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बुधवार, 4 जून 2014

परमप्रेम रूपा है भक्ति

भक्ति प्रेम की उच्चतम स्थिति का नाम है. वह परमप्रेम रूपा है. यों भी कहा जाता है कि प्रेम के साथ जब श्रद्धा का योग हो जाता है तो प्रेमी भक्ति की ओर अग्रसर होने लगता है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसकी व्याख्या करते हुए ठीक ही कहा है कि “जब पूज्य भाव की वृद्धि के साथ श्रद्धाभाजन से सामीप्यलाभ की प्रवृत्ति हो, उसकी सत्ता के कई रूपों के साक्षात्कार की वासना हो, तब ह्रदय में भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिए. जब श्रद्धेय के दर्शन, श्रवण, कीर्तन, ध्यान आदि से ही आनंद का अनुभव न हो, जब उससे संबंध रखने वाले श्रद्धा के विषयों के अतिरिक्त बातों की ओर भी मन आकर्षित होने लगे, तब भक्ति रस का संचार समझना चाहिए. जब श्रद्धेय का उठाना, चलना, फिरना, हँसना, बोलना, क्रोध करना आदि भी हमें अच्छा लगने लगे तब हम समझ लें कि हम उसके भक्त हो गए.”

श्रद्धा और प्रेम का यह दुर्लभ संयोग जिसके अनुभव में आ गया वह ही सच्चा भक्त है. कबीर हों या मीरा, आंडाल हों या रामदासु – उनका जीवन भक्ति के इसी परम प्रेममय स्वरूप का दर्शन कराता है. कबीर के वचन इस परमप्रेम को तरह तरह से समझाने की कोशिश करते प्रतीत होते हैं. कबीर के लिए प्रेम ऐसी ज्योति है जिसके प्रकाशित होने से अनंत योग का जागरण हो जाता है. यह प्रकाश संशय को जड़ से मिटा देता है क्योंकि प्रेम और संशय एक साथ रह नहीं सकते. संशय मिटा तो समझो कि प्रिय आन मिला. यह प्रिय कबीर के लिए दुलहिन आत्मा का कंत राजाराम भरतार है. उसके आने की सूचना मिलते ही भक्त का मन नाचने लगता है, मंगलाचरण गूँजने लगते हैं.

कैसे पाता है कोई कबीर अपने इस भरतार को? प्रेम से. क्या है प्रेम? कबीर बताते हैं कि प्रिय के हिय में प्रवेश के लिए बस एक शर्त है. प्रेमी को केवल इतना करना होगा कि अपने सिर को उतार कर धरती पर रख दे. बहुत नीचा है इस घर का दरवाज़ा, सिर उठा कर आप इसमें घुस नहीं सकते. सिर ज़मीन पर रखा, अहं रहित हुए तो यह दरवाज़ा खुद ब खुद खुल जाता है. विचित्र दरवाज़ा है. सांकल भीतर की तरफ लगी है और खुलता बाहर से है. बाहर से खोलने के लिए ज्ञान काम नहीं आता, पांडित्य का वश नहीं चलता. समर्पण काम आता है, प्रेम के ढाई आखर का एकमात्र मंत्र चलता है.

पंडित-ज्ञानी भला क्या प्रेम करेंगे? वे तो ज्ञान के रास्ते चलते हैं और अज्ञात तत्व को खोजते हैं. कबीर जैसे भक्त प्रेम के रास्ते चलते हैं और खुद को खोकर प्रिय को पाते हैं. भक्ति का मोती डूबने से मिलता है, गहरे पैठने से मिलता है, किनारे बैठे रहने से नहीं. गहरे पैठोगे, तो ही साक्षात्कार संभव होगा. इस साक्षात्कार का रहस्य भी कबीर संकेत से समझा गए हैं. बस इतना करना है कि अपने अंतर्चक्षुओं को प्रिय मिलन का कक्ष बना लेना है. पुतलियाँ सेज बन जाएँगी. पलकें आप से आप पर्दे गिरा देंगी. इस एकाग्र मनोदशा में ही उस प्रिय को रिझाना है –
पिंजर प्रेम प्रकासिया, जाग्या जोग अनंत
संसा खूटा सुख भया, मिल्या पियारा कंत
 
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं
शीश उतारे भुईं धरे, सो पैठे इहि माहि
 
पोथी पढि-पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय
 
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरी बूड़न डरी, रही किनारे बैठ
 
नयनन की कर कोठरी, पुतली पलंग बिछाय
पलकों की चिक डारिके, पिय को लियो रिझाय

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