुष्यंत कुमार 

खंड 9 
आपसे क्या कुछ छिपाएँ 

1. यहाँ आने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर आना : राजेश जोशी 
2. शब्द को पत्थर सरीखा आजमाने का समय है : देवराज 
3. इसलिए कि मेरी नाभि में कस्तूरी थी : अरुण कमल 

खंड 10 
‘हम’ भी मुँह में ज़बान रखते हैं 

1. कुर्सी हाय हाय हाय : जगदीश सुधाकर 
2. छाले हैं छालों के भीतर : अनामिका 
3. मेरे शब्द सीख जाएँ असहमति में सिर हिलाना : ओमप्रकाश वाल्मीकि 
4. चाहती हूँ मैं, नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द : निर्मला पुतुल 

बुधवार, 13 जनवरी 2016

[पुस्तक] कविता के पक्ष में







 '' कविता के पक्ष में/ 
ऋषभदेव शर्मा और पूर्णिमा शर्मा/ 
आईएसबीएन -
9788179652596 / 
2016/ 
तक्षशिला प्रकाशन,
 98 ए, हिंदी पार्क, दरियागंज, 
नई दिल्ली - 110002 / 
376 पृष्ठ, सजिल्द/ 
750 रुपए",





पुस्तक के बारे में 

कविता जीवन के सर्वाधिक निकट स्थापित वह प्रकाशपुंज है, जिससे मनुष्य को सदा संचेतना मिलती रही है. युग जीवन को अपने में समेटना, समय के सत्य को पकड़ना, मनुष्य को बिना किसी लाग-लपेट के संबोधित करना, प्रकाश और उष्णता की संघर्षशील संस्कृति की स्थापना करना और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दायित्व बोध का विकास करके क्रांति की भूमिका तैयार करना – कविता का लोकतांत्रिक दायित्व है. जिस युग की कविता इससे अलग भूमिका स्वीकार कर लेती है, वह युग अव्यवस्था से भर उठता है. ठीक है कि मनोरंजन भी कवि का धर्म है लेकिन गौण.

हिंदी कविता को विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखने पर यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि अनेक उतार चढ़ावों से भरी होने के बावजूद वह हर काल में मानवता की सुरक्षा चट्टान बनकर जीवन मूल्यों की रक्षा करती रही है. ‘’कविता के पक्ष में’’ शीर्षक इस पुस्तक का केंद्रीय विचार हिंदी कविता के इसी जीवन केंद्रित, जन पक्षधर और मूल्यनिष्ठ स्वरूप की पहचान कराना है. तमाम तरह की मृत्यु-घोषणाओं के बावजूद आज भी कविता मनुष्यता की मातृभाषा है और उसके सौंदर्यबोध को परिष्कृत तथा मनोवृत्तियों को उदात्त बनाने का सामर्थ्य रखती है.

एक हजार बरसों से अधिक के हिंदी कविता के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसकी प्राणधारा सूख गई हो. लोक से लगाव ने कभी उसे पूरी तरह निष्प्राण नहीं होने दिया – कभी उसका पाट ग्रीष्म ऋतु की नदी की तरह सिकुड़ भले ही गया हो. उसने कभी अपने चरम लक्ष्य अर्थात मनुष्य को दृष्टि से ओझल नहीं ही होने दिया. निश्चय ही हिंदी कविता की कालजयी प्रासंगिकता  के पक्ष में यही सबसे बड़ा तर्क है. इस पुस्तक में बड़ी सहजता से और बिना किसी वाद-विवाद के, हिंदी कविता की इस केंद्रीय शक्ति को उभारा गया है.

दस खंडों में सुनियोजित रूप से प्रस्तुत यह पुस्तक आदि काल से लेकर आज तक की हिंदी कविता के ऊर्जा-बिंदुओं की पहचान सरल-सुबोध भाषा-शैली में कराती चलती है. पहले खंड में नाथ-सिद्ध साहित्य, रासो साहित्य, लौकिक साहित्य और भक्ति व शृंगार की पूर्वापर परंपरा की कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया गया है. आगे की तमाम वस्तुगत और शिल्पगत प्रवृत्तियां इस काल में बीज रूप में दीख जाती हैं जिनके विकास को दूसरे और तीसरे खंडों में क्रमशः भक्ति और रीतिकालीन कवियों के संदर्भ में विवेचित किया गया है.

पुस्तक के चौथे खंड में आधुनिक काल के भारतेंदु और द्विवेदी युग की कविता की नवजागरण जनित प्रवृत्तियों को तथा पांचवें खंड में छायावाद से नाभिनालबद्ध राष्ट्रीय पहचान की खोज की गांधीयुगीन प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के लिए इन युगों के प्रतिनिधि कवियों के प्रदेय की पड़ताल की गई है. इसके बाद हिंदी कविता ने प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता, समकालीन कविता, जनपक्षीय कविता और विमर्शीय कविता के जो नए नए अवतार ग्रहण किए उनके सरोकारों की समीक्षा छठे से दसवें खंडों तक की गई है.


इसमें संदेह नहीं कि पाठकों को हिंदी कविता के विकास के विविध चरणों और प्रमुख कवियों के योगदान को समझने के लिए ‘’कविता के पक्ष में’’ बेहद पठनीय और ज़रूरी किताब प्रतीत होगी  क्योंकि इसमें वादमुक्त चिंतन, वस्तुनिष्ठ विवेचन और काव्यभाषा के माध्यम से कविता के मर्म तक पहुँचने का सफल प्रयास निहित है.      


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